लक्ष्मण n. (सो. कुरु,) दुर्योधन का एक पुत्र
[म. उ. १६३.१४] यह महारथि था, एवं कौरवसेना में इसकी श्रेणी ‘रथसत्तम’ थी । भारतीय युद्ध में अभिमन्यु के साथ हुए युद्ध में यह परास्त हुआ था
[म. भी. ५१.८-११, ६९.३०-३६] अन्त में अभिमन्यु के द्वारा ही इसका वध हुआ था
[म. द्रो. ४५. १७] वध के पूर्व, निम्नलिखित योद्धाओं के साथ युद्ध कर इसने काफी पराक्रम दिखाया था
लक्ष्मण (दाशरथि) n. राम दाशरथि राजा का कनिष्ठ बन्धु, जो अयोध्या के दशरथ राजा को सुमित्रा से उत्पन्न दो पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र था । इसके कनिष्ठ बन्धु का नाम शत्रुघ्न था । किन्तु इसकी विशेष आत्मीयता अपने ज्येष्ठ सापत्न बन्धु राम दाशरथि की ओर ही थी, जैसे इसके छोटे बन्धु शत्रुध्न की सारी आत्मीयता भरत की ओर थी । इसी कारण राम एवं लक्ष्मण, तथा भरत एवं शत्रुघ्न का स्नेहभाव प्राचीन भारतीय इतिहास में बन्धुप्रेम एवं बन्धुनिष्ठा का एक उच्चतम प्रतीक बन गया है । अपने ज्येष्ठ भाई राम के सुख एवं रक्षा के लिए तत्पर रहनेवाले एक आदर्श कनिष्ठ बन्धु के रुप में, लक्ष्मण का चरित्रचित्रण वाल्मीकिरामायण में किया गया है । इस ग्रंथ में वर्णित लक्ष्मण वृद्धों की सेवा करनेवाला, समर्थ, एवं मितभाषी है । अपने सौम्य स्वभाव, पवित्र आचरण, एवं सत्कार्यदक्षता के कारण यह राम को अत्यंत प्रिय था
[वा. रा. सुं. ३८.५९-६१] लक्ष्मण (दाशरथि) n. इसके लक्ष्मण नाम की निरुक्ति वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है । यह लक्ष्मी का वर्धन करनेवाला लक्ष्मीवर्धन, अथवा लक्ष्मी से युक्त लक्ष्मीसंपन्न होने के कारण, वसिष्ठ के द्वारा इसका नाम लक्ष्मण रक्खा गया
[वा. रा. वा. १८.२८, ३०] यह शुभलक्षणी होने के कारण, इसे लक्ष्मण नाम प्राप्त होने की कथा भी कई पुराणों में प्राप्त है
[पद्म. उ. २६९] किन्तु इसके नाम की ये सारी निरुक्तियाँ कल्पनारम्य प्रतीत होती है ।
लक्ष्मण (दाशरथि) n. दशरथ राजा के पुत्रकामेष्टि यज्ञ से जो पायस कौसल्या को प्राप्त हुआ था, उसी पायसके अंश से लक्ष्मण का जन्म हुआ था
[अ. रा. बा. ३.४२] इस कारण, लक्ष्मण बाल्यकाल से ही राम पर अत्यधिक प्रेम करता था । बाल्यकाल में राम जब मृगया खेलने जाता था, तब लक्ष्मण धनुष ले कर इसके साथ जाता था, एवं उसकी रक्षा करता था । सुबाहु एवं मारीच राक्षसों को परास्त कर, विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने के लिए यह भी राम के साथ गया था । इस कार्य मे यशस्विता प्राप्त करने के पश्वात्, यह भी राम के साथ मिथिला नगरी में सीता स्वयंवर के लिये उपस्थित हुआ था । वहाँ राम एवं सीता के विवाहमंडप में, इसका विवाह सीरध्वज जनक की कन्या उर्मिला से संपन्न हुआ
[वा. रा. बा.६७-७३] ; राम दाशरथि देखिये
लक्ष्मण (दाशरथि) n. अपने पिता की वचनपूर्ति के लिए राम ने चौदह वर्षों का वनवास स्वीकार लिया । अपने पिता के द्वारा ही राम को वनगमन का आदेश दिया गया है, यह सुन कर लक्ष्मण दशरथ से अत्यंत क्रुद्ध हुआ, एवं इसने उसकी अत्यंत कटु आलोचना की । यहीं नहीं, राम को अयोध्या के सिंहासन पर बिठाने के लिए, यह अपने पिता, भाई आदि लोगों का वध करने के लिए भी सिद्ध हुआ । किंतु राम वनवास जाने के अपने निश्चय पर अटल रहा । फिर राम के साथ वनवास जाने का अपना निश्चय प्रकट करते हुए, इसने अपनी माता सुमित्रा से कहा --- अनुरक्तोऽस्मि भावेन भ्रातरं देवि तत्त्वत: । सत्येन धनुषा चैव दत्तेनेष्टेन ते शपे ॥ दीप्तमग्निमरण्यं वा यदि राम प्रवेक्ष्यति । प्रविष्ट तत्र मां देवि त्वं पूर्वमवधारय ॥
[वा. रा. अयो. २१.१६-१७] राम में मेरी मक्तिपूर्ण सच्ची प्रीति है । सत्य से, धनुष से, दान से, तथा इष्ट से तेरी शपथ खाता हूँ कि, जलती हुई अग्नि में वा वन में यदि राम जायेंगे, तों तुम मुझे उनके पहले गया समझना । राम को पिता की आज्ञा में तत्पर देख, लक्ष्मण ने राम के साथ वनवास में जाना अपना कर्तव्य मान लिया, एवं यह वनगमन के लिए सिद्ध हुआ । राम के साथ वन जाने का हठ करते हुए इसने कहा ---धनुरादाथ सशरं खनित्रपिटकाधर: । अग्नतस्ते गमिष्यामि पन्थानमनुदर्शयन् ॥
[वा. रा. अयो. ३१.२५] धनुष धारण कर, एवं हाथ में कुदाली तथा फावडा लिए, मैं आप लोगों का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आगे रहूँगा । इसने राम से आगे कहा, ‘वन में, तुम्हारे लिए कंद, मूल, फल, एवं तपस्वियों को देने के लिए होम के आवश्यक पदार्थ मैं तुम्हे ला कर दूँगा । जागृत तथा निद्रित अवस्था में मैं सदैव तुम्हारी ही सेवा करता रहूँगा’
[वा. रा. अयो. ३१.२६-२७] लक्ष्मण (दाशरथि) n. वनवास के पहले दिन के अन्त में, राम ने इसे पुन: एकबार बनवास न आने की प्रार्थना की । किन्तु इसने कहा, ‘तुम्हारे वियोग में मुझे एक दिन भी रहना असंभव है; पानी के बिना मछली एक पल भर भी नहीं रह सकती है, वैसी ही मेरी अवस्था होगी
[वा.रा.अयो. ५३.३१] वन में विचरते समय, सीता के आगे राम, एवं पीछे लक्ष्मण इस क्रम से ये चलते थे
[वा. रा. अयो. ५२.९४-९६] यह हर प्रकार राम की सेवा करता था । यह नदियों पर लकडी के सेतु बाँध कर दूर त्थित नदी से पानी लाता था । राम की चित्रकूट एवं पंचवटी में स्थित पर्णशाला इसने ही बाँधी थी ।
[वा. रा. अयो. ९९.१०] राम उब बाहर जाता था, तब यह सीता-संरक्षण के लिए उसके साथ रहता था ।
लक्ष्मण (दाशरथि) n. जनस्थान में स्थित पंचवटी प्रदेश में राक्षसों का प्राबल्य देख कर, इसने राक्षससंग्राम करने से राम को पुन: पुन: मना किया था । आगे चल कर, राम की आज्ञा से इसने शूर्पणखा राक्षसी के नाक काट कर उसे विरूप कर दिया
[वा.रा. अर. १८] इसी कारण, क्रुद्ध हो कर, रावण ने मायामृग की सहाय्यता से सीता हरण करने के लिए जनस्थान में प्रवेश किया । मायामृग के संबंध में लक्ष्मण ने राम को पुन: पुन: चेतावनी दी, किन्तु राम ने इसकी एक न सुनी । मायामृग के पीछे राम के चले जाने पर, यह सीता के संरक्षण के लिए पर्णकुटी में ही बैठा रहा । किन्तु सीता ने इसे राम के पीछे न जाने के कारण, इसकी कटु आलोचना की, जिस कारण विवश हो कर सीता को छोड कर इसे राम के पीछे जाना पडा । यही अवसर पा कर रावण ने सीता का हरण किया (राम दाशरथि देखिये) ।
लक्ष्मण (दाशरथि) n. सीताहरण का वृत्त सुन कर, राम क्रुद्ध हो कर त्रैलोक्य को दग्ध करने के लिए तैयार हुआ । उस समय इसने राम को सांत्वना दी एवं कहा --- सुमहान्स्थपि भूतानि देवाश्व पुरुषर्षभ । न दैवस्थ प्रमुञ्चन्ति सर्वभूतानि देहिन: ॥
[वा. रा. अर. ६६.११] इस सृष्टि के सारे श्रेष्ठ लोग एवं साक्षात् देव भी दैवजात दु:खों से छुटकारां नही पा सकते । इसी कारण इन दु:खों से कष्टी नही होना चाहिए ।
लक्ष्मण (दाशरथि) n. सीता की खोज में कमश: जटायु, अयोमुखी, कबंध एवं शबरी आदि से मिल कर यह, राम के साथ पंपासरोवर के किनारे पहुँचे गया । वहाँ पहुँचते ही सीता के विरह में शोक करनेवाले राम को इसने अति स्नेह के दुष्परिणाम समझाते हुए कहा, ‘इस सृष्टि में प्रिय वृक्तियों का विरह अटल है, यह जान कर तुम्हें अपने मन को काबू में रखना आवश्यक है
[वा. रा. कि.१.१६] । ऋष्यमूक पर्वत पर रहनेवाले सुग्रीव आदि वानरो ने, सीता के द्वारा अपने उत्तरीय में बाँध कर फेंके गयें अलंकार इन्हें दिखायें । इस समय इसने सीता के समस्त अलंकारीं से केवल उसके नूपुर ही पहचान लिये, एवं कहा --- नाहं जानामि केथूरे, नाहं जानामि कुण्डले । नूपुरे त्वभिजानामि, नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥
[वा. रा. कि. ६.२२] मैं सीता के बाहुभूषण या कुण्डल नहीं पहचान सकता । किन्तु उसके नित्यपादवंदन के कारण, उसके केवल नूपुर ही पहचान सकता हूँ ।
लक्ष्मण (दाशरथि) n. राम-रावण युद्ध में राम का युद्ध-निपुण सलाहगार एवं मंत्री का कार्य यह निभाता रहा । युद्धा के शुरू में ही रावणपुत्र इंद्रजित् ने राम एवं लक्ष्मण को नागपाश में बाँध लिया, एवं इन्हें मूर्च्छित अवस्था में युद्धभूमि में छोड कर वह चला गया
[वा. रा. यु. ४२-४६] बाद में होश में आने पर, राम ने लक्ष्मण को मूर्च्छित देख कर, एवं इसे मृत समझ कर अत्यधिक विलाप करते हुए कहा, --- शक्या सीतासमा नारी मर्त्यलोके विचिन्वता । न लक्ष्मणसमो भ्राता सचिव: सांपरायिक: ॥
[वा. रा. यु. ४९.६] इस मृत्युलोक में सीता के समान स्त्री दैववशात् मिलना संभव है । किन्तु मंत्री के समान कार्य करनेवाला, एवं युद्ध में निपुण लक्ष्मण जैसा भाई मिलना असंभव है । पश्वात गरुडके आने पर राम एवं लक्ष्मण नागपाश से विमुक्त हो कर, युद्ध के लिए पुनः सिद्ध हुये ।
लक्ष्मण (दाशरथि) n. रावण के पुत्र इंद्रजित के साथ राम एवं लक्ष्मण ने छ: बार युद्ध किया । इनमें से पहलें तीन बार इंद्रजित् के द्वारा अद्दश्य युद्ध किये गयें । चौथे युद्ध के पूर्व इंद्रजित् ने इस युद्ध में अजेय बनने के लिए यज्ञ प्रारंभ किया । किन्तु उस यज्ञ में बाधा डालने के लिए लक्ष्मण ने हनुमत्, अंगद आदि वानरों को साथ लें कर इंद्रजित् के सेना का संहार किया । उस समय अपना यज्ञ अधुरा छोड कर, वह लक्ष्मण के साथ द्वंद्वयुद्ध करने के लिए युद्धभूमि में प्रविष्ठ हुआ । इंद्रजित् के इस पंचम युद्ध में, लक्ष्मण ने उसके सारथि का वध किया, एवं उसे पैदल ही लंका को भाग जाने पर विवश किया । इन्द्रजित के साथ हुए अंतिम छठे युद्ध में, लक्ष्मण ने एक वटवृक्ष के नीचे ऐंद्र अस्त्र से उस का वध किया, जिस समय वह निकुंभिला के मंदिर से होम समाप्त कर बाहर निकल रहा था
[वा. रा. त्यु. ८५-८७] ;
[म. व. २७३.१६-२६] इंद्रजित् का वध करना अत्यधिक कठिन था । किन्तु विभीषण की सहायता से, इंद्रजितका अनुष्ठान पूर्ण होने के पूर्व ही उसका वध करने में यह यशस्वी हुआ । इंद्रजित् की मृत्यु से राम-रावण युद्ध का सारा रंग ही बदल गया । इंद्रजित् को ब्रह्मा से यह वरदान प्राप्त था कि, वह उसी व्यक्ति के द्वारा ही मर सकता है, जो बारह वर्ष तक आहार निद्रा लिये बगैर रहा हो । अयोध्यात्याग के उपरान्त वनवास के बारह वर्षों में, लक्ष्मण आहारनिद्रारहित अवस्था में रहा था, जिस कारण यह इंद्रजित् का वध कर सका
[आ. रा. सार. ११] इंद्रजित् के वध के पश्चात्, लक्ष्मण नें उसका दाहिना हाथ काट कर उसके घर की ओर फेंक दिया, एवं बाया हाथ रावण की ओर फेंक दिया । पश्वात् इसके द्वारा काटा गया इंद्रिजित का सर इसने राम को दिखाया
[आ. रा. १.११.१९०.-१९८] लक्ष्मण (दाशरथि) n. इंद्रजित् के अतिरिक्त लक्ष्मण ने निम्नलिखित राक्षसों का भी वध किया था---विरुपाक्ष
[वा. रा. शु.४३.] अतिकाय
[वा. रा. यु. ६९-७१] महाभारत के अनुसार कुंभकर्ण का वध भी लक्ष्मण के द्वारा हुआ था
[म.व. २७१.१७] ;
[स्कंद. सेतुमहात्म्य, ४४] किन्तु वाल्मीकिरामायण के अनुसार, कुंभकर्ण का वध राम के द्वारा ही हुआ था ।
लक्ष्मण (दाशरथि) n. इंद्रजित् के पश्चात्, रावण स्वयं युद्धभूमि में उतारा, जिसे समय लक्ष्मण ने विभीषण के साथ उसका सामना किया । इस युद्ध में रावण ने विभीषण की ओर एक शक्ति फेंकी, जिसे लक्ष्मण ने छिन्नविच्छिन्न कर दिया । पश्चात् रावण के द्वारा फेंकी गय़ी अमोषा शक्ति इसके छाती में लगी, जिससे यह मूर्च्छित हुआ । राम ने लक्ष्मण के छाती में घुसी हुई उस शक्ति को निकाल दिया, एवं सुषेण तथा हनुमत् के साहाय्य से यह पुन: स्वस्थ हुआ
[वा. रा. यु. १०२] लक्ष्मण (दाशरथि) n. राम को अयोध्या का राज्य पुन: प्राप्त होने पर, उसने लोकनिंदा के कारण, सीता का त्याग करने का निश्चय किया । उस समय, राजा के नाते उसका कर्तव्य बताते समय लक्ष्मण ने कहा, ‘सृष्टि का यही नियम है कि, यहाँ संयोग का अन्त वियोग में एवं जीवन का अन्त मृत्यु में होता है । पत्नी, पुत्र, मित्र एवं संपत्ति में अधिक आसक्ति रखने से दुःख ही दुःख उत्पन्न होता है । इसी कारण वियोग से उत्पन्न होनेवाले दुःख से भी कर्तव्य अधिक श्रेष्ठ है ।
लक्ष्मण (दाशरथि) n. लक्ष्मण के देहत्याग के संबंध में अनेक कथा वाल्मीकि रामायण में प्राप्त हैं । एक बार कालपुरुष एक तपस्वी के रूप में राम के पास आया, एवं उसने राम से यह प्रतिज्ञा करा ली कि, वह उससे एकान्त में बात-चित करेगा, जहाँ अन्य कोई व्यक्ति न हो । तब राम ने लक्ष्मण को द्वार पर खडा किया, एवं आज्ञा दी कि जो व्यक्ति अंदर आयेगा उसका वध किया जायेगा
[वा. रा. उ. १०३.१३] । एकान्त में कालपुरुष ने राम को ब्रह्मा का संदेश विदित किया कि, रामावतार की समाप्ति समीप आ रही है । इतने में दुर्वासस् ऋषि लक्ष्मण के पास आयें । उन्होने राम से उसी समय मिलने की इच्छा की, एवं कहा, ‘अगर मेरी यह इच्छा पूर्ण न होगी, तो राम, उसके तीन बन्धु एवं उनकी संतति को में शाप से नष्ट कर दूँगा’ । लक्ष्मण ने वंशनाश की अपेक्षा अपना ही नाश स्वीकरणीय समझा, एवं दुर्वासस् को राम के पास जाने के लिए अनुज्ञा दी । पश्चात राम ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, लक्ष्मण को देहत्याग करने की आज्ञा दी
[वा. रा. उ. १०६.१३] । इसकी मृत्यु के पश्चात् स्वयं इंद्र ने इसका शरीर स्वर्ग में ले लिया, एवं वहाँ उपस्थित देवताओं ने इसे विष्णु का चतुर्थांश मान कर इसकी पूजा की
[वा. रा. उ. १०३.-१०६] इसने जहाँ देहत्याग किया, वहाँ ‘सहस्त्रधारा’ नामक तीर्थ का निर्माण हुआ
[स्कंद. २.८.२] हिमालय की तराई में हृषिकेश नामक स्थान में एक मंदिर है, जहाँ लक्ष्मण-झूला नामक एक पूल है । इस स्थान के संबंध में एक कल्पनारम्य कथा प्राप्त है । लक्ष्मण स्वयं शेषनाग का अवतार था, एवं रावणपुत्र इंद्रजित की पत्नी सुलोचना शेषनाग की ही कन्या थी । इस कारण, एक द्दष्टि से इंद्रजित् इसका दामात होता था । रामरावण युद्ध में अपने दामात इंद्रजित का वध करने का जो पाप इसे लगा, इसके निष्कृति के लिए इसने हृषिकेश में एक हजार वर्षों तक वायुभक्षण कर के तप किया । लक्ष्मण के इस तपश्चर्या के स्थान में ही इसका यह मंदिर बनवाए जाने की लोकश्रुति प्राप्त है ।
लक्ष्मण (दाशरथि) n. अपनी उर्मिला नामक पत्नी से इसे अंगद एवं चंद्रकेतु नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए
[वा. रा. उ. १०२] ; राम दाशरथि देखिये
लक्ष्मण (दाशरथि) n. लक्ष्मण परमक्रोधी, शूरवीर था, एवं राम के प्रति अटूट भक्तिभावना रखता था । इसका क्रोधी स्वभाव दर्शनेवाले अनेक प्रसंग वाल्मीकिरामायण में प्राप्त हैं, जिनमें निम्नलिखित तीन प्रमुख हैं --- १) द्शरथ की आलोचना---राम के वनगमन के संबंध में अपने पिता दशरथ की आज्ञा सुन कर इसने दशरथ राजा की अत्यंत कटु आलोचना की । २) भरत से भेंट---राम के वनवासकाल में, भरत जब उससे मिलने आया, तब उसे शत्रु समझ कर, यह उससे युद्ध करने के लिए प्रवृत्त हुआ । ३) सुग्रीव की आलोचना---वालिवधके प्रश्वात्, राम को दी गयी अपनी आन भूल कर सुग्रीव विलास आदि में निमग्न हुआ । उस समय लक्ष्मण ने राम का संदेश सुना कर उसकी अत्यन्त कटु आलोचना की, एवं यह सुग्रीव का वध करने के लिए प्रवृत्त हुआ । किन्तु सुग्रीवपत्नी तारा ने इसका राग शान्त किया । इन सारे प्रसंगो से लक्ष्मण के क्रोधीस्वभाव पर काफी प्रकाश पडता है । किन्तु इसकी क्रोधभावना अन्याय के प्रतिकार के लिए अथवा राम की रक्षा के लिए ही प्रकट होती थी ।
लक्ष्मण (दाशरथि) n. तुलसी के ‘रामचरित मानस’ में लक्ष्मण राम का अभिन्न संगी है । इस कारण लक्ष्मण का चरित्र राम से किसी प्रकार भिन्न नही है । इसके हृदय में भक्ति, ज्ञान एवं कर्मयोग की त्रिवेणी प्रवाहित होती हुई प्रतीत होती है --- ‘बदउँ लछिमन पद जल जाता, सीतल सुभग सुखदाता । रघुपति कीरति विमल पताका, दंड समान भयड अस राका ॥
[मानस. बा. १६.५-६] तुलसीद्वारा चित्रित लक्ष्मण एक तेज:पुंज वीर है । वह स्वभाव से उग्र एवं असहिष्णु जरूर है, किन्तु इसका क्रोध राम के प्रति इसके अनन्य सेवाव्रत एवं उत्कट अनुराग से प्रेरित है । इसी कारण इसका असहिष्णु स्वभाव मोहक लगता है ।
लक्ष्मण II. n. अंगिरसकुलोत्पन्न एक मंत्रकार ।