कौशिक n. कौंडिण्य का शिष्य । इसके शिष्य गौंपवन अथा शांडिल्य थे
[बृ. उ. २.६.१,४.६.१] । वायु तथा ब्रह्मांड मत में व्यास के सामशिष्य परंपरा के हिरण्यनाभ का शिष्य (व्यास देखिये)। एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)। एकऋषि (व्यास देखिये)। एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)। एकऋषि
[मत्स्य. १४५.९२-९३] । अथर्ववेद के गृह्यसूत्र देते समय कौन सा मंत्र कहा जावे, इस संबंध में इसके मत का उल्लेख है
[कौ.९.१०] ; युवा कौशिक देखिये। इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध है । १. कौशिकगृह्यसूत्र, २. कौशिकस्मृति, इस स्मृति का उल्लेख हेमाद्रि ने परिशेषखंड में किया है
[कौ. १.६.३१] ;
[कौ. ६.३.७] । उसी तरह नीलकंठ ने भी इस स्मृति का उल्लेख श्राद्धमयूख में किया है । इसके नाम पर एक शिक्षा भी है । कौशिकपुराण भी इसीने रचा (C.C.)
कौशिक n. कौशिक कुल में १३ मंत्रकार दिये हैं । उन के नाम-१ विश्वामित्र,२ देवरात, ३ बल, ४. शरद्वत, ५. मधुछंदस, ६. अघमर्षण, ७. अष्टक, ८. लोहित, ९. भूतकाल, १०. अम्बुधि, ११. धनंजय, १२ शिशिर, १३. शावंकायन
[मत्स्य. १४५. ११२-११४] ।
कौशिक II. n. (सो. अमा.) कुशांक, गाधिन्, विश्वामित्र आदि लोगों का सामान्य नाम । विश्वामित्र के ब्राह्मण होने पर उसके कुल में उत्पन्न हुआ एक ऋषि । इसकी हैमवती नामक स्त्रीं थी
[म.उ. ११५.१३] ।
कौशिक III. n. सत्यवचनी ब्राह्मण । गांव के पास संगम पर यह तपस्या करता था । सत्य कहते समय, योग्य तारतम्य इसे में न था । एक बार कुछ पथिक, चोरों के आक्रमण के कारण, इसके आश्रम में जा छिपे । लुटेरे (चोर) पूछने आये । इसने सत्य बात कह दी तब चोरों ने पथिकों को मार डाला । इस कारण, यह ब्राह्मण अधोगति को प्राप्त हुआ । सत्य बोलते समय तारतम्य रखना चाहिये यह समझाने के लिये कृष्ण ने अर्जुन को यह कथा बतायी है (म.क.४९०।
कौशिक IV. n. एक गायक । यह विष्णु के अतिरिक्त किसी का गुणगान नहीं करता था । इसके अनेक शिष्य थे । इसकी कीर्ति सुन कर, कलिंग देश का राजा इसके पास आया तथा ‘मेरी कीर्ति गाओ’ कहने लगा । तब कौशिक ने कहा “वह विष्णु के अतिरिक्त किसी की गुणगान नहीं करता । " सब शिष्यों ने गुरु का समर्थन किया । राजा ने अपने नौकर को अपना गुणगान करएन को कहा । तब कौशिक ने, मैं विष्णु के अतिरिक्त किसी का गुणगायन नहीं सुनता, यह कह कर अपने कान बंद कर लिये । इनके शिष्यों ने भी अपने कान बंद कर लिये । इनके शिष्यो भी अपने कान बंद कर लिये । अंत में इसने नुकीली लकडी से अपनें कान एवं जवान छेद डाली । ऐसी एकनिष्ठ गायन से ईश्वर की सेवा कर, यह वैंकुण्ठ सिधारा
[आ.रा.५] ।
कौशिक IX. n. जरासंध के हंस नामक सेनापति का उपनाम वा नामांतर
[म.स.२०.३०] ।
कौशिक V. n. सावर्णि मन्वंतर में होनेवाले सप्तर्षियों में से एक । यह गालव का नामांतर है ।
कौशिक VI. n. शरपंजरावस्था में भीष्म के पास आया हुआ एक ऋषि
[भा.१.९.७] ।
कौशिक VII. n. एक ऋषि । वृक्ष के नीचे तप करते समय, वृक्ष पर से एक वगली ने इस पर विष्ठा कर दी । इसने क्रोधित होकर ऊपर देखा । ऊपर देखते ही तप के प्रभाव से वह पक्षिणी निर्जीव हो कर नीच गिरी । अपने कारण यह बुरी घटना हुई देख इसे बहुत दुःख हुआ । गांव में यह भिक्षा मांगने एक एतिव्रता के घर गया । पतिकार्य में व्यस्त होने के कारण, भिक्षा देने में उसे देर हो गयी । इस कारण पतिव्रता ने इससे क्षमायाचना की । फिर भीं यह उस पर नाराज हुआ । तब उस स्त्री ने कहा कि मैं बगली नही हूँ । तुम्हें अभी भी धर्म समझ में नहीं आया है । उसे समझने के लिये तुम मिथिला के धर्मव्याध के पास जाओं । इसे यह बात ठीक जँची तथा इसका क्रोध शांत हुआ । पश्चात् यह धर्मव्याध के पास गया । धर्मव्याध ने इसे धर्म अनेक प्रकर से समझाया । तदनुसार यह अपने मातापिता की शुश्रुषा करने लगा । युधिष्ठिर ने वनवास में मार्कडेय से पतिव्रतामाहात्म्य के बारे में पूछा, तब उसने यह कथा बताई
[म.व.१९६-२०६] ।
कौशिक VIII. n. कुरुक्षेत्र में रहनेवाला ब्राह्मण । पितृवती आदि सात पुत्रों का पिता (पितृवर्तिन् देखिये)।
कौशिक X. n. ०. एक राजा । यह रात्रि में मुगी बन जाता था । विशाला इसकी स्त्री थी । सर्वत्र अनुकूलता होने पर भी, अपना पति रात को कुक्कुट हो जाता है, यह देख उसे बहुत दुःख होता था । वह गालव ऋषि के पास गयी । ऋषि ने राजा का पूर्ववृत्तांत उसे निवेदन किया । पिछले जन्म में, यह शक्ति प्राप्त करने के लिये बहुत कुक्कुट खाने लगा । इसे बात का कुक्कुट राजा ताम्रचूड को पता लगा । उसने इसे शाप दिया कि, रात्रि में तू कुक्कुट होगा । ज्यालेश्वर लिंगके पूर्व में स्थित लिंग की पूजा करने से राजा मुक्त होगा । गालब ऋषि ने यह कथा विशाला को बताई । तदनुसार इसने काम किया तथा शापमुक्त हुआ । उस दिन से उस लिंग को कुक्कुटेश्वर कहने लगे
[स्कंद. ५.२.२१] ।
कौशिक XI. n. १. (सो. यदु.) मत्स्य, विष्णु एवं वायु मत में विदर्भपुत्र ।
कौशिक XII. n. २. (सो. वृष्णि) विष्णु तथा मत्स्य मत में वैशाली से उत्पन्न वसुदेवपुत्र । वायु मत में वैशाली से उत्पन्न वसुदेवपुत्र ।
कौशिक XIII. n. ३. गाधिन् देखिये ।
कौशिक XIV. n. ४. प्रतिष्ठान नगर का एक ब्राह्मण । यह कुष्ठरोगी था, परंतु इसकी स्त्री पति की अत्यंत सेवा करती थी । यह व्यसनी ब्राह्मण अपनी स्त्री के कंधे पर बैठ कर वेश्या के घर जा रहा था । राह में सूली पर चढे हुए मांडव्य ऋषि को इसका धक्का लगा । तब ऋषि ने धक्का लगानेवाले की सूर्योदय के पूर्व मृत्यु होगी, यों शाप दिया । परंतु इसके पत्नी के पातिव्रत्य के कारण, सूर्योदय ही नहीं हुआ । तब देवताओं ने इसकी स्त्री को संतुष्ट किया तथा अनुसूया के द्वारा इसके पति को जीवित किया
[मार्क. १६.१४-८८] ;
[गरुड.१.१४२] ।