दध्यञ्च् (आथर्वण), दधीचि (दधीच) n. एक महान ऋषि एवं तत्त्ववेत्ता । इसे दधीचि, एवं दधीच ये नामांतर वज्र नामक अस्त्र बनाने के लिये, देवों को प्रदान की थीं । इस अपूर्व त्याग के कारण, इसका नाम ‘त्यागमूर्ति’ के नाते प्राचीन भारतीय इतिहास में अमर हुआ । यह अथर्वकुलोत्पन्न था । कई जगह, इसे अथर्वन्, का पुत्र भी कहा गया है । इस कारण, इसे ‘आथर्वण’ पैतृक नाम प्राप्त हुआ । इसे ‘आंगिरस’ भी कहा गया है
[तां.ब्रा.१२.८.६] ;
[गो. ब्रा. १.५.२१] । अथर्वन् एवं अंगिरस् लोग पहले अलग थे, किंतु बाद में वे एक हो गये । इस कारण इसे ‘आंगिरस’ नाम मिला होगा । ब्रह्मांड के मत में, वैवस्वत मन्वंतर में पैदा हुआ था । च्यवन एवं सुकन्या का यह पुत्र था
[ब्रह्मांड ३.१.७४] । किंतु भागवतमत में, यह स्वायंभुव मन्वंतर में पैदा हो कर, इसकी माता का नाम चिति वा शांति था
[भा.४.१.४२] । इसके पत्नी का नाम सुवर्चा था
[शिव. शत.२४] ;
[स्कंद.१.१.१८] । कई जगह, इसके पत्नी का नाम गभस्थिनी वडवा दिया गया है । वह लोपामुद्रा की बहन थी । कुलनाम के जरिये, उसे ‘प्रातिथेयी’ भी कहते थे
[ब्रह्म११०] । इसे सारस्वत एवं पिप्पलाद नामक दो पुत्र थे । उसमें से सारस्वत की जन्मकथा महाभारत में दी गयी है
[म.श.५०] । एक बार अलंबुषा नामक अप्सरा को, इंद्र ने दधीचि ऋषि के पास भेज दिया । उसे देखने से दधीचि का रेत सरस्वती नदी में पतित हुआ । उस रेत को सरस्वती नदी ने धारण किया । उसके द्वारा सरस्वती को हुए पुत्र का नाम ‘सारस्वत’ रखा दिया गया । इसने प्रसन्न हो कर सरस्वती नदी को वर दिया, ‘तुम्हारे उदक का तर्पण करने से देव, गंधर्व, पितर आदि संतुष्ट होगे’। इसका दूसरा पुत्र पिप्पलाद । यह सुभद्रा नामक दासी से उत्पन्न हुआ । एक बार, इसने पहन कर छोडी हुई धोती, इसकी दासी सुभद्रा ने परिधान की । शाम के समय वस्त्र से चिपके हुए इसके शुक्रबिंदुओं से, सुभद्रा गर्भवती हुई । इसकी मृत्यु के पश्चात्, उस गर्भ को सुभद्रा ने अपने उदर फाड कर बाहर निकाला, एवं उसे पीपल वृक्ष के नीचे रख दिया । इस कारण, उस गर्भ से उत्पन्न पुत्र का नाम ‘पिप्पलाद’ रख दिया गया । उसे वैसे ही छोड कर, सुभद्रा दधीचि ऋषि के साथ स्वर्गलोक चली गयी
[ब्रह्म.११०] ;
[स्कंद. १.१.१७] । दधीचि ऋषि का मुख अश्व के समान था । इसे अश्वमुख कैसा प्राप्त हुआ, वह कथा इस प्रकार है । इंद्र ने इसको ‘प्रवर्ग्यविद्या’ एवं ‘मधुविद्या’ नामक दो विद्याएँ सिखाई थीं । ये विद्याएँ प्रदान करते वक्त इंद्र ने इसे यों कहा था, ‘ये विद्याएँ तुम किसी और को सिखाओंगे, तो तुम्हारा मस्तक काट दिया जायेगा’। पश्चात् अश्वियों को ये विद्याएँ सीखने की इच्छा हुई । ये विद्याएँ प्राप्त करने के लिये, उन्होंने दधीचि का मस्तक काट कर वहॉं अश्वमुख लगाया । इसी अश्वमुख से उन्होंने दोनों विद्याएँ प्राप्त की । इंद्र ने अपने प्रतिज्ञा के अनुसार इसका मस्तक तोड दिया । अश्वियों ने इसका असली मस्तक उस धड पर जोड दिया
[ऋ.१.११६.१३] । इन्द्र उस अश्व का सिर ढूँढता रहा । उसे वह ‘शर्यणावत्’ सरोवर में प्राप्त हुआ
[ऋ.१.८४.१३] । सायणाचार्य ने शाटयायन ब्राह्मण के अनुसार दधीचि की ब्रह्मविद्या की कथा दी है । यह जीवित था तब इसकी ब्रह्मविद्या के कारण, इसे देखते ही असुरों का पराभव होता था । मृत्यु के बाद असुरों की संख्या क्रमशः बढने लगी । इंद्र ने इसे ढूँढा । उसे पता चला कि, यह मृत हुआ । इसके अवशिष्ट अंगो को ढूँढने पर, अश्वियों कों मधुविद्या बतानेवाला अश्वमुख, शर्यणावत् सरोवर पर प्राप्त हुआ । इसकी सहायता से इंद्र ने असुरों का पराभव किया
[ऋ.१.११६.१३] ; सायणभाष्य देखिये । ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद ग्रंथ, पुराण आदि में ब्रह्मविद्या के महत्त्व की यह कथा दी गयी है
[श. ब्रा.४.१.५.१८,६.४.२.३,१४.१.१.१८, २०.२५] ;
[बृ.उ.२.५.१६.१७,६३] ;
[भा.६.९.५१-५५] ;
[दे. भा.७.३६] ।
दध्यञ्च् (आथर्वण), दधीचि (दधीच) n. इसका तत्त्वज्ञान ‘मधुविद्या’ नाम से प्रसिद्ध है । इस विद्या का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः---‘मधु का अर्थ मूलतत्त्व । संसार का मूलतत्त्व पृथ्वी, पृथ्वी का अग्नि, इस क्रम से वायु, सूर्य, आकाश, चंद्र, विद्युत, चंद्र, विद्युत, सत्य, आत्मा तथा ब्रह्म की खोज हर एक तत्त्वज्ञ को करनी पडती है । मूल तत्त्व पता लगाने से, आत्मतत्त्व का संसार से घनिष्ठ तथा । नित्य संबंध ज्ञात होता है । संसार तथा आत्मतत्त्व ये एक दूसरों से अभिन्न है । चक्र के जैसे आरा, उसी प्रकार आत्मतत्त्व का संसार से संबंध हैं । संसार का मूल तत्त्व ब्रह्म है । ब्रह्म तथा संसार की प्रत्येक वस्तु परस्परों से अभिन्न है’। ऋग्वेद की ऋचाओं में इसके द्वारा प्रतिपादित मधुविद्या, बृहदारण्यकोपनिषद’ में उन मंत्रों की व्याख्या कर के अधिक स्पष्ट की गयी है । इस विद्या के महत्त्व के कारण ही, दधीच का नाम एक तत्त्वज्ञ के रुप में वेदों में आया है
[तै.सं.५.१.४.४] ;
[श.ब्रा.४.१.५.१८,६.४.२.३,१४.१.१.१-८,२६] ;
[तां.ब्रा.१२.८.६] ; गो. ब्र.१.५.२१;
[बृ.उ.२.५.२२,४.५.२८] ।
दध्यञ्च् (आथर्वण), दधीचि (दधीच) n. वृत्र के कारण देवताएँ त्रस्त हुई । देवताओं ने वृत्रवध का उपाय विष्णु से पूछा । उसने कहा, ‘दधीच की हड्डियों से ही वृत्र का वध होगा । उन हड्डियों के त्वष्ट्रा से वज्र बना लो । हड्डियॉं मॉंगने को अश्वियों को भेजो’। हड्डियों के प्राप्त्यर्थ इस पर हथियार चलाने को त्वष्ट्रा डरता था । किंतु आखिर वह राजी हुआ । उसने इसके शरीर पर नमक का लेप दिया । पश्चात् गाय के द्वारा नमक के साथ ही इसका मांस भी भक्षण करवाया । पश्चात् इसकी हड्डियॉं निकाली गयी । त्वष्टा ने उन हड्डियों से षट्कोनी वज्र तथा अन्य हथियार बनाये । दधीचि के अस्थिप्रदान के बारे में, पुराणों में निम्नलिखित उल्लेख प्राप्त है । देवासु संग्राह के समय, देवों ने इसके यहॉं अपने हथियार रखे थे । पर्याप्त समय के पश्चात् भी, उसे वापस न ले जाने से, दधीच ने उन हथियारों का तेज पानी में घोल कर पी लिया । बाद में देवताएँ आ कर हथियार मॉंगने लगे । इसने सत्त्यस्थिति उन्हें कथन की, एवं उन हथियारों के बदले अपनी हड्डियॉं लेने की प्रार्थना देवों से की । देव उसे राजी होने पर, योगबल से इसने देहत्याग किया
[म.व.८८.२१] ;
[म.श.५०.२९] ;
[भा.६.९.१०] ;
[स्कंद.१.१.१७,७.१.३४] ;
[ब्रह्म.११०] ;
[पद्म उ.१५५] ;
[शिव शत.२४] । इसका आश्रम सरस्वती के किनारे था
[म.व.९८.१३] । गंगाकिनारे इसका आश्रम था
[ब्रह्म.११०.८] । इसे ‘अश्वशिर’ नामक विद्या तथा ‘नारायण नामक’ वर्म विदित था । नारायण वर्म (कवच) का निर्देश भागवत में मिलता है
[भा.६.८] । दधीच-तीर्थ कुरुक्षेत्र में प्रख्यात है
[म.व.८१.१६३] । मत्स्य तथा वायुमत में यह भार्गव गोत्र का मंत्रकार था । कई ग्रंथों में इसका ऋचीक नामांतर भी प्राप्त है
[ब्रह्मांड २.३२.१०४] । ‘ब्राह्मण एवं क्षत्रियों में श्रेष्ठ कौन’, इस विषय पर क्षुप एवं दधीच ऋषि में बहुत विवाद हुआ था । उस वाद में, प्रारंभतः दधीच का पराभव हुआ । किंतु अंत में यह जीत गया, एवं इसने ब्राह्मणों का श्रेष्ठत्व प्रस्थापित किया
[लिंग.१.३६] । इसी विषय पर क्षुवथु के साथ भी इसका विवाद हुआ था । उस चर्चा में अपना विजय हो, इसलिये क्षुवथु ने विष्णु की आराधना की । पश्चात् विष्णु ब्राह्मणरुप में दधीच के पास आया । विष्णु एवं दधीच का युद्ध हुआ । पश्चात् इसने विष्णु को शाप दिया, ‘देवकुल के सारे देव रुद्रताप से भस्मसात हो जायेंगे’।