मरुत्त आविक्षित कामप्रि n. सू.दिष्ट.) वैशालि देश का एक सुविख्यात सम्राट, जो अविक्षित राजा का पुत्र, एवं करन्धम राजा का पुत्र था । महाभारत में इसे चक्रवर्ति एवं पॉंच श्रेष्ठ सम्राटों में से एक कहा गया है । इसकी माता का नाम भामिनी था
[मार्क.१२७.१०] । ऐतरेय ब्राह्मण में इसे कामप्र का वंशज, एवं बृहस्पति आंगिरस का भाई बताया गया है । संवर्त के द्वारा इसके राज्याभिषेक किये जाने की कथा भी वहॉं दी गयी है
[ऐ.ब्रा.८.२१.१२] ;
[मार्क.१२६.११-१२] । शतपथ ब्राह्मण में इसे ‘अयोगव’ जाति में उत्पन्न कहा गया है
[श.ब्रा.१३.५.४.६] ।
मरुत्त आविक्षित कामप्रि n. बृहस्पति आंगिरस् ऋषि इसका पुरोहित था, एवं संवर्त आंगिरस् इसका ऋत्विज था । बृहस्पति एवं संवर्त दोनों भाई तो अवश्य थे, किन्तु दोनों में बडा वैमनस्य था । सम्राट मरुत्त एवं इन्द्र में सदैव युद्ध चलता ही रहता था, किन्तु इन्द्र इसे कभी भी पराजित न कर पाया । अन्त में इन्द्र को एक तरकीब सूझी, जिसके द्वारा मरुत को तंग करके उसे नीचा दिखाया जा सके । इन्द्र बृहस्पति के यहॉ गया, एवं बातों ही बातों में उसे राजी कर लिया कि, वह भविष्य में मरुत्त के यज्ञकार्य में पुरोहित का कार्य न करेगा । कालान्तर में मरुत्त ने यज्ञ करना चाहा, तथा उसके लिए बृहस्पति के पास जाकर इसने उनसे प्रार्थना की कि, वह पुरोहित का पद सँभालें । किन्तु इन्द्र के द्वारा दिये गये मंत्र के अनुसार, बृहस्पति ने इसे कोरा जवाब दे दिया । बृहस्पति से निराश होकर यह वापस लौटा रहा था कि, इसे रास्ते में नारद मिला, जिसने इससे कह, ‘इसमें घबराने के बात क्या है? बृहस्पति न सही, उसके भाई संवर्त हो’ । मरुत्त को यह बात जँच गयी, तथा यह वाराणसी जाकर संवर्त को बडे आग्रह के साथ यज्ञ में ऋत्विज बनाने के लिए ले आया । जब इन्द्र ने देखा कि बिना बृहस्पति के भे मरुत का यज्ञ आरम्भ हो रहा है, तथा संवर्त उसका ऋत्विज बनाया गया है, तब उसने इस यज्ञ में विभिन्न प्रकार से कई बाधाएँ डालने का प्रयत्न किया । इन्द्र ने पहले अग्नि के साथ मरुत्त के पास यह संदेश भेजा कि, बृहस्पति यज्ञकार्य करने के लिए तैयार है, अतएव संवर्त की कोई आवश्यकता नहीं है । अग्नि मरुत्त के पास आया, किन्तु वह संवर्त को वहॉं देखकर इतना डर गया कि, कहीं वह उसे शाप ने दे दे । इसलिए वह मरुत्त से इन्द्र के संदेश को कहे बिना ही वापस लौट आया । इसके बाद इंद्र ने धृतराष्ट्र नामक गंधर्व से मरुत्त को संदेश मेजा, ‘यदि तुम यज्ञ करोगे, तो मैं तुम्हे वज्र से मार डालूँगा’। किन्तु संवर्त के द्वारा आश्वासन दिलाये जाने पर, मरुत्त अपने निश्चय पर कायम रहा । यज्ञ का प्रारंभ करते ही, इसे इन्द्र के वज्र का शब्द सुनायी पडा । यह वज्रशब्द को सुन कर भयभीत हो उठा, परन्तु संवर्त ने इसे धैर्य बँधाया ।
मरुत्त आविक्षित कामप्रि n. इस प्रकार संवर्त की सहायत से मरुत्त ने अपना यज्ञ यमुना नदी के तट पर ‘प्लक्षावरण तीर्थ’ मैं प्रारंभ किया
[म.व.१२९.१६] । वाल्मीकि रामायण के अनुसार, यह यज्ञ ‘उशीरबीज’ नामक देश में हुआ था
[वा.रा.उ.१८] । मरुत्त की इच्छा थी कि, इन्द्र, बृहस्पति एवं समस्त देवता इस यज्ञ में भाग ले कर हवन किये गये सोम को स्वीकार करें एवं उसे सफल बनायें । अतएव अपने मंत्रप्रभाव से संवर्त इन सभी देवताओं को बॉंध कर यज्ञस्थान पर ले आया । मरुत्त ने सभी देवताओं का सन्मान किया, एवं उनकी विधिवत् पूजा की । उस यज्ञ में भगवान शंकर ने प्रचुर धनराशि के रुप में इसे हिमालय का एक स्वर्णमय शिखर प्रदान किया था । प्रतिदिन यज्ञकार्य के अन्त में, इसकी यज्ञसभा में इन्द्र आदि देवता, तथा बृहस्पति आदि प्रजापतिगण सभासद के रुप में बैठा करते थे । इसके यज्ञमण्डप की सारी सामग्रियॉं सोने की बनी हुयी थी । इसके घर में मरुद्नण रसोई परोसने का कार्य किया करते थे । विश्वेदेव इसकी यज्ञसभा के सभासद थे । इसने यज्ञवेदी पर बैठ कर, मंत्रपुरस्सर हविद्रव्य का हवन कर, देवताओं, ऋषियों, तथा पितरों को संतुष्ट किया था । ब्राह्मणों को शय्या, आसन, सवारी, तथा स्वर्णराशि प्रदान की थी । इस प्रकार इसके व्यवहार से इन्द्र बडा प्रसन्न हुआ, एवं दोनों में मित्रता स्थापित हो गयी । बाद को मरुत्गणों द्वारा यथेष्ट सोमपान कर के सभी लोग यज्ञ से संतुष्ट होकर वापस लौटे ।
मरुत्त आविक्षित कामप्रि n. बाद में मरुत्त के इस यज्ञ में विघ्न डालने के हेतु से रावण आया । रावण को देख कर यह उससे युद्ध करने के लिए तत्पर हुआ । किन्तु इसने यज्ञदीक्षा ली थी, अतएव यज्ञ से उठना इसके लिए असम्भव था । रावण ने इसके यज्ञ के वैभव को देखा, तथा विना किसी प्रकार की हानि पहुँचाये वापस लौट गया
[वा.रा.उ.८] ।
मरुत्त आविक्षित कामप्रि n. यज्ञ के उपरांत यह अपनी राजधानी वापस आया, एवं समुद्र से घिरी हुयी पृथ्वी पर राज्य करना प्रारम्भ किया । इस प्रकार प्रजा, धर्मपत्नी, पुत्र तथा भाइयों के साथ, इसने एक हजार वर्षो तक राज्य किया था । मार्कडेय के अनुसार, एक बार यह पृथ्वी के समस्त सर्पौ का विनाश करने को उद्यत हुआ था, किन्तु अपनी माता भामिनी के द्वारा अनुरोध करने पर, इसने सर्पौ के मारने का इरादा छोड दिया
[मार्क.१२६.३-१५, १२७.१०] ।
मरुत्त आविक्षित कामप्रि n. महाभारत के अनुसार, यह पराक्रमी एवं धर्मनिष्ठ राजा था, जिसने सौ यज्ञ किये थे
[म.द्रो.परि.१.क्र.८ पंक्ति ३३६-३५०, शां.२९.१६०२१] ; आश्व.४.१०;
[भा.९.२] । महाराज मुचुकन्द से इसे एक खङ्ग प्राप्त हुआ था, जिसे इसने रैवत राजा को प्रदान किया था
[म.शां.१६०.७६] ।
मरुत्त आविक्षित कामप्रि n. मरुत्त की निम्नलिखित कुल सात पत्नियॉं थीः---१. विदर्भकन्या प्रभावती; २. सुवरिकन्या सौवीरी; ३. मगधनरेश केतुवीर्य की कन्या सुकेशी; ४. मद्रराज सिंधुवीर्य की कन्या केकयी; ५. केकयनरेश की कन्या सैरंध्री; ६. सिन्धुराज की कन्या वपुष्मती ७. चेदिराज की कन्या सुशोभना । मरुत्त को इन पत्नीयों से कुल अठारह पुत्र हुए, जिनमें से नरिष्यंत ज्येष्ठ था
[मार्क.१२८.४५-४८] । महाभारत के अनुसार, इसे दम नामक एकलौता पुत्र, एवं एक कन्या थी । इसकी मृत्यु के उपरांत दम इसके राज्य का अधिकारी हुआ । इसकी कन्या का विवाह अंगिरस् ऋषि से हुआ था
[म.शां.२२६.२८] ;
[अनु.१३७.१६] ।