विश्वकर्मन् n. एक शिल्पशास्त्रज्ञ, जो स्वायंभुव मन्वन्तर का ‘शिल्पप्रजापति’ माना जाता है । महाभारत एवं पुराणों में निर्दिष्ट देवों का सुविख्यात शिल्पी त्वष्ट्ट इसी का ही प्रतिरूप माना जाता है (त्वष्ट्टा देखिये) ।
विश्वकर्मन् n. एक देवता के रूप में विश्र्वकर्मन् का निर्देश ऋग्वेद में अनेक बार प्राप्त है
[ऋ. १०.८१-८२] । वैदिक साहित्य में इसे ‘सर्वद्रष्टा’ प्रजापति कहा गया है
[वा. स. १२.६१] ।
विश्वकर्मन् n. यह सर्वद्रष्टा है, एवं इसके शरीर के चार ही ओर नेत्र, मुख, एवं पैर है । इसे पंख भी है । विश्र्वकर्मन् का यह स्वरूपवर्णन पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट चतुर्मुख ब्रह्मा से काफ़ी मिलता जुलता है ।
विश्वकर्मन् n. प्रारंभ में विश्र्वकर्मन् शब्द ‘सौर देवता’ की उपाधि के रूप में प्रयुक्त किया जाया जाता था । किन्तु बाद में यह समस्त प्राणिसृष्टि का जनक माना जाने लगा। ब्राह्मण ग्रंथों में विश्र्वकर्मन् को ‘विधातृ’ प्रजापति के साथ स्पष्टरूप से समीकृत किया गया है
[श. ब्रा. ८.२.१.३] , एवं वैदिकोत्तर साहित्य में इसे देवों का शिल्पी कहा गया है । ऋग्वेद में इसे द्रष्टा, पुरोहित एवं समस्त प्राणिसृष्टि का पिता कहा गया है । यह ‘धातृ’ एवं ‘विधातृ’ है । इसने पृथ्वी को उत्पन्न किया, एवं आकाश को अनावरण किया। इसीने ही सब देवों का नामकरण किया
[ऋ. १०.८२.३] । इसी कारण, एक देवता मान कर इसकी पूजा की जाने लगी
[ऋ. १०.८२.४] ।
विश्वकर्मन् n. महाभारत में इसे ‘शिल्पप्रजापति’ एवं ‘कृतीपति’ कहा गया है
[भा. ६.६१५] । ब्रह्मांड में इसे त्वष्ट्ट का पुत्र एवं मय का पिता कहा गया है
[ब्रह्मांड. १.२.१९] । किन्तु यह वंशक्रम कल्पनारग्य प्रतीत होता है (मय देखिये) । यह प्रभास वसु एवं बृहस्पति भगिनी योगसिद्धा का पुत्र था । भागवत में इसे वास्तु एवं आंगिरसी का पुत्र कहा गया है । ब्रह्मा के दक्षिण वक्षभाग से यह उत्पन्न होने की कथा भी महाभारत में प्राप्त है
[म. आ. ६०.२६-३२] ।
विश्वकर्मन् n. यह देवों के शिल्पसहस्त्रों का निर्माता एवं ‘वर्धकि’ बढ़ई था । देवों के सारे अस्त्र-शस्त्र, आभूषण एवं विमान इसीके द्वारा ही निर्माण किये गये थे । इसी कारण, यह देवों के लिए अत्यंत पूज्य बना था । इसके द्वारा निम्नलिखित नगरियों का निर्माण किया गया थाः---१ इंद्रप्रस्थ (धृतराष्ट्र के लिए)
[म. आ. १९९.१९२७* पंक्ति. ३-४] ; २ द्वारका (श्रीकृष्ण के लिए)
[भा. १०.५०] ;
[ह. व. २.९८] ; ३. वृन्दावन (श्रीकृष्ण के लिए)
[ब्रह्मवै. ४.१७] ; ४. लंका (सुकेशपुत्र राक्षसों के लिए)
[वा. रा. उ. ६.२२-२७] ; ५. इन्द्रलोक (इंद्र के लिए)
[भा. ६.९.५४] ; ६. सुतल नामक पाताललोक
[भा. ७.४.८] ; ७. हस्तिनापुर (पाण्डवों के लिए)
[भा. १०.५८.२४] ; ८. गरुड का भवन
[मत्स्य. १६३.६८] ।
विश्वकर्मन् n. श्रीविष्णु का सुदर्शन, शिव का त्रिशूल एवं रथ, तथा इंद्र का वज्र एवं विजय नामक धनुष्य आदि अस्त्रों का निर्माण भी विश्र्वकर्मन् के ही द्वारा किया गया था । इनमें से शिव का रथ इसने त्रिपुरदाह के उपलक्ष्य में, एवं इंद्र का वज्र इसने दधीचि ऋषि की अस्थियाँ से बनाया था
[म. क. २४.६६] ;
[भा. ६.१०] । इन अस्त्रों के निर्माण के संबंध में एक चमत्कृतिपूर्ण कथा पद्म में प्राप्त है । इसकी संज्ञा नामक कन्या का विवाह विवस्वत् (सूर्य) से हुआ था । विवस्वत् का तेज वह न सह सकी, जिस कारण वह अपने पिता के पास वापस आयी। अपनी पत्नी को वापस लेने के लिए विवस्वत् भी वहाँ आ पहुँचा। पश्र्चात् विवस्वत् का थोड़ा ही तेज बाकी रख कर, उसका उर्वरित सारा तेज़ इसने निकाल लिया, एवं उसी तेज़ से देवताओं के अनेकानेक अस्त्रों का निर्माण किया।
विश्वकर्मन् n. इसकी कृति (आकृति)नामक भार्या का निर्देश भागवत में प्राप्त है । उसके अतिरिक्त इसकी रति, प्राप्ति एवं नंदी अन्य तीन पत्नीयाँ भी थी
[म. आ. ६०.२६-३२] । (१) पुत्र---इसके निम्नलिखित पुत्र थेः-- १. मनु चाक्षुष; २. शम, काम एवं हर्ष, जो क्रमशः रति, प्राप्ति एवं नंदी के पुत्र थे; ३. नल वानर
[म. व. २६७.४१] ; ४. विश्र्वरूप, जो इसने इंद्र के प्रति द्रोहबुद्धि होने से उत्पन्न किया था; ५. वृत्रासुर, जो इसने विश्र्वरूप के मारे जाने पर इंद्र से बदला लेने के लिए उत्पन्न किया था
[म. उ. ९.४२.४९] । (२) कन्याएँ---इसकी निम्नलिखित कन्याएँ थीः-- १. बर्हिष्मती, जो प्रियव्रत राजा की पत्नी थी; २. संज्ञा एवं छाया जो विश्वस्त् की पत्नीयाँ थी; ३. तिलोत्तमा, जिसे इसने ब्रह्मा की आज्ञा से निर्माण किया था
[म. आ. २०३.१४-१७] विश्वकर्मन् n. इसके नाम पर शिल्पशास्त्रविषयक एक ग्रंथ भी उपलब्ध है
[मत्स्य. २५२.२१] ;
[ब्रह्मांड. ४.३१.६-७] ।
विश्वकर्मन् II. n. विश्र्वकर्मन् का एक ब्राह्मण अवतार। अपने पूर्वजन्म में इसने क्रोध में आ कर घृताची नामक प्रिय अप्सरा को शुद्रकुल में जन्म लेने का शाप दिया, जिसके अनुसार वह एक ग्वाले की कन्या बन गयी। ब्रह्मा की कृपा से इसे भी ब्राह्मण पिता एवं ग्वाले की कन्या के संयोग से दर्जी, कुम्हार, स्वर्णकार, बढई आदि तंत्रविद्याप्रवीण जातियों का निर्माण हुआ। इसी कारण, ये सारी जातियाँ स्वयं को विश्र्वकर्मन् के वंशज कहलाते है
[ब्रह्मवै. १.१०] ।
विश्वकर्मन् III. n. वशवर्तिन् देवों में से एक । यह प्रभात वसु एवं भुवना के पुत्रों में से एक था
[ब्रह्मांड. २.३६.२९] ।