इंद्र n. इसने मेघों को फोडा । इसके लिये त्वष्टा ने वज्र तैयार किया । इसने सूर्य द्यू तथा उपस् को उत्पन्न किया । वृत्रासुर के हाथ तोड कर उसका वध किया तथा जल बहाया । नदियां प्रवाहित की । गायें तथा सोम को जीता । भक्तों को पशु दिये.
[ऋ. १.३३] । दशद्यु का संरक्षण किया
[ऋ.१.३३.१४] । श्वित्रों कीं गायों का रक्षण किया
[ऋ.१.३३.१५] । सामगान से इसे स्फूर्ति मिलती है । यह दासों का शत्रु है । इसके रथ में घोडे लगे रहते हैं । जिसके चलने से मेघों की गडगडाट होती है । पृथ्वी सपाट तथा स्थिर होती है । त्रित से इसकी मित्रता थी । अंगिरस तथा इंद्र साथ साथ रहते है
[ऋ.१.११] । इसने जन्मते ही देवताओं का रक्षण किया । हिलनेवाली पृथ्वी स्थिर की । अंतरिक्ष की व्यवस्था की तथा द्यू को आधार दिया । अहि को मार कर सप्तसिंधुओं को मुक्त किया । वल से गायें छुडाई । बिजली उत्पन्न की । शंबर को चालीस वर्षो के पश्चात् ढूंढ निकाला
[ऋ.२.१२] । इसे सोम बहुत अच्छा लगता है
[ऋ.२.१४] । अंगिरा ने स्फूर्ति दी इसलिये इंद्र वल को मार सका
[ऋ.२.१५.८] । इसने सूर्य का चक्र फेंक कर एतश को बचाया
[ऋ.४.१८.१४] । सोम पीने के लिये इंद्र को निमंत्रित किया जाता था (अपाला तथा तुर्वश देखिये) । इंद्र की उपासना न करनेवाली को, अनिंद्र कह कर निंदा करते थे
[ऋ.७. १८.१६] । नेम नामक ऋषि ने इंद्र प्रत्यक्ष न दिखने के कारण, इंद्र नहीं है ऐसा प्रतिपादित किया तब इंद्र स्वयं को प्रमाणित करने, प्रत्यक्ष प्रकट हुआ
[ऋ.८.१००] ।
इंद्र n. वेदों में इसके अनेक शत्रु हैं । उनका मुख्य दुर्गुण है पानी को रोकना । वे हैं अनशीनि, अर्णव, अर्बुद, अहि, अहिशुव, और्णवाभ, अश्न, इलीबिश, करंज, कुयव, क्रिवि, चुमुरि, दभीक, धुनि, नमुचि, नार्मर, पर्णय, पिप्रु वर्चिन, वल, शंबर आदि ।
इंद्र n. इसके शस्त्र वज्र, अद्रि, दधीचि की अस्थि
[ऋ. १.८४.१३] , धनुषबाण, भाला, फेन, बर्फ आदि हैं । यह जगदुत्पादक तथा सृष्टिक्रम निश्चल करनेवाला है । इसकी पत्नी इंद्राणी
[ऋ. १०.८६] । सीता नामक स्त्री का भी उल्लेख है
[पा. गृ. सू. १७.९] ; शची देखिये । ये अनेकों का पुत्र हुआ था (शृंगवृष देखिये) ।
इंद्र n. प्रत्येक मन्वंतर में इंद्र रहता है । वह भूः, भुवः स्वः इन तीन लोकों का अधिपति है । सौ यज्ञ कर इंद्रपद प्राप्त होता है (नहुष तथा ययाति देखिये) । यह वज्रपाणि, सहस्त्राक्ष, पुरंदर तथ मघवान् होता है । प्रजासंरक्षण उसका मुख्य कार्य होता है । प्रत्येक मन्वंतर में इंद्र भिन्न भिन्न होकर भी उनके गुण तथा कार्य एक से रहते हैं । सप्तर्षि इनके सलाहगार रहते हैं एवं गंधर्व अप्सरायें इनका ऐश्वर्य होता है
[वायु. १००.११३-११४] । जब ये जगत की व्यवस्था नहीं कर पाते तब सारे अवतार इनकी मदद को आते हैं (मनु देखिये) । सौ यज्ञ पूरे होने लगते है, तब अश्वमेध का घोडा चुरा कर, विघ्न उपस्थित करता है (सगर, पृथु, रघु) । उसी तरह कोई कठिन तपस्या करता है, तो डर के कारण यह अप्सरायें भेज कर, तपभंग करता है । हिरण्यकशिपु, बलि, एवं प्रह्राद ये तीनों असुरों में से भी इंद्र हुए थे
[मत्स्य.४७.५५-८९] ; तारक देखिये । इस से इसका राजकीय स्वरुप अच्छी तरह से व्यक्त होता है । विशेषतः त्रिशंकु, वसिष्ठ, विश्वामित्र, वामदेव, रोहित, गौतम, गृत्समद, रजि, भरद्वाज, उदारधी, सोम, इंदुल तथा अर्जुन इत्यादि प्राचीन तथा अर्वाचीन व्यक्तियों के चरित्र से इन्द्र की पूर्ण कल्पना कर सकते है ।
इंद्र n. इंद्रविषयक पौराणिक कल्पना निम्नलिखित विवरण से व्यक्त हो जायेगी । अदिति पुत्र (कश्यप देखिये) । इस शक्र नामांतर है
[भा.६.६] । श्रावण माह का सूर्य
[भा.१२.११.१७] । देवताओं का राजा
[भा.१.१०.३] । यही आज का पुरंदर इंद्र है । वर्षा का देव । एक बार गरुड के पीठ पर बैठकर कर नाग जा रहे थे । गरुड उड कर इतना ऊंचा गया कि, सारे नाग सूर्यताप से मूर्च्छित हो कर पृथ्वी पर आ गिरे । माता कद्रू ने इंद्र की स्तुति कर, ताप शमनार्थ वर्षा करायी
[म.आ.२१] । भीमद्वादशी व्रत करने के कारण इसे इंद्रत्व मिला
[पद्म. सृ. २३] । यह दक्ष के यज्ञ में गया था एवं इसने वीरभद्र से पृछा था कि वह कौन है
[ब्रह्म.१२९] । मंदार पर्वत के पंख इसने नष्ट किये थे
[स्कंद.१.१९.९] । विश्वधर वणिक् के पुत्र के मरने पर वह शोक करने लगा । इसे देख कर यम ऊब कर अपना कार्य छोड, तप करने लगा । इस कारण पृथ्वी पर पाप लोक अत्याधिक पापकर्म करने लगे । उन्हें मृत्यु नहीं आती थी । इससे पृथ्वी त्रस्त हो कर इंद्र के पास गयी । इंद्र ने यम की तपस्या भंग करने, गणिका नामक अप्सरा भेजी, पर उससे कोई लाभ न हुआ । तब पिता ने उसे समझाया
[ब्रह्म.८६] । एक बार कश्यप पुत्रकामेष्टि यज्ञ कर रहा था । देवतादि उसकी सहायता रहे थे । इंद्र जल्दी जल्दी जा रहा था सारे वालखिल्य मिल कर एक समिध ले जा रहे थे । मार्ग में एक गाय के खुर जितने गढ्ढे में संचित पानी में गिर कर, ये डुबने उतराने लगे । यह देख कर इंद्र तिरस्कारपूर्वक हँसा । यह देख कर वालखिल्य क्रोधित हो, दूसरे इंद्र को उत्पन्न करने के हेतु तप करने लगे । तब इंद्र कश्यप की शरण में आया । उसके माध्यम से वालखिल्यों का क्रोध शांत कराया मध्यम तथा वालखिल्य देखिये;
[म.आ.२६] ।
इंद्र n. गरुड ने अपनी मॉं को दास्यबंधनो से मुक्त करने के लिये माता के दास्य के बदले नागो को अमृत ला देने का वचन दिया, तथा वह अमृत लाने के लिये स्वर्ग लोक गया । गरुड अमृत लिये जा रहा है यह देख कर, इंद्र ने वज्र फेंका पर उसका कोई असर न हुआ । गरुड की शक्ति देख कर इंद्र ने उससे मित्रता करने की सोची । तब गरुड ने उसे बताया, कि यदि अमृत वापस चाहते हो, तो उसे बडी युक्ति से चुराना । इंद्र ने युक्ति से काम लिया तथा अमृत फिर वापस ले गया और गरुड को वर दिया कि सर्प तेरे भक्ष्य होंगे
[म.आ.३०] ।
इंद्र n. हिरण्यपुत्र महाशनि इंद्र को जीत कर इंद्राणी सह उसे बांध कर लाया । महाशनि वरुण का दामाद था, इसलिये देवताओं ने वरुण से कह कर इंद्र को छुडाया । इंद्राणी के कहने पर इंद्र ने शिव की स्तुति की । शिव ने विष्णु की स्तुति करने को कहा । इंद्र ने विष्णु की स्तुति की । फलतः विष्णु तथा शिव के अंश से एक पुरुष गंगा के जल से उत्पन्न हुआ, जिसने महाशनि का वध किया । इंद्र हमेशा उसके पीछे पीछे रहने लगा । इस कारण एक बार इंद्राणी से इसका प्रेम कलह हुआ था
[ब्रह्म. १२९] इंद्र n. वाचक्नवि मुनि की स्त्री मुकुंदा रुक्मांगद राजा पर मोहित था । इंद्र ने रुक्मांगद का रुप धारण कर उससे संभोग किया । आगे इसी वीर्य से मुकुंदा को गृत्समद उत्पन्न हुआ । गृत्समद का पुत्र त्रिपुरासुरे त्रिपुरासुरादिकों से गणेश ने इंद्र को बचाया
[गणेश. १. ३६-४०] इंद्र n. सुकर्मा के हजार शिष्य अनध्याय के दिन अध्ययन करते थे, इसलिये इन्द्र ने उनका वध किया । सुकर्मा ने प्रायोपवेशन प्रारंभ किया तब इंद्र ने उसे वर दिया, कि इन हजारों के साथ दो शिष्य और भी उत्पन्न होंगें जो सुर होंगे । ये ही पौष्यंजिन् एवं हिरण्यनाभ (कौशिल्य) है
[वायु. ६१.२९-३३] ;
[ब्रह्मांड. ३५.३३-३७] ।
इंद्र n. च्यवन को अश्विनीकुमारों ने दृष्टि दी तथा जरारहित किया, इसलिये शर्याति ने उन्हें हवि दिलवाने का प्रयत्न किया । उस समय इंद्र ने बहु बाधायें डाली, परंतु इंद्र की एक न चली, क्यों कि, जब वह वज्र मारने लगा, तब च्यवन ने उसके हाथ की हलचल बंद करा दीं, तथा उसे मारने के लिये मद नामक असुर उत्पन्न किया । तब इंद्र उसकी शरण में गया, तथा अश्विनीकुमारों को यज्ञीय हवि प्राप्त करने का अधिकार दिया
[म. व.१२५-१२६] ।
इंद्र n. मरुत्त ने एक बार यज्ञ किया । उसने प्रथम बृहस्पति को बुलाया परंतु इंद्र के यहां जाना हैं, ऐसा कह कर उसने कहा बाद में आऊंगा । तब मरुत्त ने उसके भाई संवर्त को निमंत्रित कर यज्ञ प्रारंभ किया । बृहस्पति को जब यह पता चला तब उसने इंद्रसे कहा कि, यह यज्ञ ही नहीं होने देना चाहिये । इंद्रने तुरंत धावा बोल दिया । इंद्र ने वहां आने के पश्चात् स्वतः सदस्य का काम किया
[म. आश्व.१०] इसने भंगास्वन को स्त्री बना दिया (भंगास्वन देखिये) ।
इंद्र n. दुर्वासा ऋषि ने इसे एक माला दी थी । इंद्र के द्वारा उसका अनादर हुआ । ‘तू ऐश्वर्य भ्रष्ट होगा,’ ऐसा उसे शाप मिला । इसी समय अपने घर आये गुरु बृहस्पति का इसने उत्थापन द्वारा मान नही किया, इसलिये बृहस्पति वापस चले गये । बृहस्पति के आने के कोई चिन्ह न देख, मारद ने उसे बताया कि, तू शीघ्र ही ऐश्वर्यभ्रष्ट होगा । बलि इस समय इस पर आक्रमण करने निकला । इंद्र का सारा वैभव जीत कर वह ले जा रहा था। जाते जाते में वैभव समुद्र में गिर पडा । इंद्रादि देवताओं ने यह बात विष्णुजी से कही । विष्णु भगवान ने कहा कि, बलि को साम तथा मधुर वचनों में भुला कर उसे समुद्रमंथन करने के लिये उद्युक्त करो । इंद्र बलि के पास पाताल में गया । वहां शरणागत की तरह कुछ समय रह कर अवसर पाकर, बडी युक्ति से उसने बलि से समुद्रमंथन की बात कही । बलि को समुद्रमंथन असंभव लगता था । तब समुद्रमंथन किस तरह हो सकता है इस के बारेमें आकाशवाणी हुई । बलि समुद्रमंथन के लिये तयार हो गया । मंदराचल को मथनी बनने के लिये बुलवाया, तथा वह तैयार भी हो गया । तब विष्णु जी ने उसे गरुड पर रख कर लाया । ऐरावत, उच्चैःश्रवा, पारिजातक तथा रंभादि समुद्र से निकाले । चौदह रत्नों में से चार रत्न इसने लिये
[भा.६.९] ;
[स्कंद १.१.९] ।
इंद्र n. बृहस्पति लौट नहीं आ रहे थे, इसलिये इंद्र ने विश्वरुपाचार्य को उस के, स्थान पर नियुक्त किया । उसकी मां दैत्यकन्या थी, इसलिये विश्वरुप का स्वाभाविक झुकाव दैत्यों की ओर था । देवताओं के साथ साथ दैत्यों को भी वह हविर्भाग देता था । इंद्र को यह पता लगते ही उसने विश्वरुप के तीनों सिर काट डाले (विश्वरुप देखिये) । अपना पुत्र मार डाला गया यह देख त्वष्टा ने इंद्रका वध करने के लिये वृत्र नामक असुर उत्पन्न किया तथा हविर्भाग उसे न मिले ऐसा प्रयत्न किया । उसने इंद्र पर कई बार चढाई की तथा कई बार उसे परास्त किया । एक बार तो उसने इंद्र को निगल भी लिया । इसका कारण यह था कि, इंद्र एक बार प्रदोषव्रत में महादेव जी की पिंडी लांघ गया था
[स्कंद.१.१.१७] ।
इंद्र n. वृत्रासुर ने इंद्र को हराया इस लिये गुरु के उपदेशानुसार इंद्र ने साभ्रमती के तट पर दुर्धर्षेश्वर की प्रार्थना की । तब शंकर ने इसे पाशुपतास्त्र दिया, जिससे उसने वृत्रासुर का वध किया
[पद्म. उ. १५३] । पराभव हुआ तब इंद्र शंकर की शरण गया । शंकर ने उसे वज्र दिया जिससे उसने वृत्रासुर का वध किया
[पद्म. उ.१६८] । इंद्र ने वृत्रासुर के वध के लिये दधीचि से आस्थियॉं मांगी । विश्वकर्मा ने उससे वज्र तैयार किया । षण्डामर्क, वरत्री तथा त्वष्टा इन दैत्ययाजकों को इंद्र ने जला कर मारा
[ब्रह्मांड. ३.१.८५] ; दधीचि९ देखिये ।
इंद्र n. विश्वरुप, वृत्रासुर तथा नमुचि इनके वध के कारण, इंद्र को ब्रह्महत्या लगी । इसलिये डर कर वह कहीं तो भी कमल के अंदर छुप गया । इस समय दो इंद्र हुए । नहुष तथा ययाति किन्तु उनका शीघ्र ही पतना हुआ
[स्कंद.१.१.१५] । यह ब्रह्महत्या किस तरह दूर हुई, इसका वर्णन पुराणों में भिन्न प्रकार से दिया गया है । ब्रह्महत्या के चार भाग किये गये । वे भूमि, वृक्ष, जल एवं स्त्री को एक वरदान दे कर दिये । पृथ्वी पर आप ही आप गड्ढों का भरना तथा उस पर क्षार कर्कट के रुप में जमना, वृक्ष जहां से टूटे वहां अंकुरों का फूटना तथा गोंद का निकलना, जिसमें पानी मिलाया जाये उसका बढना एवं उसमें फेन आना, स्त्रियों को गरोदर रहते हुए भी प्रसूति काल तक संभोग करने की क्षमता परंतु रजोदर्शन होना, ये वरदान तथा ब्रह्महत्या के परिणाम है
[भा ६.९] ;
[स्कंद १.१.१५] ;
[लिंग.२.५१] । ‘रक्षॉंसि ह वा’ इस मंत्र में इस संबंध में निर्देश किया गया है । ये पातक विश्वरुप की हत्या का है । परंतु पद्मपुराण में यह विवरण वृत्रासुरहत्या के पातक पर दिया गया है
[पद्म. ३.१६८] । इसी पुराण में इन पातकों के निवारणार्थ इसने तप किया तथा पुष्कर, प्रयाग, वाराणसी आदि तिथी पर स्नान किया ऐसा दिया गया है
[पद्म. भू. ९१] । यह पातक नष्ट हो, इसलिये इसने अश्वमेध यज्ञ किया । नमुचि के वध से लगी ब्रह्महत्या के शमनार्थ अरुणा पर स्नान किया
[म.श.४२.३५] । इंद्रागम तीर्थ (इसके आने के कारण यह नामकरण हुआ) । में स्नान करने से इसके पाप दूर हुए
[पद्म. उ. १५१] । त्रिस्पृशा एकादशी के व्रत के कारण इसके पाप दूर हुए
[पद्म. उ.३४] ; अहल्या देखिये ।
इंद्र n. एक बार देवासुरसंग्राम हुआ जिसमें देवताओं को असुरों पर कब्जा पाना कठिन लगा तब सूर्यवंशी पुरंजय को, मदद लिये उन्हों ने निमंत्रित किया । पुरंजय ने कहकर भेजा कि, यदि इंद्र मेरा वाहन बने तो मैं आउंगा । इंद्र ने पहले तो आनाकानी की, पर अंत में मान गया । तथा महावृषभ का रुप धारण किया
[भा. ९.६] । हिरण्यकशिपु ने स्वर्ग जित लिया तथा देवताओं को कष्ट दिये, इसलिये विष्णु ने नृसिंह का रुप धारण कर उसका वध कर के, इंद्र को स्वर्ग वापस दिया । शत्रुओं से कष्ट न होवे, इसलिये इंद्र ने यमुना के तट पर हजारों यज्ञ किये, जिससे ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश प्रसन्न हुए
[पद्म. उ.१९९] । प्रह्राद आदि दैत्यों ने एक बार इन्द्र का स्वर्ग जीत लिया, तब रजि ने उसे वापस दिलवाया ।
इंद्र n. इस उपकार के लिये, तथा प्रह्रादादि दैत्यों से रक्षा होते रहे, इसलिये इसने उसे ही इंद्रपद दे दिया परंतु आगे चल कर, उसके पुत्र इंद्रपद वापस नहीं दिये, बृहस्पति ने अभिचारविधान से उनकी बुद्धि भ्रष्ट की । भ्रष्टबुद्धि के कारण वे भ्रष्टबल हो गये हैं ऐसा देख कर इंद्र ने उनका वध किया
[भा.९.१७] ;
[मत्स्य. ४४] ;
[ब्रह्म.११] । पुराणों में नहुष कब इंद्र हुआ इस संबंध में मतभेद होने के कारण, उसका निश्चित समय ठीक समझ में नहीं आता । इंद्र एक बार बलि को जीत कर उतथ्य के आश्रम में गया । वहां उसकी सुंदर स्त्री को शैया पर सोये देख, उसने उससे जबरदस्ती संभोग किया । स्त्री गरोदर थी । अंतर्गत गगर्भ ने अपना पतन न हो इसलिये योनिद्वार अपने पैरों द्वारा अंदर से बंद कर लिया, इस कारण इंद्र का वीर्य धरती पर गिरा । यह अपने वीर्य का अपमान हुआ देख, इंद्र ने गर्भ को जन्मांध होने का शाप दिया (दीर्घतमस् देखिये) । परंतु इसके कारण हतवीर्य होकर, इंद्र मेरु की गुफा में जा छिपा । इस समय दैत्यों ने बलि को इंद्रासन पर बैठाया । सारे देवताओं ने गुफा के पास जा कर उसे वापस लाया तथा बृहस्पतिद्वारा अक्षय्यतृतीया व्रत्र उससे करवा कर, उसे पूर्ववत् ऐश्वर्यसंपन्न बनाया
[स्कंद. २.७.२३] ; बृहस्पति देखिये । चित्रलेखा तथा उर्वशी को केशी दैत्य भगा ले गया । पुरुरवस् ने उन्हें छुडाया तथा उर्वशी इंद्र को दी
[मत्स्य. २४.२५] । कितव नामक एक दुराचारी मनुष्य मृत हुआ । मरते समय उसे अपने दुराचार पर पश्चात्ताप हुआ, इसलिये यम ने उसे तीन घंटे के लिये इंद्रपद दिया । उतने समय में इसने सारी चीजें ऋषि आदि लोगों को दान में दीं । इंद्र जब फिर से इंद्रपद पर आया, तब उसने यम से सारी चीजें वापस मँगवा लीं । कितव आगे चल कर बलि हुआ
[स्कंद.१.१.१९] । हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष का वध इंद्र ने करवाया, इसलिये दिति ने इंद्रघ्न पुत्र निर्माण करने की तैयारी चालू की । इंद्र ब्राह्मणवेश में उसकी सेवा करने लगा । योग्य अवसर पा कर उसने दिति के गर्भ के उनपचास टुकडे किये । तदनंतर गर्भ के बाहर आ कर सारी बात उसें बतायी । तब उसने इनकी नियुक्ति विभिन्न वायुओं पर करवा ली, तथा बंधुभाव से उनसे व्यवहार करने का वचन ले कर इसे छोड दिया मरुत् देखिये;
[मत्स्य. ७-८] । दिति ने वज्रांग नामक पुत्र उत्पन्न कर, उसे इंद्र को मारने भेजा । उसने इंद्र को बांध कर लाया तथा उसे मारनेवालाही था कि, ब्रह्माजी ने बीच में पड कर मधुर शब्दों द्वारा उसे रोका (वज्रांग देखिये) । मेघनाद ने इंद्र को पराजित किया (इंद्रजित् देखिये) । इंद्रने वज्रांग स्त्री वज्रांगी को कष्ट दिये । इसलिये वज्रांग ने उससे तारक नामक पुत्र उत्पन्न कर, उसे इंद्र पर आक्रमण करने भेजा । उसने इंद्र से बहुत समय तक युद्ध किया । इंद्र ने जंभासुर को पाशुपतास्त्र से मारा । तारक ने सब देवताओं को बांध कर लाया बाकी लोगों ने बंदरों का रुप धारण किया । उनके हावभावों से संतुष्ट हो कर, तारक ने सब देवताओं को छोड दिया । इसी समय तारक ने इंद्रपद का उपभोग लिया था
[स्कंद.१.१.१५-२१] । गौतम की स्त्री अहल्या ने उत्तंक को सौदास राजा के पास से कवचकुंडल लाने को कहा । राह में इंद्र ने वृषभारुढ पुरुष के रुप में उसे दर्शन दिया । उत्तंक को वृषह का पुरीषपान करने को कहा । उत्तक को नागलोक में अश्वारोही बन कर फिर से दर्शन दिये । अश्व का अपानद्वार उससे फुंकवाकर वासुकि आदि नागों को शरण ला कुंड फिरसे प्राप्त करा दिये । गुरु के घर जल्दी पहुंच जावे इसलिये इंद्र ने उत्तंक को वही घोडा दिया जिसके कारण क्षणार्ध में वह गुरुगृह पहुंच गया । इस कथा में वृषभ माने अमृतकुंभ तथा उसका पुरीष, अमृत है । वह पुरुष इंद्र एवं अश्व अग्नि है
[म.आ.३] । सुमुख को इसने पूर्णायु किया इसलिये गरुड उस पर नाराज हुआ । विष्णुजी की मध्यस्थता ने इस का पक्ष सम्हाला गया (गरुड देखिये) । एक बार इंद्र तथा सूर्य भ्रमण कर रहे थे । तब एक सरोवर में स्नान करने के कारण, स्त्री बने ऋक्षरज पर यह मोहित हुआ तथा उसके केशों पर इन्द्र का वीर्य जा गिरा । इस कारण तत्काल एक पुत्र उत्पन्न हुआ । वही वाली है (वालिन् देखिये) । राम रावण युद्ध के समय जब रावण रथारुढ हो कर आया तब इन्द्र ने सारथीसहित अपना रथ भेजा था
[म. व.२७४] । यह दमयंती के स्वयंवर में गया था
[म.व.५१] ; नल देखिये । इन्द्र के प्रसाद से कुंती को अर्जुन उत्पन्न हुआ
[म.आ.९०.६९] । नंदादि गोप लोगों द्वारा कृष्ण ने गोवर्धनयाग करा कर इंद्र का अपमान किया
[भा.१.३-२८, १०.२५. १९] ;
[ब्रह्म. १८८] । अर्जुन से मिल कर दिव्यास्त्र प्राप्त कर लेने को कहा
[म. व. ३९.४३] । कर्ण के शरीर पर कवच कुंडल होने के कारण वह अजिंक्य तथा अवध्य है ऐसा जान कर ब्राह्मणरुप से उसके पास जा, उसकी दानशूरता से संतुष्ट हो कर, उसे इसने एक अमोघ शक्ति दी (कर्ण देखिये) । सारे देवता इंद्र को छोड कर दूसरे को इंद्रपद दे रहे हैं यह देख इंद्राणी ने बृहस्पति को शाप दिया कि, तेरे जीते जी इंद्र तेरी स्त्री से एक पुत्र उत्पन्न करेगा । इस कृत्य के कारण गुरुपत्नी समागम का इसे दोष लगा
[स्कंद. १.१.१९] । इस पातक का क्षालन मृत्यु के सिवा होना संभव नहीं इस लिये, मृत्यु होने तक पानी में डूब कर रहने के लिये बृहस्पति ने कहा
[स्कंद.१.१.५१] ।
इंद्र n. पुराणों में इंद्र को प्रथम स्थान नहीं है परंतु त्रिमूर्ति के पश्चात है । यह अंतरिक्ष तथा पूर्व दिशा का राजा है । यह बिजली चलाता तथा फेंकता है, इंद्रधनुष सज्जित करता है । सोम रस के लिये इसे तीव्र आसक्ति है । असुरों से युद्ध करता है । असुरों का इसे भय लगा रहता है ।
इंद्र n. यह रुपवान है । श्वेत अश्व या हाथी पर वज्र धारण कर सवारी करता है । प्रत्यक्ष रुप से इसकी पूजा नहीं होती है । शक्रध्वजोत्थान त्यौहार में इसकी पूजाविधि हैं । इसका निवासस्थान स्वर्ग, राजधानी अमरावती, राजवाडा वैजंयत, बाग नंदन, गज ऐरावत, घोडा उच्चैःश्रवा, रथ विमान, सारथि मातली, धनुष्य शक्रधनु एवं तलवार परंज है ।
इंद्र n. बृहस्पति ने बताय कि, सब गुणोंका अंतर्भाव साम में होता है
[म. शां. ८५.३ कुं.] उसका उपयोग शत्रु के साथ करना चाहिये
[म. शां. १०४] । प्रह्राद ने अपने शीलबल से इंद्रपद फिर प्राप्त किया । उस समय इंद्र ने मोक्षप्राप्ति का श्रेष्ठ उपाय बताया । इससे भी श्रेष्ठ ज्ञान है ऐसा शुक्र ने बताया तथा उससे भी अधिक श्रेष्ठ शील है ऐसा प्रह्राद ने बताया
[म.शां.१२४-१२९ कुं.] । इसका एक बार महालक्ष्मी से संवाद हुआ
[म.शां. २१८ कुं.] । नमुचिमुनि ने भगवान के चिंतन से मिलनेवाला श्रेय इसे बताया
[म.शां. २१६] । इसका महाबलि से भी संवाद हुआ था
[म.शां२१८ कुं.] मांधाताने इसे राजधर्म बताया
[म.शां. ६४ कुं.] । युद्ध में मृत्यु अर्थात स्वर्गप्राप्ति ऐसा अंबरीष ने बताया
[म.शां९९ कुं.] अग्नि इसे ब्राह्मण तथा पतिव्रता का महत्त्व बताया
[म.अनु.१४ कुं.] । शंबर राजर्षि ने इसे ब्राह्मणमाहात्म्य बताया
[म. अनु. ७१ कुं.] । प्रशंसनीय क्या है यह एक शुक पक्षी ने बताया
[म.अनु.११ कुं.] । किसी भी प्रकार की नौकरी के लिये आवश्यक गुण मातलि ने इसे बताये
[म. अनु. ११ कुं.] । धृतराष्ट्र गंधर्व के रुप में, गौतम ने इस से संवाद किया
[म. अनु. १५९ कुं.] । ब्राह्मण्यप्राप्त्यर्थ इंद्र को उद्देशित कर, मतंग ने तप किया, जिससे उसे ब्राह्मण्य प्राप्त हुआ
[म. अनु.४.१-१६ कुं.] ।
इंद्र n. कृष्ण , नरकासुर को मार कर सत्यभामासहित नंदनवन पर से जा रहा था, तब पारिजातक वृक्ष उसे दिखाई पडा, जिसे वह उखाड कर ले गया
[ह. वं. २.६४] । उसने इंद्र से वह वृक्ष पहले मांगा तब इंद्र आनाकानी करने लगा । इन्द्र ने जयंतसहित कृष्ण से युद्ध किया परंतु कृष्ण ने इसे पराजित कर दिया तथा पारिजात वृक्ष ले गया
[ह. वं. २.७५] । ऐसी परस्पर विरोधी घटना एक ही ग्रंथ में दी है । इसे जयंत को छोड, ऋषभ एवं मीढुष ऐसी दो पुत्र ह्ते
[भा. ६.१८.७] ।
इंद्र n. इंद्र ने ब्रह्मकृत राजनीतिशास्त्र संबंधी ‘वैशालाक्ष’ ग्रंथ को संक्षिप्त कर, ‘बाहुदंतक’ नामक पांच हजार अध्यायों का संक्षिप्त ग्रंथ बनाया
[म. शां. ५९.८५-८९] । वैद्यक शास्त्र में भी इंद्र के नाम पर, अनेक औषधियों के पाठ हैं ।
इंद्र II. n. वायु का शिष्य । इसका शिष्य अग्नि
[वं .ब्रा २] ।