और्व n. एक कुल । भृगुवंश में होने के कारण भृगु से इसका निकट संबंध था
[ऋ. ८.१०२.४] एतश और्वो में से एक था । इस कुल का अभ्याग्निं ऐतशायन पापिष्ठ है ।
[ऐ. ब्रा.६.३३] ;
[सां. ब्रा. ३०.५] । और्वों ने स्वतः अत्रि से पुत्र प्राप्त किये थे ।
[तै. सं. ७.१.८.१] । दो और्वो का उल्लेख सम्मान के साथ आया है
[पं.ब्रा.२१.१०.६] । और्व यह भृगु के बडे कुल की शाखा रही होगी । और्व गौतम, भारद्वाज इन तीन गोत्रों का उल्लेख भी है
[स. श्रौ.१.४] । परीक्षित के प्रायोपवेशन के समय आया हुआ एक आचार्य
[जै. ब्रा.१.१८] । एक ब्रह्मर्षि
[भा. १.१९.१०] । च्यवन ऋषि की भार्या मनुपुत्री आरुपी का पुत्र
[म.आ.६०.४५] । इसका नाम ऊर्ब है
[म. अनु.५६] । आत्मवान् तथा नाहुषी का पुत्र
[विष्णुधर्म. १.३२] । कृतवीर्य नामक एक हैहयवंशीय के उपाध्याय भृगुकुलोत्पन्न थे । कृतवीर्य ने बहुत से यज्ञ कर भृगुओं को बहुत सी संपत्ति दी थी । भविष्य में कृतवीर्य के वंशजों को द्रव्य का अभाव महसूस होने लगा । तब उन्होंने अपने उपाध्याय के पास द्रव्य की मॉंग की । कुछ लोगों ने भय में द्रव्य दिया । कुछ लोगों ने जमीन में गाड कर रख दिया । एक भार्गव ऋषि का घर खोद कर देखने पर कुछ प्राप्त हुआ । इससे कृतवीर्य के वंशज अत्यंत क्रोधित हुए तथा भार्गव ऋषियों के शरण आने पर भी उनका संहार करना प्रारंभ कर दिया । इतना ही नहीं वे गर्भ का भी नाश करने लगे । तब भृगुवंश की स्त्रियॉं भयभीत हो कर, हिमालय की ओर चली गई । जाते जाते एक स्त्री ने अपना गर्भ गर्भाशय से निकाल कर जंघा में रख लिया । यह बात एक स्त्री ने राजा को बताई । हैहय गर्भ का वध करने वाला ही था, इतने में सौ वर्षो तक जंघा में रह वह गर्भ बाहर आया । उसके तेजसे क्षत्रिय नेत्रहीन हो गये । बाद भें उन अंधे क्षत्रियों द्वारा और्व को, ‘प्रसन्न हो’ कहते ही उन्हें दृष्टि प्राप्त हो गई । माता के उरु से निर्माण होने के कारण इसे और्व नाम प्राप्त हुआ
[म.आ.६०.४५,१६९-१७०] ;
[अनु. ५६] । हैहयवंशीय राजाओं ने अपने ज्ञातिबांधवों को कष्ट दिया, इसलिये बडे होने पर भी इसने उनके संहार के लिये तप किया । परंतु हमें मृत्यु प्राप्त हो, इस हेतु से ही हमने यह अन्यायपूर्ण कृत्य किया । हमारी मृत्यु के लिये तुम क्रोधाविष्ट मत बनो, ऐसा पितरों ने उसे बताया । तब पितरों के संतोष के लिये इसने अपना क्रोधाग्नि समुद्र में छोड दिया । पराशर को राक्षसों के नाश से निवृत्त करने के लिये वसिष्ट ने यह कथा बताई
[म.आ.१६९-१७०] । इसका उग्र तप देख कर ब्रह्मदेव ने सरस्वती के द्वारा इसे समुद्र में डाल दिया । वहॉं अग्नितीर्थ उत्पन्न हुआ
[स्कंद. पु.७.१.३५] । अयोध्याधिपति वृकपुत्र बाहु को उसके शत्रु हैहय तथा तालजंघ ने राजच्युत किया । बाद में इसके आश्रम के पास आ कर बाहु की मृत्यु हो गई । तब उसकी पत्नी सती जाने लगी । परंतु यह गर्भवती है, यह देखकर और्व ने उसे सती जाने से निवृत्त किया । बाद में उसे सगर नामक पुत्र हुआ । और्व ने सगर को अनेक अस्त्र तथा शस्त्रों की शिक्षा दी । राम का प्रख्यात आग्नेयास्त्र भी सिखाया । तदनंतर सगर ने हैहय, तालजंध, यवन इन सबको जीत लिया । तब वसिष्ठ ने इसे राज्याभिषेक किया । राज्याभिषेक के समय, यह आया तथा इसने केशिनी एवं सुमति
[नारद.१.८] , प्रभा तथा भानुमती
[लिंग.१.६६] इन सगर की पत्नियों को संतानवृद्धिदायक वर दिये
[मत्स्य. १२] ;
[पद्म. सृ. ८] ;
[लिंग.१. ६६] ;
[नारद.१.७. ८] ;
[भा.९.८,९. २३] । इसने सगर का अश्वमेध किया
[भा. ९.८] । इसका पुत्र ऋचीक
[म. आ.६०.४६] ;
[म.अनु.५६] । परीक्षित् शापित होने पर जो ऋषि उससे मिलने आये उनमें यह था
[भा.१.१९] । और्व तथा ऋचीक एक हैं
[विष्णुधर्म.२.३२] । इसका नाम अग्नि होगा तथा ऊर्व का वंशज होने के कारण, इसे और्व नाम प्राप्त हुआ होगा । इसका काल जमदग्नि के पश्चात् का होगा
[कूर्म.१.२१] । इसके नाम का अर्थ उर्वी पर रहनेवाला अर्थात् पृथ्वी पर रहनेवाला होगा । जमदग्नि गंगा किनारे रहते थे । इस जानकारी में यह भी पाया जाता है कि, और्व मध्य देश में रहते थे, तथा वहीं इनके विवाह हुए थे
[पद्म. उ. २६८.३] । परंतु ब्रह्मांड में उल्लेख है कि, यह नर्मदा पर था
[ब्रह्मांड. ३.२६, ४५] । इसने सगर की सहायता की । परंतु रामायण में भृगु द्वारा सहायता का उल्लेख है । यह अंतिम और्व है । हैहयादिकों का नाश सगर द्वारा होने पर भी कहा जाता है कि, वह सारा पराक्रम परशुराम ने किया । इसका कारण यह है कि, और्व ने उसे आग्नेयास्त्र सिखाया था । परंतु आगे चल कर इन दो और्वो में गडबड हो गई ऐसा प्रतीत होता है । यह भृगुगोत्रीय हो कर मंत्रकार भी था ।
और्व II. n. इसका पिता भृगुवंशीय ऊर्व, जब तप कर रहा था, तब सब देव एवं ऋषि इससे मिलने आये । तदनंतर विवाह कर से प्रजोत्पादन करने की प्रार्थना ऋषियों ने इससे की । तब इसे ऐसा लगा, ‘इन ऋषियों के मत में मेरे जैसा तपस्वी, बिना विवाह के प्रजोत्पादन करने में असमर्थ रहेगा ।’ इसलिये इसने कहा, ‘यह देखो, मैं पुत्र उत्पन्न करता हूँ किन्तु वह भयंकर होगा । ’ ऋषियों को ऐसा बताकर इसने अपनी जंघा अग्नि में डाली । तदनंतर एक दर्भ से उसका मंथन करके उस जंघ से एक पुत्र निर्माण किया । उसीका नाम और्व है
[मत्स्य. १७५] । पुत्र के साथ उत्पन्न माया, ऊर्व ने हिरण्यकश्यपु को दी
[पद्म. सृ. ३८] ;
[ब्रह्मांड. ३.१.७४-१००] । जन्मतः यह खाने के लिये मांगने लगा । तथा इसने संसार का दाह करना आरंभ कर दिया । इस प्रकार तीन दाह करने के बाद ब्रह्मदेव ने स्वयं आकर इससे प्रार्थना की । जहॉं मैं स्वयं रहता हूँ उसी समुद्र में इस बालक को स्थान देना मान्य किया तथा कहा कि, मैं स्वयं एवं यह बालक युग कें अंत में संसार का नाश करेंगे । ऐसा कहने पर अपना तेज पितरों में डाल कर यह और्वाग्नि समुद्र में रहने के लिये गया
[मत्स्य. १७५] ;
[पद्म. सृ.३८-४१] । यह विष्णु ही था
[म. व. १८९] ;
[ब्रह्मांड. ३.७२] । इसी युग के अंत में प्रलयकारक, पाताल का विषाग्नि, विष्णु के मुख से निकला हुआ तथा शंकर के तृतीय नेत्र में रहने बाला है
[मत्स्य.२] । इसके वडवामुख वडवानल, संवर्तक तथा समुद्रप नाम हैं
[वायु. ४७] इसका पुत्र संवर्तक अग्नि है
[मत्स्य. ५२] । यही और्वाग्नि कहलाता है ।
और्व III. n. मालव देश में रहनेवाला एक ब्राह्मण । इसकी पत्नी का नाम सुमेधा तथा पुत्री का नाम शमीका । इसने अपनी कन्या का विवाह शौनक का शिष्य, धौम्यसुत मंदार के साथ किया । विवाहोत्तर कुछ दिनों के पश्चात्, अपनी पत्नी बडी हो गई यह जान कर उसे ले जाने के लिये यह और्व के घर आया । और्व ने बडे आनन्द से उन्हें बिदा किया । मार्गक्रमण करते समय राह में भृशुंडी को देख कर दोनों हँस पडे । इसलिये उसने इन्हें ‘वृक्ष बनो’ ऐस उश्शाप देने पर वे वृक्ष बने । और्व तथा शौनक जब ढूँढते ढूँढते आये, अब उन्हें पता चला कि वे वृक्ष बन गये हैं । तब इन्हें अत्यंत दुख हुआ । इन्होंने ईश्वर की आराधना की । और्व अग्निरुप से शमीवृक्ष में रहा तथा मंदार की मूली से गणेशमूर्ति बना कर उसका पूजन करता हुआ शौनक आश्रम में गया । दोनों के अनुष्ठान से शमीमंदार गणेश को प्रिय हुआ
[गणेश. २.३६] ।
और्व IV. n. स्वारोचिष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक ।
और्व V. n. सावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक ।