कर्ण n. कुंती का सूर्य से उत्पन्न पुत्र
[म. आ.१०४.११] । जन्मते ही कुंती ने इसे अश्व नदी में छोड दिया
[म.व.२९२. २२] । संदूक में यह बालक बहते बहते चर्मण्वती नदी में आया । वहॉं से यमुना तथा भागीरथी नदी में बहते समय, उसे धृतराष्ट्रसारथि अधिरथ ने देखा । इसे ले कर उसने अपनी पत्नी राधा को दिया । यह बालक देखते ही उसकी ऑखों में आनंदाश्रु आ गये । जन्मतः कर्ण पर कवच तथा कुंडल होने के कारण यह अब तक जीवित था । देवदत्त पुत्र मान कर राधा ने इसका भरणपोषण किया । यह तेजस्वी था, इसलिये राधा ने इसका नाम वसुषेण रखा
[म. आ. ६४,६८,१०४.१५] ;
[म. क. २१. १४] ।
कर्ण n. इसका बाल्य काल अंगदेश में गया । द्रोणाचार्य ने इसे शस्त्रास्त्रविद्या सिखाई
[म. शां. २.५] । यह शस्त्रास्त्रविद्योद्यत था
[म.आ.६८,१०४.१६] । परीक्षा के मैदान में प्रविष्ट होने पर इसने द्रोण तथा कृप को नमस्कार किया, जिस में आदर के भाव नहीं थे
[म. आ. १२६.६] । इसने द्रोण से ब्रह्मास्त्र सिखाने के लिये केवल प्रार्थना की थी
[म.शां.२.१०] । कृष्ण ने कहा है कि, यह सब वेद तथा शास्त्र जानता था
[म. उ. १३८.६-७] । कर्ण अर्जुन पर भी श्रेष्ठत्व प्राप्त कर सकता था इसका दुर्योधन ने अनुभव किया था । जिस समय कौरवपांडवों में विरोध प्रारंभ हुआ था, तबसे इसे उत्तेजना दे कर, उसने अपने पक्ष में कर लिया था । यद्यपि कर्ण ने द्रोण से धनुर्विद्या प्राप्त कर ली थी, तथापि उसे ब्रह्मास्त्रप्राप्ति नहीं हुई थी । इस एक ही कारण से अर्जुन इससे श्रेष्ठ हो गया था । तब इसने द्रोण से कहा, ‘निष्पत्ति प्रकार तथा उपसंहर के साथ मुझे ब्रह्मास्त्र सिखाओ।’ परंतु कुछ कारणवश द्रोण ने यह अमान्य कर दिया । परंतु अर्जुन से श्रेष्ठत्व प्राप्त करने की इसकी महत्त्वाकांक्षा होने के कारण, यह महेन्द्र पर्वत निवासी परशुराम के पास गया । परशुराम क्षत्रियद्वेष्टा होने के कारण, वह क्षत्रियों को विद्या नहीं सिखाता था । स्वकार्य यशस्वी करने के लिये, कर्ण ने असत्य कथन किया एवं परशुराम को उसने बताया कि, वह भृगुकुलोत्पन्न ब्राह्मण है, इसलिये शिष्य बन कर रहने की अनुमति परशुराम ने दी । उसने कर्ण को सप्रयोग एवं यथाविधि ब्रह्मास्त्र सिखाया । एक दिन उपवास से श्रांत परशुराम कर्ण की गोद में सिर रख कर सोया था, तब एक कृमि ने आ कर उनकी जांघ काट खायी । रक्त स्पर्श से परशुराम जागृत हुआ । इतनी वेदनाए कोई ब्राह्मण शांति से सहन नहीं कर सकता, यह सोच कर कर्ण के बारे में परशुराम के मन में शंका उत्पन्न हुई । चाहे जो हो, यह अवश्य क्षत्रिय है । कर्ण ने सत्यकथन कर उसे संतुष्ट किया, तथापि इसे शाप मिला कि, बराबरी के योद्धा से युद्ध करते समय, तथा अंतिम समय इसे अस्त्र की स्फूर्ति न होगी, अन्य समय पर होगी । असत्यकथन के कारण, परशुराम ने कर्ण से जाने के लिये कहा, परंतु यह आशीर्वाद भी दिया कि, तुम्हारे समान दूसरा कोई भी क्षत्रियोद्धा न होगा
[म.शां. ३.३२] ।
कर्ण n. एक बार धनुष्य बाण समवेत यह आश्रम के बाहर गया हुआ था, तब असावधानी से एक ब्राह्मणधेनु का बछडा इसके द्वारा मारा गया । तब उस ब्राह्मण ने इसे शाप दिया, ‘युद्ध में भूमि तुम्हारे रथ का पहिया निगल लेगी तथा असावध अवस्था में तुम्हारा शिरच्छेद होगा,’ । इससे कर्ण को अत्यंत दुख हुआ । इसने धन दे कर उःशाप मांगने का प्रयत्न किया, परंतु उसने इसका धिक्कार किया
[म. क. २९] ;
[शां. २.२३-२९] ।
कर्ण n. धृतराष्ट्र की अनुज्ञा से द्रोण ने कौरव पांडवों का शस्त्रास्त्रकौशल्य देखने के लिये रंगमंच तैय्यार किया । परंतु कर्ण ने कहा कि, अर्जुन के द्वारा दिखाये गये कौशल की अपेक्षा अधिक कौशल मैं दिखा सकता हूँ । तब कौरव पांडवों का झगडा हो कर, कर्ण ने अर्जुन को द्वंद्व युद्ध का आव्हान दिया । उस समय सब लोग आश्चर्य मूढ हो कर, कर्ण की ओर देख रहे थे । परंतु दुर्दैव से कर्ण का जन्मवृत्त किसी को मालूम न होने के कारण इसे यहॉं नीचा दिखना पडा । इसके अतिरिक्त कर्ण का पालनकर्ता पिता आधिरथ वहॉं आया तथा कर्ण ने उसे नमस्कार किया । तब सब लोक सूत, सूतपुत्र आदि कह कर इसकी अवहेलना करने लगे । इस समय कुंती की परिस्थिति भय, आनंद एवं दुखांमश्रित हो गई थी । पुत्रप्रेम से उसका हृदय भर आया । परंतु उसकी अवहेलना तथा पांडववैर देख कर उसे अत्यंत दुख हुआ
[म.आ.१२६] ।
कर्ण n. कर्ण के राजपुत्र एवं क्षत्रिय न होने के कारण, यह अपमान उसे सहना पडता था । उस समय दुद्योधन ने कहा कि, शौर्य कुल पर निर्भर नहीं रहता । उसने कर्ण को अंगदेश का राज्य दे कर गौरवान्वित किया । इस उपकार के विनिमय की पृच्छा करने पर दुर्योधन ने कर्ण से मित्रत्व भाव कायम रखने की इच्छा प्रदर्शित की । इस प्रकार वाल्यावस्था से इनमें अकृत्रिम मित्रत्व स्थापित हो कर इसने उसके लिये मृत्यु तक का स्वीकार किया
[म.आ.१२६] ।
कर्ण n. इसने मल्लयुद्ध कर के जरासंध का जोड ढीला कर दिया, इसलिये जरासंध ने इसे मालिनीनगर दे कर इससे स्नेहसंपादन किया
[म.शां. ५.६] ।
कर्ण n. कर्ण ने काफी सूतकन्याओं से विवाह किये
[म.उ. १३९.१०] । द्रौपदीस्वयंवर में यह मत्स्यभेद के के लिये आगे बढा, तब द्रौपदी ने कहा, “मैं सूतपुत्र को नहीं वरुँगी।" यह सुन कर इसे पीछे हटना पडा
[म.आ.१७८.१८२७] ।
कर्ण n. कौरव पांडवों के वैर के कारण निष्कारण कर्ण तथा पांडवों में बैर आया । यह देख कर कुंती को अत्यंत दुख हुआ । उसने इसका समाधान कर के पांडवों की सहायता के लिये, इसे प्रवृत्त करने के लिये शिष्टाई के हेतु से कृष्ण को इसके पास भेजा । शिष्टाई के बाद कृष्ण कर्ण के पास गया तथा उसने कर्ण से उसका जन्म वृत्त बता कर कहा, कि तुम्हें सार्वभौम पद का लाभ होगा । पांडवों के समान शूर नररत्न तुम्हारी सेवा करेंगे । द्रौपदी तुम्हारी अर्धागी बनेगी । कौरवों द्वारा तुम्हारी हार नहीं होगी, तथा भविष्य में होनेवाला क्षय भी टल जायेगा । सब कार्य ठीक से होगा । ऐसे कई प्रलोमन इसे दिखाये । कर्ण ने उत्तर में कृष्ण से कहा कि, यद्यपि कुन्ती मेरी माता है एवं पांडव मेरे बंधु है ये कथन मुझे मान्य है, तथापि मुझे नदी में छोड कर, कुन्ती ने बडी भारी भूल की है । उसी के कारण मुझे अधिरथ के पास रहना पडा । मैं ने सूतकन्याओं से विवाह किये तथा उनसे मुझे पुत्रपौत्रादि भी हुए । इन कारणों से, एवं राधा के अनुपम एवं अकृत्रिम प्रेमपाश से मैं बद्ध गया हूँ । अब यह संबंध तोडना मेरे लिये असंभव है । इसके अतिरिक्त मैं ने दुर्योधन को वचन दिया है कि, मैं उससे आमरण मित्रत्व रखूँगा । इस परिस्थिति के कारण पांडवों के पक्ष में आना मेरे लिये अनुचित है । यह सुन कर कृष्ण निरुत्तर हो गया
[म. उ.१३९] ।
कर्ण n. कुंती स्वयं कर्ण से मिलने गई, तथा पुत्र कह कर अपना परिचय उसे दिया । तब प्रथम बताये अनुसार सारा वृत्त कथन कर के, पांडवों का पक्ष लेना उसने साफ अमान्य कर दिया । परंतु कुंती के कथनानुसान वचन दिया कि, मैं केवल अर्जुन से युद्ध कर के उसका वध करँगा, अन्य पांडवों को मैं हानि नहीं पहुँचाउँगा । सुन कर कुंती वापस चली गई
[म.उ.१४४] । द्रोणवध के बाद कर्ण सेनापति हुआ । तब महासमर की आज्ञा मांगने के लिये कर्ण भीष्म के पास गया । उस समय भीष्म ने इसे इसका जन्मवृत्त कथन कर, युद्ध से परावृत्त करने का प्रयत्न किया । परंतु कर्ण ने उसकी बात न सुनी । इसी समय कर्ण ने भूतकाल में किये गये अपने कृत्यों के लिये, भीष्म से क्षमायाचना की
[म. भी.११७] ।
कर्ण n. कौरव घोषयात्रा के लिये गये थे, तब कर्ण भी उनके साथ गया था । वहॉं चित्रसेन गंधर्व के साथ दुर्योधन का युद्ध हो कर उसमें प्रथम कर्ण ने गंधर्वो का पराभव किया । परंतु बाद में संपूर्ण सेना ने उसीपर आक्रमण किया एवं उसे भग्नरथ कर के विकर्ण के रथ में बैठ कर भागनेके लिये मजबूर किया
[म.व.२३१] ।
कर्ण n. पांडव अज्ञातवासकाल में जब विराट के पास रहते थे, तब दुर्योधन ने विराट नगरी पर आक्रमण दिया । कीचक की मृत्यु के कारण, उस समय विराट अत्यंत निर्बल हो गया था । दुर्योधन को कर्ण, संशप्तक, वीर सुशमी आदि की सहायता प्राप्त थी, फिर भी इस युद्ध में दुर्योधन का पूर्ण पराभव हुआ । इस युद्ध में कर्णार्जुन का तुमुल युद्ध हुआ, जिस में कर्ण का पूर्ण पराभव हो कर उसके भाई शत्रुंतप का वध अर्जुन ने किया
[म.वि.५६] । यह लढाई उत्तरगोग्रहण के नाम से प्रसिद्ध है । इसी युद्ध में विराट की एक लक्ष गौएं सुशमी ने ले ली थीं
[म.वि. ४९-५५] ।
कर्ण n. कर्ण ने अर्जुन का पराभव करने की प्रतिज्ञा की, परंतु कृपाचार्य ने उसका निषेध किया । कर्ण ने बदले में उसका उपहास किया तथा कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा को मर्मभेद्य भाषण से दुखाया । झगडा बहुत बुरी तरह हुआ था, परंतु ले दे कर दुर्योधन ने सब को समझाया
[म. वि. ४३-४६] । इसने द्रुपदपुत्र प्रियदर्शन का वध किया था
[म.आ.१९२, परि.१०३ पंक्ति.१३३] ।
कर्ण n. चित्रसेन गंधर्व से दुर्योधन की रक्षा पांडवों ने की इसका स्मरण दिला कर, भीष्म ने पांडवों के साथ मेल करने के लिये दुर्योधन से कहा । तब दुर्योधन केवल हँसा । अपना अजिंक्यत्व सिद्ध कर के भीष्मादिकों का मुँह हमेशा बंद करने के लिए, योग्य मुहूर्त देख कर, कर्ण दिग्विजय के लिये निकला । प्रथम द्रुपदनगर को घेरा डाल कर द्रुपद तथा उसके अनुयायियों को जीत कर, इसने उनसे कर लिया । तदनंतर यह उत्तर की ओर गया । प्रथम भगदत्त को जीत कर, हिमवान् पर्वतीय राजाओं को भी इसने जीता तथा करभार लिया । तदनंतर पूर्व की ओर नेपाल, अंग, वंग, कलिंग, शुंडिक, मिथिल, मागध, कर्कखंड, आवशीर, योध्य, अहिक्षत्र, वत्सभूमि, मृत्तिकावती, मोहननगर, त्रिपुत्री तथा कोसला नगरी जीत कर करभार लिया । अनंतर दक्षिण की ओर कुंडिनपर के रुक्मी के साथ युद्ध किया । युद्ध में कर्णप्रभाव से संतुष्ट हो कर वह शरण में आया तथा कर्ण के साथ उसकी सहायता करने के लिये गया । पांडय, शैल, केरल तथा नील प्रदेश जीत कर, प्राप्त किया । तदनंतर शैशुपालि को जीत कर, पार्श्व तथा अवंती प्रदेश के सब राजाओं को जीता । बाद में कर्ण पश्चिम की ओर गया । वहॉं यवन तथा बर्वरों को जीत कर उसने कर लिया । इस प्रकार सब दिशाओं को जीतने के बाद, कर्ण ने म्लेच्छ, अरण्यवासी तथा पर्वतवासी राजा, भद्र रोहितक, आग्रेय, मालव आदि का पराभव किया । तदनंतर शशक तथा यवनों का पराभव कर के, नग्नजित् प्रभृति महारथी नृपसमुदाय को जीता । इस प्रकार संपूर्ण पृथ्वी पादाक्रान्त कर के, कर्ण हस्तिनापुर आया । वहॉं उसका उत्तम स्वागत हुआ । इस अपूर्व विजय के कारण दुर्योधनादि को लगा कि, युद्ध में कर्ण अवश्य ही पांडवों को पराजित कर देगा
[म.व. २४१. परि. १.२४] । जब दुर्योधन ने स्वयंवर में कलिंग के चित्रांगद की कन्या का राजपुर से हरण किया तब कर्ण ने उस की रक्षा की
[म.शां.४] ।
कर्ण n. दुर्योधन की कृपा से कर्ण अंगदेश का राजा बन सका । उस देश की सीमाएँ निम्नलिखित है । भागलपूर तथा उसके आसपास का मोंगीर प्रदेश मिला कर अंगदेश बना था । भारत के अठारह राजकीय भागों में यह एक था । चंपा अथवा चंपापुरी उसकी राजधानी थी । इस राज्य की उत्तर मर्यादा का पश्चिम ओर गंगा तथा शरयू का संगम था । यह रामायण के रोमपाद का तथा भारत के कर्ण का राज्य था । रमायण में उल्लेख हैं कि, यहीं महादेव ने मदन को मारा । इसलिये इस देश को अंग तथा मदन को अनंग नाम मिला
[वा.रा.बा.२३.१३-१४] । अंगदेश में वीरभूम तथा मुर्शिदाबाद जिले आतें है । महाभारत में लिखा हैं कि, यह देश इन्द्रप्रस्थ के पूर्व की ओर दूरस्थित मगध देश के इस ओर है । राजसूय के दिग्विजय में भीम ने कर्ण का यहॉं पराजय किया
[म.स.२७.१६-१७] । अंगदेश का नाम सर्वप्रथम अथर्ववेद में आया है
[अ. वे. ५.१४] ।
कर्ण n. अंगराज कर्ण उस समय अत्यंत प्रसिद्ध धनुर्धर था । यह मानी हुई बात थी, कि भविष्य में यह कौरव पांडव युद्ध में अर्जुन के विरुद्ध लडेगा । इसलिये इन्द्र अत्यंत चिंतित हुआ । कुन्ती को अर्जुन इन्द्र से हुआ था । पुत्र का कल्याण करना उसका कर्तव्य था, अतएव कर्ण को हतबल करने के लिये उसके कवचकुंडल मांगने का विचार उसने किया । इन कवचकुंडलों के कारण कर्ण अजिंक्य एवं अमर था तथा कर्ण के द्वारा अर्जुनवध होना संभव था । परंतु कर्ण अत्यंत उदार होने के कारण इन्द्र की इच्छा पूरी होना संभव था । जैसे अर्जुन की चिन्ता इन्द्र को थी, उसी प्रकार कर्ण की चिन्ता सूर्य को थी । इन्द्र का हेतु सूर्य को विदित था । इसलिये कर्ण के स्वप्न में आ कर सूर्य ने दर्शन दिया । सूर्य ने इसे कहा कि, इन्द्र ब्राह्मण वेष से आ कर तुम्हें कवचकुंडल मॉंगेगा परंतु तुम मत देना । कवचकुंडल अमृत से बने हुए हैं, इसलिये तुम अमर बन गये हो । कवचकुंडल दे कर तुम अपनी आयु का का क्षय मत करो, तव कर्ण ने सूर्य को पहचान लिया । कर्ण ने कहा कि, आयु की अपेक्षा कीर्ति श्रेयस्कर है, तथा कीर्ति मे ही उत्तम गति प्राप्त हो सकती है । मैं अमरत्व की आशा से कवचकुंडल की अभिलाषा नहीं रखूँगा । इस पर सूर्य ने कहा कि, अर्जुन का वध कर के जीवितावस्था में तुम कीर्ति प्राप्त कर सकते हो, अतएव कवचकुंडल देना अमान्य कर दो । परंतु कर्ण ने उसकी मंत्रणा अमान्य कर दी । यह सुन कर सूर्य को अत्यंत दुख हुआ । उसने कहा, “तुम्हारे हित की सलाह देता हूँ, फिर भी तुम नहीं मानते, तो कम से कम इन्द्र से एक शक्ति मांग लो।" कर्ण ने यह मान्य कर लिया तथा वह इन्द्र की प्रतीक्षा करने लगा
[म.व.२८४-२९४] ।
कर्ण n. एक दिन इन्द्र ब्राह्मणरुप में कर्ण के पास आया । उस समय कर्ण जप कर रहा था । उस समय इन्द्र ने उसके कवचकुंडल मॉंगे । कर्ण उदार था । किसी भी ब्राह्मण ने कुछ भी मॉंगा हो, उसे वह वस्तु अवश्य देता था । कर्ण ने तत्काल इन्द्र से हॉं कहा । यह कवच त्वचा से संलग्न होने के कारण, उसको निकाल ते समय त्वचा का छिल जान अवश्यभाव था । फिर भी कर्ण विचलित नहीं हुआ । उसने तत्काल उन्हें निकाल इअर इन्द्र को दे दिया । तब इन्द्र अत्यंत आश्चर्यचकित हुआ तथा प्रसन्न हो कर उसने एक अमोघ शक्ति कर्ण को दी तथा कहा कि, जिस पर तुम यह शक्ति फेंकोगे, उसकी तत्काल मृत्यु हो जावेगी । इतना कह कर इन्द्र गुप्त हो गया । कवचकुंडलों का कर्तन कर देने के कारण, कर्ण को वैकर्तन नाम प्राप्त हुआ
[म.आ.६७] । कवचकुंडल छील कर निकालने के कारण कुरुपता प्राप्त न हो, इसके लिये कर्ण ने शर्त रखी थी
[म.व.२९४.३०] ।
कर्ण n. भारतीय युद्ध का प्रारंभ होने के बाद भीष्म के पश्चात् द्रोण कौरवों का सेनापति बना । उस समय घटोत्कच ने कौरवसेना को अत्यंत त्रस्त किया । कृष्ण के मन सें, यद्यपि कर्ण के कवचकुंडलों का भय नष्ट हो चुका था, तथापि कर्ण की वासवी शक्ति से कृष्ण काफी संशक था । उस शक्ति का नाश करने की इच्छा से ही, उसने उस दिन घटोत्कच की योजना की थी । घटोत्कच ने कौरवसेना के असंख्य सैनिकों का नाश कर उनको बिल्कुल त्रस्त कर छोडा । तब दुर्योधन कर्ण के पास गया, तथा उस अमोघ शक्ति का प्रयोग घटोत्कच पर करने की प्रार्थना की । कर्ण ने वह अमोध शक्ति खास अर्जुन के लिये रखी थी । यह बात उसने दुर्योधन को बताई । परंतु उससे कुछ लाभ न हुआ । अन्त में नाखुशी से वह शक्ति घटोत्कच पर छोड कर उसने उसका वध किया
[म.द्रो.१५४] कर्ण n. द्रोणाचार्य के बाद कर्ण को सैनापत्याभिषेक हुआ
[म.क.६.४४-४५] । कर्ण के समान अद्वितीय योद्धा को, उतने ही अद्वितीय सारथि की आवश्यकता थी । इस समय केवल दो उत्तम सारथि थे । एक श्रीकृष्ण तथा दूसरा भद्र देशाधिपति शल्य । उनमें से कृष्ण अर्जुन का सारथि था । तब दुर्योधन ने शल्य को कर्ण का सारथ्य करने के लिये कहा । इससे क्रोधित हो कर शल्य ने कहा कि, मैं युद्ध छोड कर चला जाऊँगा । वह कौरवों का ज्येष्ठ आप्त तथा राजा था । कर्ण का जन्मवृत्त किसी को मालूम न होने के कारण, उसे सब सूतपुत्र कह कर ही जानते थे । इस लिये हीन कुलोत्पन्न का सारथ्यकर्म करना इसे अपमानास्पद प्रतीत हुआ । परंतु कर्ण के समान शल्य भी दुर्योधन के लिये तन-मन-धन खर्च करने वाला था । इसलिये यह कार्य भी उसने मान्य कर लिया । परंतु ‘सारथ्य के समय उचित प्रतीत हो, सो मैं बोलूँगा तथा उसे कर्ण को सहना ही पडेगा , यों शर्त इसने रखी
[म.क.२३.५३,२५.६] । कर्ण के सैनापत्य में घनघोर युद्ध शुरु हुआ । भीष्म, द्रोणादि के प्रहारों से पांडवों की जो आधी सेना बची थी, उन में से आधी इसने नष्ट कर दी । द्रौपदी की अप्रतिष्ठा के कारण, इसे मन ही मन काफी पश्चात्ताप हो रहा था । परंतु जिसका नमक खाया है, उसकी ईमानदारी से नौकरी करने के लिये, भीष्म द्रोणादिकों के समान इसे भी युद्ध के लिये सज्ज होना पडा । युद्ध के प्रारंभ में शल्य ने अपनी शर्त का काफी उपयोग कर लिया । हर प्रकार से अर्जुन का शौर्य तथा बल इनका वर्णन कर, उसने कहा कि, अर्जुन के समक्ष तुम टिक नहीं सकते । परंतु भयंकर युद्ध में मग्न होते हुए भी, इस प्रकार धैर्य गलित करने वाला भाषण सुन कर, कर्ण नहीं घबराया । इसने खरे खरे उत्तर दे कर उसे चुप कर दिया
[म.क.२६-२७] । किंतु इसके पश्चात शल्य ने इसे प्रोत्साहन दिया
[म.क.५७.६२] ।
कर्ण n. युद्ध चालू रहते समय, कर्ण का पुत्र वृषसेन मारा गया
[म.क.६२.६०] । इससे इसे अपरिमित दुःख हुआ तथा यह त्वेष से लडने लगा । इस प्रकार कर्णार्जुन का घनघोर युद्ध प्रारंभ हो गया । उस समय पीछेवर्णित शाप के समान इसकी स्थिति होने लगी । ब्रह्मास्त्र का स्मरण यह न कर सका । इसके रथ का पहियां भूमि में फँस गया । तब लाचार हो कर यह रथ के नीचे उतरा, तथा पहियां उठाने का प्रयत्न करने लगा । इस प्रसंग में युद्ध असंभव था, अतः उसने अर्जुन को कुछ देर रुकने के लिये कहा । परंतु कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, केवल इसी स्थिति में कर्ण का वध होना संभव है, अन्यथा असंभव है । तदनंतर कर्ण के दुष्कृत्यों का स्मरण दिला कर कृष्ण ने कहा कि, तुम्हारा वध करना ही श्रेयस्कर है । इस प्रकार कर्ण बडे ही संकट में फँस गया । इसने एक हाथ से पहियां उठाते ही, भूमिचार अंगुल ऊपर उठाई गई परंतु पहिया नहीं निकला । दूसरे हाथ से यह अर्जुन से लड रहा था । इस प्रकार व्यस्त अवस्था में अर्जुन ने इस का वध किया । इस युद्ध में धर्म, भीम तथा नकुल का पराभव कर के, कर्ण ने उन्हें छोड दिया था
[म.क ६३.६६-६७] ।
कर्ण n. कर्ण की मृत्यु से गांधारी को अत्यंत दुःख हुआ
[म.स्त्री.२१] । इसके छः पुत्र इस युद्ध में मारे गये । उनमें से सुबाहु तथा वृषसेन का वध अर्जुन ने, एवं सत्यसेन चित्रसेन तथा सुषेण का वध नकुल ने किया
[म.क.६२-६३] ;
[श. ९] । कर्ण के छः भाइयों का वध इस युद्ध में हुआ । उनमें से शत्रुंजय, शत्रुंतप तथा विपाट का वध अर्जुन ने किया
[म.वि.४९] ;
[क.३२] । एक का वध अभिमन्यु ने किया
[म.द्रो.४०.४] । द्रुस तथा वृकरथ का वध भीम ने किया
[म.द्रो.१३०.२३.१३२.१८] । अर्जुन ने कर्ण का वध किया, इस लिये धर्मराज ने अर्जुन को बधाई दी
[म.क.६९] । परंतु आगे चलकर कुंती ने बताया कि, कर्ण उसका पुत्र था
[म.स्त्री.२७.७-१२] । इससे पांडवो को अत्यंत दुख हुआ । इसी समय धर्मराज ने शाप दिया कि, स्त्रियों के मन में कुछ मी गुप्त नहीं रहेगी
[म.शां६.१०] । भविष्यपुराण में लिखा है कि, कर्ण आगे चल कर तारक नाम से जन्म लेगा
[भवि.प्रति.३.१] ।
कर्ण II. n. कश्यपगोत्रीय ऋषि ।