कार्तवीर्य n. (सो. सह.) इसकी माता का नाम राकवती
[रेणु.१४] । शिवपूजाभंग होने के कारण यह करविहीन जन्मा । मधु अगले जन्म में शिवशाप के कारण कार्तवीर्य हुआ
[रेणु.२८] । इसके लिये अर्जुन, सहस्त्रार्जुन तथा हैहयाधिपति नामांतर प्राप्त है । यह सुदर्शन चक्र का अवतार है
[नारद.१.७६] । कृतवीर्य के सौ पुत्र च्यवन के शाप से मृत हुए । केवल यह सप्तमीव्रतस्नान के कारण उस शाप से मुक्त हुआ
[मत्स्य.६८] । कृतवीर्य ने संकष्टीव्रत करते समय जम्हाई दे कर उसके प्रयाश्चित्तार्थ आचमन नहीं किया । गणेश के प्रसाद से चतुर्थीव्रत करने से उसे पुत्र हुआ, परंतु उपरोक्त पापाचरण के कारण इसे केवल दो कंधे, मुंह, नाक तथा आखें इतनी ही इंद्रियॉं थी । यह देख कर इसके माता-पिता ने बहुत शोक किया । एक बार दत्त उनके पास आये, तब उन्होने उसे पुत्र दिखाया । उस समय यह बारह वर्ष का था । दत्त ने इसे एकाक्षरी मंत्र बता कर, बारह वर्षे गणेश की आराधना करने के लिये कहा । इसने तदनुसार आराधना की, तब गणेश ने इसे सुंदर शरीरयष्टि तथा सहस्त्र हाथ दिये इसी कारण इसका नाम सहस्त्रार्जुन हुआ
[गणेश.१.७२-७३] ।
कार्तवीर्य n. कृतवीर्य के पश्चात् जब अमात्य इसको राज्याभिषेक करने लगे, तब कार्तवीर्य ने गद्दी पर बैठना अस्वीकार कर दिया । इसे ऐसा लगता था कि, राजा के नाते कर का योग्य मोबदला अपने द्वारा प्रजा को नहीं मिलेगा । इसे गर्गमुनि ने सह्याद्रि की गुहाओं में दत्त की सेवा करने की सलाह दी
[मार्क.१६] । निष्ठापूर्वक एक हजार वर्ष तक दत्तात्रेय की सेवा करने पर, इसे चार वर मिलेः---१. सहस्त्रबाहु, २. अधर्मनिवृत्ति, ३. पृथ्वीपालन, ४. युद्धमृत्यु । इसने कर्कोटक नाग से अनूप देश की माहिष्मती अथवा भोगावती नगरी जीती । यही वर्तमान ओंकार मांधाता है । वहॉं मनुष्यों को बसा कर, इसने अपनी राजधानी बनायी । तदुपरांत कार्तवीर्य को दत्त तथा नारायण ने राज्याभिषेक किया । उस समय समस्त देव, गंधर्व तथा अप्सरायें उपस्थित थीं
[मार्क.१७] ।
कार्तवीर्य n. थोडे ही समय में, इसने समस्त पृथ्वी जीत ली, तथा यह उसका पालन करने लगा । इसने मारी नामक राक्षस का वध किया
[नारद१.७६] । इससे युद्ध करने के लिये रावण अपने मित्र शुक, सारण, महोदर, महापार्श्व तथा धूम्राक्ष सहित आया था । उस समय ऐसा पता चला कि, कार्तवीर्य राजमहल में नहीं है । यह इस समय नर्मदा पर स्त्रियों सहित क्रीडा करने गया था । आगे चल कर, रावण विंध्यपर्वत पार कर नर्मदा तट पर गया । वहां स्नान कर शंकर की पूजा करने बैठा । इधर कार्तवीर्य ने सहज लीलावश नदी का प्रवाह अपने सहस्त्र हाथों से रोक दिया । वह रुका हुआ पानी विविध दिशाओं में बहने लगा । इस प्रकार का एक वेगवान प्रवाह रावण तक पहूँचा । उससे उसका पूजाभंग हो गया । इस प्रकार पूजाभंग करनेवाला कार्तवीर्य है, यम समझते ही रावण ने इस पर आक्रमण किया । परंतु इसने उसके मंत्रियों को हतवीर्य कर दिया तथा रावण को पकड लिया । अपना पौत्र पकडा गया, ऐसा वर्तमान सुन कर पुलस्त्य ऋषि कार्तवीर्य के पास आया । इसने उसका समान किया तथा इच्छा पूछी । तब इसने रावण को छोड देने की प्रार्थना की । इसने आनंद से रावण को छोड दिया, तथा अग्नि के समक्ष एक दूसरे से स्नेहपूर्वक व्यवहार करने की तथा पीडा न देने की प्रतिज्ञा की
[वा.रा.उ.३१-३३] ;
[विष्णु.४.११] ;
[आ. रा.सार.१३] ;
[भा.९.१५] । कार्तवीर्य ने नर्मदा के किनारे खडे रह कर पांच बाण छोडे, जिससे लंकाधिपति रावण मूर्च्चित हुआ । उसे धनुष्य से बांध कर यह माहिष्मती के पास लाया । बाद में पुलस्त्य की प्रार्थनानुसार उसे छोड दिया
[मत्स्य.४३] ;
[ह.वं.१.३३] ;
[पद्म.सृ. १२] ;
[ब्रह्म.१३] । वंशावली के अनुसार रवण इसका समकालीन होना असंभव है । रावण व्यक्तिनाम न हो कर तामिल भाषा का Irivan या Iraivan शब्द का संस्कृत रुप होना चाहिये । इस शब्द का अर्थ हैं देव, राजा, सार्वभौम अथवा श्रेष्ठ
[J R AS. 1914, P 285] रावण विशेषनाम समझा गया, इसलिये यह घोटाला हुआ । विष्णुपुराण की इस कथा में पुलस्त्य का नाम नहीं हैं
[विष्णु. ४.११] । पृथ्वी जीत कर इसने बहुत यज्ञ किये
[भा.९.२३] । १०००० यज्ञ किये, सात सौ यज्ञ किये
[ह.वं.१.३३] यों भी कहा गया है । उस समय उसे यज्ञ से एक दिव्य रथ तथा ध्वज प्राप्त हुआ
[मत्स्य.४३] ;
[ह. वं. १.३३] ;
[मार्क.१७] ;
[पद्म. सृ.१२] ;
[अग्नि. २७५] ;
[ब्रह्म.१३] ;
[विष्णुधर्म.१.२३] । बाद में प्रजा को यह इतना दुख देने लगा, कि पृथ्वी त्रस्त हो गई । तब देवताएं विष्णु के पास गये तथा उन्होंने सब कथा बताई । विष्णु ने उन्हे अभय दिया तथा कार्तवीर्य के नाशार्थ परशुरामावतार लेने का निश्चय किया । शंकर ने परशुराम को कार्तवीर्य संहार के लिये आवश्यक बल दिया
[म.क.२४. १४७-१५६] ;
[विष्णुधर्म २.२३] हैहयाधिपति मत्त होने के कारण, कुमार्ग की ओर प्रवृत्त हुआ । यह अत्रिमुनि का अपमान कर रहा है, यह देखते ही कार्तवीर्य को दग्ध करने के लिये दुर्वास सात दिनों में ही माता के उदर से च्युत हो गया
[मार्क. १६.१०१] । दुर्वास दत्त का बडा भाई था । दत्त ही कृपा भी कार्तवीर्य ने संपादन की थी । तदनंतर आदित्य ने विप्ररुप से इसके पास आ कर खाने के लिये कुछ भक्ष्य मांगा । इसने कौनसा भक्ष्य दूँ, ऐसा उसे पूछा । तब उसने सप्त द्वीप मांगे । परंतु उन्हें देने के लिये यह असमर्थ दिखने के कारण आदित्य ने कहा, ‘तुम पांच बाणों को छोडो । उनके अग्रभाग पर मैं बैठूँगा तथा अपनी इच्छानुसार प्रदेश खाऊंगा । यह मान्य कर के इस ने पांच बाण छोडे । आदित्य ने जो पूर्व तथा दक्षिण के प्रदेश जलाये, उसमें आपव वसिष्ठ ऋषि का आश्रम भी जला दिया । यह ऋषि वरुण का पुत्र था । वह कार्यवश आश्रम के बाहर, १००००० वर्षो तक जल में रहने में रहने के लिये गया था । वापस आते ही उसने देखा कि, आश्रम दग्ध हो गया है । उसने कार्तवीर्य को शाप दिया, ‘तुम्हारा वध परशुराम रण में करेगा’
[वायु ९४.४३-४७,९५.१-१३] ;
[मत्स्य. ४३-४४] ;
[ह. वं. १.३३] ;
[पद्म सृ.१२] ;
[ब्रह्म.१३] ;
[विष्णुधर्म १. ३१] । कई ग्रंथों में आदित्य के बदले अग्नि भी दिया गया है
[म.शां. ४९.३५] । काफी दिन बीत जाने के बाद, यह एक बार मृगया के हेतु बाहर गया, तथा घूमते-घूमते जमदग्नि के आश्रम में गया । वहॉं जमदग्नि की पत्नी तथा जमदग्नि ने इन्द्र द्वारा दी गई कामधेनु से इसका सत्कार किया । तब यह जमदग्नि से वह गाय मांगने लगा । जमदाग्नि ने इसे ना कर दिया । तब यह जबरदस्ती उस गाय को ले जाने लगा । परंतु उस गाय के आक्रोश से तथा शृंगा से इसकी संपूर्ण सेना एक पल में मृत हो गई । कामधेनु स्वर्ग में चली गई
[पद्म. उ. २४१] । परंतु आखिर कार्तवीर्य यह गाय तथा साथ में उसका बछडा ले ही गया । इसके पुत्रों ने इसको न मालूम होते ही बछडा चुरा लाया
[म.शां. ४९.४०] । परशुराम तपश्चर्या के लिये गया था । केशव को संतुष्ट कर के अनेक दिव्यास्त्र ले कर वह अपने आश्रम में आया । कामधेनु ले जाने का वर्तमान उसे ज्ञात हुआ । तब क्रोध से कार्तवीर्य पर आक्रमण कर, नर्मदा के किनारे उसने इसे युद्ध लिये आमंत्रित किया । कार्तवीर्य की पत्नी मनोरमा ने इसे युद्ध पर न जाने के लिये प्रार्थना की, परंतु यह नहीं मानता यो देख कर उसने प्राणत्याग कर दिया । दत्त के वर से प्राप्त इनकी बुद्धि नष्ट हो गई । तदनंतर इसका परशुराम से युद्ध हुआ । अंत में बाहुच्छेद हो कर यह मृत हो गया । यह युद्ध गुणावती के उत्तर में तथा खांडवारण्य के दक्षिण मे स्थित टीलों पर हुआ
[म.द्रो.परि.१.क्र.८. पंक्ति. ८३९ टिप्पणी] । बाद में परशुराम द्वारा किये गये कार्तवीर्य के वध की वार्ता जमदग्नि ने सुनी । उसने राम से कहा, ‘यह कार्य तुमने अत्यंत अनुचित किया । क्षमा ब्राह्मण का भूषण है । अब प्रायश्चित्त के लिये एक वर्ष तक तीर्थयात्रा करने के लिये जाओ’ । इस कथनानुसार परशुराम तीर्थयात्रा करने के लिये गया । तब पहले बैर का स्मरण कर कार्तवीर्य के पुत्रों ने ध्यानस्थ जमदग्नि का बाणों से वध किया तथा उसका मस्तक ले कर वे भाग गये । परशुराम के लौटने पर, यह वृत्त उसें मालूम हुआ । माता की सांत्वना के लिये, उसने इक्कीस बार पृथ्वी निःक्षत्रिय करने की प्रतिज्ञा की, तथा उन पुत्रों पर आक्रमण किया । पांच को छोड बाकी सब पुत्रों का वध कर के, परशुराम पिता का मस्तक वापस ले आया
[म.व.११७] ;
[भा. ९.१५] ;
[अग्नि.४] । कई स्थानों पर लिखा है कि कार्तवीर्य ने जमदग्नि का वध किया
[वा.रा.बा.७५] ;
[पद्म. उ. २४१] । पद्मपुराण में तमाचा लगाने का भी उल्लेख है । ऊपर दिया गया है, इसे हजार हाथ थे, परंतु इसे घरेलू तथा अन्य कार्यो के लिये दो हात थे
[ह.वं.१.३३] ;
[ब्रह्म.१३] । परंतु इसे सहस्त्रबाहु नाम था
[ह. वं. १.३३] ;
[मत्स्य.६८] ;
[अग्नि.४] ;
[गणेश १.७३] । महाभारत में लिखा है कि, आपव का आश्रम हिमालय के पास था । यह आश्रम अग्नि को दे सका, इससे यह स्पष्ट है कि, इसका राज्य मध्यदेश पर होगा । अयोध्या का राजा हरिश्चन्द्र तथा त्रिशंकु इसके समकालीन थे । यद्यपि मथुरा के शूरसेन देश की स्थापना स्वयं शत्रुध्नपुत्र शूरसेन ने की, तथापि लिंगपुराण में वर्णन है कि इसकी स्थापना इसके पुत्र ने की
[लिंग. १.६८] । इसके सब पुत्रों के स्वतंत्र देश थे
[ब्रह्मांड. ३.४९] । यह संपूर्ण कथा, जमदग्नि की कामधेनु को मुख्य मान कर बताई गई है । पद्मपुराण में उसी गाय को सुरभि माना गया है (उ. २४१) । वहॉं इक्कीस बार पृथ्वी निःक्षत्रिय करने की प्रतिज्ञा का उल्लेख नही है । वहॉं
[ब्रह्मांड. ३.२१.५-४७-६१] उल्लेख है कि, परशुराम ने कान्यकुब्ज तथा अयोध्या के सब राजाओं की सहायता से अर्जुन को मारा तथा भार्गवों का पराभव किया ।
कार्तवीर्य n. इसका शासन ८५ हजार वर्षो तक रहा । इस प्रदीर्घ शासनकाल में इसने हैहयसत्ता तथा वैभव को अत्यंत वृद्धिंगत किया । प्रतीत होता है कि, इसने नर्मदा के मुख से हिमालय तक का प्रदेश जीत लिया था । इसकी सत्ता चारों ओर सुदूर तक फैली थी, इसका प्रमाण यह है कि, इसे कई स्थानों पर सम्राट तथा चक्रवर्ति कहा गया है
[ह. वं. १.३३] ;
[पद्म. सृ. १२] ;
[ब्रह्म.१३] ;
[विष्णुधर्म १.२३] ;
[नारद. १.७६] । नर्मदा तथा समुद्र का अपने हाथों से यह इस प्रकार मंथन करता था कि, सब जलचर इसके शरण आ जाते थ । यमसभा में यह यम के पास अधिष्ठित रहता है
[म.स.८.८] । इसका ब्राह्मणों के श्रेष्ठत्व के संबंध में पवन में संवाद हुआ था
[म.अनु. १५२-१५७] । उसी प्रकार, मुझसे लडने लायक शक्तिशाली कौन है, इस विषय पर समुद्र से भी इसका संवाद हुआ है
[म.आश्व. २९] । इसने प्रवालक्षेत्र में प्रवालगण का बडा मंदिर बनाया
[गणेश. १.७३] । माघस्नानमाहात्म्य के संबंध में इसका दत्त से संवाद हुआ था
[पद्म. उ.२४२-२४७] । नारदपुराण में इसकी पूजाविधि बतायी है । इसके शरीरवर्णन में दिया है कि यह काना था
[नारद. १.७६] ।
कार्तवीर्य n. इसे सौ पुत्र थे । उनके नाम शूर, शूरसेन, वृष्टयाद्य, वृष, जलध्वज
[वायु.९४.४९-५०] धृष्ट, कोष्ट
[मत्स्य.४३] , कृष्ण
[ह.वं.१.३३] ;
[पद्म. सृ१२] ,सूर, सूरसेन
[अग्नि. २७५] , वृषण मधुपध्वज
[ब्रह्म.१३] , धृष्ट, कृष्ण
[लिंग.१.६८] , वृषभ मधु, ऊर्जित
[भा. ९.२३] । भागवत में कहा है कि, इसे दस हजार पुत्र थे ।
कार्तवीर्य II. n. (सो. सह.) मत्स्य तथा वायु के मत में कनक के चार पुत्रों में से एक ।