कालयवन n. गार्ग्य (गर्ग) तथा गोपाली का पुत्र । इसका पिता गार्ग्य वृष्णि तथा अंधक का पुरोहित था । कहीं उसे गर्ग नाम से भी उल्लेखित किया गया है । गार्ग्य कडे ब्रह्मचर्य से रहता था । एक बार उसके साले ने उसे षंढ (नपुंसक) कहा । यह सुन कर गार्ग्य अत्यंत क्रुद्ध हुआ । इसलिये उसने दक्षिण में जाकर लोह भक्षण किया । बारह वर्ष तपस्या की । शंकर को प्रसन्न कर लिया । शंकर से यादवों को पराजित करनेवाला पुत्र उसने मांग लिया । यह घटना दक्षिण में अजितंजय नामक नगर में हुई । उस समय यवनाधिपति राजा निपुत्रिक था । वह पुत्र की कामना कर रहा था । उसे गार्ग्य के वर का पता चला । तब उसने गार्ग्य को गोपस्त्रियों में से गोपाली नामक ग्वालन से पुत्र होने का प्रबन्ध किया । इस तरह उत्पन्न पुत्र कालयवन है । यवनराज के घर छोटे से बडा हुआ कालयवन सौभाग्य से उसके राज्य का अधिपति बन गया । इसका कृष्ण के साथ संजोग से युद्ध हुआ या सहेतुक रचाया गया, इस विषय में पुराणों की एकवाक्यता नहीं है । कालयवन दिग्विजय के लिये निकला । मथुरा के बलशाली यादवों पर इसने आक्रमण किया । इसी प्रकार का निर्देश कुछ ग्रंथों में है । जरासंध कृष्ण को जीतने में असमर्थ था, अतः हेतुपुरस्सर सौभपति शाल्वद्वारा कालयवन को निमंत्रित करने का उल्लेख हरिवंश में है । जाते समय, कृष्ण शायद विघ्न डालेगा इस लिये सौभति शाल्व जरासंध का संदेश लेकर इसके पास आकाशमार्ग से आया । कालयवन इसी संधि की ताक में था । इसने उसी दिन विपुल सेना ले कूच करने की तैयारी की । यह यवन था, तथापि कूच करने के पहले इस के द्वारा अग्निहवन देने का उल्लेख मिलता है
[ह. वं.२.५४] । इधर जरासंध के बारबार के आक्रमणों से कृष्ण त्रस्त हो गया था । इसलिये उसने मथुरा के समान समतल मैदान में स्थित राजधानी छोड कर दूरस्थ समुद्रवेष्टित द्वारका को राजधानी बनाने की यादवों से मंत्रणा की । एक ओर से जरासंध तथा दूसरी ओर से कालयवन के आगमन को देख कर, चतुर कृष्ण ने एक रात में ही राजधानी बदलने का निश्चय किया । इसके पूर्व उसने कालयवन को डराने का प्रयत्न किया । एक काले सर्प को घडे में रख कर, उस पर मुद्रा लगाई गई । अपने दूत के द्वारा वह घडा कृष्ण ने कालयवन के पास भिजवाया । इसका विशेष प्रभाव नहीं पडा । कालयवन ने सर्प देख कर, स्वाभाविक रुप से उदगार निकाले, ‘कृष्ण इस काले सर्प की तरह है । ’ उस घडे में काटने वाली बहुत सी चीटियॉं भर कर, वह घडा कृष्ण को लौटा दिया । इसे संदेश का तात्पर्य यह था कि, तुम यद्यपि कालसर्प की तरह, प्रबल हो, तो मै संख्या में अधिक हूँ । अतः चीटियों की तरह तुम्हें नष्ट करुँगा। यह देख कर कृष्ण ने एक रात्रि में राजधानी बदल ली । सबको धैर्य बँधा कर, वह स्वयं पुनः मथुरा में पैदल आया । निःशस्त्र स्थिति में मथुरा से बाहर आये हुए कृष्ण को कालयवन ने देखा । कालयवन ने कृष्ण का पीछा किया । ऐसी काफी दूर जाने के बाद, कृष्ण एक गुफा में प्रविष्ट हुआ । वहॉं मुचकुंद. सोया था । कृष्ण ने अपना वस्त्र धीरे से मुचकुंड के शरीर पर डाला । तथा स्वयं ओट में छिप गया
[भा. १०.५१-५२] । अन्यत्र शरीर पर वस्त्र डालने का उल्लेख नहीं है । कालयवन ने सुप्त मुककुंड को ही कृष्ण समझा तथा उसपर लत्ता-प्रहर किया । इस से मुचकुंड एकदम जागृत हो गया । क्रोधित हो कर केवल दृष्टिक्षेप से कालयवन को उसने जला दिया
[ह.वं.२.५२-५७] ;
[पद्म. उ. २७३. ४८-५७] ;
[विष्णु.५. २३] ;
[ब्रह्म. १४. ४८-५२,१९६] ;
[म.शां. ३२६.८८] ।