दत्त n. सांदीपनि का पुत्र । कृष्ण सांदीपनि का शिष्य था । उस ने गुरुदक्षिणा के रुप में, शंखासुर से इस गुरु पुत्र को मुक्त किया । श्वेतसागर से उसे वापस ला कर सांदीपनि अर्पण किया ।
दत्त (आत्रेय) n. एक देवता । विष्णु के अवतारों में से यह एक था । यह अत्रि ऋषि एवं अनसूया का पुत्र था । अत्रि ऋषि के दत्त, सोम, दुर्वासस् ये तीन पुत्र थे
[भा.४.१.१५-३३] । उनमें से दत्त विष्णु का, सोम ब्रह्माजी का, एवं दुर्वासस् रुद्र याने शंकर के अवतारस्वरुप थे । इसे निमि नामक एक पुत्र था
[म.अनु.१३८.५ कुं.] । आजकल के जमाने में, ब्रह्मा-विष्णु-महेशात्मक त्रिमुखी दत्त की उपासना प्रचलित है । इसे तीन मुख, छः हस्त चित्रित किये जाते हैं । दत्तमूर्ति के पीछे एक गाय, एवं इसके आगे चार कुत्तें दिखाई देते हैं । किंतु पुराणों में त्रिमुखी दत्त का निर्देश उपलब्ध नहीं है । उन ग्रंथों में, त्रिमुख में अभिप्रेत तीन देवताओं को तीन अलग व्यक्ति समझ कर, उन्हे दत्त, सोम, एवं दुर्वासस् ये तीन अत्रिपुत्र के नाम दिये गये है । दत्त के आगे पीछे गाय एवं कुत्ते रहने का निर्देश भी पुराणों में उपलब्ध नहीं है । महाराष्ट्र में, त्रिमुख दत्त का प्राचीनतम निर्देश सरस्वती गंगाधर विरचित, ‘गुरुचरित्र’ ग्रंथ में मिलता है । उस ग्रंथ में इसे परब्रह्मस्वरुप मान कर, इसे तीन सिर, छः हस्त, एवं धेनु तथा श्वान के समवेत वर्णन किया है । औदुंबर वृक्ष के समीप इसका निवासस्थान दिखा दिया है । ‘गुरुचरित्र’ का काल लगभग इ.स.१५५० माना जाता है । महाकवि माघ के शिशुपालवध काव्य में, दत्त को विष्णु का अवतार कहा है (इ.स.६५०) । दत्त अवतार का यह प्रथम निर्देश है ।
दत्त (आत्रेय) n. दत्त अवतार का मुख्य गुण क्षमा है । वेदों का यज्ञक्रियासहित पुनरुज्जीवन, चातुर्वर्ण्य की पुनर्घटना, तथा अधर्म का नाश यही इसकी अवतारकार्य है
[ब्रह्म.२१३.१०६-११०] ;
[ह.वंण.१.४१] । इसने संन्यासपद्धति का प्रचार किया
[शिव. शत. १९.२६] । तथा कार्तवीर्य के द्वारा पृथ्वी म्लेच्छरहित की
[विष्णुधर्म.१.२५.१६] ।
दत्त (आत्रेय) n. दत्त ने अपने पिता अत्रि से पूछा, ‘मुझे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति किस प्रकार होगी?’ अत्रि ने इसे गोतमी (गोदावरी) नदी पर जा कर, महेश्वर की आराधना करने को कहा । इस प्रकार आराधना करने से, इसे आत्मज्ञान प्राप्त हुआ । गोदावरी तीन के उस स्थान को ‘ब्रह्मतीर्थ’ कहते है
[ब्रह्म.११७] । यह ब्रह्मनिष्ठ था । इसे धर्म का दर्शन हुआ था
[पद्म.भू.१२.५०] । इसके अलर्क, प्रह्राद, यदु तथा सहस्त्रार्जुन नामक शिष्य थे । उन्हें इसने ब्रह्मविद्या दी
[भा.१.३.११] । इसने अलर्क को आत्मज्ञान, योग, योगधर्म, योगचर्या, योगसिद्धि तथा निष्कामबुद्धि के संबंध में उपदेश दिया
[मार्क ३५-४०] । आयु, परशुराम तथा सांकृति भी दत्त के शिष्य थे ।
दत्त (आत्रेय) n. गिरिनगर में दत्त का आश्रम (विष्णु पद) था । पश्चिम घाट में मल्लीकीग्राम (माहूर) में दत्त का आश्रम था । उस स्थान पर परशुराम ने जमदग्नि को अग्नि दी, एवं रेणुका सती गई । इसलिए वहॉं मातृतीर्थ निर्माण हुआ
[रेणुका.३७] ।
दत्त (आत्रेय) n. ऐलपुत्र आयु को पुत्र नहीं था । पुत्र प्राप्ति के लिये वह दत्त के पास आया । दत्त स्त्रियों के साथ क्रीडा कर रहा था । मदिरापान के कारण इसकी ऑंखे लाल थीं । इसकी जंघा पर एक स्त्री बैठी थी । गले में यज्ञोपवीत नहीं था । गाना तथा नृत्य चालू था । गले में माला थीं । शरीर को चंदनादि का लेप लगा हुआ था । आयु ने वंदना करके पुत्र की मॉंग की । दत्त ने अपनी बेहोष अवस्था उसे बता दी । इसने कहा, ‘वर देने की शक्ति मुझमें नही है’। आयु ने कहा, ‘आप विष्णु के अवतार है’। अन्त में दत्तात्रेय ने कहा, ‘कपाल’ (मिट्टी के भिक्षापात्र) में मुझे मॉंस एवं मदिराप्रदान करो । उसमेंसे मॉंस खुद के हाथों से तोड कर मुझे दो’। इस प्रकार उपायन देने पर इसने प्रसन्न हो कर, आयु को प्रसादरुप में एक श्रीफल दिया, एवं वर बोले, ‘विष्णु का अंश धारण करनेवाला पुत्र तुम्हें प्राप्त होगा’। इस वर के अनुसार आयु को नहुष नामक पुत्र हुआ । पश्चात नहुष ने हुंड नामक असुर का वध किया
[मार्क. १६,३७] ;
[पद्म. भू.१०३-१०४] ।
दत्त (आत्रेय) n. दत्तचरित्र से संबंधित इसी ढंग की और एक कथा महाभारत भें दी गयी है । गर्गमुनि के कहने पर कार्तवीर्यार्जुन राजा दत्त आत्रेय के आश्रम में आया । एकनिष्ठ सेवा कर के उसने इसे प्रसन्न किया । तब दत्त ने अपने वर्तन के बारे में कहा, ‘मद्यादि से मेरा आचरण निंद्य बन चुका है । स्त्री भी मेरे पास हमेशा रहती है । इन भोंगो के कारण मैं निंद्य हूँ । तुम पर अनुग्रह करने के लिये मैं सर्वथा असमर्थ हूँ । किसी समर्थ पुरुष की तुम आराधना करो’। परंतु अन्त में कार्तवीर्यार्जुन की निष्ठा देख कर, इसने विवश हो कर उसे वर मॉंगने के लिए कहा । कार्तवीर्य ने इससे चार वर मॉंगे, जो इस प्रकार थेः---१. सहस्त्रबाहुत्त्व, २. सार्वभौमपद, ३. अधर्मानिवृत्ति, ४. युद्धमृत्यु । दत्त आत्रेय ने वरों के साथ कार्तवीर्य को सुवर्ण विमान
[म.व.परि.१.१५.६] तथा ब्रह्मविद्या का उपदेश भी दिया
[भा१.३.११] । कार्तवीर्य ने भी अपनी सर्व संपत्ति दत्त को अर्पण की
[म.अनु.१५२-१५३] । कार्तवीर्य की राजधानी नर्मदा नदी के किनारे स्थित माहिष्मती नगरी थी ।
दत्त (आत्रेय) n. दत्तजन्मकाल मार्गशीर्ष सुदी चतुर्दशी को दोपहर में वा रात्रिं में माना जाता है । दत्तजयन्ति का समारोह भी उसी वक्त मनाया जाता है । दत्तजयन्ति का समारोह भी उसी वक्त मनाया जाता है । कई स्थानों में, मार्गशीर्ष सुदी पौर्णिमा के दिन सुबह, या मध्यरात्रि के बारह बजे दत्तजन्म मनाया जाता है ।
दत्त (आत्रेय) n. अवधूतोपनिषद्, जाबालोपनिषद्, अवधूतगीता, त्रिपुरोपास्तिपद्धति, परशुरामकल्पसूत्र (दत्ततंत्रविज्ञानसार), ये ग्रंथ दत्त ने स्वयं लिखे थे ।
दत्त (आत्रेय) n. अवधूतोनिषद्, जाबालोपनिषद्, दत्तात्रेपनिषद्, भिक्षुकोपनिषद्, शांडिल्योपनिषद्, दत्तात्रेयतंत्र आदि ग्रंथ दत्तसांप्रदाय के प्रमुख ग्रंथ माने जाते हैं ।
दत्त (आत्रेय) n. तांत्रिक, नाथ, एवं महानुभाव संप्रदायो में दत्त को उपास्य दैवत माना जाता है । श्रीपाद श्रीवल्लभ (पीठापुर, आंध्र), श्रीनरसिंहसरस्वती (महाराष्ट्र), आदि दत्तोपासक स्वयं दत्तावतार थे, ऐसी उनके भक्तों की श्रद्धा है । प.पू. वासुदेवानंदसरस्वती (टेवेस्वामी) आधुनिक सत्पुरुष थे (इ.स.१८५४-१९१४) । वे दत्त के परमभक्त, एवं मराठी तथा संस्कृत भाषाओं में दत्त के परमभक्त, एवं मराठी तथा संस्कृत भाषाओं में दत्तविषय विपुल साहित्य के निर्माता थे । पदयात्रा कर के, एवं भारत के सारे विभागों में दत्तंमंदिरादि निर्माण कर के, उन्होंने दत्तभक्ति तथा दत्तसंप्रदाय का प्रचार किया ।
दत्त (तापस) n. एक ऋषि । सर्पसत्र में इसने होतृ नामक ऋत्विज का काम किया था
[पं.ब्रा.२५.१५.३] ।
दत्त II. n. स्वारोचिष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक
[पद्म. सृ.७] ।
दत्त III. n. पुलस्त्य एवं प्रीति का पुत्र । यह पूर्वजन्म में स्वायंभुव मन्वंतर में अगस्त्य था
[मार्क.४९.२४-२६] ।