दशरथ n. (सू.इ.) सूर्यवंश का एक विख्यात राजा । ‘वाल्मीकिरामायण’ का नायक एवं भारत की एक प्रातःस्मरणीय विभूति रामचंद्र का यह पिता था । इसीके नाम से राम, ‘दाशरथि राम’ नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह अज राजा का पुत्र था । यह अतिरथी, यज्ञयाग करने वाला, धर्मनिष्ठ, मनोनिग्रही तथा जितेन्द्रिय था
[वा.रा.बा.६.२-४] । इसके पूर्वपुरुष अज-दीर्घबाहु-प्रजापाल इस रुप में भी प्राप्त है
[पद्म. सृ.८.१५३] । यह अयोध्या का राजा था
[पद्म. पा.७] । अतिविषयासक्त होने के कारण, इसके वृद्धावस्था के सारे दिन अनर्थकारी साबित हुएँ, एवं पुत्रशोक से इसे मरना पडा । कौसल्या, सुमित्रा तथा कैकेयी नामक दशरथ की तीन पत्नियॉं प्रसिद्ध हैं । दशरथ को कौसल्या, सुमित्रा, सुरुपा तथा सुवेषा नामक चार पत्नियॉं थीं ऐसा भी कहा गया है
[पद्म. पा.११६] । किंतु वास्तव में इसे तीन सौ पचास विवाहित स्त्रियॉं थीं । इतनी पत्नियों के पति होनेवाले पुरुष की गृहस्थिती जैसी रहनी चाहिये, वैसी ही इसकी थी । ‘वाल्मीकिरामायण’ में प्राप्त सीता के उद्गारों से इसकी पुरी जानकारी मिलती है । सीता अनसूया से कहती है, ‘राम जिस प्रकार का व्यवहार अपनी माता कौसल्या से करता है, उसी प्रकार का व्यवहार अन्य राजस्त्रियों से भी करता है । किंतु दशरथ हरएक स्त्री एक तरफ उपभोग्य दृष्टि से देखता है । ऐसी स्त्रियों से भी राम माता के समान ही व्यवहार रखता है"
[वा.रा.अयो.११८.५-६] । लक्ष्मण, भरत एवं राम के भाषण में भी इसके लिये आधार प्राप्त है । राम वनवासगमन कर रहा है, ऐसा ज्ञात होते ही, लक्ष्मण ने कौसल्या से कहा, ‘विषय भोगों के नियंत्रण में रहनेवाला, तथा जिसकी बुद्धि का विपर्यास हो गया है, ऐसा यह विषयी तथा वृद्ध राजा, कैकेयी की प्रेरणा से क्या नहीं बकेगा’?
[वा.रा.अयो.२१.३] । कैकेयी से इसका विवाह इसकी विषयलंपटता पर कलश चढानेवाला है । इस विवाह के वक्त, यद्यपि कैकेयी बिलकुल जवान थी, बुढापे की साया इसके शरीर पर छाने लगी थी । कैकेयी से उत्पन्न पुत्र को, अयोध्या का सम्राट् बनाने का वचन दे कर, इसने कैकेयी के पिता को कन्यादान के लिये राजी किया था
[वा.राअयो.१०७.३] । राम के यौवराज्यभिषेक के समय भी, कैकेयी युवा अवस्था में थी, एवं बुढा दशरथ उसकी मुठ्ठी में था । अपने बुढे पिता ने अपने मॉं को विवाह के समय दिये वचन के कारण, राम युवराज नही बनेगा यह कैकेयीपुत्र भरत को अच्छा नही लगा । इस कारण, वह अपने ननिहाल चला गया । यह अवसर देख कर, उसके ननिहाल में से किसी को न बताते हुएँ, दशरथ ने राम को यौवराज्यभिषेक करने की तैय्यारी की । किंतु एक संकट टालने के लिये इसने कोशिस की, तो कैकेयी ने दूसरा ही संकट खडा किया । परंतु उससे सूर्यवंश का यश मलिन न हो कर, अधिक उज्वल ही हुआ । इसे शांता नामक एक कन्या थी । उसे इसने अंगदेश का राजा, एवं इसका परममित्र रोमपाद को दत्तक दिया था । ऋश्यशृंग ऋषि को शांति विवाह में दे कर, उस ऋषि के सहायता से, इन दोनों मित्रों ने पुत्रकामेष्टि यज्ञ का समारोह किया
[भा.९.२३.८] । पुत्रकामेष्टियज्ञ की प्रेराणा इसे कैसी मिली, इसकी कथा पद्मपुराण में दी गयी है । इसने सौ अक्षौहिणी सेना के साथ, सुमानसनगरी पर आक्रमण किया, वहॉं के राज साध्य से एक माह युद्ध कर के उसे बंदी बनाया । तब उसका अल्पवयीन पुत्र भूषण इसके साथ युद्ध करने आया । परंतु उसका भी इसने पराभव किया । युद्ध समाप्ति के बाद, एक माह तक, यह साध्य तथा भूषण के साथ रहा । उन दोनों का परस्परप्रेम देख कर इसके मत में विचार आया, ‘मुझे भी भूषण के समान गुणवन् पुत्र हो’। इसने साध्य राजा को पुत्रप्राप्ति का उपाय पूछा । साध्य ने इसे ‘विष्णु को संतुष्ट करने को कहा । बाद में सुमानसनगर साध्य राजा दो देकर, यह अयोध्या लौट आया । अनेक व्रत करने के बाद इसने पुत्रकामेष्टियज्ञ किया । तब विष्णु ने प्रकट हो कर इसे वर मॉंगने के लिये कहा । तब इसने दीर्घायुषी, धार्मिक तथा लोगों पर उपकार करनेवाले चार पुत्र मॉंगे । विष्णु ने कौसल्या, सुमित्रा, सुरुपा, तथा सुवेषा को चार पुत्र होंगे, यों आशीर्वाद दिया । दशरथ ने विष्णु से अपना पुत्र होने के लिये कहा । विष्णु ने वह मान्य कर के ‘चरु’ (यज्ञ की आहुति के लिये पके चावल) में प्रवेश किया । दशरथ ने उस चरु के चार भाग कर के अपनी चार स्त्रियों को दिये । बाद में कौसल्या, सुमित्रा, सुरुपा तथा सुवेषा को क्रमशः राम, लक्ष्मण, भरत, तथा शत्रुघ्न नामक पुत्र हुएँ । ब्रह्मदेव ने उनके जातकर्मादि संस्कार किये ।
[पद्म. पा.११६] । पूर्वजन्म में यह धर्मदत्त नामक विष्णुभक्त ब्राह्मण था । इसने राक्षसयोनि प्राप्त हुएँ कलहा नामक स्त्री को अपना कार्तिकव्रत का आधा पुण्य दिया, एवं उसका उद्धार किया । इस जन्म में कलहा कैकेयी नाम से इसकी पत्नी बनी
[पद्म. उ.१०६-१०७] । गृहराज शनि के द्वारा, ‘रोहिणीशकट’ नक्षत्रमंडल का भेद होने का संकट, एक बार, पृथ्वी पर आया । यह ग्रहयोग ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से बडा ही खतरनाक समझा जाता है । उससे बारह वर्षो तक पृथ्वी में अकाल पडता है । उसे टालने के लिये, यह स्वयं नक्षत्रमंडळ मे गया । धनुष्य सज्ज कर, इसने भयंकर संहारास्त्र की योजना की । यह देख कर, शनि इससे प्रसन्न हुआ, एवं उसने इष्ट व मॉंगने के लिये इसे कहा । तब इसने कहा, ‘जब तक पृथ्वी है, आकाश में चन्द्रसूर्य हैं, तब तक तुम रोहिणीशकट का भेद मत करो’ । यह वर प्राप्त करते ही, दशरथ अपने नगर में वापस आया
[पद्म. उ.३३] । अंत में श्रावण के शाप के अनुसार, पुत्रशोक से इसकी मृत्यु हुई (श्रावण देखिये) । दशरथ की मृत्यु के बाद, भरत आने तक इसका शव अच्छा रहे, इस हेतु से, उसे तेल में रखा गया था
[आ.रा.सार.६] ।
दशरथ II. n. (सू.इ.) सूर्यवंश का राजा । यह मूलक का पुत्र था । रामपिता दशरथ के पूर्वकाल में यह अयोध्या का राजा था ।
दशरथ III. n. (सो. क्रोष्टु.) भविष्य, भागवत, विष्णु वायु तथा पद्म के मतानुसार नवरथ का पुत्र
[पद्म. सृ.१३] । मत्स्य के मतानुसार इसे दृढरथ नाम हैं ।
दशरथ IV. n. (मौर्य. भविष्य.) विष्णु के मतानुसार सुयशस् का पुत्र । मत्स्य के मतानुसार यह शक का नाती था । अन्य पुराणों में इसका उल्लेख नहीं है ।
दशरथ V. n. रोमपाद १. देखिये ।