ध्रुव n. (स्वा.उत्तान.) उत्तानपाद राजा एवं सुनीति का पुत्र, एवं एक प्रातःस्मरणीय राजा
[म.अनु.१५०] । अपने दृढनिश्चय एवं लगन के कारण, पॉंच वर्ष की छोटी उम्र में, इसने ऋषियों को भी अप्राप्य ‘श्रीविष्णुदर्शन’ एवं नक्षत्रमंडल में ध्रुवपद प्राप्त किया । नक्षत्रमंडल में सप्तर्षिओं के पास स्थित ‘ध्रुव तारा’ यही है
[भा.४.१२.४२-४३] । उत्तानपाद राजा की सुरुचि एवं सुनीति नामक दो रानियॉं थी । उनमें से सुरुचि उसकी प्रिय रानी थीं, एवं सुनीति (सुनृता) से वह नफरत करता था । राजा के अप्रिय पत्नी का पुत्र होने के कारण, बालक ध्रुव को भी प्रतिदिन अपमान एवं मानहानि सहन करनी पडती थी । एक बार उत्तानपाद राजा की गोद में, सुरुचि का पुत्र उत्तम खेल रहा था । यह देख, ध्रुव को भी पिता की गोद में खेलने की इच्छा हुई । अतः यह अपने पिता के गोद पर चढने लगा । किंतु राजा ने ध्रुव के तरफ देखा तक नही । ध्रुव की सौतेली माता सुरुचि ने ध्रुव का हाथ पकड कर कहा ‘ईश्वर की आराधना कर के तुम मेरे उदर से पुनः जन्म लो । तभीं तुम राजा की गोद में खेल सकोंगे’। सौतेली माता का कठोर भाषण सुन कर, ध्रुव अत्यंत खिन्न हुआ । उस समय राजा भी चूपचाप बैठ गया । फिर ध्रुव रोते रोते अपनी माता के पास गया । सुनीति ने इसे गोद में उठा लिया । सौत का कठोर भाषण पुत्र के द्वार सुन कर, उसे अत्यंत दुख हुआ । अपने कमनसीब को दोष देते हुई, वह फूट फूट कर रोने लगी । पश्चात् ईश्वराराधना का निश्चय कर, ध्रुव ने अपने पिता के नगर का त्याग किया । यह बात नारद को ज्ञात हुई । ध्रुव का ईप्सित जान लेने पर, उसने अपना वरदहस्त ध्रुव के सिर पर रखा । ध्रुव का स्वाभिभानी स्वभाव तथा क्षात्रतेज देख कर, नारद आश्चर्यचकित हो गया । उसने ध्रुव से कहा “तुम अभी छोटे हो । इतनी छोटी उम्र में तुम इतने स्वाभिमानी हो, य बडी खुषी की बात है । किंतु मान-अपमान के झँझटों में पड कर, मन में असंतुष्टता का अग्नि सिलगाना ठीक नही है । क्यों कि, असंतोष का कारण मोह है, तथा मोह से दुःख ही दुःख पैदा होते है । भाग्य सें जो भी मिले, उस पर संतोष मानना चाहिये । ईश्वर के आराधना का तुम्हारा निश्चय बडा ही कठीन हैं । उसमें बडोबडों ने हार खाई है । अतः यह मार्ग त्याग कर, तुम घर लौट जाओ । नारद का भाषण सुन कर ध्रुव ने कहा, ‘मैंने न्याय निष्ठुर क्षत्रिय वंश में जन्म लिया है । मेरे स्वभाव में लाचारी नहीं है । सुरुचि के अपशब्दों से मेरा हृदय भग्न हो गया है । अतः आपके उपदेश का परिणाम मेरे उपर होना असंभव है । त्रिभुवन में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करने की आकांक्षा मेरे मन में जाग उठी है । वह स्थान मुझे कैसे प्राप्त होंगा, यह आप मुझे बताइये । आप त्रैलोक्य में घूमते हैं । उस कारण मेरी समस्या का सुझाव, केवल आप ही कर सकते है।’ ध्रुव का यह भाषण सुन कर, नारद के अन्तःकरण में ध्रुव प्रति अनुकंपा उत्पन्न हुई । उसने कहा, ‘अपने माता की आज्ञानुसार तुम श्रीहरि की कृपा संपादन करो । उसके लिये यमुना के किनारे मधुवन में जा कर, तुम इन्द्रिय दमन करो’। इतना कह कर नारद ने ध्रुव से ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ नामक द्वादशाक्षर गुप्तमंत्र प्रदान किया, एवं आशीर्वाद दे कर वह चला गया । स्कंद.तथा विष्णु पुराण में लिखा गया है कि, यह मंत्रोपदेश ध्रुव को सप्तर्षियों द्वारा प्राप्त हुआ । बाद में उत्तानपाद राजा को अपने कृतवर्म का पश्चात्ताप हुआ, एवं वह ध्रुव को वापस लाने के लिया घर से निकला । किंतु उसे नारद से कहा, ‘तुम्हारा पुत्र शीघ्र ही महत्कार्य कर के वापस आनेवाला है । इसलिये उसे वापस बुलवाने की कोशिश, इस समय तुम मत करो।’ नारद के कथनानुसार, ध्रुव ने मथुरा के पास यमुना के तट पर मधुबन में तपस्या प्रारंभ की, एवं ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ यह द्वादशाक्षरी मंत्र का जाप प्रारंभ किया । तपस्या के समय ध्रुव की उम्र केवल पॉंच साल की थी । फलाहार, उदकपान, एवं वायुभक्षण क्रमशः कर के, एक पैर पर खडा हो कर, ध्रुव श्रीविष्णु की आराधना करने लगा । तपस्या के पहले दिन ध्रुव ने ‘अनशन’ किया । दूसरे दिन से यह विधिपूर्वक आराधना करने लगा । तपस्या के पहले महीने में, तीन दिन में एक बार यह कैथ एवं बेर के फल खा कर गुजारा करता था । दूसरे महीनें में, हर छठे दिन सूखे पत्ते एवं कुछ तिनखे खाने का क्रम इसने शुरु किया । तीसरे महीने में केवल पानी पर रहना इसने प्रारंभ किया । वह पानी भी यह हर नवे दिन पीता था । चौथे महीने में, इसने पानी पीना भी छोड दिया, एवं केवल वायु पी कर, यह रहने लगा । तपस्या के पॉंचवे महीने में, प्राणवायु भी इसके वश में आ गया, एवं वायु पीना भी ध्रुव ने बंद किया । एक पॉंव पर खडा हो कर, अहोरात्र यह श्रीविष्णु के ध्यान में मगन होने लगा । छः महिनों तक ऐसी कडी तपस्या करने के पश्चात्, तपस्या की सिद्धि ध्रुव को प्राप्त हुई । इसकी अंगूठे के भार से पृथ्वी दबने लगी, एवं इन्द्रादिकों के श्वासों का अवरोध होने लगा । फिर सारे देव श्रीविष्णु की शरण में गये । विष्णु ने ध्रुव को तपश्चर्या से परावृत्त करने का आश्वासन देवजनों को दिया । उस आश्वासन से सारे देव संतुष्ट हुएँ, एवं अपने अपने स्थान पर वापस लौटे । पश्चात् गरुड पर आरुढ हो कर, श्रीविष्णु मधुबन में ध्रुव के पास आये, एवं उन्होंने, सगुण स्वरुप में इसे दर्शन दिया । जिसके ध्यान में छः महिनों तक ध्रुव मग्न था, उसे साक्षात् देख कर वह अवाक् हो गया
[भा.४.८-९] । श्रीविष्णु का गुणवर्णन करने की बहुत सारी कोशिश ध्रुव ने की । किंतु वह करने में इसे असमर्थता प्रतीत हुई । फिर श्रीविष्णु ने ध्रुव के कपोल वेदस्वरुपी शंख से स्पर्श किया । पश्चात् उस शंख के कारण प्राप्त हुएँ वेदमय वाणी से, ध्रुव ने विष्णु का स्तवन किया । इससे प्रसन्न हो कर, विष्णु ने इसे इच्छित वर मॉंगनें के लिये कहा । ध्रुव ने नक्षत्रमंडल में अचल स्थान प्राप्त करने का वर श्रीविष्णु से मॉंग लिया । विष्णु ने वह वर इसे दिया, एवं कहा, ‘उत्तानपाद राजा तुम्हें राजगद्दी पर बैठा कर वने में जावेगा । तुम छत्तिस हजार वर्षो तक राज्य करने के बाद, नक्षत्रमंडल में अचलस्थान प्राप्त करोगे । तुम्हारा सौतेला भाई उत्तम, मृगया के लिये वन में जावेगा, तब वहीं उसका नाश होगा । उत्तम की माता सुरुचि उसके मृत्यु के दुख के कारण, अरण्य में दावानल में प्रविष्ट होगी । तुम अनेक यज्ञ कर के सब को वंद्य तथा संसारमुक्त हो जाओंगे’। बाद में ध्रुव ने श्रीविष्णु की पूजा की, तथा पश्चात् यह स्वनगर चला आया । ध्रुव के आगमन की वार्ता उत्तानपाद को ज्ञात होते ही वह अत्यंत आनंदित हुआ । ध्रुव महत्कार्य कर के वापस आनेवाला है, यह नारद के भविष्यवाणी से उत्तानपाद पहले से जानता ही था । ध्रुव ने राजधानी में प्रवेश करते ही, इसे शृंगारित हाथी पर बैठा कर, नगर में लाया गया । पिता ने इसके मस्तक का अवघ्राण किया । ध्रुव दोनों माताओं से मिला । सुरुचि ने इसे ‘चिरंजीव हो’ऐसा आशीर्वाद दिया । माता, पिता तथा बंधुओं के साथ ध्रुव सुख से कालक्रमणा करने लगा । पश्चात् राजा ने इसे राज्याभिषेक किया, तथा स्वयं वन में चला गया । एक बार ध्रुव का सौतेला भाई उत्तम, पर्वत पर मृगया के हेतु से गया । एक बलाढय यक्ष ने उसका वध किया । यह सुन कर ध्रुव ने अत्यंत क्रोधित हो कर, यक्षों के पारिपत्य के लिये विजयशाली रथ में बैठ कर, यक्षनगरी अलका पर आक्रमण किया । वहॉं घमासान युद्ध हुआ । यक्ष ने मायाजाल फैला कर, ध्रुव को निर्बल बना दिया । फिर ऋषियों ने ध्रुव को आशीर्वाद दिया, तुम्हारे शत्रु का निःपात होगा’। बादमें ‘नारायणशास्त्र’ के योग से, ध्रुव ने यक्षों का मायापटल दूर कर के, यक्षों को पराजित किया । इस प्रकार ध्रुव गुहयक नामक यक्षों का नाश कर रहा था । तब स्वायंभुव मनु को यक्षों पर दया आई । अपने नाती ध्रुव को उसने युद्ध से तथा गुह्य के हनन से परावृत्त किया । इतना ही नहीं, यक्षवध के कारण क्रोधित हुए कुबेर को प्रसन्न करने के लिये, मनु ने इसे कहा । फिर ध्रुव ने युद्ध बंद किया, एवं पितामह के कथनानुसार कुबेर का स्नेहभाव संपादित किया । कुबेर ध्रुव पर प्रसन्न हुआ एवं उसने इसे वर मॉंगने के लिये कहा । तब ध्रुव ने वर मॉंगा, ‘मैं श्रीहरि का अखंड स्मरण करता रहूँ’। छत्तिस हजार वर्षो तक राज्य करने के बाद, अपने वत्सर नामक पुत्र को गद्दी पर बैठा कर, ध्रुव बदरिकाश्रम में गया । इस स्वर्ग में ले जाने के लिये एक विमान आया । उसमें बैठने के लिये यह जैसे ही तैयार हुआ, वैसे ही मृत्यु ने आ कर इससे कहा, ‘स्वर्ग में जाने से पहले तुम्हें देहत्याग करना पडेगा’। परंतु यह मान्य न कर, मृत्यु के सिर पर पॉंव रख कर, ध्रुव विमान में बैठ गया । स्वर्ग जाते समय, इसे अपने सुनीति माता का स्मरण हुआ, तथा उसे भी अपने साथ स्वर्ग के जाने की इच्छा हुई । इतने में इसने देखा कि, सुनीति इसके पहले ही स्वर्ग जी पहुंची है । अन्त में इसे सप्तर्षियों के समीप अचल ध्रुवपद प्राप्त हुआ । वह तारा ‘ध्रुव’ नाम से प्रसिद्ध है
[भा.४.८-१२] ;
[विष्णु.१.११-१२] ;
[मत्स्य.४.३५-३८] ;
[लिंग १.६२] ;
[स्कंद.४.१.१९-२१] ;
[ह.वं.१.२.९-१३] । अपने पूर्वजन्म में ध्रुव एक ब्राह्मणपुत्र था । इसने मातापिता की योग्य सुश्रूषा तथा धर्मपालन किया । पश्चात् एक राजपुत्र से इसकी मित्रता हुई । उसका वैभव देख कर इसे भी राजपुत्र बनने की इच्छा हुई। अपने पूर्वसंचित पुण्य के कारण, अगले जन्म में यह उत्तानपाद राजा का पुत्र बना ।
[विष्णु.१.१२.८४-९०] । ध्रुव ने पक्षवर्धिनी एकादशी का व्रत किया था
[पद्म.उ.३६] ।
ध्रुव n. ध्रुव के कुल चार पत्नीयों का निर्देश प्राचीन ग्रंथों में प्राप्त है । उनके नाम इसप्रकार हैः--- (१) भ्रमि---यह शिशुमार प्रजापति की कन्या थी । इससे ध्रुव को कल्प एवं वत्सर नामक दो पुत्र हुएँ । उनमें से वत्सर ध्रुव के पश्चात् राजगद्दी पर बैठी । (२) इला---यह वायु ऋषि की कन्या थी । इससे ध्रुव को उत्कल (विरक्त) नामक एक पुत्र हुआ । (३) शंभु---इससे ध्रुव को श्लिष्टि एवं भव्य नामक दो पुत्र हुएँ
[विष्णु१.१३.१] ;
[ह.वं.१.२-१४] । (४) धन्या---यह मनु की कन्या थी । इससे ध्रुव को शिष्टि नामक एक पुत्र हुआ
[मत्स्य.४.३८] ।
ध्रुव (आंगिरस) n. -सूक्तद्रष्टा
[ऋ.१०.१७३] । इसके सूक्तों में राष्ट्र तथा राजा के संबंध प्रजातंत्रात्मकविचार दिखाई देते हैं ।
ध्रुव II. n. (सो. पुरुरवस्.) नहुष का पुत्र, एवं ययाति का भाई
[म.आ.७०.२८] । इसके नाम के लिये ‘उद्धव’ पाठभेद उपलब्ध है ।
ध्रुव III. n. पांडवपक्षीय एक राजा । भारतीय युद्ध में पांडवों का ही विजय होगा, यह कर्ण को बताते समय, कृपाचार्य ने जिन पांडवपक्षीय राजाओं के नाम बताये, उनमें से यह एक था ।
ध्रुव IV. n. एक राजा । यमसभा में बैठ कर, यह सूर्यपुत्र यम की उपासना करता था
[म.स.८.१०] । इसके नाम के लिये ‘भव’ पाठभेद भी उपलब्ध है ।
ध्रुव IX. n. धर्म एवं वसु का पुत्र ।
ध्रुव V. n. कौरवपक्ष का एक योद्धा । भीम ने इसका वध किया
[म.द्रो.१३०.२३] ।
ध्रुव VI. n. सुख देवों में से एक ।
ध्रुव VII. n. विकुंठ देवों में से एक ।
ध्रुव VIII. n. लेख देवों में से एक ।
ध्रुव X. n. ०. धर्म को धूम्रा के गर्भ से उत्पन्न द्वितीय वसु
[म.आ.६०.१८] ।
ध्रुव XI. n. १. मधुबन के शाकुनि ऋषि के नौ पुत्रों में से ज्येष्ठ ।