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पितृवर्तिन् n. कुरुक्षेत्र के कौशिक ब्राह्मण के सत पुत्रों में से कनिष्ठ पुत्र । इसके स्वसृप (स्वसृप), क्रोधन, हिंस्त्र, पिशुन, कवि और वाग्दुष्ट आदि भाई थी । ये सातो भाई गर्ग ऋषि के शिष्य बन कर रहे थे । हरिंश के अनुसार, कौशिक विश्वामित्र नामक इनके पिता ने इन्हें शाप दिया. तपश्चात यह एवं इसके भाई गर्ग ऋषि के शिष्य बने । पिता के पश्चात् इन्हे बडा कष्ट सहना पडा । एक दिन सातो भाई गर्ग की कपिला नामक गाय को उसके बछडे के साथ अरण्य में ले गये । वहॉं क्षुधाशांति के हेतु, इसके भाइयों ने गाय को मार कर खाने की योजना बनायी । कवि तथा स्वसृम ने इसका विरोध किया, परन्तु श्राद्धकर्मनिपुण पितृवर्णि ने कहा, ‘अगर गोवध करना ही है, तो पितृ के श्राद्ध के हेतु करो, जिससे गाय को भी सद्गति मिले और हम लोगों को पाप न भुगतना पडे’। इसका कथन सब को मान्य हुआ । दो भाइयों को देवस्थान पर, तीन को पितृस्थान पर, तथा एक को अतिथि के रुप में बैठाया, एवं स्वयं को यजमान बनाकर, पितृवर्तिन ने गाय का ‘प्रोक्षण’ किया । संध्या के समय गर्गाश्रम में वापस आने के बाद, बछडा गुरु को सौंप कर, इन्होंने बताया, कि ‘धेनु व्याघ्र द्वारा भक्षित की गयी’। कालांतर में इन सातों बन्धुओं की मृत्यु हो गयी । क्रूरकर्म करने, तथा गुरु से असत्य भाषण करने के कारण, इन लोगों का जन्म व्याधकुल में हुआ । इस योनि में इनके नाम निर्वैर, निर्वृति, शान्त, निर्मन्यु, कृति, वैधस तथा मातृवर्तिन थे । पूर्वजन्म में किये पितृतर्पण के कारण, इस जन्म में, ये ‘जातिस्मर’ बन गाये थे । मातृपितृभक्ति में वैराग्यपूर्वक काल बिता कर, इनकी मृत्यु हुयी । मृत्यु के पश्चात इन्हें कालंजर पर्वत पर मृगयोनि प्राप्त हुयी । मृगयोनि में इनके नाम निम्नलिखित थेः
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