बलि n. एक सुविख्यात असुर, जो वामनावतार में श्रीविष्णु द्वारा पाताल में ढकेल दिया गया था (बलि वैरोचन देखिये) ।
बलि (आनव) n. (सो. अनु.) पूर्व आनव प्रदेश का सुविख्यात राजा, जो सुतपस् राजा का पुत्र था । यह इक्ष्वाकुवंशीय सगर राजा का समकालीन था । आनव प्रदेश शुरु में आधुनिक मोंघीर तथा भागलपुर प्रान्तों में सीमित था । किन्तु अपने पराक्रम के कारण, इसने अपना साम्राज्य काफी बढा कर, पूर्व हिंदुस्तान का सारा प्रदेश उसमें समाविष्ट कराया । हरिवंश के अनुसार, पूर्वजन्म में वह बलि वैरोचन नामक सुविख्यात दैत्य था । अपनी प्रजा में यह अत्यंत लोकप्रिय था, एवं उन्हींके अनुरोध पर इसने अगले जन्म में बलि आनव नाम से पुनः जन्म लिया । इसने ब्रह्मा की कठोर तपस्या की थी, जिस कारण ब्रह्मा ने से वर दिये, ‘तुम महायोगी बन कर कल्पान्त तक जीवित रहोगे । तुम्हारी शक्ति अतुल होगी, एवं युद्ध में तुम सदा ही अजेय रहोगे । अपनी प्रजा में तुम लोकप्रिय रहोगे, एवं लोग सदैव तुम्हारे आज्ञा का पालन करेंगे । धर्म के सारे रहस्य तुम्हे ज्ञात होंगे, एवं तुम्हारे धर्मसंबंधी विचार धर्मविज्ञों में मान्य होगे । धर्म को सुसंगठित रुप दे कर, तुम अपने राज्य में चातुर्वर्ण्य की स्थापना करोगे’
[ह.वं.१.३१.३५-३९] । इसकी पत्नी का नाम सुदेष्णा था । काफी वर्षो तक इसे पुत्र की प्राप्ति न हुयी थी । फिर दीर्घमतस औचथ्य मामतेय नामक ऋषि के द्वारा इसने सुदेष्णा से पॉंच पुत्र उत्पन्न कराये (दीर्घतमस् देखिये) । दीर्घतमस् ऋषि से उत्पन्न इसके पुत्रो के नाम निम्न थेः
बलि (वैरोचन) n. एक सुविख्यात विष्णुभक्त दैत्य, जो प्रह्राद का पौत्र एवं विरोचन का पुत्र था । इसकी माता का नाम देवी था
[म.आ.५९.२०] ;
[म.स. ९.१२] ;
[म.शां.२१८.१] ;
[म.अनु.९८] ;
[भा.६.१८.१६,८.१३] ;
[वामन. २३.७७] । स्कंद मे इसकी माता का नाम सुरुचि दिया गया है
[स्कंद. १.१.१८] । विरोचन का पुत्र होने से, इसे ‘वैरोचन’ अथवा ‘वैरोचनि’ नामान्तर प्राप्त थे । इसे महाबलि नामांतर भी प्राप्त था, एवं इसकी राजधानी महाबलिपुर में थी । ‘आचाररत्न’ में दिये गये सप्तचिरंजीव पुण्यात्माओं में बलि का निर्देश प्राप्त है
[आचार. पृ.१०] । बाकी छः चिरंजीव व्यक्तिओं के नाम इस प्रकार हैः
बलि (वैरोचन) n. बलि दैत्यों का राजा था
[वामन.२३] । दैत्यराज होते हुए भी, यह अत्यंत आदर्श, सत्त्वशील एवं परम विष्णुभक्त सम्राट था
[ब्रह्म.७३] ;
[कूर्म. १.१७] ;
[वामन.७७-९२] । दैत्यलोग एवं उनके राजा पुराण एवं महाभारत में बहुशः असंस्कृत, वन्य एवं क्रूर चित्रित किये जाते है । बाण, गयासुर एवं बलि ये तीन राजा पुराणों में ऐसे निर्दिष्ट है कि, जो परमविष्णुभक्त एवं शिवभक्त होते हुए भी, देवों ने उनके साथ अत्यंत क्रूरता का व्यवहार किया, एवं अंत में अत्यंत निर्घृणता के साथ उनका नाश किया । डॉ. राजेंद्रलाल मित्र, डॉ. वेणिमाधव बारुआ आदि आधुनिक विद्वानों ने पुराणों मे निर्दिष्ट इन असुरकथाओं के इस विसंगति पर काफी प्रकाश डाला है । संभव यही है कि, देव एवं दैत्यों का प्राचेन विरोध सत् एवं असत् का विरोध न होकर, दो विभिन्न ज्ञाति के लोगो का विरोध था, एवं बलि, बाण एवं गयासुर केवल देवों के विपक्ष में होने के कारण देवों ने उनका नाश किया हो ।
बलि (वैरोचन) n. एक बार श्रीविष्णु ने किंचित्काल के लिये देवों के पक्ष का किया । यह सुसंधी जान कर, दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने बलि को देवों पर आक्रमण करने की प्रेरणा दी । तदनुसार बलि ने स्वर्गपर आक्रमण किया, एवं देवों के छक्के छुडा दिये । बलि से बचने के लिये, देवों अपने मूल रुप बदल कर स्वर्ग से इतस्ततः भाग गये । किन्तु वहॉं भी बलि ने उनका पीछा किया एवं उनको संपूर्णतः हराया । पश्चात् बलि ने अपने पितामह प्रह्राद को बडे सम्मान के साथ स्वर्ग में आमंत्रित किया, एवं उसे स्वर्ग में अत्यधिक श्रेष्ठता का दिव्य पद स्वीकारने की प्रार्थना की । प्रह्राद ने बलि के इस आमंत्रण का स्वीकार किया, एवं बलि को स्वर्ग के राज्यपद का अभिषेक भी कराया । अभिषेक के पश्चात्, बलि ने प्रह्राद की आशिश मॉंगी एवं स्वर्ग का राज्य किस तरह चलाया जाय इस बारे में उपदेश देने की प्रार्थना की । प्रह्राद ने इस उपदेश देते हुए कहा, ‘हमेशा धर्म की ही जीत होती है, इस कारण तुम धर्म से ही राज्य करो’
[वामन.७४] । प्रह्राद के उपदेश के अनुसार, राज्य कर, बलि ने एक आदर्श एवं प्रजाहितदक्ष राजा ऐसी कीर्ति त्रिखंड में संपादित की
[वामन.७५] ।
बलि (वैरोचन) n. एकबार बलि ने इंन्द्र की सारी संपत्ती हरण की, एवं उसे यह अपने स्वर्ग में ले जाने लगा । किन्तु रास्ते में वह समुद्र में गिर गयी । उसे समुद्र से बाहर निकलाने के लिये श्रीविष्णु ने समुद्रमंथन की सूचना देवों के सम्मुख प्रस्तुत की । समुद्रमंथन के लिए बलि का सहयोग पाने के लिये सारे देव इसकी शरण में आ अये । बलि के द्वारा इस प्रार्थना का स्वीकार किये जाने पर, देव एवं दैत्यों ने मिल कर समुद्रमंथनसमारोह का प्रारंभ किया
[भा.८.६] ;
[स्कंद. १.१.१९] । बलि के विगत संपत्ति को पुनः प्राप्त करना, यह देवों की दृष्टि से समुद्रमंथन का केवल दिखावे का कारण था । उनका वास्तव उद्द्देश तो यह था कि, उस मंथन से अमृत प्राप्त हो एवं उसकी सहाय्यता से देवदैत्यसंग्राम में देवपक्ष विजय प्राप्त सके । दैत्यपक्ष के पास ‘मृतसंजीवनी विद्या’ थी, जिसकी सहाय्यता से युद्ध में मृत हुए सारे असुर पुनः जीवित हो सकते थे । देवों के पास ऐसी कौनसी भी विद्या न होने के कारण, युद्ध में वे पराजित होते थे । इसी कारण देवों ने समुद्रमंथन का आयोजन किया, एवं उसके लिए दैत्यों का सहयोग प्राप्त किया । समुद्रमंथन यह समारोह चाक्षुषमन्वन्तर में हुआ, जिस समय मंत्रद्रुम नामक इंद्र राज्य कर रहा था
[भा.८..८] ;
[विष्णु.१.९] ;
[मस्त्य.२५०-२५१] । समुद्रमंथन का समारोह एकादशी के दिन प्रारंभ हो कर द्वादशी के दिन समाप्त हुआ । एकादशी के दिन, उस मंथन से सर्व प्रथम ‘कालकूट’ नामक विष उत्पन्न हुआ, जिसका शंकर ने प्राशन किया । पश्चात् अलक्ष्मी नामक भयानक स्त्री उत्पन्न हुई, जिसका विवाह श्रीविष्णु द्वारा उद्दालक नामक ऋषी के साथ किया गया । तत्पश्चात् ऐरावत नामक हाथी, उच्चैःश्रवस नामक अश्व एवं धन्वन्तरि, पारिजातक, कामधेनु, तथा अप्सरा इन रत्नों का उद्भव हुआ । द्वादशी के दिन लक्ष्मी उत्पन्न हुई, जिसका श्रीविष्णु ने स्वीकार किया । तपश्चात् चंद्र एवं अमृत उत्पन्न हुए । अमृत से ही तुलसी का निर्माण हुआ
[पद्म.ब्र.९.१०] ।
बलि (वैरोचन) n. समुद्रमंथन से निर्माण हुए रत्नों के नाम, संख्या एवं उनका क्रम के बारे में पुराणों में एकवाक्यता नहीं है । एक स्कंदपुराण में ही इन रत्नों के नाम एवं निम्नलिखित दो प्रकारों में दिये गये हैः--- १. लक्ष्मी, २.कौस्तुभ, ३. पारिजातक, ४. धन्वन्तरि, ५. चंद्रमा, ६. कामधेनु, ७. ऐरावत, ८. अश्व (सप्तमुख), ९. अमृत, १०. रम्भा, ११. शार्ङ्ग धनुष्य, १२. पांचजन्य शंख, १३. महापद्मनिधि तथा, १४. हालाहलविष
[स्कंद ५.१.४४] । १. हालाहलविष, २. चंद्र, ३. सुरभि धेनु, ४. कपवृक्ष, ५. पारिजातक, ६. आम्र, ७. संतानक, ८. कौस्तुभ रत्न (चिंतामणि), ९. उच्चैःश्रवस्, १०. चौसष्ट हथियों के समूह के साथ ऐरावत, ११. मदिरा, १२. विजया, १३. भंग, १४. लहसुन, १५. गाजर, १६. धतूरा, १७. पुष्कर, १८. ब्रह्मविद्या, १९. सिद्धि, २०. ऋद्धि, २१. माया, २२. लक्ष्मी, २३. धन्वन्तरि, २४. अमृत
[स्कंद. १.१.९.-१२] । महाभारत एवं मत्स्य में निम्नलिखित केवल सात रत्नों का निर्देश प्राप्त हैः---सोम, श्री (लक्ष्मी), सुरा, तुरग, कौस्तुभ, धन्वन्तरि, एवं अमृत
[म.आ.१६.३३-३७] ;
[मस्त्य.२५०-२५१] ।
बलि (वैरोचन) n. समुद्रमंथन हुआ, किंतु राक्षसों को कुछ भी प्राप्त न हुआ । अतएव राक्षसों ने संघठित हो कर देवों पर चढाई कर दी । देवों-दैत्यों के इस भीषण युद्ध में बलि ने अपनी राक्षसी माया से इंद्र के विरोध में ऐसा युद्ध किया कि, उसके हारने की नौबत आ गयी । इस युद्ध में इसने मयासुर द्वारा निर्मित ‘वैहानस’ विमान का प्रयोग किया । इंद्र की शोचनीय स्थिति देख कर विष्णु प्रकट हुए, तथा उन्होंने बलि के मायावी जाल को काट फेंका । पश्चात बलि इंद्र के वज्रद्वारा मारा गया । बलि के मर जाने पर, नारद की आज्ञानुसार, इसका मृत शरीर अस्ताचल ले जाया गया, जहॉं पर शुक्राचार्य के स्पर्श तथा मंत्र से यह पुनः जीवित हो उठा
[भा.११.४६-४८] ।
बलि (वैरोचन) n. बलि के जीवित हो जाने पर शुक्राचार्य ने विधिपूर्वक इसका ऐन्द्रमहाभिषेक किया, एवं इससे विश्वजित् यज्ञ भी करवाया । पूर्णरुपेण राज्यव्यवस्था को अपने हाथ ले कर इसने सौ अश्वमेध यज्ञ भी किये
[भा.८.१५.३४] । विश्वजित् यज्ञ के उपरांत यज्ञदेव ने प्रसन्न हो कर, इसे इंद्ररथ के समान दिव्य रथ, सुवर्णमय धनुष, दो अक्षय तूणीर तथा दिव्य कवच दिये । इसके पितामह प्रह्राद ने कभी न सूखनेवाली माला दी । शुक्राचार्य ने एक दिव्य शंख, तथा ब्रह्मदेव ने भी एक माला इसे अर्पित की
[म.शां.२१६.२३] ।
बलि (वैरोचन) n. इसप्रकार सारी स्वर्गभूमि बलि के अधिकार में आ गयी । देवतागण भी निराश हो कर देवभूमि छोड कर अन्यत्र चले गये । इसके राज्य में सुख सभी को प्राप्त हुआ, किन्तु ब्राह्मण एवं देव उससे वंचित रहे । उन्हें विभिन्न प्रकार के कष्ट दिये जाने लगे, जिससे ऊब कर वे सभी विष्णु से फरियाद करने के लिये गये । सब ने विष्णु से अपनी दुःखभरी व्यथा कह सुनाई । विष्णु ने कहा, ‘बलि तो हमारा भक्त है, पर तुम्हारे असहनीय कष्टों को देख कर, उनके निवारणार्थ में शीघ्र ही वामनावतार लूँगा’
[ब्रह्म. ७३] । धीरे धीरे बलि के राज्य की व्यवस्था क्षीण होने लगी । राक्षसों का बल घटने लगा । एकाएक इस गिरावट को देख कर, बलि अत्यधिक चिंतत हुआ, तथ ऐसा विचित्र परिवर्तन का कारण जानने के हेतु प्रह्राद के पास गया । कारण पूँछने पर प्रह्राद ने बताया ‘भगवान विष्णु वामनावतार लेने के लिए आदिति के गर्भ में वासी हो गये हैं, यही कारण है कि तुम्हारा आसुरी राज्य दिन पर दिन रसातल को जा रहा है’। प्रह्राद के बचनों को सुन कर इसने उत्तर दिया, ‘उस हरि से हमारे राक्षस अधिक बली है’। बलि के इस अहंकारभरी वाणी को सुन कर प्रह्राद ने क्रोधित हो कर शाप दिया ‘तुम्हारा राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा’ प्रह्राद की वाणी सुन कर यह आतंकित हो उठा तथा, तुरंत क्षमा मॉंगते हुए उसकी शरण में आया । किंतु प्रह्राद ने इससे कहा, ‘मेरी शरण में नही, तुम विष्णु की ही शरण जाओ, वहे तुम्हारा कल्याण निहित है’
[वामन.७७] ।
बलि (वैरोचन) n. नर्मदा के उत्तरी तट पर स्थित भृगुकच्छ नामक प्रदेश जें जब इसका अन्तिम अश्वमेध यज्ञ चल रहा था, तब एक ब्राह्मणवेषधारी बालक के रुप में वामन भगवान् ने प्रवेश किया । बलि ने वामन का आदरसत्कार कर उनकी पूजा की, तथा कुछ मॉंगने के लिए प्रार्थना की
[भा.८.१८.२०-२१] । वामन ने इससे तीन पग भूमि मॉंगा । शुक्राचार्य ने यह देख कर बलि को तुरन्त समझाया, ‘यह ब्राह्मण बालक और कोई नहीं, स्वयं वामनावतारधारी विष्णु हैं । तुम इन्हें कुछ भी न दो’ । किन्तु बलि ने गुरु की वाणी की उपेक्षा करते हुए कहा, ‘नहीं! मैं अवश्य दूँगा! जब प्रत्यक्ष ही परमेश्वर मेरे द्वार पर अतिथि रुप से आया है, तो मैं उसे अवश्य ही इच्छित वस्तु प्रदान करुँगा
[वामन.९१] । बलि की इस प्रकार की वाणी सुन कर, शुक्र ने क्रोधित हो कर शाप दिया, ‘बलि तुमने मेरी उपेक्षा की है, मेरे आज्ञा का अवहेलना की है । तुम अपने को अत्यधिक बुद्धिमान समझते हो । तुम्हारा यह ऐश्वर्य, यह राजपाट नष्ट-भ्रष्ट हो जाये’। वामन भगवान् ने इसकी तथा इसके पूर्वजों की यशगाथा का गान किया, और बलि ने उसे तीन पग भूमि दान देने के लिए मंत्र पढते हुए अर्ध्य दिया । हाथों पर जल छोडते ही वामनरुपधारी विष्णु ने विशाल रुप धारण कर प्रथम पग में पृथ्वी, द्वितीय में स्वर्गलोक नापते हुए, इससे प्रश्न किया कि, तीसरा पैर किधर रखूँ
[म.स.परि.१.क्र.२१. पंक्ति.३३४-३३५] । बलि को वामन द्वारा इस प्रकार ठगा जाना देख कर इसके सैनिकों ने उद्यत हो कर उस पर आक्रमण करने लगे । किन्तु इसने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘हमारा अन्तिम समय आ गया है, जो हो रहा है उसे होने दो’। पश्चात् वरुन ने विष्णु की इच्छा जान कर, इसे वरुणपाश में बॉंध लिया
[वामन.९२] । वामन द्वारा तीसरे पग के लिए भूमि मॉंग जाने पर, गुरु शुक्राचार्य ने एक बार फिर बलि दो दान के लिए रोका, पर बलि न माना । यह देख कर अर्ध्यदान देनेवाले पात्र के अन्दर शुक्र ऐसा बैठा गया कि, जिससे दान देते समय उस पात्र से जल न निकल सके । बलि को शुक्र की यह बात बालूम न थी । जैसे ही पात्र की टोंटी से जल न गिरा, यह कुश के अग्रभाग से उसे साफ करने लगा जिससे शुक्राचार्य की एक ऑख फूट-गयी और तब से शुक्राचार्य को ‘एकाक्ष’ नाम प्राप्त हुआ
[नारद १.११] ।
बलि (वैरोचन) n. पश्चात् वामन ने कहा, ‘तुमने तीसरे पग की जमीन दे कर अपने बचनों का पालन नहीं किया है । यह सुन कर बलि ने उत्तर दिया ‘तुमने कपट के साथ मेरे साथ व्यवहार किया है, पर मैं अपना वचन निभाऊंगा । भूमि तो बाकी नहीं बची; मैं अपना मस्तक बढाता हूँ, उसमें अपना तीसरा पग रख कर, इच्छित वस्तु प्राप्त करो’
[पद्म.पा.५३] । बलि की यह स्थिति देख कर इसकी स्त्री विंध्यावली ने वामन भगवान् से बलि से उद्धार के लिए प्रार्थना की । विंध्यावली की भक्तिपूर्ण मर्मवाणी को सुन कर विष्णु प्रसन्न हो कर वर देते हुए कहा ‘तुम अभी पाताल लोक में निवास करो, वहॉं मैं तुम्हारा द्वारपाल बनूँगा, मेरा सुदर्शन चक्र सदैव तुम्हारी रक्षा करेगा । आगे चल कर सावर्णि मन्वन्तर में तुम इन्द्र बनोगे’। उक्त घटना कृतयुग के पूर्व काल की है । वह दिन कार्तिक शुद्ध प्रतिपदा का था, जब बलि ने वामन को दान दिया था । इस लिए उस दिन को चिरस्मरणीय रखने के लिये वामन ने बलि को वर दिया, ‘यह पुण्यदिन ‘बलि प्रतिपदा’ के नाम से विख्यात होगा, और इस दिन लोग तुम्हारी पूजा करेंगे’
[स्कंद.२४.१०] । इसके पश्चात्, वामन ने इसे वरुण पाश से मुक्त किया, और बलि ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नमस्कार कर, पाताललोक चला गया । बलि के जाने के उपरांत विष्णु ने शुक्राचार्य को आदेश दिया कि वह यज्ञ के कार्य को विधिपूर्वक समाप्त करें
[भा.८.१५-२३] ;
[म.स.परि.१. क्र.२१] ;
[वामन ३१] ;
[ब्रह्म.७३] । वामन ने बलि का राज्य मन पुत्रो को दे कर, पृथ्वी एवं स्वर्ग को दैत्यों से मुक्त कराया
[स्कंद. ७.२.१९] । विष्णुद्वारा, बलि के ‘पातालबंधन’ की पुराणों मे दी गयी कथा ऐतिहासिक, एवं काफी प्राचीन प्रतीत होती है । पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में इस कथा का निर्देश प्राप्त हैं
[पा.सू.३.१.२६] । पतंजलि के अनुसार बलि का पातालबंधन काफी प्राचीन काल में हुआ था; फिर भी उसका निर्देश महाभाष्यकाल में ‘बलिगों बन्धयति’ इस वर्तमानकालीन रुप में किया जाता था ।
बलि (वैरोचन) n. वाल्मीकि रामायण में बलि के पाताल निवास की एक रोचक कथा दी गयी है, जो द्रष्टय है । एक बार रावण ने इसके पास आ कर कहा, ‘मैं तुम्हारी मुक्ति के लिये आया हूँ, तुम हमारी, सहायता प्राप्त कर, विष्णु के बन्धनों से मुक्त हो सकते हो । यह सुन कर बलि ने अग्नि के समान चमकनेवाले दूर पर रक्खे हुए हिरण्यकशिपु के कुंडल उठा कर लाने के लिये रावण से कहा । रावण ने उस कुण्डल को उठाना चाहा, पर वेहोश हो कर गिर पडा, तथा मुँह से खून की उल्टियॉं करने लगा । बलि ने उसे होश में ला कर समझाते हुए कहा, ‘यह एक कुण्डल है, जिसे मेरा प्रपितामह हिरण्य कशिपु धारण करता था ।’ उसे तुम उठा न सके । महान् पराक्रमी भगवान विष्णु द्वारा ही हिरण्यकशिपु मारा गया, तथा उसी विष्णु को किस बल से चुनौती दे कर तुम मुझे मुक्त कराने आये हो । वह विष्णु परमशक्तिमान् एवं सब का मालिक है’। ऐसा कह कर इसने उसे विष्णुलीला का वर्णन सुनाया
[वा.रा.उ.प्रक्षिप्त सर्ग १] । आनंद रामायण में इसी प्रकार की एक और कथा दी गयी है । एक बार रावण बलि को अपने वश में करने के लिए पाताललोक गया । वहॉं बलि अपनी स्त्रियों के साथ पॉंस खेल रहा था । किसी ने रावण की ओर गौर किया । एकाएक एक फॉंसा उछल कर दूर गिरा, तब इसने उस फॉंसे को उठाने के लिये रावण से कहा । रावण ने फॉंसा उठा कर देना चाहा, पर उसे हिला तक सका । तब वहॉं पर फॉंसा खेलती हुयी स्त्रियों ने रावण का ऐसा उपहास किया कि, यह वहॉं से चम्पत हो गया
[आ.रा.सार.१३] । महाभारत के अनुसार राज्य से च्युत किये जाने पर बलि को गर्दभयोनि प्राप्त हुयी, एवं यह इधर उधर भटकने लगा । ब्रह्मदेव ने बलि को ढूँढने के लिए इन्द्र से कहा, तथा आदेश दिया की इसका वध न किया जाये । महाभारत में यह भी कहा गया है कि, इसने ब्राह्मणों से मदपूर्ण अनुचित व्यवहार किया, इसी लिए लक्ष्मी ने इसका परित्याग किया
[म.शां.२१६.२१८] । योगवसिष्ठ जिसे वेदान्त ग्रन्थों में भी अनासक्ति का प्रतिपादन करने के लिये, इसकी कथा दृष्टान्तरुप में दी गयी है
[यो.वा.५.२२.२९] । महाभारत के अनुसार, अपनी मृत्यु के पश्चात् बलि वरुनसभा में अधिष्ठित हो गया
[म.स.९.१२] । स्कंद पुराण में बाष्कलि नामक एक दैत्य की एक कथा दी गयी है, जो बलि के जीवनी से बिलकुल मिलती जुलती है
[स्कंद.१.१.१८] ; बाष्कलि देखिये । उसी पुराण में इसके पूर्वजन्म की कहानी दी गयी है, जिसके अनुसार पूर्वजन्म में इसे कितव बताया गया हैं । भागवत में एक स्थान पर इसे ‘इंद्रसेन’ उपाधि से विभूषित किया गया है
[भा.८.२२. ३३] ।
बलि (वैरोचन) n. यह बडा तत्त्वज्ञानी था । तत्त्वज्ञान के संबंध में इसके अनेक संवाद महाभारत तथा पुराण में प्राप्त हैं । राजा अपनी राजलक्ष्मी किस प्रकार खो बैठता है, उसके संबंध में बलि तथा इंद्र का संवाद हुआ
[म.शां.२१६] । इसके पितामह प्रह्राद से ‘क्षमा श्रेष्ठ अथवा तेज श्रेष्ठ’ पर इसका संवाद हुआ
[म.व.२९] । दैत्यगुरु शुक्र से इसका ‘उपासना में पुष्प तथा धूपदीप’ के बारे में संवाद हुआ
[म.अनु.९८] ।
बलि (वैरोचन) n. बलि की कुल दो पत्नियॉं थीः---(१) विंध्यावलि
[भा.८.२०.१७] ;
[मत्स्य १८७.४००: २] अशना, जिससे इसे बाण प्रभृति सौ पुत्र उत्पन्न हुये थे
[भा.६.१८.१७, विष्णु१.२१.२] । भागवत में इसकी कोटरा नामक और एक पत्नी का निर्देश प्राप्त है, जिसे बाणासुर की माता कहा गया है
[भा.१०.६३.२०] । बलि के सौ पुत्रों में निम्नलिखित प्रमुख थेः--- बाण (सहस्त्रबाहु), कुंभगर्त (कुंभनाभ), कुष्मांड, मुर, दय, भोज, कुंचि(कुशि), गर्दभाक्ष
[वायु.६७.८२-८३] । महाभारत में केवल बलिपुत्र बाण का निर्देश प्राप्त है
[म.आ.५९.२०] ।
बलि (वैरोचन) n. शकुनी, पूतना
[वायु.६७.८२-८३] ;
[ब्रह्मांड. ३.५. ४२-४४] । बलि के वंशज इस अर्थ से ‘बालेय’ नाम का प्रयोग पुराणों में प्राप्त है । किंतु वहॉं बलि वैश्वानर एवं बलि आनव इन दोनों में से किस के वंशज निश्चित अभिप्रेत है, यह कहना मुष्किल है (बलि आनव देखिये) ।
बलि (वैरोचन) n. श्रद्धरहित हो कर एवं दोषदृष्टि रखते हुए जो दान किया जाता है, उस निकृष्ट जाति के दान में से कई भागों का स्वामी बलि माना जाता है
[म.अनु.९०.२०] । देवीभागवत के अनुसार कौनसा भी धर्मकर्म दक्षिणा के सिवा किया जाये, तो वह देवों तक न पहुँच कर बलि उसका स्वामी बन जाता है । उसी तरह निम्नलिखित हीनजाति के धर्मकृत्यों का पुण्य उपासकों के बदले बलि को प्राप्त होता हैः---श्रद्धारहित दान, अधम ब्राह्मण के द्वारा किया गया यज्ञ, अपवित्र पुरुष का पूजन, अश्रोत्रिय के द्वारा किया गया श्राद्धकर्म, शूद्र स्त्री से संबंध रखनेवाले ब्राह्मण को किया हुआ द्रव्यदान, अश्रद्ध शिष्य के द्वारा की गयी गुरुसेवा
[दे.भा९.४५] । बलिप्रतिपदा के दिन बलि की उपासना जाती है । यह उपासना बहुशः राजाओं द्वारा की जाती है, एवं वहॉं बलि, उसकी पत्नी विंध्यावलि एवं उसके परिवार के कुष्मांड, बाण, मुर आदि असुरों के प्रतिमाओं की पूजा बडे ही भक्तिभाव से की जाती है । उस समय निम्नलिखित बलिस्तुति का पाठ ही भक्तिभाव से किया जाता हैः--- बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचनसुत प्रभो । भविष्येंद्र सुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यतागों ॥
[भविष्योतर.१४०.५४] ;
[पद्म. उ.१३४.५३] ।
बलि II. n. अनु देश का सुविख्यात राजा (बलि आनव देखिये) ।
बलि III. n. युधिष्ठिर के सभा का एक ऋषि, जो जितेंद्रिय तथा वेदवेदाङ्गों में पारंगत था । इसने युधिष्ठिर को अनेक पुण्यकारक गाथाएँ सुनाई थी
[म.स.४.८] । हस्तिनापुर जाते समय, मार्ग में इसकी श्रीकृष्ण से भेंट हुयी थी
[म.उ.८१.३८८] ।
बलि IV. n. एक शिवावतार, जो वाराहकल्प में से वैवस्वत मन्वन्तर की तेरहवी चौखट में उत्पन्न हुआ था । इसका अवतार गंधमादन पर्वत पर स्थित वालखिल्याश्रम में हुआ था । इसके सुधामन् काश्यप, वसिष्ठ तथा विरजस् नामक चार पुत्र थे
[शिव.शत.५] ।
बलि IX. n. आंगिरसकुल का एक गोत्रकार ।
बलि V. n. (आंध्र. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार आंध्र वंश का पहला राजा था । इसे शिप्रक, शिशुक एवं सिंधुक नामान्तर भी प्राप्त थे ।
बलि VI. n. सावर्णि मन्वन्तर का इंद्र ।
बलि VII. n. (सो. यदु.) एक यादव राजा, जो कृतवर्मन का पुत्र था । रुक्मिणी की कन्या चारुमती इसकी पत्नी थी
[भा.१९.६१.४] ।
बलि VIII. n. अत्रिकुल का एक गोत्रकार ।
बलि X. n. ०. रवैत मनु के पुत्रों में से एक ।