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मनु

   { manu }
Script: Devanagari

मनु     

Puranic Encyclopaedia  | English  English
MANU I   See under Manvantara.
MANU II   Son of the Agni Pāñcajanya. Pāñcajanya had three wives Suprajā, Bṛhadbhāsā and Niśā. He got of his first two wives six sons and of his third wife Niśā, a daughter and seven sons. [Chapter 223, Vana Parva] .
MANU III   A celestial maiden born to Kaśyapa of Pradhā. [Chapter 59, Verse 44, Ādi Parva] .

मनु     

हिन्दी (hindi) WN | Hindi  Hindi
noun  ब्रह्मा के चौदह पुत्रों में से प्रत्येक जो मनुष्यों के मूल माने जाते हैं   Ex. सृष्टि का विस्तार मनु से हुआ ।
HYPONYMY:
स्वयंभुव मनु वैवस्वत मनु स्वारोचिष मनु उत्तम मनु तामस मनु रैवत मनु चाक्षुष मनु सावर्णि मनु ब्रह्म सावर्णि मनु दक्ष सावर्णि मनु धर्म सावर्णि मनु रुद्र सावर्णि मनु रुचि देव सावर्णि मनु इंद्र सावर्णि मनु विष्वक्सेन
ONTOLOGY:
पौराणिक जीव (Mythological Character)जन्तु (Fauna)सजीव (Animate)संज्ञा (Noun)
SYNONYM:
आदि पुरुष प्राचेतस्
Wordnet:
benমনু
gujમનુ
kanಮನು
kasمَنوٗ
kokमनू
malമനു
marमनु
oriମନୁ
sanमनुः
tamமனு
telవిష్ణువు
urdمنو

मनु     

मनु n.  मान्वसृष्टि का आदि पुरुष (मनु ‘आदिपुरुष’ देखिये) ।
मनु (आदिपुरुष) n.  मनवसृष्टि का प्रवर्तक आदिपुरुष, जो समस्त मानवजाति का पिता माना जाता है [ऋ.१.८०.१६,११४.२, २.३३.१३, ८.६३.१] ;[अ. वे.१४.२.४१] ;[तै. सं.२.१.५.६] । कई अभ्यासकों के अनुसार मनु वैवस्वत तथा यह दोनों एक ही व्यक्ति थे (मनु वैवस्वत देखिये) । ऋग्वेद में प्रायः बीस बार मनु का निर्देश व्यक्तिवाचक नाम से किया गया है । वहॉं सर्वत इसे ‘आदिपुरुष’ एवं मानव जाति का पिता, तथा यज्ञ एवं तत्संबंधित विषयों का मार्गदर्शक माना गया है । मनु के द्वारा बताये गये मार्ग से ले जाने की प्रार्थना वेदों में प्राप्त है [ऋ.८.३०.१]
मनु (आदिपुरुष) n.  ऋग्वेद में पांच बार इसे पिता एवं दो बार निश्चित रुप से ‘हमारे पिता’ कहा गया है [ऋ.२.३३] । तैत्तिरीय संहिता में मानवजाति को ‘मनु की प्रजा’ (मानव्यःप्रजाः) कहा गया है [तै. सं. १.५.१.३] । वैदिक साहित्य में मनु को विवस्वत् का पुत्र माना गया है, एवं इसे ‘वैवस्वत’ पैतृक नाम दिया गया है [अ.वे.८.१०] ;[श.ब्रा.१३.४.३] । यास्क के अनुसार, विवस्वत् का अर्थ सूर्य होता है, इस प्रकार यह आदिपुरुष सूर्य का पुत्र था [नि.१२.१०] । यास्क इसे सामान्य व्यक्ति न मानकर दिव्यक्षेत्र का दिव्य प्राणी मानते है [नि.१२.३४] । वैदिक साहित्य में यम को भी विवस्वत् का पुत्र माना गया है, एवं कई स्थानो पर उसे भी मरणशील मनुष्यों में प्रथम माना गया है । इससे प्रतीत होता है कि, वैदिक काल के प्रारम्भ में मनु एवं यम का अस्तित्व अभिन्न था, किन्तु उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में मनु को जीवित मनुष्यों का एवं यम को दूसरे लोक में मृत मनुष्यों का आदिपुरुष माना गया । इसीलिए शतपथ ब्राह्मण में मनु वैवस्वत को मनुष्यों के शासक के रुप में, तथ यम वैवस्वत को मृत पितरों के शासक के रुप मे वर्णन किया गया है [ऋ.८.५२.१] ;[श.ब्रा.१३.४.३] । यह मनु सम्भवतः केवल आर्यो के ही पूर्वज के रुप में माना गया है, क्योंकि अनेक स्थलों पर इसका अनार्यो के पूर्वज द्यौः से विभेद किया है ।
मनु (आदिपुरुष) n.  -मनु ही यज्ञप्रभा का आरंभकर्ता था, इसीसे इसे विश्व का प्रथम यज्ञकर्ता माना जाता है [ऋ.१०.६३.७] ;[तै. सं.१.५.१.३,२.५.९.१,६.७.१,३.३.२.१,५.४.१०.५,६.६.६.१,७.५.१५.३] । ऋग्वेद के अनुसार, विश्व में अग्नि प्रज्वलित करने के बाद सात पुरोहितों के साथ इसने ही सर्वप्रथम देवों को हवि समर्पित की थी [ऋ.१०.६३]
मनु (आदिपुरुष) n.  तैत्तिरीय संहिता में मनु के द्वारा किये गये यज्ञ के उपरांत उसके ऐश्वर्य के प्राप्त होने की कथा प्राप्त है । देव-दैत्यों के बीच चल रहे युद्ध की विभीषिका से अपने धन की सुरक्षा करने के लिए देवों ने उसे अग्नि को दे दिया । बाद को अग्नि के हृदय में लोभ उत्पन्न हुआ, एवं वह देवों के समस्त धनसम्पत्ति को लेकर भागने लगा । देवों ने उसका पीछा किया, एवंउसे कष्ट देकर विवश किया कि, वह उनकी अमानत को वापस करे । देवों द्वारा मिले हुए कष्टों से पीडित होकर अग्नि रुदन करने लगा, इसी से उसे ‘रुद्र’ नाम प्राप्त हुआ । उस समय सुअके नेत्रों से जो आसूँ गिरे उसीसे चॉंदी निर्माण हुयी, इसी लिए चॉंदी दानकर्म में वर्जित है। अन्त में अग्नि ने देखा कि, देव अपनी धनसम्पत्ति को वापस लिए जा रहे हैं, तब उसने उनसे कुछ भाग देने की प्रार्थना की । तब देवों ने अग्नि को ‘पुनराधान’ (यज्ञकर्मों में स्थान) दिया ।आगे चलकर मनु, पूषन्, त्वष्टु एवं धतृ इत्यादि ने यज्ञकर्म कर के ऐश्वर्य प्राप्त किया [तै.सं.१.५.१] । मनु ने भी लोगों के प्रकाशहेतु अग्नि की स्थापना की थी [ऋ.१.३६] । मनु का यज्ञ वर्तमान यज्ञ का ही प्रारंभक है, क्यों कि, इसके बाद जो भी यज्ञ किये गये, उन में इसके द्वारा दिये गये विधानोम को ही आधार मान कर देवों को हवि समर्पित की गयी [ऋ.१.७६.] । इस प्रकार की तुलनाओं को अक्सर क्रियाविशेषण शब्द ‘मनुष्वत्’ (मनुओं की भॉंति) द्वारा व्यक्ति किया गया है। यज्ञकर्ता भी अग्नि को उसी प्रकार यज्ञ का साधन बनाते हैं, जिस प्रकार मनुओं ने बनाया था [ऋ.१.४४] वे मनुओं की ई भॉंति अग्नि को प्रज्वलित करते हैं, तथा उसीकी भॉंति सोम अर्पित करते हैं [ऋ.७.२.४.३७] । सोम से उसी प्रकार प्रवाहित होने की स्तुति की गयी है, जैसे वह किसी समय मनु के लिए प्रवाहित होता था [ऋ.९.९६]
मनु (आदिपुरुष) n.  मनु का अनेक प्राचीन यज्ञकर्ताओं के साथ उल्लेख मिलता है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैः---अंगिरस् और ययाति [ऋ.१.३१] । भृगु और अंगिरस [ऋ.८.४३] , अथर्वन् और दध्यञ्च [ऋ.१.८०] । दध्यञ्च, अंगिरस्, अत्रि और कण्व [ऋ.१.१३९] । ऐसा कहा गया है कि, कुछ व्यक्तियों ने समय समय पर मनु को अग्नि प्रदान क्र उसे यज्ञ के लिए प्रतिष्ठित किया था, जिसके नाम इस प्रकार है---देव [ऋ.१.३६] , मातरिश्वन, [ऋ.१.१२८] । मातरिश्वन् और देव [ऋ.१९.४६] ।, काव्य उश्सना [ऋ.८.२३] । ऋग्वेद के अनुसार, मनु विवस्वत ने इन्द्र के साथ बैठ कर सोमपान किया था [वाल.३] । तैत्तिरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण में मनु का अक्सर धार्मिक संस्कारादि करनेवाले के रुप में भी निर्देश किया गया है ।
मनु (आदिपुरुष) n.  आदिपुरुष मनु के पश्चात्, पृथ्वी पर मनु नामक अनेक राजा निर्माण हुए, जिन्होने अपने नाम से नये-नये मन्वंतरो का निर्माण किया । ब्रह्मा के एक दिन तथा रात के कल्प कहते हैं । इनमें से ब्रह्मा के एक दिन के चौदह भाग माने गये हैं, जिनमें से हर एक को मन्वन्तर कहते हैं । पुराणों के अनुसार, इनमें से हर एक मन्वन्तर के काल में सृष्टि का नियंत्रण करनेवाला मनु अलग के काल में सृष्टि का नियंत्रण करनेवाला मनु अलग होता है, एवं उसीके नाम से उस मन्वन्तर का नामकारण किया गया है । इस प्रकार् जब तक वह मनु उस सृष्टि का अधिकारी रहता है, तब तक वह काल उसके नाम से विख्यात रहता है ।
मनु (आदिपुरुष) n.  इस तरह पुराणों में चौदह मन्वन्तर माने गये हैं, जो निम्नलिखित चौदह मनुओं के नाम से सुविख्यात हैः---१. स्वायंभुव,२.स्वारोचिष,३. उत्तम (औत्तम), ४. तामस, ५. रैवत,६. चाक्षुष, ७. वैवस्वत, ८. सावर्णि (अर्कसावर्णि) ९. दक्षसावर्णि, १०. ब्रह्मसावर्णि ११. धर्मसावर्णि १२. रुद्रसावर्णि, १३. रौच्य, १४. भौत्य । इनमें से स्वायंभुव से चाक्षुक्ष तक के मन्वन्तर हो चुके है, एवं वैवरवत मन्वंतर सांप्रत चालू है । बाकी मन्वंतर भविष्यकाल में होनेवाले हैं
मनु (आदिपुरुष) n.  चौदह मन्वन्तर के अधिपतियों मनु के नाम विभिन्न पुराणों में प्राप्त है । इनमें से स्वायंभुव से ले कर सावर्णि तक के पहले आठ मनु के नाम के बारे में सभी पुराणों मे प्रायः एकवाक्यता है, किंतु नौ से चौदह तक के मनु के नाभ के बारे में विभिन्न पाठभेद प्राप्त है, जो निम्नलिखित तालिका में दिये गये हैः---
# वायु पद्म मार्क. ब्रह्यवैत्तरी एवं भागवत मत्स्य ब्रह्म विष्णु
9 सावर्ण रौच्य सूर्यसावर्णि दक्षसावर्णि रौच्य रैभ्य दक्षसावर्णि
10 सावर्ण भौत्य ब्रह्मसावर्णि ब्रह्मसावर्णि मेरुसावर्णि रौच्य ब्रह्मसावर्णि
11 सावर्ण मेरुसावर्णि धर्मसावर्णि धर्मसावर्णि ब्रह्मसावर्णि मेरुसावर्णि धर्मसावर्णि
12 सावर्ण ऋभु रुद्रसावर्णि रुद्रसावर्णि ऋतसावर्णि - रुद्रसावर्णि
13 रौच्य ऋतुधामन् रौच्य देवसावर्णि ऋतधामन् - रौच्य
14 भौत्य विष्वक्सेन भौत्य इंद्रसावर्णि ( चंद्रसावर्णि ) विश्वक्सेन भौत्य भौत्य

उपर्युक्त हर एक मन्वन्तर की कालमर्यादा चतुर्युगों की इकत्तर भ्रमण माने गये हैं । चतुर्युगो की कालमर्यादा तेतालीस लाख वीस हजार मानुषी वर्ष माने गये हैं । इस प्रकार हर एक मन्वन्तर की कालमर्यादा तेतालीस लाख वीस हजार इकत्तर होती है । हर एक मन्वन्तर का राजा मनु होता है, एवं उसकी सहायता के लिए सप्तर्षि, देवतागण,इन्द्र, अवतार एवं मनुपुत्र रहते हैं । इनमें सप्तर्षियों का कार्य प्रजा उत्पन्न करना रहता है, एवं इन प्रजाओं का पालन मनु एवं उसके पुत्र भूपाल बन कर करते हैं । इन भूपालों को देवतागण सलाह देने का कार्य करते है, एवं भूपालों को प्राप्त होनेवाली अडचनों का निवारण इन्द्र करता है । जिस समय इन्द्र हतबल होता है, उस समय स्वयं विष्णु अवतार लेकर भृपालोम का कष्ट निवारण करता है । मनु एवं उसके उपर्युक्त सारे सहायकगण विष्णु के अंशरुप माने गये है, तथा मन्वंन्तर के अन्त में वे सारे विष्णु में ही विलीन हो जाते हैं । किसी भी मन्वन्तर के आरम्भ में वे विष्णु के ही अंश से उत्पन्न होते हैं [विष्णु.१.३]
मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु - स्वायंभुव ।
  2. सप्तर्षि---अंगिरस् (भृगु), अत्रि, क्रतु, पुलस्त्य, पुलह, मरीचि, वसिष्ठ ।
  3. देवगण---याम या शुक्र के जित, अजित् व जिताजित् ये तीन भेद था । प्रत्येक गण में बारह देव थे [वायु.३१.३-९] । उन गणों में निम्न देव थे-ऋचीक, गृणान, विभु,विश्वदेव,श्रुति,सोमपायिन्, [ब्रह्मांड. २.१३] । इन देवों में तुषित नामक बारह देवों का एक और गण था [भा.४.१.८]
  4. इन्द्र---विश्वभुज् (भागवतं मतानुसार यज्ञ) । इन्द्राणी ‘दक्षिणा’ थी [भा.८.१.६]
  5. अवतार---यज्ञ तथा कपिल (विष्णु एवं भागवत मतानुसार) ।
  6. पुत्र---अग्निबाहु (अग्निमित्र, अतिबाहु), अग्नीध्र (आग्नीध्र), ज्योतिष्मत्, द्युतिमत्, उत्र (वयुष्मत्, सत्र, सह), मेधस् (मेध,मेध्य), मेधातिथि, वसु (बाहु), सवन (सवल), हव्य (भव्य) । मार्कडेय के अनुसार, इसके पुत्रों में से पहले सात भूपाल थे । भागवत तथा वायु के अनुसार, इसे प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो पुत्र थे । प्रियव्रत के दस पुत्र थे ।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु --- स्वारोचिष । कई ग्रन्थों में इस मन्वन्तर के मनु का नाम ‘द्युतिमत्’ एवं ‘स्वारोचिस्’ बताया गया है ।
  2. सप्तर्षि---अर्ववीर (उर्वरीवान्, ऊर्ज,और्व), ऋषभ (कश्यप,काश्यप),दत्त (अत्रि), निश्च्यवन (निश्चर,ल),प्राण,बृहस्पति (अग्नि,आलि), स्तम्ब (ऊर्जस्तंब, ऊर्जस्वल) । ब्रह्मांड में स्वारोषित मन्वन्तर के कई ऋषियों के कुलनाम देकर उन्हें सप्तर्षियों का पूर्वज कहा गया है । 
  3. देवगण---तुषित, इडस्पति,इध्म,कवि,तोष,प्रतोष,भद्र,रोचन,विभु,शांति,सुदेव (स्वह्र), पारावत ।
  4. इन्द्र---विपश्चित् । भागवत के अनुसार, यज्ञपुत्र रोचन ।
  5. अवतार---तुषितपुत्र अजित (विभु) ।
  6. पुत्र---अयस्मय अपोमूर्ति (आपमूर्ति), ऊर्ज, किंपुरुष, कृतान्त, चैत्र,ज्योति (रोचिष्मत्,रवि), नभ,(नव,नभस्य),प्रतीत (प्रथित, प्रसृति, बृहदुक्थ), भानु, विभृत,श्रुत,सुकृति (सुषेण), सेतु, हविघ्न (हविघ्न), इसके पुत्रों के ऐसे कुछ नाम मिलते हैं, किन्तु उनमें से कुल नौ या दस की संख्या प्राप्त है । मत्स्य के अनुसार, इस मन्वन्तर में ऋषियों की सहायता के लिए वसिष्ठपुत्र सात प्रजापति बने थे । किन्तु उन सब के नाम मनु पुत्रों के नामों से मिलते हैं, जैसे-आप, ज्योति,मूर्ति,रय, सृकृत,स्मय तथा हस्तीन्द्र ।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु --- उत्तम ।
  2. सप्तर्षि---अनघ,ऊर्ध्वबाहु,गात्र, रज, शुक्र (शुक्ल), सवन, सुतपस्। ये सब वसिष्ठपुत्र थे, एवं वासिष्ठ इनका सामान्य नाम था । पूर्वजन्म में ये सभी हिरण्यगर्भ के ऊर्ज नामक पुत्र थे ।
  3. देवगण---प्रतर्दन (भद्र.भानुं,भावन,मानव), वशवर्तिन् (वेदश्रुति), शिव, सत्य, सुधामन् । इन सबके बारह बारह के गण थे ।
  4. इन्द्र---सुशांति (सुकीर्ति,सत्यजित्) ।
  5. अवतार---सत्या का पुत्र सत्य,अथवा धर्म तथा सुनृता का पुत्र सत्यसेन ।
  6. पुत्र---अज,अप्रतिम,(इष,ईष), ऊर्ज,तनूज (तनूर्ज,तर्ज), दिव्य (दिव्यौषधि, देवांबुज), नभ (नय), नभस्य (पवन,परश्रु,परशुचि),,मधु,माधव,शुक्र, शुचि (शुति,सुकेतु) ।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु --- तामस ।
  2. सप्तर्षि---अकपि (अकपीवत्), अग्नि,कपि (कपीवत्), काव्य (कवि,चरक), चैत्र (जन्यु,जह्रु, जल्प), ज्योतिर्धर्मन् (ज्योतिर्धामन्, धनद), धातृ (धीमत्, पीवर),पृथु ।
  3. देवगण---वीर,वैधृति,सत्य (सत्यक,साध्य), सुधी, सुरुप,हरि । मार्कण्डेय के अनुसार, इनकी कुल संख्या सत्ताइस है । अन्य ग्रंथों में उल्लेख आता है किम, ये पुत्र एक एक न होकर सत्ताइस सत्ताइस देवों के गण थे ।
  4. इन्द्र---शिखि (त्रिशिख, शिबि) ।
  5. अवतार---हरि, जो हरिमेध तथा हरिणी का पुत्र था । इसे एक स्थान हर्या का पुत्र कहा गया है ।
  6. पुत्र---अकल्मष (अकल्माष), कृतबंधु,कृशाश्व, केतु,क्षांति,खाति (ख्याति)जानुजंघ,तन्वीन्,तपस्य, तपोद्युति (द्युति), तपोधन, तपोभागिन्, तपोमूल, तपोयोगिन्, तपोरति, दृढेषुधि, दान्त, धन्विन्, नर, परंतप, परीक्षित, पृथु,प्रस्थल,प्रियभृत, शयहय,शांत (शांति), शुभ, सनातन, सुतपस् ।
  7. योगवर्धन---कौकुरुण्डि, दाल्भ्य, प्रवहण, शङ्ग, शिव, सस्मित, सित । ये योगवर्धन केवल इसी मन्वंतर में मिलते हैं ।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1.  मनु---रैवत ।
  2. सप्तर्षि---ऊर्ध्वबाहु (सोमप), देवबाहु (वेदबाहु), पर्जन्य,महामुनि (मुनि, वसिष्ठ,सत्यनेत्र), यदुध्र, वेदशिरस (वेदश्री, सप्ताश्रु, सुधामन्, सुबाहु,स्वधामन्), हिरण्यरोमन् (हिरण्यलोमन्) ।
  3. देवगण---आभूतरजस् (भूतनय, भूतरजय) । इसके रैभ्य तथा पारिप्लव (वारिप्लव) ये दो भेद हैं । इसके अतिरिक्त अमिताभ, प्रकृति, वैकुंठ, शुभा आदि देवगणों में प्रत्येक में १४ व्यक्ति हैं ।
  4. इन्द्र---विभु ।
  5. अवतार---विष्णु के अनुसार संभूतिपुत्र मानस, तथा भागवत के अनुसार शुभ्र तथा विकुंठा का पुत्र ‘वैकुंठ’।
  6. पुत्र---अव्यय (हव्यप), अरण्य (आरण्य), अरुण, अर्जुन, कवि (कपि), कंबु, कृतिन्, तत्त्वदर्शिन्, धृतिकृत, धृतिमत्, निरामित्र, निरुत्सुक, निर्मोह, प्रकाश (प्रकाशक), बलबंधु, बाल, महावीर्य, युक्त, वित्तवत्, विंध्य, शुचि, शृंग, सत्यक, सत्यवाच, सुयष्टव्य (सुसंभाव्य), हरहन्।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु---चाक्षुष ।
  2. सप्तर्षि---अतिनामन्, उत्तम (उन्नत, भृगु), नभ (नाभ, मधु), विरजस् (वीरक), विवस्वत (हविष्मत्), सहिष्णुइ, सुधामन्, सुमेधस् ।
  3. देवगण---आद्य (आप्य), ऋभ, ऋभु, पृथग्भाव (प्रथुक-ग, यूथग), प्रसूत, भव्य (भाव्य,) वारि (वारिमूल), लेख ।
  4. इन्द्र---भवानुभव या मनोजव अथवा मंत्रद्रुम ।
  5. अवतार---विष्णु मतानुसार विकुंठापुत्र वैकुंठ, तथा भागवत मतानुसार वैराज तथा संभूति का पुत्र अजित् ।
  6. पुत्र---अग्निष्टुत, अतिरात्र, अभिमन्यु, ऊरु (रुरु) कृति, तपस्विन्, पुरु(पुरुष,पूरु), शतद्युम्न, सत्यवाच्‍, सुद्युम्न ।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु --- वैवस्वत ।
  2. सप्तर्षि---अत्रि, कश्यप (काश्यप,वत्सर), गौतम (शरद्वत्), जमदग्नि, भरद्वाज (भारद्वज), वसिष्ठ (वसुमत), विश्वामित्र ।
  3. देवगण---आंगिरस (दस), अश्विनी (दो), आदित्य (बारह), भृगुदेव (दस), मरुत (उन्चास), रुद्र (ग्यारह), वसु (आठ), विश्वेदेव (दस), साध्य (बारह) ।
  4. इन्द्र---ऊर्जास्विन् या पुरंदर या महाबल ।
  5. अवतार---वामन ।
  6. पुत्र---अरिषट (दिष्ट,नाभागारिष्ट, नाभानेदिष्ट, रिष्ट, नेदिष्ट, उद्विष्ट), इक्ष्वाकु इल (सुद्युम्न),करुष, कृशनाभ धृष्ट (धृष्णु), नभ (नभग, नाभाग), नृग, पृशध्र, प्रांशु,वसुमत्, शर्याति ।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1.  मनु --- सावर्णि ।
  2. सप्तर्षि---अश्वत्थामन्, (द्रोणि), और्व (काश्यप, रुरु, श्रुंग), कृप (शरद्वत, शारद्वत्), गालव (कौशिक), दीप्तिमत्, राम (परशुराम जामदग्न्य), व्यास (शतानंद, पाराशर्य) ।
  3. देवगण---अमिताभ (अमृतप्रभ), मुख्य (सुख,विरज), सुतप (सुतपस्, तप) ।
  4. इन्द्र---बलि (वैरोचन) । बलि वैरोचन की आसक्ति इन्द्रपद पर नहीं रहती है । अतएव कालान्तर में इन्द्रपद छोडकर वह सिद्धगति को प्राप्त करेगा ।
  5. अवतार---देवगुह्य तथा सरस्वती का पुत्र सार्वभौम अवतार होगा, तथा बलि के बाद वह सब व्यवस्था देखेगा ।
  6. पुत्र---अधृष्ट (अधृष्णु), अध्वरीवत् (अवरीयस्, अर्ववीर, उर्वरीयस्, (वीरवत), अपि, अरिष्ट (चरिष्णु,विष्णु), आज्य, ईडय, कृति, (धृति, धृतिमत्), निर्मोह, यवसस्, वसु, वरीयस्, वाच् (वाजवाजिन्, विरज,विरजस्क), वैरिशमन, शुक्र, सत्यवाच्, सुमति ।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु --- दक्षसावर्णि ।
  2. सप्तर्षि---ज्योतिष्मत्, द्युतिमत, मेधातिथि (मेधामृति, माधातिथि), वसु, सत्य (सुतपास, पौलह), सबल (सवन, वसित, वसिन), हव्यवाहन (हव्य, भव्य) ।
  3. देव---दक्षपुत्र हरित के पुत्र निर्मोह, पार (पर,संभूत), मरिचिगर्भ, सुधर्म, सुधर्मन, सुशर्माण । इनमें से हर एक के साथ बारह व्यक्ति हैं ।
  4. इन्द्र---कार्तिकेय ही आगे चलकर अद्‌भुत नाम से इन्द्र होगा ।
  5. अवतार---आयुष्मत् एवं अंबुधारा का पुत्र ऋषभ अवतार होगा ।
  6. पुत्र---अनीक (ऋ.चीक, अर्चिष्मत्, नाक), खड्‌गहस्त (पंचहस्त, पंचहोत्र, शापहस्त), गय, दीप्तिकेतु (दासकेतु, बर्हकेतु), धृष्टकेतु (धृतिकेतु, भूतकेतु), निराकृति (निरामय), पुथुश्रवस् (पृथश्रवस्), बृहत (बृहद्रथ, बृहद्यश,) भूरिद्युम्न ।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु --- ब्रह्मसावर्णि ।
  2. सप्तर्षि---आपांमूर्ति (आपोमूर्ति), अप्रतिम (अप्रतिमौजस, प्रतिम,प्रामति), अभिमन्यु (नभस, सप्तकेतु), अष्टम (वसिष्ठ, वशिष्ठ, सत्य,सद्य), नभोग (नाभाग),सुकृति (सुकीर्ति), हविष्मति ।
  3. देव---अर्चि सुखामन, सुखासीन, सुधाम, सुधामान, सुवासन, धूम,निरुद्ध, विरुद्ध ।
  4. इन्द्र---शान्ति नामक इन्द्र होगा ।
  5. अवतार---विश्वसृष्टय के गृह में विषूचि के गर्भ से विष्वक्सेन नाम्क अवतार होगा ।
  6. पुत्र---अनमित्र निरामित्र, उत्तमौजस, जयद्रथ, निकुषंश, भूरिद्युम्न, भूरिषेण, भूरिसेन, वीरवत् (वीर्यवत्), वृषभ, बृषसेन,शतानीक, सुक्षेत्र, सुपर्वन, सुवर्चस, हरिषेण।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु---धर्मसावर्णि ।
  2. सप्तर्षि---अग्नितेजस्, अनघ (तनय, नग, भग), अरुण (आरुणि, तरुण, वारुणि), उदधिष्णन् (उरुधिष्ण्य, पुष्टि, विष्टि, विष्णु), निश्चर, वपुष्मत्, (ऋ.ष्टि), हविष्मत् ।
  3. देव---तीस कामग (काम-गम, कामज), तीस निर्माणरत (निर्वाणरति, निर्वाणरुचि), तीस मनोजव (विहंगम) ।
  4. इन्द्र---वृष (वृषन्, वैधृत) इन्द्र होगा ।
  5. अवतार---इस मन्वन्तर के अवतार का नाम धर्मसेतु है, जो धर्म (आर्यक) एवं वैधृति के पुत्र के रुम में जन्म लेनेवाला है ।
  6. पुत्र---आदर्श, क्षेमधन्वन् (क्षेमधर्मन्, हेमधन्वन्), गृहेषु (दृढायु), देवानीक, पुरुद्वह (पुरोवह) पौण्ड्रक (पंडक), मत (मनु, मरु), संवर्तक (सर्वग, सर्वत्रग, सर्ववेग, सत्यधर्म), सर्वधर्मन (सुधर्मन्, सुशर्मन्) ।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु---रुद्रसावर्णि ।
  2. सप्तर्षि---तपस्विन, तपोधन, (तपोनिधि, तमोशन, तपोधृति, तपोमति), तपोमूर्ति, तपोरति (तपोरवि), द्युति (अग्निध्रक, कृति), सुतपस्।
  3. देव---रोहित (लोहित), सुकर्मन् (सुवर्ण), सुतार (तार,सुधर्मन्,सुपार), सुमनस्।
  4. इन्द्र---ऋतधामन् नामक इन्द्र होनेवाला है । ५. अवतार---सत्यसहस् तथा सूनृता का पुत्र स्वधामन् अवतार होगा ।६. पुत्र---उपदेव (अहूर), देववत् (देववायू,) देवश्रेष्ठ, मित्रकृत (अमित्रहा, मित्रहा), मित्रदेव (चित्रसेन, मित्रबिंदु, मित्रविंद,) मित्रबाहु, मित्रवत्, विदूरथ, सुवर्चस्।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु---रौच्य ।
  2. सप्तर्षि---अव्यव (पथ्यवत्, हव्याप) तत्वदर्शिन्, द्युतिमत्, निरुत्सुक, निर्मोक, निष्कंप, निष्प्रकंप, सुतपस् ।
  3. देव---सुकर्मन्. सुत्रामन (सुशर्मन), सुधर्मन् । प्रत्येक देवगण तीस देवों का होगा ।
  4. इन्द्र---दिवस्पति (दिवस्वामिन्) ।
  5. अवतार---देवहोत्र तथा बृहती का पुत्र अवतार होगा ।
  6. पुत्र---अनेक क्षत्रबद्ध (क्षत्रविद्ध, क्षत्रविद्धि, क्षत्रवृद्धि), चित्रसेन, तप (नय, नियति), धर्मधृत, (धर्मभृत, सुव्रत), धृत (भव), निर्भय, पृथ (दृध), विचित्र, सुतपस् (सुरस), सुनेत्र ।

मनु (आदिपुरुष) n.  
  1. मनु---भौत्य ।
  2. सप्तर्षि---अग्निबाहु (अतिबाहु), अग्निध्र (आग्नीध्र), अजित, भार्गव (मागध, माधव, श्वाजित), मुत (युक्त), शुक्र, शुचि ।
  3. देव---कनिष्ठ, चाक्षुष, पवित्र, भाजित (भाजिर, भ्राजिर), वाचावृद्ध (धारावृक) । प्रत्येक के साथ पॉंच पॉंच देव होगे ।
  4. इन्द्र---शुचि ही इस समय इन्द्र होगा ।
  5. अवतार---सत्रायण एवं विताना का पुत्र बृहद्भानु अवतार होगा ।
  6. पुत्र---अभिमानिन् (श्रीमानिन्), उग्र (ऊरु, अनुग्रह), कृतिन् (जिष्णु, विष्णु), गभीर (तरंगभीरु), गुरु, तरस्वान् (बुद्ध, बुद्धि,ब्रध्न), तेजस्विन्, (ऊर्जस्विन्, ओजस्विन्), प्रतीर (प्रवीण), शुचि, शुद्ध, सबल, सुबल) ।

मनु (आदिपुरुष) n.  इसके उपरांत प्रलय होगा तथा ब्रह्मा विष्णु के नाभिकमल में योगनिद्रित होंगे [ह.वं.१.७] ;[मार्क.५०.९७] ;[विष्णु.३.१-२] ;[ब्रह्मवै.२.५४, ५७-६५] ;[स्कंद.७.१.१०.५] ;[भवि. ब्राह्म.२] ;[मध्य.२] ;[मत्स्य.९] ;[भा.८.१,५, १३] ;[वायु.३१-३३, १००.९-११८] ;[ब्रह्मांड.२.३६,३.१] ;[ब्रह्म.५] ;[सृ.७]
मनु (आप्स्व) n.  एक वैदिक सूक्तद्रष्टा [ऋ.९.१०१ १०-१२]
मनु (चाक्षुष) n.  चाक्षुक्ष नामक मन्वन्तर का अधिपति मनु, जिसके पुत्र का नाम वरिष्ठ था [म.अनु.१८.२०] ; चाक्षुष ६. एवं मनु‘आदिपुरुष’ देखिये ।
मनु (प्राचेतस) n.  एक राअजनीतिशास्त्रज्ञ, जो प्राचेतस नामक मन्वन्तर का अधिपति मनु था । महाभारत के अनुसार, इसने राजधर्म एवं राजशास्त्र पर एक ग्रंथ की रचना की थी [म.शां.५७.४३, ५८.२] । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, एवं राजशेखर के ग्रंथों में इसके राजनीतिविषयक मतों का निर्देश प्राप्त हैं (मनु स्वायंभुव देखिये) ।
मनु (वैवस्वत) n.  वैवस्वत नामक पॉंचवे मन्वन्तर का अधिपति मनु, जो विवरवत् नामक राजा का पुत्र था । इसके नाभागारिष्ट नामक पुत्र का वैदिक ग्रंथों में प्राप्त हैं [तै.सं.३.१.९.४]
मनु (वैवस्वत) n.  प्रांशु, धृष्ट, नरिष्यन्त, नाभाग, इक्ष्वाकु, करुप, शर्याति, इल, पृषध्र, एवं नाभनेदिष्ट । इसे इला नामक एक कन्या थी, जिसे पुरुरवस् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था [म.अनु.१४७.२७] । त्रेतायुग के आरंभ में सूर्य ने मनु को, एवं इसने अपने पुत्र को सात्वत धर्म का उपदेश किया था ।
मनु (वैवस्वत) n.  सृष्टि प्रलय के समय एक मत्स्य द्वारा मनु वैवस्वत के बचाने की कथा संपूर्ण वैदिक एवं उत्तर वैदिक ग्रंन्थों में किसी न किसी रुप में प्राप्त हैं । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, जब सारी सृष्टि जलप्रवाह से बह जाती थी, तब मनु एक नाव में बैठा कर एक मत्स्य के द्वारा बचा गया था [श.ब्रा.१.८.१] । प्रलय के उपरांत अपनी उस इला नामक पुत्री के माध्यम से ही मनु मानव जाति की प्रथम सन्तान के जनक हुए, जो उन्हींके हवि से उत्पन्न हुयी थी । यह कथा अथर्ववेद तक के समय में भी ज्ञात थी, ऐसा इसी संहिता के एक स्थल द्वारा व्यक्त होता है [अ.वे.१९.३९.८] । महाभारत में पृथ्वी के जलप्रलय की एवं मत्स्यावतार की कथा प्राप्त है [म.व.१८५] । उस कथा के अनुसार प्रलयकाल में इसकी नौका नौबंधन नामक हिमालय के शिखर पर आकर रुकी थी । कई ग्रंथों में हिमालय के इस शिखर का नाम नावप्रभंशन दिया गया है । मत्स्यपुराण के अनुसार, इसकी नौका हिमालय पर्वत पर नहीं, बल्कि मलय पर्वत पर रुकी थी । भागवत में मनु को द्रविंड देश का राजा कहा गया हैं, एवं इसका नाम सत्यव्रत बताया गया है [भा.१.३.१५]
मनु (वैवस्वत) n.  जल प्लावन की यह कथा संसार क के विभिन्न साहित्यिक, धार्मिक ग्रन्थों एवं लोककथाओं आदि में प्राप्त है । यूनानी-साहित्य में ड्यूकलियन तथा उसकी पत्नी पीरिया की कथा में मनु जैसा ही वर्णन मिलता है [मिथ आफ ऐनशियन्ट ग्रीस एण्ड रोम, पृष्ठ. २२-२३] । यूनान के अतिरिक्त वेबीलोनिया के साहित्य में भी जलप्लावन सम्बन्धी कथाएँ मिलती हैं । ‘अत्रहसिस’ महाकाव्य में वर्णित एक कथा के अनुसार, अर्डेटस के पुत्र जिसश्रस जलप्लावन के उपरांत देवों को बलि देकर वेबीलोनिया नगर का पुनः निर्माण करता है [दि फ्लड लिजेण्ड इन संस्कृत लिटरेचर पृ.१४८-१४९] । वेबीलोनिया में गिलगमेश महाकाव्य में इसी प्रकार के जलप्लावन की एक कथा प्राप्त है । ईसाई धर्म्रग्रन्थ बाइबिल मेंयह कथा विस्तार से दी गयी है । कुरानशराफ में यह कथा बाइबिल से मिलती जुलती है । अन्तर केवल इतना है कि, बाईबिल में हजरत नूह की नाव अएएट पर्वत पर आकर रुकती है, जब कि कुरान मेंउस पर्वत का नाम जूदी दिया गया है [कुरान पृष्ट ११.३.२५-४९] । इसके अतिरिक्त चैल्डिया के साहित्य में भी हासीसद्रा परमेश्वर ‘ई’ के आदेशानुसार अपने को जलप्लावन से बचाता है । इसके अतिरिक्त पारसी धार्मिक ग्रन्थ वेंदीदाद तथा पहलवी, सुमेरिन, आइसलैण्ड, वेल्स, लिथुआनिया एवं असीरिया के साहित्या में यह जलप्लावन की कथा मिलती है । इसके साथ ही चीन, ब्रह्मा, इंडोचीन, मलाया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूगिनी, मैलेवेशिया, पालीमेशिया, उत्तर दक्षिनी अमरीका आदि देशोम में जलप्वावन सम्बन्धी कथायें प्राप्त हैं । संसार की समस्त जलप्लावन सम्बन्धी कथाओं की तुलना करने पर यही ज्ञात होता है कि, दक्षिण एशिया की समस्त कथायें समान हैं, क्योंकि उनमें सर्वत्र सम्पूर्ण पृथ्वी के डूबने एवं अधिकांश पदार्थो के नष्ट होने का विवरण प्राप्त है । उत्तरी एशिया के कथाओं में से चीन जापान के कथाओं में पूर्ण विनाश का वर्णन हैं । योरप में ऐसे विनाश के वर्णन कम हैं, तथा अफ्रीका की कथाओं में जलप्लावन का वर्णन बिल्कुल नहीं है ।
मनु (वैवस्वत) n.  मनु वैवस्वत प्रलयोत्तरकालीन मानवी समाज का आदिपुरुष माना जाता है, एवं पुराणों में निर्दिष्ट सारे राजवंश उसीसे ही प्रारंभ होते है । राज्यशासन के नानाविध यमनियम के प्रणयनों का श्रेय इसको ही दिया जाता है । खेती में से जो उत्पादन होता है, उसमें से छटवॉं भाग राज्यशासन का खर्चा निभाने के लिए राजा को मिलना चाहिए, इस सिद्धान्त के प्रणयन का श्रेय भी इसको दिया जाता है ।
मनु (वैवस्वत) n.  पुराणों में प्राप्त वंशावलियों के अनुसार, मनु वैवस्वत का राज्यकाल भारतीययुद्ध से पहले ९५ पिढियॉं माना गया है । भारतीययुद्ध का काल ईसा. पू. १४०० माना जाये, तो मनु वैवस्वत का काल ईसा, पू, ३११० सबित होता है । ज्योतिर्गणितीय हिसाब से भी ३१०२ यह वर्ष कलियुग के प्रारंभ का वर्ष माना जाता है। हिब्रु एवं बाबिलोन साहित्य में निर्दिष्ट मेसापोटेमिया के जलप्रलय का काल भी ईसा. पू.३१०० माना जाता है । इससे प्रतीत होता है कि, शतपथ ब्राह्मण में निर्दिष्ट मनु वैवस्वत का जलप्रलय भी इसी समय हुआ था ।
मनु (वैवस्वत) n.  मनु के कुल दस पुत्र थे, जिसमें से इला का निर्देश पुराणों में इल नामक पुरुष, एवं इला नामक स्त्री ऐसे द्विरुप पद्धति से प्राप्त है । इसके नौ पुत्रों की एवं उनके द्वारा स्थापित राजवंशों की जानकारी निम्न प्रकार हैः--- १. इक्ष्वाकु---इसका राज्य अयोध्या में था, एवं इसके पुत्र विकुक्षि ने सुविख्यात ऐश्वाक राजवंश की स्थापना की । २. शर्याति---इसने आनर्त-देश में राज्य करनेवाले सुविख्यात ‘शायर्त’ राजवंश की स्थापना की । इसके पुत्र का नाम अनर्त था, जिससे प्राचीन गुजरात को आनर्त नाम प्राप्त हुआ था । ३. नाभानेदिष्ट---इसने उत्तर बिहार प्रदेश में सुविख्यात वैशाल राजवंश की स्थापना की । इसके राज्य की राजधानी वैशाली नगर में भी, जो आधुनिक मुजफर पुर जिलें में स्थित बसाढ गॉंव माना जाता हैं । ४. नाभाग---इसके द्वारा स्थापित नाभाग राजवंश का राज्य गंगा नदी के दुआब में स्थित मध्यदेश में था । इस राजवंश में रथीतर लोग भी समाविष्ट थे, जो क्षत्रिय ब्राह्मण कहलाते थे । ५. धृष्ट---इससे ‘धार्ष्टक’ क्षत्रिय नामक जाति का निर्माण हुआ, जो पंजाब के वाहीक प्रदेश में राज्य करते थे । इन लोगों का निर्देश क्षत्रिय, ब्राह्मण एवं वैश्य इन तीनों तरह से किया हुआ प्राप्त है । ६. नरिष्यंत---कई अभ्यासकों के अनुसार, शक लोग इसी राजा के वंशज थे । ७. करुष---इसके वंशज करुष लोग थे, जो आधुनिक रेवा प्रदेश में स्थित करुष देश में रहते थे, एवं कुशल योद्धा माने जाते थे । ८. पृषध्र---इसने अपने गुरु के गाय का वध किया, जिस कारण इसे राज्य का हिस्सा नही मिला । ९. प्रांशु---इसके वंशजों के बारे में कोई जानकारी नही है ।
मनु (वैवस्वत) n.  इला का विवाह बुध से हुआ, जिससे उसे पुरुरवस् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । पुरुरवस् ने सुविख्यात ऐल (चंद्र) राजवंश की स्थापना की जिससे आगे चल कर कान्यकुब्ज, यादव (हैहय, अन्धक, वृष्णि), तुर्वसु द्रुह्युअ, आनव, पंचाल, बार्हद्रथ, चेदि आदि राजवंशों का निर्माण हुआ । इला के पुरुष अंश का रुपान्तर आगे चलक्र सुद्युम्न नामक किंपुरुष में हुआ, जिससे सौद्युम्न नामक राजवंश का निर्माण हुआ । इस राजव्म्श की उत्कल, गया एवं विनताश्व नामक तीन शाखाएँ थी, जो क्रमशः उत्कल, गया एवं उत्तरकुरु प्रदेश पर राज्य करती थी । आगे चल कर आनव एवं कान्यकुब्ज राजाओं ने सौद्युम्न राज्यों को जीत लिया । करुष, नाभाग, धृष्ट, नरिष्यंत, प्रांशु, एवं पृषध्र लोगों के राज्य ऐलवंशीय पुरुवरस्, नहुष एवं ययाति ने जीत लिया, जिस कारण ये सारे राजवंश शीघ्र ही विनष्ट हो गये । इसके वंश में उत्पन्न उत्तरकालीन राजाओं का काल संभवतः निम्नलिखित माना जाता हैः-- ययाति---ई.पू.३०१, मांधातृ---ई.पू.२७४, अर्जुन कार्तवीर्य---ई पू. २५५, सगर, दुष्यन्त एवं भरत---ई.पू.२३५०-२३००, राम दाशराथि---ई. पू.१९५० (हिस्टरी अँन्ड कल्चर ऑफ इंडियन पीपल-१.२७०) ।
मनु (वैवस्वत) n.  आधुनिक हिन्दी साहित्य में मनु के जीवन से सम्बन्धित जयशंकर ‘प्रसाद’ द्वारा लिखित ‘कामायनी’ हिन्दी काव्याकाश का गौरव ग्रन्थ है। इसके कथानक का आधार प्राचीन ग्रन्थ ही है, जिसमें मानव मन, बुद्धि तथा हृदय के उचित सन्तुलन को स्थापित कर चिरदग्ध दुःखी वसुधा को आशा बँधाती हुयी समन्ववाद, समरसता एवं आनंदवाद के द्वारा मंगलमय महान‍ संदेश देने का प्रयत्न किया गया है । कामायनी पन्द्रह सर्गो में विभक्त है, तथा हर एक सर्ग का नामकरण वर्ण्य विषय के आधार पर हुआ है । इसमें ‘आनंन्द’ की चरम सिद्धि तथा अन्तिम ढाई सर्गो में शान्ति की बहती मन्दाकिनी देखने योग्य है । प्रस्तुत ग्रन्थ में मनु का चित्र एक मानवीय चरित्र के रुप में ही प्रकट हुआ है । ‘प्रसाद’ जी ने मनु का चरित्र अस्वाभाविक तथा दैवी नहीं, बल्कि इसी जगत के मानवीय रुप का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है । मनु एक सच्चे मानव की भॉंइ गिरे भी हैं, तथा उठे भी हैं । मनु का यह पतन एवं उत्थान विश्वमानव के लिए एक आशाप्रद संदेश देता है, तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति का समन्वय कर के एक संतुलित जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देता है । कामायनी के प्रधान चरित्र नायक मनु का कई रुपों में चित्रण प्राप्त है । उनका पहला रुप नीतिव्यवस्थापक का है, जो ‘इला,’ ‘स्वप्न’ तथा ‘संघर्ष’ आदि सर्गो में हुआ है । इसका सीधा सम्बध ‘इला’ से है । दूसरा, वैदिक कर्मकाण्डी ऋषि के रुप में हुआ है, जिसके दो पहलू हैं---पहला तपस्वी मनु का, जो ‘किलाताकुइली’ के आने के पूर्व में मिलत है, दूसरा ‘हिंसक यजमान’ मनु का, जो असुर पुरोहितों के आगमन के पश्चात् पाया जाता है। इनका तीसरा रुप ‘मनु-इला युग’ के अन्त में देखा जा सकता है, जब वे आनंद पथ में चल कर शिवत्व प्राप्त करने में सफल होते हैं । इस प्रकार ‘कामायनी’ में मनु पुत्र का विकास देवता मनु, ऋषि मनु, प्रजापति मनु तथा आनंद के अधिकारी मनु के रुप में हुआ है ।
मनु (स्वायंभुव) n.  एक धर्मशास्त्रकार, जो स्वायंभुव नामक पहले मन्वन्तर का मनु माना जाता है । यह ब्रह्मा के मानसपुत्रों में से एक था । वायु में इसे आनंद नामक ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ कहा गया है । आनंद ने पृथ्वी पर वर्णव्यवस्था स्थापित की, एवं विवाहसंश्ता का भी निर्माण किया । किन्तु आगे चलकर यह व्यवस्था मृतवत् हो गयी, जिसका पुरुद्वार स्वायंभुव मनु न एकिया [वायु.२१.२८, ८०१४६-१६६, २१.२८] । इसकी राजधानी सरस्वती नदी के तट पर स्थित थी । अपने सभी शत्रु को पराजित कर यह पृथ्वी का पहला राजा बना था । ब्रह्मा के शरीर के दाये भाग से उत्पन्न शतरुपा नामक स्त्री इसकी पत्नी थी, जिससे इसे प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो पुत्र, एवं तीन कन्याएँ उत्पन्न हुयी । उत्तानपाद राजा के वंश में हीं ध्रुव, मनु चाक्षुक्ष, पृथु वैन्य, दक्ष, एवं मनु वैवस्वत नामक सुविख्यात राजा उत्पन्न हुए । मनु स्वायंभुव का ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत पृथ्वी का पहला क्षत्रिय माना जाता है । उसे उत्तम, तामस एवं रैवत नामक तीन पुत्र थे, जो बचपन में ही राज्यत्याग कर तपस्या के लिए वन में चले गये । आगे चल कर प्रियव्रत के ये तीन पुत्र क्रमशः तीसरे, चौथे, एवं पॉंचवें मन्वन्तर के अधिपति बने थे । मनु स्वायंभुव की एक कन्या का नाम आकृति था, जिससे आगे चलकर मनु स्वारोचिष नामक दूसरे मनु का जन्म हुआ । भविष्य पुराण में मनु के द्वारा प्रणीत धर्मशास्त्र का निर्देश‘स्वायंभुवशास्त्र’ नाम से किया गया है । बाद को इस शास्त्र का चतुर्विध संस्करण भृगु, नारद, बृहस्पति एवं अंगिरस् द्वारा किया गया था [संस्कारमयूख पृष्ठ.२] । विश्वरुप के ग्रंत्न्थ में भी मनु का निर्देश ‘स्वायंभुव’ नाम से किया गया है, एवं इसके काफी उद्धरण भी लिये गये हैं [याज्ञ.२.७३-७४,८३,८५] । किन्तु विश्वरुप द्वारा दिये गये मनु एवं भृगु के श्लोक ‘मनुस्मृति’ में आजकल अप्राप्य है [याज्ञ१.१८७-२५२] । अपरार्क ने भृगुस्मृति का एक श्लोक दिया है, जो मनु का कहा गया है [याज्ञ. २.९६] । किन्तु वह श्लोक भी मनुस्मृति में अप्राप्य है ।
मनु (स्वायंभुव) n.  निरुक्त में जहॉं पुत्र एवं पुत्री के अधिकारों का वर्णन किया गया है, वहीं स्वायंभुव मनु का स्मृतिकार के रुप में उल्लेख किया गया है । निरुक्त से यह पता चलता है कि, इसका मत था कि, पुत्र एवं पुत्री को पिता की संपत्ति में समान अधिकार है। उन्हीं श्लोकों को मनु की स्मृति कहा गया है [नि.३.४] । इससे स्पष्ट है कि, स्वायंभुव मनु की स्मृति यास्क के पूर्व में वर्तमान थी । गौतम तथा वसिष्ठ आदि स्मृतिकारों ने मनु के मतों को दिया है । आपस्तंब ने भी लिखा है कि, मनु श्राद्धकर्म का प्रणेता था [आप.ध.२.७.१६.१]
मनु (स्वायंभुव) n.  महाभारत के अनुसार, ब्रह्मा ने मनु के द्वारा धर्मविषयक एक लाख श्लोकों की रचना करवायी । आगे चलकर, उन्हीं श्लोकों का आधार लेकर उशनस् एवं बृहस्पति ने धर्मशास्त्रों का निर्माण निर्माण किया [म.शां.३३२.३६] । नारद गद्यस्मृति के अनुसार, मनु ने एक लाख श्लोकों के धर्मशास्त्र की रचना कर नारद को प्रदान किया, जिसमें एक हजार अस्सी अध्याय, एवं चौवीस प्रकरण थे । उसी धर्मशास्त्र ग्रन्थ को नारद ने बारह हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर के मार्कडेय ऋषि को दिया । उसी ग्रन्थ को आठ हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर मार्कडेय ने सुमति भार्गव को प्रदान किया, जिसने आगे चलकर इसी ग्रन्थ को चार हजार श्लोकों में संक्षिप्त किया । मेधातिथि ने नारद स्मृति के इस उद्धरण को दुहराया है ।
मनु (स्वायंभुव) n.  मनुस्मृति का जो संस्करण आज उपलब्ध है,उस ग्रन्थ के अनुसार, ब्रह्मा से विराज नामक ऋषि की उत्पत्ति हुयी, जिससे आगे चल कर मनु उत्पन्न हुआ । पश्चात् मनु से भृगु, नारद आदि दस ऋषि पैदा हुए । धर्मशास्त्र का शिक्षन सर्वप्रथम ब्रह्मा ने मनु को प्रदान किया, जिसे आगे चलकर इसने अपने इन पुत्रों को दिया [मनु१.५८] । मनुस्मृति के प्रणय्न की कथ ऐस प्रकार हैः---एक बार कई ऋषिगण चारो वर्णौ से सम्बन्धित धर्मशास्त्रविषयक जानकारी प्राप्त करने के लिए आचार्य मनु के पास आये । मनु ने कहा, ‘यह सारी जानकारी तुम ल्गों को हमारे शिष्य भृगु द्वारा प्राप्त होगी’ [मनु.१.५९-६०] । पश्चात् भृगु ने मनु की धर्मविषयक सारी विचारधारा उन सबके सामने रख्खी । वही मनुस्मृति है। उस ग्रन्थ में मनु को ‘सर्वज्ञ’ कहा गया है [मनु.२.७]
मनु (स्वायंभुव) n.  -मैक्समूलर के अनुसार, प्राचीनकाल के मानवधर्मसूत्र का पुनः संस्करण कर के मनुस्मृति का निर्मान किया गया है [सैक्रीड बुक्स आफ ईस्ट, खण्ड.२५ पृष्ठ.१८] । आधुनिक कल में प्राप्त ‘मनुस्मृति’ मनु के द्वारा लिखित है, अथवा मनु के नाम को जोडकर किसी अन्य द्वारा लिखी गयी है, कहा नही जा सकता । महाभारत के अनुसार, स्वायंभुव मनु धर्मशास्त्र का, एवं प्राचेतस मनु अर्थशास्त्र के आचार्य माने गये हैं [म.शां.११.१२,५७.४३] । इस प्रकार प्राचीनकाल में धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र पर लिखे हुए दो स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध थे, जो उक्त मनुओं द्वारा लिखित थे । इस प्रकार सम्भव है कि, किसी अज्ञात व्यक्ति ने इन दोनों ग्रन्थों की सामग्री के साथ साथ प्राचीन धर्मशास्त्रमर्मज्ञों की विचारधारा को और जोडकर, आधुनिक मनुस्मृति के स्वरुप का निर्माण किया हो । उपलब्ध मनुस्मृति महाभारत से उत्तरकालीन मानी जाती है । सम्भव है, इस ग्रन्थ की रचना के पूर्व ‘बृहद्‌मनुस्मृति’ एवं ‘वृद्धंमनुस्मृति’ नामक दो बडे स्मृतिग्रन्थ उपलब्द थे । इन्हीं ग्रन्थों को संक्षिप्त कर दो हजार सात सौ श्लोकोंवाली मनुस्मृति की रचना भृगु ने की हो । मनुस्मृति ग्रंथ में इस रचना का जनक स्वायंभुव मनु कहा गया है, एवं उसके साथ अन्य छः मनुओं के नाम दिय गये हैं [मनु१.६२] । मनुस्मृति में बारह अध्याय हैं, एवं दो हजार छः सौ चौरान्नवे श्लोक हैं । उस ग्रन्थ में प्राप्त अनेक श्लोक वसिष्ठ एवं विष्णु धर्मसूत्रों से मिलते जुलते हैं । इस ग्रन्थ में प्राप्त धर्मविषयक विचार गौतम, बौधयन एवं आपस्तंब से मिलते जुलते हैं । उक्त ग्रंथ की शैली अत्यधिक सरल है, जिसमें पाणिनि के व्याकरण का अनुगमन किया गया है । इस ग्रंथ का तत्त्वज्ञान एवं शब्दप्रयोग कौटिल्य अर्थशास्त्र की शैली से काफी साम्य रखता है ।
मनु (स्वायंभुव) n.  मनु-मृति में कुल बारह अध्याय हैं, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख विषयों पर विचारविवेचन किया गया हीः---अ.१---धर्मशास्त्र की निर्मिति, एवं मनुस्मृति की परम्परा । अ.२.---धर्म क्या है?---धर्म की उत्पत्ति किससे हुयी है?---धर्मशाअस्त्र का अधिकार किन किन को प्राप्त है-संस्कारों की आवश्यकता क्या है? अ. ३.---ब्रह्मचर्यव्रत का पालन कैसे किया जाये? ब्राह्मण किस वर्ण की कन्या से शादी करे?-विवाहों के आठ प्रकार-पतिपत्नी के कर्तव्य। अ.४.---गृहस्थधर्मियों का कर्तव्य । अ.५---घर में किसी की मृत्यु अथवा जन्म के समय अशौच का कालनिर्णय । अ.६---वानप्रस्थधर्म का पालन । अ.७---राजधर्म का पालन-राजा के लिए आवश्यक चार विद्याएँ-राजा में उत्पन्न होनेवाले कामजनित दस, एवं क्रोधजनित आठ दोषों का विवरण । अ.८---न्यायपालन से संबंधित राजा के कर्तव्य-मनु-प्रणीत अठराह विधियों का विवरण । अ.९---पतिपत्नी के वैधानिक कर्तव्य-नारियों के दोषों का वर्णन । अ.१०---चारों वर्णौ के कर्तव्य । अ.११---दानों के विविध प्रकार एवं उनका महत्त्व पॉंच महापातक एवं उनके लिए प्रायश्चित। अ.१२---कर्मौ के विविध प्रकार एवं ब्रह्म की प्राप्तिअमानवशास्त्र के अध्यापन से होनेवाले लाभ ।
मनु (स्वायंभुव) n.  मनुस्मृति में प्राप्त विभिन्न ग्रन्थों के निर्देश से पता चलताहै कि, इस ग्रन्थ के रचयिता मनु को कितने पूर्वलिखित ग्रन्थों की सूचना प्राप्त थी । मनुस्मृति में ऋक्, यजु एवं सामवेदों का निर्देश प्राप्त हैं, एवं अथर्ववेद का निर्देश ‘अथर्वगिरस’ श्रुति नाम से किया गया है [मनु.११.३३] । उसके ग्रन्थ में आरण्यकों का भी निर्देश प्राप्त है [मनु.४.१२३] । इसे छः वेदांग ज्ञात थे [मनु.२.१४१, ३.१८५, ४.९८] । इसे अनेक धर्मशस्त्र के ग्रन्थ ज्ञात थे, एवं इसने धर्मशास्त्र के विद्वानों को ‘धर्मपाठक’ कह अहै [मनु.३.२३२,१२. १११] । इसके ग्रन्थ में निम्नलिखित धर्मशास्त्रकारों का निर्देश पाप्त हैः---अत्रि,गौतम,भृगु,शौनक,वसिष्ठ एवं वैखानस [मनु.३.१६,६.२१, ८.१४०] । प्राचीन साहित्य में से आख्यान, इतिहास, पुराण एवं खिल आदि का निर्देश मनुस्मृति में प्राप्त है [मनु.३.२३२] । वेदान्त मेंनिर्दिष्ट ब्रह्म के ब्स्वरुप का विवेचन मनु द्वारा किया गया है, जिससे प्रतीत होता है कि, मनु को उपनिषदों का भी काफी ज्ञान था [मनु.६.८३,९४] । इसके ग्रन्थ में कई ‘वेदबाह्र स्मृतियों’ का भी निर्देश प्राप्त है । इसे बौद्ध जैन आदि इतर धर्मो का भी ज्ञान था [मनु.१२.९५] । इसने अपने ग्रन्थ में वेदनिन्दक तथ पाखाण्डियों का भी वर्णन किया है [मनु.४.३०, ६१, १६३] । इसने अस्पृश्य एवं शूद्र लोगो की कटु आलोचना की है, एवं उन्हें कडे नियमो में बॉंधने का प्रयत्न किया है [मनु.१०.५०-५६, १२९] । इसका कारण यह हो सकताहै कि, इन दलित जातियों ने वैदिक धर्म से इतर धर्मो की स्थापना करने के प्रयत्नों में, जैन तथा बौद्ध धर्म को आगे बढने में योगदान देना प्रारम्भ किया हो ।
मनु (स्वायंभुव) n.  मनुस्मृति के भाष्यों में से सब से प्राचीन भाष्य मेधातिथी का मान जाता है, जिसकी रचना ९०० ई० में हुयी थी । विश्वरुप ने अपने यजुर्वेद के भाष में मनुस्मृति के दो सौ श्लोकों का उद्‌धरण किया है । इन दोनों ग्रन्थकारों के सामने जो मनुस्मृति प्राप्त श्री, वह आज की मनुस्मृति सूत्रभाष्य से पूर्ण साम्य रखती है । शंकराचार्य के वेदान्त सूत्रभाष्य में भी मनुस्मृति के काफी उद्‌धरण प्राप्त है [वे.सू.१.३.२८, २.१.११, ४.२.६, ३.१.१४, ३.४.३८] । शंकराचार्य के द्वारा निर्देशित इन उद्धरणों से पता चलता है कि, वे इन सूत्रों को गौतम धर्मसूत्रों से अधिक प्रमाणित मानते थे ।
मनु (स्वायंभुव) n.  मनु का मत था कि, ब्राह्मण यदि अपराधि है, तो उसे फॉंसी न देनी चाहिए, बल्कि उसे देश से निकाल देना चाहिए [मनु.८.३८०] । इसके इस मत का निर्देश ‘मुच्छकटिक’ में मिलता है । वलभी के राजा धरसेन के ५७१ ई.के शिलालेख में उस राजा को मनु के धर्मनियमों कापालनकर्ता कहा गया है । जैमिनि सूत्रों के सुविख्यात भाष्यकार शबरस्वमिन् द्वारा ५०० ई० में रचित भाष्य में मनु के मतों का निर्देश प्राप्त है । इन सारे निर्देशो से प्रतीत होता है कि, दूसरी शताब्दी के उपरांत मनुस्मृति को प्रमाणित धार्मिक ग्रन्थ माना जाने लगा था । किन्तु कालान्तर में इसकी लोकप्रियता को देखकर लोगों ने अपनी विचारधारा को भी इस ग्रन्थ में संनिविष्ट कर दिया, जिससे इसमें प्रक्षिप्त अंश जुड गये । उन तमान विचार एक दूसरे से मेल न खाकर कहीं कहीं एक दूसरे से विरोधी जान पडते [मनु.३.१२-१३, २३-२६, ९. ५९-६३, ६४-६९] । बृहस्पति के निर्देशों से पता चलता है कि, मनुस्मृति में ये प्रक्षिप्त अंश तीसरी शताब्दी में जोडे गये । मनुस्मृति याज्ञवल्क्यस्मृति से पूर्वकालीन मानी जाती है। उपलब्ध मनुस्मृति में यवन, कांबोज,शक,पह्रव,चीन,ओड्र,द्रविड,मेद,आंध्र आदि देशों का उल्लेख प्राप्त है । इन सभी प्राप सूचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि, उपलब्ध मनुस्मृति की रचना तीसरी शताब्दी के पूर्व हुयी थी । सभवतः इसकी रचना २०० ई० पूर्व से लेकर २०० ई० के बीच में किसी समय हुयी थी ।
मनु (स्वायंभुव) n.  मनु के नाम से ‘मनुसंहिता’ नामक एक तन्त्रविषयक ग्रन्थ भी प्राप्त है (C.C).।
मनु (स्वारोचिष) n.  स्वारोचिष नामक द्वितीय मन्वतर का अधिपति मनु । इसकी माता का नाम आकृति था, जो मनु स्वायंभुव की कन्या थी । इसे ब्रह्मा ने सात्वत धर्म का उपदेश दिया था, जो कालान्तर में इसने अपने पुत्र शंखपद को प्रदान किया था [म.शा.३३६.३४-३५] ; स्वारोचिष देखिये ।
मनु (सावर्णि) n.  सावर्णि नामक आठवे मन्वन्तर का अधिपति मनु । एक वैदिक सूक्तद्रष्टा के नाम से इसका निर्देश वैदिक ग्रंथों में प्राप्त है [अ.वे.८.१०.२४] ;[श.ब्रा.१३.४.३.३] ;[आ.श्रौ.१०.७] ;[नि.१२.१०] । ‘सवर्णा’ का वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । ऋग्वेद में इसका निर्देश मनु ‘सांवरणि’ नाम से किया गया है [ऋ.८.५१.१] । संभव है, ‘संवरण’ का वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । लुडविग के अनुसार, यह तुर्वशों का राजा था [लुडविग-ऋग्वेद अनुवाद.३.१६६] । महाभारत में इसे मनु सौवर्ण कहा गया है, एवं बताया गया है कि, इसके मन्वन्तर में वेदव्यास सप्तर्षि पद पर प्रतिष्ठित होगे [म.अनु.१८.४३]
मनु II. n.  एक राजा, ज्सिअके राज्यकाल में जलप्रलय हो कर, श्रीविष्णु ने मस्त्यावतार लिया था (मनु वैवस्वत देखिये) ।
मनु III. n.  ‘मनुस्मृति’ नाम सुविख्यात धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथ का कर्ता (मनु स्वायंभुव देखिये) ।
मनु IV. n.  एक अर्थशास्त्रकार (मनु प्राचेतस देखिये) ।
मनु IX. n.  (सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, ओ मत्स्य के अनुसार, लोमपाद राज का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम ज्ञाति था ।
मनु V. n.  एक अग्निविशेष, जो तप नाम धारण करनेवाले पांचजन्य नामक अग्नि का पुत्र था । इसकी सुप्रजा, भृहत्भासा एवं निशा नामक तीन पत्नियॉं थी । उनमें से प्रथम दो से इसे छः पुत्र एवं तीसरी से इसे एक कन्या तथा सात पुत्र उत्पन्न हुए थे । इसके पुत्रों में निम्नलिखित चार पुत्र प्रमुख थेः---वैश्वानर, विश्वपति, स्विष्टकृत् एवं कर्मन् [म.व.२२३]
मनु VI. n.  एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की कन्या थी [म.आ.५९.४४]
मनु VII. n.  एक ऋषि, जो कृशाश्व ऋषि का पुत्र था । इसकी माता का नाम धिषणा थ [भा.६.६.२०]
मनु VIII. n.  (सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो वायु के अनुसार मधु राजा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम मनुवश था ।
मनु X. n.  ०. (सू.इ.) एक इक्श्वाकुवंशीय राजा, जो शीघ्र राजा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम प्रसुश्रुत था ।
मनु XI. n.  १. धर्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक ।
मनु XII. n.  २. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ।

मनु     

A dictionary, Marathi and English | Marathi  English
Manu, the great legislator and saint, the son of Brahmá or a personification of Brahmá himself. The name however is a generic term, and in every कल्प or interval from creation to creation there are fourteen successive मनु, presiding over the universe for the period of a मन्वंतर respectively. 2 fig. The proper period or season; the time, the day, the hour &c., emphatically. Ex. धान्य कापायाचा मनु आला; सद्यः तुमचे बोल- ण्याचा मनु आहे; तुमचा मनु गेला माझा मनु आला. 3 S A man.

मनु     

Aryabhushan School Dictionary | Marathi  English
 m  Manu. Fig. The proper season. An epoch, an age.

मनु     

मराठी (Marathi) WN | Marathi  Marathi
noun  मनुष्य जातीचा पहिला पूर्वज   Ex. मनु हा यज्ञ संस्थेचा पहिला प्रवर्तक आहे असे ऋग्वेदात सांगितले आहे.
HYPONYMY:
सावर्णि मनु ब्रम्हासावर्णि मनु दक्षसावर्णि मनु धर्मसावर्णि मनु रूद्रसावर्णि मनु विष्वक्सेन वैवस्वतमनु स्वारोचिष मनु उत्तम मनु तामस मनु रैवत मनु चाक्षुष मनु रुचि देव सावर्णि इंद्र सावर्णि मनु स्वयंभुव मनु
ONTOLOGY:
पौराणिक जीव (Mythological Character)जन्तु (Fauna)सजीव (Animate)संज्ञा (Noun)
Wordnet:
benমনু
gujમનુ
hinमनु
kanಮನು
kasمَنوٗ
kokमनू
malമനു
oriମନୁ
sanमनुः
tamமனு
telవిష్ణువు
urdمنو

मनु     

 पु. 
ब्रह्मदेवाच्या एका दिवसांत जे चवदा अधिकारी होतात ते प्रत्येक . प्रत्येक कल्पांत चौदा मनु असतात . चौदा मनु , मन्वंतर पहा . स्वायंभू मुख्य वडील । चारी मनु । - ज्ञा १० . ९३ .
एक ऋषि व स्मृतिकार .
अनुकूल काळ ; हंगाम . धान्य कापावयाचा मनु आला .
मनुष्य ; मानव .
( सांकेतिक ) चौदा या संख्येबद्दल संज्ञा . [ सं . ]
०पालटणें   ( ल . ) परिस्थिति बदलणें ; क्रांति , मन्वंतर होणें . मन्वंतर न .
दुसरा मनु , काळ .
मनूचा शक ; देवांचे ७१ पर्याय ( युगें ) किंवा ३० , ६७ , २० , ००० वर्षे ; प्रत्येक मन्वतरांत नवा मनु , इंद्र व इतर देवता येतात .
( ल . ) ( एखाद्याच्या उत्कर्षाची , वैभवाची सत्तेची ) अमदानी ; काळ ; अनुकूळ काळ ; हंगाम . तुमचें मन्वंतर गेलें माझें मन्वंतर आलें म्हणून म्यां तोंडीं भडकावल्या .
क्रांति . सर्वत्र मन्वंतर फिरुन जिकडे तिकडे अस्वास्थ्य , क्षणभंगुरता आणि अशाश्वती मूर्तिमत दिसूं लागली . - गुजराथचा इतिहास [ मनु + अंतर ]

मनु     

A Sanskrit English Dictionary | Sanskrit  English
मनु  mfn. amfn. thinking, wise, intelligent, [VS.] ; [ŚBr.]
मनु  m. m. ‘the thinking creature (?)’, man, mankind, [RV.] ; [VS.] ; [AitBr.] ; [TĀr.] (also as opp. to evil spirits, [RV. i, 130, 8; viii, 98, 6 &c.] ; the ऋभुs are called मनोर् न॑पातः, the sons of man, iii, 60, 3)
मन्व्-अन्तर   the Man par excellence or the representative man and father of the human race (regarded in the [RV.] as the first to have instituted sacrifices and religious ceremonies, and associated with the ऋषिs कण्व and अत्रि; in the [AitBr.] described as dividing his possessions among some of his sons to the exclusion of one called नाभा-नेदिष्ठq.v.; called सांवरण as author of [RV. ix, 101, 10-12] ; आप्सव as author of ib. 106, 7-9; in [Naigh. v, 6] he is numbered among the 31 divine beings of the upper sphere, and, [VS. xi, 66] as father of men even identified with प्रजा-पति; but the name मनु is esp. applied to 14 successive mythical progenitors and sovereigns of the earth, described, [Mn. i, 63] and in later works as creating and supporting this world through successive अन्तरs or long periods of time See below; the first is called स्वायम्भुव as sprung from स्वयम्-भू, the Self-existent, and described in [Mn. 12, 34] as a sort of secondary creator, who commenced his work by producing 10 प्रजापतिs or महर्षिs, of whom the first was मरीचि, Light; to this मनु is ascribed the celebrated ‘code of मनु’ See मनु-संहिता, and two ancient सूत्र works on कल्प and गृह्यi.e. sacrificial and domestic rites; he is also called हैरण्यगर्भ as son of हिरण्य-गर्भ, and प्राचेतस, as son of प्र-चेतस्; the next 5 मनुs are called स्वारोचिष, औत्तमि, तामस, रैवत, चाक्षुषcf.[IW. 208 n.1] ; the 7th मनु, called वैवस्वत, Sun-born, or from his piety, सत्य-व्रत, is regarded as the progenitor of the present race of living beings, and said, like the Noah of the Old Testament, to have been preserved from a great flood by विष्णु or ब्रह्मा in the form of a fish: he is also variously described as one of the 12 आदित्यs, as the author of [RV. viii, 27-31] , as the brother of यम, who as a son of the Sun is also called वैवस्वत, as the founder and first king of अयोध्या, and as father of इला who married बुध, son of the Moon, the two great solar and lunar races being thus nearly related to each other See, [IW. 344;  373] ; the 8th मनु or first of the future मनुs accord. to [VP. iii, 2] , will be सावर्णि; the 9th दक्ष-सावर्णि; the 10th ब्रह्म-सावर्णि; the 11th धर्म-सावर्णि; the 12th रुद्र-सावर्णि; the 13th रौच्य or देव-सावर्णि; the 14th भौत्य or इन्द्र-)
ROOTS:
मन्व् अन्तर
मनस्   thought (= ), [TS.] ; [Br.]
मन्त्र   a sacred text, prayer, incantation, spell (= ), [RāmatUp.] ; [Pañcar.] ; [Pratāp.]
N. of an अग्नि, [MBh.]
of a रुद्र, [Pur.]
of कृशाश्व, [BhP.]
of an astronomer, [Cat.]
(pl.) the mental Powers, [BhP.]
N. of the number ‘fourteen’ (on account of the 14 मनुs), [Sūryas.]
मनु  f. f.मनु's wife (= मनावी), [L.] ; Trigonella Corniculata, [L.]
मनु   [cf.Goth.manna; Germ.Mannus, mentioned by Tacitus as the mythical ancestor of the West-Germans, Mann, man; Angl.Sax.man; Eng.man.]
मनु   b &c. See p. 784, col. 2.

मनु     

मनु [manu] a.  a. Thinking, wise, intelligent, sage; सलोकपाला मुनयो मनूनामाद्यं मनुं प्राञ्जलयः प्रणेमुः [Bhāg.4.6.39.]
मनुः [manuḥ]   [मन्-उ [Uṇ.1.1] ]
 N. N. of a celebrated personage regarded as the representative man and father of the human race (sometimes regarded as one of the divine beings).
Particularly, the fourteen successive progenitors or sovereigns of the earth mentioned in [Ms.1.63.] (The first Manu called स्वायंभुवमनु is supposed to be a sort of secondary creator, who produced the ten Prajapatis or Maharṣis and to whom the code of laws known as Manusmriti is ascribed. The seventh Manu called वैवस्वतमनु, being supposed to be born from the sun, is regarded as the progenitor of the present race of living beings and was saved from a great flood by Viṣṇu in the form of a fish; cf. मत्स्यावतार; he is also regarded as the founder of the solar race of kings who ruled at Ayodhyā; see [U.6.18;] [R.1.11;] विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् [Bg.4.1.] The names of the fourteen Manus in order are: 1 स्वायंभुव, 2 स्वारोचिष, 3 औत्तमि, 4 तामस, 5 रैवत, 6 चाक्षुष, 7 वैवस्वत, 8 सावर्णि, 9 दक्षसावर्णि, 1 ब्रह्मसावर्णि, 11 धर्मसावर्णि, 12 रुद्रसावर्णि, 13 रौच्य-दैवसावर्णि and 14 इंद्रसावर्णि).
A symbolical expression for the number 'fourteen'.
A man, mankind (opp. evil spirits); मनवे शासदव्रतान् [Ṛv.1.13.8.]
Thought, thinking or mental faculty (Ved.).
A prayer, sacred text or spell (मन्त्र); मनुं साधयतो राज्यं नाकपृष्ठमनाशके [Mb.13.7.18.]
(pl.) Mental powers; देहोऽसवोऽक्षा मनवो भूतमात्रा नात्मानमन्यं च विदुः परं यत् [Bhāg.6.4.25.]
-नुः  f. f. The wife of Manu. -Comp.
-अन्तरम्   the period or age of a Manu; (this period, according to [Ms.1.79,] comprises 4,32, human years or 1/14th day of Brahmā, the fourteen Manvantaras making up one whole day; each of these fourteen periods is supposed to be presided over by its own Manu; six such periods have already passed away; we are at present living in the seventh, and seven more are yet to come); मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः [Ak.]
-जः   a man, mankind. ˚अधिपः, ˚अधिपतिः, ˚ईश्वरः, ˚पतिः, ˚राजः a king, sovereign. ˚लोकः the world of men; i. e. the earth.
-जा   a woman.
-जातः   a man.
-ज्येष्ठः   a sword.
-प्रणीत a.  a. taught or expounded by Manu.-भूः a man, mankind.
-राज्  m. m. an epithet of Kubera.-श्रेष्ठः an epithet of Viṣṇu.
-संहिता, -स्मृतिः   the code of laws ascribed to the first Manu, the institutes of Manu.

मनु     

Shabda-Sagara | Sanskrit  English
मनु  m.  (-नुः)
1. MANU, the legislator and saint, the son of BRAHMĀ, or a personification of BRAHMĀ himself, the creator of the world and progenitor of mankind; the name is however a generic term. and in every Kalpa or interval from creation to creation, there are fourteen successive MANUS presiding over the universe for the period of a Manwantara, respectively; in the present crea- tion there have been the six following MANUS: MARĪCHĪ or SWAYAMBHUVA, the supposed revealer of the code of law possessed by the Hindus, SWĀROCHISHA, OUTTAMĪ, TĀMASA, RAIVATA, and CHĀKSHUSHA; the seventh or the present MANU is VAIVASWATA, and is regarded to be the founder of the solar race of kings; SĀBARNĪ, DAKSHA-SĀBARNĪ, BRAHMA-SĀBARNĪ, DHARMA-SĀ- [Page550-a+ 60] BARNĪ, RUDRASĀBARNĪ, DEVA-SĀBARNĪ, and INDRA-SĀVARNĪ, these seven Manus are to come in the present creation.
2. A man in general.
3. One of the Jaina saints.
4. A Mantra, a mystical verse or formula.
5. The number fourteen. f. (-नुः-नायी- नावी) The wife of a legislator or MANU.
E. मन् to know or under- stand, (the Vedas or scripture especially,) and Unādi aff.
ROOTS:
मन्

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