यदु n. एक जातिसमूह, जो दाशराज्ञ युद्ध में भरत राजा सुदास के विपक्ष में था
[ऋ.७.१९.१८] । त्सीमर के अनुसार, यदु, अनु, द्रुह्यु एवं तुर्वश लोग मिल कर प्राचीन ‘पंचजन’ लोग बने थे, जिनका निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है (त्सीमर-आल्टीन्डिशे लेबेन. १२२,१२४) । दाशराज्ञ युद्ध में अर्ण एवं चित्ररथ राजा पानी में डूब कर मर गये, जिनके साथ ये लोग भी मरनेवाले थे । कितु इन्द्र ने इन्हें बचाया । यदु एवं तुर्वश लोगों को सुदास राजा के हाथ में देने की प्रार्थना, ऋग्वेद में वसिष्ठ के द्वाजा इन्द्र से की गयी है
[ऋ.७.१९.८] । इन्द्र के द्वारा इन्हे सुदास राजा के हाथ सौंप देने का निर्देश भी ऋग्वेद में प्राप्त है । इससे प्रतीत होता है कि, ये लोग शुरु में सुदास राजा के शत्रु थे, किन्तु आगे चल कर उसके मित्र बने
[ऋ.४.३०.१७,६.२०.१२,४५.१] ।
यदु II. n. यदु लोगों का राजा, जिसका निर्देश ऋग्वेद में अनेक बार प्राप्त है । यह सुदास राजा का शत्रु था, किन्तु इंद्र का उपासक था
[ऋ.१.१०८.८, १७४. ९,५.३१.७, ७.१९.८] । दाशराज्ञ युद्ध में यह एवं तुर्वश राजा अपनी जाब बचा कर भाग गये थे, जब की इसके मित्र अनु एवं दुह्यु मारे गये थे । इसके साथ उग्रदेव, नर्य, तुर्वति, एवं वैय्य आदि व्यक्तियों के निर्देश प्राप्त हैं
[ऋ.१.३६.१८, ५४.६] । ऋग्वेद में इसके वंशजों का निर्देश ‘याद्ध’ नाम से किया गया है
[ऋ.७.१९.८] । किन्तु इनमें से किसी का भी निर्देश पुराणों में प्राप्त नही है ।
यदु III. n. (सो. आयु.) ययाति राजा के पॉंच पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र । ययाति राजा को देवयानी से दो पुत्र उत्पन्न हुये थे, जिनके नाम यदु एवं तुर्वसु थे
[ह.वं.१.३०.५] ;
[म.आ.७८.९] ;
[मत्स्य. ३२.९] । अपने पिता ययाति को युवावस्था देने से इसने अस्वीकार कर दिया । इस कारण, ज्येष्ठ पुत्र होते हुये भी ययाति ने प्रतिष्ठान देश के अपने राज्य से इसे वंचित कर, अपने कनिष्ठ पुत्र पूरु को राज्य प्रदान किया । ययाति के मृत्यु के पश्चात्, उसके राज्य का थोडा हिस्सा इसे प्राप्त हुआ, जिसमें मध्य भारत के चर्मण्वती (चंबल), वेत्रवती (वेटवा), शुक्तिमती (केन) नदियों से वेष्टित प्रदेश शामिल था । हरिवंश के अनुसार, ययाति के राज्य में पूर्वीउत्तर प्रदेश का राज्य इसे प्राप्त हुआ था
[ह.वं.१.३०.१८] । इसी प्रदेश में इसने अपना सुविख्यात राजवंश एवं स्थापित किया । इस राजवंश ने मथुरा, गुजराथ, काठेवाड प्रदेश में स्थित राक्षस लोगो का नाश किया । पश्चात् इन दोनों प्रदेश में यादव एवं उन्हीके ही वंश के हैह्य लोगों का राज्य स्थापित हुआ ।
यदु III. n. शुक्राचार्य के शाप के कारण, इसके पिता ययाति का तारुण्य नष्ट हुआ । फिर ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को अपनी जरा ले कर उसके बदले इसका तारुण्य देने की प्रार्थना की । यदु ने अपने पिता की यह प्रार्थना अस्वीकार कर दी । इस पर क्रुद्ध हो कर ययाति ने इसे शाप दिया, ‘आज से तुम एवं तुम्हारे वंशज राज्यधिकार से वंचित रहोगे’
[म.आ.७९-७] । यदु के जिस भाइयों ने इसका अनुकरण किया, उन्हें भी ययाति का यही शाप प्राप्त हुआ । पौराणिक ग्रंथों में ययाति ने इसे निम्नलिखित अन्य शाप देने निर्देश प्राप्त हैः---१. ‘तुम मातुलकन्या परिणय करोंगे’ । २. ‘तुम मातृद्रव्य का हरण करोगे’
[पद्म.भू.८०] । ३. ‘तुम सोमवंश में न रहोगे’। ४. तुम यातुधान नामक राक्षस उत्पन्न करोंगे’
[वा.रा.उ.५९.५, १४-१६, २०] । ययाति का अत्यंत प्रिय पुत्र होते हुये भी, यदु ने अपने पिता की जरा लेना अस्वीकार क्यों कर दिया, इसका स्पष्टीकरण वायु एवं भागवत मे प्राप्त है । इन ग्रंथों के अनुसार, अपना यौवन ले कर अपने पिता अपनी ही माता से भोगविलास करे, यह कल्पना इसे अपवित्र एवं अवैध प्रतीत हुयी । इसी कारण, यद्यपि पिता की प्रार्थना मान्य करने से पित्राज्ञा का पालन करने का पुण्य प्राप्त होगा, फिर भी उससे मात्रागमन का महान् दोष भी लगेगा, ऐसे सोच कर, इसने ययाति की प्रार्थना अमान्य कर दी
[वायु.९३] ;
[भा. ९.१९.२३] । हरिवंश एवं ब्रह्म के अनुसार, यदु ने किसी ब्राह्मण को कई वस्तु दान में का अभिवचन दिया था, जिस कारण इसने ययाति की जरा स्वीकार ने में असमर्थता प्रकट की
[ह.वं.१.३०.२३-२४] ;
[ब्रह्म.१२] । इसे एवं इसके भाई अनु को यद्यपि राज्य प्राप्त हुआ था, फिर भी सार्वभौम राज्याधिकार से ये सदा के लिए वंचित रहे
[विष्णु ५.३] । इसी कारण ‘यादव वंश’ में उत्पन्न हुयें कृष्ण आदि राजा को, एवं ‘अनुवंश’ में उत्पन्न हुयें कृष्ण आदि राजा को, एवं ‘अनुवंश’ में उत्पन्न हुयें कर्ण आदि को अन्य सार्वभौम राजाओं से उपेक्षा सहनी पडी । श्रीकृष्ण को ‘ग्वाला’, एवं कर्ण को ‘सूतपुत्र’ व्यंजनात्मक उपाधियॉं उनके विपक्ष के लोगों के द्वारा प्रदान की जाती थी ।
यदु III. n. हरिवंश के अनुसार, यदु को कुल पॉंच पत्नियॉं थी, जो धूम्रवर्ण नामक नाग की कन्याएँ थी । इन पॉंच पत्नियों से इसे निम्नलिखित पॉंच पुत्र उत्पन्न हुयेः---१. पद्मवर्ण,२. माधव, ३. मुचुकुंद, ४. सारस, ५.हरित
[ह.वं.२.३८.२] । इसी ग्रंथ में अन्यत्र इसके ‘सहस्त्रद’ एवं ‘पयोद’ नामक दो पुत्रों का निर्देश प्राप्त है
[ह.वं.१.३३.१] । इनके अतिरिक्त, निम्नलिखित ग्रंथों में यदु के पुत्र इस प्रकार बताये गये हैः-- १. भागवत में---क्रोष्टु, सहस्त्रजित्, नल, एवं रिपु
[भा.९.२३] । २.मत्स्य में---नील, अंतिक, एवं लघु
[मत्स्य.४३.७] । ३. वायु में---जित एवं लघु
[वायु.९४.२] । ४.विष्णु में---क्रोष्टु
[विष्णु.४.११] । ५. पद्म में---भोज, भीमक, अंधक ,कुंजर, वृष्णि, श्रुतसेन, श्रुताधार, कालदंष्ट्र, एवं कालजित
[पद्म.भू.१०९] । पार्गिटेर के अनुसार, भागवत में प्राप्त युदुपुत्रों की नामावली प्रक्षिप्त है । यदु के पुत्रों में केवल दो पुत्र ही महत्त्वपूर्ण थेः---१. क्रोष्टु, जिसने मथुरा में यादव वंश की स्थापना की; २. सहस्त्रजित्, जिसने हैहय वंश के स्थापना की
[पार्गि.८७] ।
यदु III. n. पुराणों में यादववंश की जानकारी विस्तृत रुप में उपलब्ध है, किंतु वहॉं प्राप्त बहुत सारे निर्देश एक दूसरे से मेल नही खाते है । वायु के अनुसार, यादव वंश की ग्यारह शाखाएँ थी
[वायु.९६.२५५] । मत्स्य के अनुसार, इनकी एकसौ शाखाएँ थी
[मत्स्य.४७.२५-२८] । हरिवंश के अनुसार यदु के पॉंच पुत्रों ने यादव वंश की पॉंच शाखाएँ, प्रस्थापित की । उनमें से माधव ने मथुरा नगरी में राज्य स्थापित किया, एवं मुचकुंद, सारस, हरित एवं पद्मवर्ण राजाओं ने दक्षिण हिंदुस्थान मे महाराष्ट्र में आ कर स्वतंत्र राज्य स्थापित किये, जो आगे चल कर करवीर (कोल्हापुर) आदि नामों से प्रसिद्ध हुये । हरिवंश में प्राप्त माधव की वंशावली निम्न प्रकार हैः---माधव-सत्वत्-भीम सात्वत-अंधक-रैवत-ऋक्ष एवं विश्वगर्भ-वसुदेव, दमघोष, वसु, बभ्रु, सुषेण एवं सभाक्ष-श्रीकृष्ण
[ह.वं.२.३८.३६-५१] । कृष्ण
यदु III. n. इनमें से भीम सात्त्वत राम दाशरथि राजा का समकालीन था । उसने इक्ष्वाकुवंशीय शत्रुघातिन् राजा से मथुरा नगरी को जीत कर, वहॉं अपना राज्य स्थापित किया । सात्वत राजा को भजमान, देवावृध, अंधक एवं वृष्णि नामक चार पुत्र थे, जिनके कारण, यादव वंश की चार शाखाएँ उत्पन्न हुयी । उनमें से देवावृध एवं उसके पुत्र बभ्रु ने अबु पहाडी के प्रदेश में स्थित मार्तिकावत देश में अपनी राज्य स्थापित किया । अंधक एवं उसके दो पुत्र कुकुर एवं भजमान, मथुरा में राज्य करते रहे । कंस राजा उन्ही के वंश में उत्पन्न हुआ था । भजमान के पुत्र ‘अंधक नाम से ही सुविख्यात हुये, एवं उनका राज्य कृतवर्मन् उनका राजा था । वृष्णि भारतीय युद्ध के समय कृतवर्मन उनका राजा था । वृष्णि का राज्य गुजराथ में द्वारका प्रदेश में था (वृष्णि देखिये) ।
यदु III. n. इनके सिवा यादव वंशों के अन्य कई उपशाखाओं का राज्य विदर्भ, अवंती, दशार्ण प्रदेश में भी था । हैहकों का मुख्य राज्य नर्मदा नदी के किनारे, माहिष्मती में था, एवं उनकी वीतहोत्र, शर्यात, भोज, अवन्ती एवं तुंडिकरे नामक पॉंच शाखाएँ प्रमुख थी । यद्यपि हैहयों के उपशाखाओं में से ‘भोज’ एक था, फिर भी गुजरात के वृष्णियों को छोड कर बाकी सारे यादव वंश ‘भोज’ सामुहिक नाम से प्रसिद्ध थे । इसी कारण, निम्नलिखित यादव राजाओं को ‘भोज’ कहा गया हैः---उग्रसेन, कंस, कृतवर्मन, विदर्भराज, भीष्मक, एवं रुक्मिन् । भीम सात्वत से ले कर श्रीकृष्ण तक के यादव राजाओं का मुख्य राज्य मथुरा में ही था । जरासंध की भय से, श्रीकृष्ण ने एक स्वतंत्र यादव राज्य पश्चिम समुद्र के तट पर सुराष्ट्र में स्थित द्वारका नगरी में स्थापित किया । श्रीकृष्ण के समय, यादवों की संख्या कुल तीन कोटी थी, जिनमें से साठ लाख लोग शूर योद्धा थे ।
यदु III. n. भागवत में यादववंश में उत्पन्न अठारह शूर योद्धाओं की नामावलि दी गयी है, जो निम्नप्रकार हैः---प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमत्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, कवि एवं न्यग्रोध
[भा.१०.९०.३३-३४] । इनमें से प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, एवं वज्र भारतीय युद्ध के पश्चात् हुये मौसल युद्ध मे मारे गये । इसी युद्ध में समस्त यादव वंश का भी जडमूल से संहार हुआ । इस महाभयानक संहार का वर्णन भागवत्, एवं महाभारत में प्राप्त है
[भा.३.४.१-२] ;
[म.मौ.४] । इस संहार से केवल चार पॉंच यादव ही बच सके
[भा.१.१५.२३] ।
यदु III. n. प्राचीन आर्यसंस्कृति का प्रसार राजपूताना, गुजरात, मालवा एवं दक्षिण के प्रदेशों में करने प्रदेश अनार्य थे, जिन्हे आर्य धर्म एवं संस्कृति की दीक्षा यादवों ने दी । यह कार्य करते समय, ये लोग अनार्य लोगों के साथ सम्मिलित हुये कर्मठ आर्यधर्म का पालन न कर सके । इसी कारण महाभारत एवं पुराणों में इन्हे ‘असुर’ कहा गया है, एवं उत्तरी पश्चिमी भारत के ‘नीच्य’ एवं ‘अपाच्य’ जातियों में इनकी गणना की गयी है । फिर भी आर्यधर्म के प्रसार में इन्होंने जो कार्य किया वह प्रशंसनीय है । यादवों का सर्वश्रेष्ठता नेता श्रीकृष्ण था, जो धर्मनीति का नेता बन गया एवं साक्षात् विष्णु का अवतार कहलाने लगा । आर्यसंस्कृति के प्रसार में यादवों के द्वारा किये गये कार्य में श्रीकृष्ण का बडा हाथ रहा है ।
यदु III. n. महाभारत में भूरिश्रवस् के द्वारा यादवों की अत्यधिक कटुशब्दों में आलोचना की गयी है, जहॉं उन्हे आचारहीन (व्रात्य), निंद्यकर्म करनेवाले, एवं गर्हणीय योनि के कहा गया है
[म.द्रो.११८.१५] । एवं द्वैपायन के साथ कपट करने से इनका नाश होने का निर्देश प्राप्त है
[कौ.अ.पृ.२२] ।
यदु IV. n. विदर्भदेश क एक राजा, जिसने अपनी प्रभा अथवा सुमति नामक कन्या सगर राजा को विवाह में दी थी ।
यदु V. n. (सो. ऋक्ष.) एक राजकुमार, जो उपरिचर वसु राजा का पुत्र था । युद्ध में यह से पराजित नही होता था
[म.आ.५७.२९] ।
यदु VI. n. स्वायंभुव मन्वन्तर के जित देवों में से एक ।