राधा n. कृष्ण की सुविख्यात प्राणसखी एवं उपासिका, जिसका निर्देश गोपालकृष्ण की बाललिलाओं में पुन: पुन: प्राप्त है । गोकुल में रहनेबाले एवं राधा के साथ नानाविध क्रीडा करनेबाले ‘गोपालकृष्ण’ का निर्देश पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य, महाभारत एवं नारायणीय आदि ग्रंथों में अप्राप्य है । इसके नाम का सर्वप्रथम निर्देश हरिवंश, वायु एवं भागवत में प्राप्त है, जिनका रचनाकाल ई. स. तीसरी शताब्दी माना जाता है । सृष्टिउपकारक पाँच विष्णुशक्त्तियों में से राधा एक मानी गयी है
[दे. भा. ९.१] ;
[नारद. २.८१] । यह संपत्ति का अधिष्ठात्री है, तथा इसे कान्ता, अतिदान्ता, शान्ता, सुशीला, सर्वमंगला, आदि नाम प्राप्त है । लक्ष्मी के दो रूप माने गये है
राधा n. यह गोकुल में वैश्य वृषभानु नामक गोप को कलावती नामक पत्नी से उत्पन्न हुई थी
[ब्रहावै. २.४९.३५-४२] ;
[नारद. २.८१.] । पद्म में इसे वृषभानु राजा की कन्या कहा गया है । यह राजा यज्ञ के लिए पृथ्वी साफ कर रहा था, उस समय, उसे भूमिकन्या के रूप में राधा प्राप्त हुई । पश्चात् उसने इसे अपनी कन्या मान कर इसका भरणपोपण किया
[पद्म. ब्र. ७] । कृष्ण के वामांग से यह उत्पन्न हुई. ऐसी कथा भी कई पुराणों में प्राप्त है
[ब्रह्मवै. २.१२.१६] ।
राधा n. राधा का अवतार पृथ्वी पर किस कारण से हुआ, यह बतानेबाली अनेक कथाएँ पुराणों में प्राप्त हैं, जो काफी कल्पनारम्य प्रतीत होती हैं । कृष्णवतार लेते समय विष्णु ने अपने परिवार के समस्त देवताओं को पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए आज्ञा दी । इस आज्ञा के अनुसार, विष्णु की प्रियसखी राधा ने पृथ्वी पर जाना स्वीकार किया, एवं भाद्रपद शुक्ल अष्टमी के दिन, ज्येष्ठा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में प्रात:काल के समय जन्म लिया
[आदि. ११] । नारद के अनुसार, एक बार श्रीविष्णु विरजा नामक गोपी को अपने साथ रासमंडल में ले गये । किन्तु वहाँ पहूँचने के पहले ही वे दोनों लुप्त हो गये । बाद में इसने विरजा को पुन: एक बार कृष्ण एवं सुशामा के साथ बैठते हुए देखा । इस कारण इसने श्री विष्णु की काफी निंदा की । जब सुशमा ने इसे खूव डाँटा एवं इसे शाप दिया, ‘तुम्हे मानवयोनि में जन्म प्राप्त होगा, उस समय तुम्हे कृष्ण से काफी विरह सहना पडेगा’
[नारद. २.८१] ;
[ब्रहावै. २.४९] । पश्चात् इसने भी सुदामा को शाप दिया, ‘तुमने मुझे बूरा भला कहा है, अत: तुम्हे दानव-योनि में जन्म प्राप्त होगा
[दे. भा. ९.१९] । राधा के इस शाप के कारण, सुशमा शंखचूड नामक असुर वन गया
[ब्रह्मवै. २.४९.३४] । पश्चात् कृष्ण ने सुदामा को उ:शाप दिया, ‘गोलोक का आधा क्षण अथांत् एक मन्वन्तर तक ही तुम असुर रहोगे । पश्चात् तुम्हे मुक्ति प्राप्त होगी’ । नारद में सुदामा की असुर-अवस्था की कालमर्यादा सौ साल दी गयी है
[नारद. २.८१] ।
राधा n. मानव योनि में जन्म लेने के पश्चात राधा का कृष्ण से विवाह, वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन रोहिणी नक्षत्र पर हुआ था
[आदि. ११] किन्तु अन्य पुराणों में गोकुलनिवासी राधा को कृष्ण की सखी बताया गया है, एवं इसके पति का नाम ‘रापाण’ दिया गया है
[ब्रह्मवै. २.४९.३७] । ब्रह्नावैवर्त के काण्व शाखा में राधा का आख्यान प्राप्त है, जहाँ राधा एवं कृष्ण को एक दूसरे का उपासक कहा गया है
[ब्रह्मवै.२.४८.१२-१३] । राधा एवं कृष्ण के उपासक ‘राधाकृष्ण’ नाम का जाप कर के इनकी उपासना करते हैं । ‘राधाकृष्ण’ के स्थान पर’ कृष्णराधा’ इस क्रम से नामोच्चारण करने पर नरक की प्राप्ती होती है. ऐसी भक्त्तों की धारणा है
[ब्रह्मवै. २.४९-५९] । राधा के नामस्मरण का माहात्म्य बतानेबाला एक मंत्र का पाठ राधाकृष्ण के उपासक प्रतिदिन करते है, जो निम्नप्रकार है--- राशब्दोच्चारणाद्भक्त्तो राति मुक्तिं सुदुर्लभाम् । धाशब्दोच्चारणाद दुर्गे धावत्येव हरे: पदम् ॥ रा इत्यादानवचनो धा च निर्वाणवाचक: । ततोऽवाप्नोति मुक्तिं च येन राधा प्रकीर्तिता ॥ (ब्रह्नावै. २.४८. ४०, ४२)
राधा n. राधा एवं कृष्ण की उपासना का प्राचीनतम ग्रंथ ‘ज्ञानामृतसार’ है, जो ‘नारद पंचरात्र’ नामक संहिता में समाविष्ट है । इस ग्रंथ के अनुसार, कृष्ण गोलोक नामक दिव्य लोक में निवास करते हैं, जहाँ राधा भी उनकी प्रियतम सखी बन कर रहती है
[ज्ञानामृत. २.३.२४] । इस ग्रंथ में राधा को कृष्ण के बराबर ही श्रेष्ठ माना गया है, एवं इन दोनो की उपासना करने से भक्त को भी गोलोक की प्राप्ति होती है, ऐसा कहा गया है । इस ग्रंथ का रचना काल ई. स. ४ थी शताब्दी माना गया है । (१) निंबार्क सांप्रदाय---राधाकृष्ण संप्रदाय का अन्य एक उपासक निंबार्क माना जाता है, जो ई. स. ११ वी शताब्दी में उत्पन्न हुआ था । निंबार्क स्वयं रामानुज संप्रदाय का था । किंतु जहाँ रामानुज नारायण, एवं उसकी पत्नी लक्ष्मी (भू अथवा लीला) की उपासना पर जोर देते है, वहाँ निंबार्द गोपालकृष्ण एवं राधा के उपासना को प्राधान्य देते हैं । निंबार्क का यह तत्त्वज्ञान ‘सनक सांप्रदाय’ नाम से सुविख्यात है । निंबार्क स्वयं दक्षिण देश में रहनेवाला तैंलगी ब्राह्मण था, फिर भी वह स्वयं उत्तर भारत में मथुरा एवं वृन्दावन के पास रहता था । इस कारण इसके सांप्रदाय के बहुत सारे लोग उत्तर प्रदेश एवं बंगला में दिखाई देते हैं । ये लोग अपने भालप्रदेश पर गोपीचंदन का टीका-लगाते हैं एवं तुलसीमाला पहनते हैं । (२) वल्लभ सांप्रदाय---राधाकृष्ण सांप्रदाय का अन्य एक महान् प्रचारक ‘वल्लभ’ माना जाता है, जो १५ वीं शताब्दी में उत्पन्न हुआ था । गोकुल में नानाविध बाललीला करनेवाला गोपालकृष्ण एवं उसकी प्रियसखी राधा ‘वल्लभ संप्रदाय’ के अधिष्ठात्री देवता हैं । इस संप्रदाय के अनुसार, गोलोक, जहाँ कृष्ण एवं राधा निवास करते हैं, वह श्रीविष्णु के वैकुंठ से भी श्रेष्ठ है, एवं उस लोक में प्रवेश प्राप्त करना यहीं प्रत्येक साधक का अंतीम ध्येय है । (३) सखीभाव सांप्रदाय---राधाकृष्ण की उपासना का और एक आविष्कार ‘सखीभाव’ संप्रदाय है, जहाँ साधक स्वयं स्त्रीवेष धारण कर राधा-कृष्ण की उपासना करते हैं । राधा के समान स्त्रीवेष धारण करने से श्रीकृष्ण का सहचर्य अधिक सुलभता से प्राप्त हो सकता है, ऐसी इन लोगों की धारणा है । उन्हें राधाकृष्ण की उपासना का एक काफी विकृत रूप माना जा सकता है
[भांडारकर, वैष्णविजम्, पृ. ९३, ११७.१२३, १२६] । (४) श्री विठ्ठल-उपासना---महाराष्ट्र में कृष्ण --- उपासना का आद्य प्रवर्तक पुंडलीक माना जाता है, जिसकी परंपरा आगे चल कर नामदेव एवं तुकाराम आदि संतों ने चलायी । किन्तु महाराष्ट्र में प्राप्त श्रीविठ्ठल की उपासना में राधा का स्थान श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी के द्वारा लिया गया प्रतीत होता है । रूक्मिणी के कारण श्रीकृष्ण पंढरपुर (पुंडलीकपुर) में आया, तथा श्रीविठ्ठल नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
राधा II. n. (सो. अनु.) अदिरथ सूत की पत्नी. जिसे राधिका नामांतर भी प्राप्त था । कुन्ती के द्वारा नदी में छोडा गया कर्ण इसे मिला था । इसने उसका नाम वसुषेण रखा था । कर्ण को मिलने के बाद इसे अन्य औरस पुत्र भी हुए थे
[म. आ. १०४.१४-१५] ;
[व. २९३.१२] ।