लक्ष्मी n. समुद्र से प्रकट हुई एक देवी, जो भगवान् विष्णु की पत्नी मानी जाती है । ऐश्वर्यं का प्रतीकरूप देवता मान कर, ऋग्वेदिक श्रीसूक्त में इसका वर्णन किया गया है । समृद्धि, संपत्ति, आयुरारोग्य पुत्रपौत्रादि परिवार, धनधान्यविपुलता आदि की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी एवं श्री की उपासना की जाती है । इसी कारण श्रीसूक्त में प्रार्थना की गयी है-- यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम ॥२॥ सुवर्ण, गायें, अश्व एवं चाकरनौकर आदि परिवार से युक्त लक्ष्मी मुझे प्राप्त हो । धनधान्यादि भौतिक संपत्ति धनलक्ष्मी ही नही. बल्कि सैन्यसंपत्ति (सैन्यलक्ष्मी) का भी लक्ष्मी में ही समावेश किया जाता था
लक्ष्मी n. ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले ‘लक्ष्मी’ देवता की कल्पना अथर्ववेदकालीन है । उस ग्रंथ में अनेक ‘भावानात्मक’ देवताओं का निर्देश प्राप्त है, जिनकी उपासना से प्रेम, विद्या, बुद्धि, वाक्चातुर्य आदि इच्छित सिद्धिओं का लाभ प्राप्त होता है । अथर्ववेद में निर्दिष्ट ऐसी देवताओं में काम प्रेमदेवता, सरस्वती विद्या, मेधा बुद्धि, वाक् वाणी आदि देवता प्रमुख है, जिनमें ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली लक्ष्मी देवता का प्रमुखता से निर्देश किया गया है ।
लक्ष्मी n. श्रीसूक्त में लक्ष्मी का स्वरूपवर्णन प्राप्त है, जहाँ इसे हिरण्यवर्णा, पद्मस्थिता, पद्मवर्णा, पद्ममालिनी, पुष्करिणी, आदि स्वरूपवर्णनामक विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं । वाल्मीकि रामायण में प्राप्त इसके स्वरूपवर्णन में, इसे शुभ्रवस्त्रधारिणी, तरुणी मुकुटधारिणी, कुंचितकेशा, चतुर्हस्ता, सुवर्णकान्ति, मणिमुक्तादिभूषिता कहा गया है
[वा. रा. वा. ४५] पुराणों में वर्णित लक्ष्मी कमलसना, कमलहस्ता, एवं कमलमालाधरिणी है । ऐरावतों के द्वारा सुवर्णपात्र में लाये हुए तीर्थजल से यह स्नान सुस्नात करती है, एवं सदेव विष्णु के वक्ष:स्थल में रहती है
[विष्णु, १.९.९८-१०५] लक्ष्मी n. लक्ष्मी क्षीरसागर में अपने पति श्रीविष्णु के साथ रहती है, एवं अपने अन्य एक अवतार राधा के रूप में कृष्ण के साथ गोलोक में रहती है (राधा देखिये) । महाभारत में लक्ष्मी के ‘विष्णुपत्नी लक्ष्मी‘ एवं ‘राज्यलक्ष्मी’ ऐसे दो प्रकार बताये गये हैं । इनमें से लक्ष्मी हमेशा विष्णु के पास रहती है, एव राज्यलक्ष्मी राजा एवं पराक्रमी लोगों के साथ घूमती है, ऐसा निर्देश प्राप्त है । लक्ष्मी का निवासस्थान कहाँ रहता है, इसका रूपकात्मक दिग्दर्शन करनेवाली अनेकानेक कथाएँ महाभारत एवं पुराणों मे प्राप्त है, जिनमें निम्नलिखित कथाएँ प्रमुख हैं
(१) लक्ष्मी-प्रल्हादसंवाद---असुरराज प्रल्हाद ने एक ब्राह्मण को अपना शील प्रदान किया, जिस कारण क्रमानुसार उसका तेज, धर्म, सत्य, वृत्त, बल एवं अंत में उसकी लक्ष्मी उसे छोड कर चले गयें । तत्पश्चात् लक्ष्मी ने प्रल्हाद को साक्षात दर्शन दे कर उपदेश दिया, ‘तेज, धर्म, सत्य, वृत्त, बल एवं शील आदि मानवी गुणों में मेरा निवास रहता है, जिन में से शील अथवा चारित्र्य मुझे सबसे अधिक प्रिय है । इसी कारण सच्छील आदमी के यहाँ रहना मैं सबसे अधिक पसंद करती हूँ। ‘शीलं परं भूषणम्’ इस उक्ति का भी यही अर्थ है’
[म. शां. १२४.४५.६०] (२) लक्ष्मी-इंद्रसंवाद---असुरराज प्रह्नाद के समान, उसका पौत्र बलि का भी लक्ष्मी ने त्याग किया । बलि का त्याग करने की कारणपरंपरा इंद्र से बताते समय लक्ष्मी ने कहा, ‘पृथ्वी के सारे निवासस्थानों में से भूमि, (वित्त) जल (तिर्थादि), अग्नि (यज्ञादि) एवं विद्या (ज्ञान) ये चार स्थान मुझे अत्यधिक प्रिय हैं । सत्य, दान, व्रत, मेरा भी निवास रहता है । देवब्राह्मणों से नम्रता के साथ व्यवहार करनेवाला मनुष्य मुझे अत्यधिक प्रिय है ’। लक्ष्मी ने आगे कहा, ‘चोरी, वासना, अपवित्रता, एवं अशांति से मैं अत्यधिक घृणा करती हूँ, जिनके आधिक्य के कारण क्रमश: भूमि, जल अग्नि, एवं विद्या में स्थित मेरे प्रिय निवासस्थानो का मैं त्याग कर देती हूँ । ‘बलि दैत्य ने उच्छिष्टभक्षण किया, एवं देवब्राह्मणों का विरोध किया जिस कारण वह मेरा अत्यंत प्रिय व्यक्ति हो कर भी, आज मैं उसका त्याग कर रही हूँ’
[म. थां. २१] (३) लक्ष्मी-रुक्मिणीसंवाद---लक्ष्मी के निवासस्थान से संबंधित एक प्रश्न युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा था, जिसका जवाब देते समय भीष्म ने लक्ष्मी एवं रुक्मिणी के दरम्यान हुए एक संवाद की जानकारी युधिष्ठिर को दी
[म. अनु. ११] । इस जानकारी के अनुसार, लक्ष्मी ने रुक्मिणी से कहा था, ‘सृष्टि के सारे लोगों में प्रगल्म, भाषणकुशल, दक्ष, निरलस, आस्तिक, अक्रोधन, कृतज्ञ, जितेंद्रिय, वृद्धजनों की सेवा करनेवाले वृद्धसेवक, सत्यनिष्ठ, शांत स्वभाववाले शांत एवं सदाचारी लोग मुझे सब से अधिक प्रिय हैं, जिनके यहाँ रहना मैं विशेष पसंद करती हूँ । ‘निर्लज्ज, कलहप्रिय, निंद्राप्रिय, मलीन, अशांत, एवं असमाधानी लोगों का मैं अतीव तिरस्कार करती हैं, जिस कारण ऐसे लोगों का मैं त्याग करती हूँ’ । महाभारत में अन्यत्र प्राप्त जानकारी के अनुसार, गायें एवं गोबर में भी लक्ष्मी का निवास रहता है
[म. अन. ८२] ।
लक्ष्मी n. देवासुरो के द्वारा किये गये समुद्रमंथन से, चंद्र के पश्चात लक्ष्मी का अवतार हुआ
[म.आ. १६.३४] ;
[विष्णु. १.८.५] ;
[भा. ८.८.८] ;
[पद्म, सृ.४] इस ‘अयोनिज’ देवता को ब्रह्मा ने श्रीविष्णु को प्रदान किया, एवं विष्णु ने इसे पत्नी के रूप में स्वीकार किया । पश्चात यह उसके सन्निध क्षीरसागर में निवास करने लगी । ब्रह्मन के पुत्र भृगु ऋषि की कन्या के रूप में लक्ष्मी पृथ्वीलोक में पुन: अवतीर्ण हुई । इस समय, दक्षकन्या ख्याति इसकी माता थी
[विष्णु. १.८] । कालोपरान्त इसका विवाह विष्णु के एक अवतार नारायण से हुआ, जिससे इसे बल एवं उन्माद नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए । ब्रह्मवैवर्त के अनुसार, विष्णु के दक्षिणांग से लक्ष्मी का, एवं वामांग से लक्ष्मी के ही अन्य एक अवतार राधा का जन्म हुआ
[ब्रह्मवै. २.४७.४४] लक्ष्मी n. विष्णु के वक्षस्थल में लक्ष्मी का निवासस्थान कैसे हुआ, इस संबंध में एक रुपकात्मक कथा पुराणों में प्राप्त है । स्वायंभुव मनु के यज्ञ के समय, ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीन देवों में से श्रेष्ठ कौन, इसका निर्णय करने का कार्य भृगु ऋषि पर सौंपा गया । इस संबंध में एवं जाँच लेने के लिए तीनों देवो के पास भृगु स्वयं गया । उस समय, ब्रह्मा एवं शिव ने भृगु का बूरी प्रकार से अपमान किया । केवल विष्णु ने ही भृगु का उचित आदरसत्कार किया, एवं भृगु के द्वारा छाती पर किया गया लत्ताप्रहार भी शांति से स्वीकार कर, उसे ‘श्रीवत्सलांछन’ के रुप में अपने वक्ष:स्थल पर धारण किया
[भा. १०.८९.१-१२] । इस कारण, भृगु अत्यधिक प्रसन्न हुआ, एवं उसके द्वारा दिये गये ‘श्रीवत्सलांछन’ के रूप में लक्ष्मी हमेशा के लिए श्रीविष्णु के वक्ष:स्थल पर निवास करने लगी । ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों से भी भृगु जैसे ब्राह्मण अधिक श्रेष्ठ है, एवं पृथ्वी के लक्ष्मी के जनक भी वे ही है, ऐसा उपर्युक्त रूपकात्मक कथा का अर्थ प्रतीत होता है । साक्षात् श्रीविष्णु को लक्ष्मी प्रदान करनेवाले भृगु ऋषि की इस कथा से ही, ब्राह्मणों की सेवा पूजन आदि से लक्ष्मी प्राप्त होती है, यह जनश्रुति का जन्म हुआ होगा ।
लक्ष्मी n. एक बार लक्ष्मी ने लक्ष्मीनगर नामक नगर का निर्माण कर, जो इसने अपने पिता भृगु ऋषि को प्रदान किया । कालेपरांत इसने भृगु से वह नगर लौट लेना चाहा, किंतु उसने एक बार प्राप्त हुआ नगर लौट देने से इन्कार कर दिया । इसी संबंध में मध्यस्थता करने के लिए आये हुए श्रीविष्णु की भी भृगु ने एक न सुनी, एवं क्रुद्ध हो कर उसे शाप दिया, ‘पृथ्वी पर दस मानवी अवतार लेने पर तुम विवश होगे’
[पद्म.स. ४] भृगु ऋषि के उपर्युक्त शाप के अनुसार, विष्णु ने पृथ्वी पर दस अवतार लिये । जिन समय लक्ष्मी ने पत्नीधर्म के अनुसार दस अवतार ले कर श्रीविष्णु को साथ दिया ।
लक्ष्मी n. लक्ष्मी के इन दस अवतारों में निम्नलिखित अवतार प्रमुख है---१. कमलोद्भव लक्ष्मी वामनावतार; २. भूमि परशुरामवातार; सीता रामावतार; ४. रुक्मिणी कृष्णावतार
[विष्णु, १.९.१४०-१४१] ;
[भा. ५.१८.१५,८.८.८] ब्रह्मवैवर्त में लक्ष्मी के अवतार विभिन्न प्रकार से दिये गयें है । वहाँ निर्दिष्ट लक्ष्मीके अवतार, एवं उनके प्रकट होने के स्थान निम्नप्रकार है---१ महालक्ष्मी वैकुंट २. स्वर्गलक्ष्मी स्वर्ग; ३, राधा गोलोक ४. राजलक्ष्मी पाताल, भूलोक; ५. गृहलक्ष्मी गृह ६, सुरभि गोलोक ७. दक्षिणा यज्ञ ८. शोभा (वस्तुमात्र)
[ब्रह्मवें, २.३५] । महालक्ष्मी के अवतार में, भृगुऋषि के शाप के कारण, इसे हाथी का शीर्ष प्राप्त हुआ था, जिसे काट कर ब्रह्मा ने इसे महालक्ष्मी नाम प्रदान किया था
[स्कंद. ६.८५] । पद्म में गोकुल की भानु ग्वाले की कन्या राधा को भी लक्ष्मी का ही अवतार कहा गया है । राधा जन्म से ही अंधी, गुंगी एवं लूली थी, कितु उसे लक्ष्मी का अवतार जान कर, नारद ने उसका दर्शन लिया था
[पद्म. पा. ७१] लक्ष्मी n. ब्रह्म में लक्ष्मी एवं दरिद्रता अलक्ष्मी के दरम्यान हुआ एक कल्पनारम्य संवाद प्राप्त है. जो गोदाबरी नदी के तट पर स्थित लक्ष्मीतीर्थ का माहात्म्य बताने के लिए दिया गया है
[ब्रह्म.१३७] इस संवाद में लक्ष्मी की अत्यंत कठोर शब्दों में निर्भर्त्सना की गई है । एक बार लक्ष्मी एवं अलक्ष्मी के दरम्यान श्रेष्ठ कौन इस संबंध में संवाद हुआ था । इस समय लक्ष्मी ने अपना श्रेष्ठत्व बताते हुए कहा, ‘मैं जिसके साथ रहूँ. उसका इस संसार में सर्वत्र सत्कार होता है, एवं मेरे अनुपस्थिति में निर्धन एवं याचक लोगों की सर्वत्र अबहेलना होती है । इस दुर्गति से शिव जैसा देवाधिदेव भी न बच सका, जिस कारण उसकी सर्वत्र उपेक्षा एवं अवहेलना हुई’। इस पर लक्ष्मी के दोष बताते हुए अलक्ष्मी ने कहा, ‘तुम सदैव पापी, विश्वासघाती, एवं दुराचारी लोगों में रहती हो, तथा मद्य से भी अधिक अनर्थ पैसा करती हो । राजाश्रित, पाणी, खल, निष्ठुर, लोभी एवं कायर लोगों के घर तुम्हारा निवास रहता है, एवं अनार्य, कृतघ्न, धर्मघातकी, मित्रद्रोही एवं अविचारी लोगों से तुम्हारी उपासना की जाती है’। अलक्ष्मी ने आगे कहा, ‘मेरा निवास धर्मशील. पापभीरू, कृतज्ञ, विद्वान् एवं साधु लोगों में रहता है, एवं पवित्र ब्राह्मण, संन्यासी एवं ध्येयनिष्ठ लोगो से मेरी उपासना की जाती है । इसी कारण काम, क्रोध, औद्धत्य आदि तामसी विकारों को मैं दूर रखती हूँ, एवं अपने भक्तों को मुक्ति प्रदान करती हूँ’
[ब्रह्म. १३७] भर्तृहरि के अनुसार, उपर्युक्त संवाद में लक्ष्मी एवं अलक्ष्मी का संकेत संपन्नता एवं दरिद्रता से नही, किन्तु लक्ष्मी की तामस उपासना करनेवाले बुभुक्षित लोग एवं दरिद्रता में ही तृप्त रहनेवाले सात्विक लोगों की ओर अभिप्रेत है ।
लक्ष्मी n. विष्णु से इसे बल एवं उन्माद नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे । श्रीसूक्त में इसके निम्नलिखित पुत्रों का निर्देश प्राप्त है---आनंद, कर्दम, श्रीद और चिक्लित । इसके धातृ एवं विधातृ नामक दो भाई भी थे, जो इसीके तरह भृगु ऋषि एवं ख्याति के पुत्र थे ।
लक्ष्मी n. इन सूक्तो में निम्नलिखित दो ग्रंथ प्रमुख माने जाते हैं---१. श्रीसूक्त
[ऋ. परि.११] २. इंद्रकृत लक्ष्मीस्तोत्र, जो विष्णु पुराण मे प्राप्त है
[विष्णु १.९.११५-१३७] लक्ष्मी II. n. दक्ष प्रजापति की एक कन्या, जो धर्मप्रजापति की पत्नी थी
[म. आ. ६०-१३] लक्ष्मी III. n. वीर नामक ब्राह्मण की पत्नी, जो अपने पूर्वजन्म में तोण्डमान नामक राजा की पद्या नामक पत्नी थी (भीम. २४. देखिये)