वराह n. विष्णु का तृतीय अवतार, जो हिरण्याक्ष नामक असुर के वध के लिए उत्पन्न हुआ था । इसे ‘ यज्ञवराह ’ नामांतर भी प्राप्त था
[म. स. परि. १ क्र. २१ पंक्ति. १४०] ।
वराह n. वराह अवतार का अस्पष्ट निर्देश वैदिक साहित्य में प्राप्त है । किन्तु वहॉं कौनसी भी जगह वराह - अवतार को विष्णु का अवतार नहीं बताया गया है । ऋग्वेद में इंद्र के द्वारा वराह का वध होने की कथा दी गई है
[ऋ. १०.९९.६] । प्रजापति के द्वारा वराह, का रुप लेने की कथा तैत्तिरीय - संहिता में प्राप्त है । पृथ्वी के उत्पत्ति के पूर्वकाल में प्रजापति वायु का रुप धारण कर अंतरिक्ष में घूम रहा था । उस समय समुद्र के पानी में डूबी हुई पृथ्वी उसने सहजवश देखी । फिर प्रजापति ने वराह का रुप धारण कर पानी में प्रवेश किया, एवं पानी में डूबी हुई पृथ्वी को उपर उठाया । तत्पश्चात् उसने पृथ्वी को पोंछ कर स्वच्छ किया, एवं वहॉं देव, मनुष्य आदि का निर्माण किया
[तै. सं. ७.१.५.१] । तैत्तिरीय ब्राह्मण में यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गई है, जिसके अनुसार ब्रह्मा के नाभिकमल के निचले भाग में स्थित कीचड प्रजापति ने वराह का रुप धारण कर क्षीरसागर से उपर लाया, एवं उसे ब्रह्मा के नाभिकमल के पन्नों पर फैला दिया । आगे चल कर उसी कीचड ने पृथ्वी का रुप धारण किया
[तै. ब्रा. १.१.३] ।
वराह n. इन ग्रंथों में निर्दिष्ट विष्णु के अवतार प्रायः ‘ वराह अवतार ’ से ही प्रारंभ होता हैं । हिराण्याक्ष नामक असुर पृथ्वी का हरण कर उसे पाताल में ले गया । उस समय विष्णु ने वराह का रुप धारण कर, अपने एक ही दॉंत से पृथ्वी को उपर उठा कर समुद्र के बाहर लाया, एवं उसकी स्थापना शेष नाग के मस्तक पर की । तत्पश्चात् उसने हिराण्याक्ष का भी वध किया
[म. व. परि. १. क्र. १६. पंक्ति. ५६ - ५८, क्र. २७. पंक्ति. ४७ -५०] ;
[म.शां. २६०] ;
[मत्स्य. ४७.४७.२४७ - २४८] ;
[भा. १.३.७, २.७.१, ३.१३.३१] ;
[लिंग. १.९४] ;
[वायु. ९७.७] ;
[ह. वं. १.४१] ;
[पद्म. उ. १६९, २३७] । विष्णु का यह अवतार वाराह - कल्प के प्रारंभ में हुआ
[वायु. २३.१०० -१०९] । कई पुराणों में इसका स्वरुपवर्णन प्राप्त है, जहॉं इसे चतुर्बाहु, चतुष्पाद, चतुर्नेत्र एवं चतुर्मुख कहा गया है । हिरण्याक्ष के वध के पश्चात् इसने यथाविधि श्राद्ध किया था
[म. शां. ३३३.१२ - १७] ।
वराह n. जिस स्थानपर इसने पृथ्वी का उद्धार किया, उस स्थान को ‘ वराहतीर्थ ’ कहते हैं
[म. व. ८१.१५] ;
[पद्म. उ. १६९] । वराह पुराण के अनुसार, यह ‘ वराहक्षेत्र ’ अथवा ‘ कोकामुखक्षेत्र ’ बंगाल में त्रिवेणी नदी के तट पर नाथपूर ग्राम के पास स्थित है
[वराह. १४०.] । गंगानदी के तट पर सोरोन ग्राम में वराह - लक्ष्मी का मंदीर हैं
[वराह. १३७] ।
वराह n. विष्णु के दस अवतारों में से मत्स्य, कूर्म एवं वराह ये ‘ दिव्य ’, अर्थात मनुष्य जाति के उप्तत्ति के पूर्व के अवतार माने जाते हैं । विष्णु के मानुषी अवतार अर्धमनुष्याकृति नृसिंह से, एवं वामन अवतार से प्रारंभ होते है । इससे प्रतीत होता है कि, मत्स्य, वराह एवं कूर्म अवतार पृथ्वी के उस अवस्था में उत्पन्न हुए थे, जिस समय पृथ्वी पर कोई भी मनुष्य प्राणि का अस्तित्व नहीं था । प्राणिजाति की उत्क्रान्ति के दृष्टि से भी मत्स्य, कूर्म, वराह यह क्रम सुयोग्य प्रतीत होता है । क्यों कि, प्राणिशास्त्र के अनुसार सृष्टि में सर्वप्रथम जलचर प्राणि ( मत्स्य ) उत्पन्न हुए, एवं तप्तश्चात् क्रमशः जमीन पर घसीट कर चलनेवाले ( कूर्म ) , स्तनोंवाले ( वराह ), एवं अन्त में मनुष्यजाति का निर्माण हुआ । इस प्रकार पुराणों में निर्दिष्ट विष्णु के दैवी अवतार प्राणिजाति के उत्क्रान्ति के क्रमशः विकसित होनेवाले रुप प्रतीत होते हैं । प्राणिशास्त्र की दृष्टि से, प्राणीजाति के उत्पत्ति के पूर्व समस्त सृष्टि जलमय थी, जहां के कीचड में सर्वप्रथम प्राणिजाति की उत्पत्ति हुई । इस दृष्टि से देखा जाये तो, प्रजापति ने वराह का रुप धारण कर समुद्र का सारा कीचड पानी के बाहर लाया, एवं उसी कीचड से सर्वप्रथम पृथ्वी का, एवं तत्पश्चात पृथ्वी के प्राणिसृष्टि का निर्माण किया, यह तैत्तिरीय ब्राह्मण में निर्दिष्ट कल्पना उत्क्रान्तिवाद की दृष्टि से सुयोग्य प्रतीत होती है । वैदिक वाडमय में सर्वत्र ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माण करनेवाला देवता माना गया है, जिसका स्थान ब्राह्मण एवं पौराणिक ग्रंथों में क्रमशः प्रजापति एवं विष्णु के द्वारा लिया गया है ( ब्रह्मन्, विष्णु एवं प्रजापति देखिये ) । यही कारण है कि, ब्राह्मण एवं पौराणिक ग्रंथों में वराह को क्रमशः प्रजापति एवं विष्णु का अवतार कहा गया है ।
वराह II. n. युधिष्ठिर की सभा का एक ऋषि
[म. स. ४.१५] ।