वरुण n. एक सर्वश्रेष्ठ वैदिक देवता, जो वैदिक साहित्य में आकाश का, एवं वैदिकोत्तर साहित्य में समुद्र का प्रतीक माना गया है ।
वरुण n. इंद्र के साथ वरुण भी एक महत्तम देवता माना गया है । नियमित रुप से प्रकाशित होनेवाले मित्र ( सूर्य ) देवता से संबंधित होने के कारण, वैदिक साहित्य में वरुण सृष्टि के नैतिक एवं भौतिक नियमों का सर्वोच्च प्रतिपालक माना गया है । वैदिकोत्तर साहित्य में, सृष्टि के सर्वोच्च देवता के रुप में प्रजापति का विकास होने पर, वरुण का श्रेष्ठत्त्व धीरे धीरे कम होता गया, एवं इसके भूतपूर्व अधिराज्य में से केवल जल पर ही इसका प्रभुत्व रह गया । इसी कारण उत्तरकालीन साहित्य में यह केवल समुद्र की देवता बन गया ।
वरुण n. वरुण का मुख ( अनीकम् ) अग्नि के समान तेजस्वी है, एवं सूर्य के सहस्त्र नेत्रों से यह मानवजाति का अवलोकन करता है
[ऋ. ७.३४, ८८] । इसी कारण इसे ‘ सूर्यनेत्री ’ कहा गया है
[ऋ. ७.६६] । मित्र एवं त्वष्ट के भॉंति यह सुंदर हाथोंवाला ( सुपाणि ) है, एवं एक स्वर्णद्रापि एवं द्युतिमत् वस्त्र यह परिधान करता है
[ऋ. १०.२५] । इसका रथ सूर्य के समान् द्युतिमान् है, जिसमें स्तंभों के स्थान पर नध्रियॉं लगी है
[ऋ. १.१२२] । शतपथ ब्राह्मण में इसे श्वेतवर्ण, गंजा एवं पीले नेत्रोंवाला वृद्ध पुरुष कहा गया है
[श. ब्रा. १३.३.६] ।
वरुण n. मित्र एवं वरुण का गृह स्वर्णनिर्मित है, एवं वह द्युलोक में स्थित है
[ऋ. ५.६७] । इसके गृह में सहस्त्रद्वार है, यहॉं यह सहस्त्र स्तंभोवाले आसन ( सदस ) पर बैठता है
[ऋ. ५.६८] । अपने इस भवन में ( पस्त्यासु ) बैठ कर यह समस्त सृष्टि को अवलोकन करता है
[ऋ. १.२५] । सर्वदर्शी सूर्य अपने गृह से उदित हो कर, मनुष्यों के क्रुत्यों की सूचना मित्र एवं वरुणों को देता है
[ऋ. ७.६०] ।
वरुण n. वरुण के गुप्तचर ( स्पशः ) द्युलोक से उतर कर संसार में भ्रमण करते हैं, एवं सहस्त्र नेत्रों से युक्त होने के कारण, संपूर्ण संसार का निरीक्षण करते है
[अ. वे. ४.१६] । संभवतः आकाश में स्थित तारों को ही वरुण के दूत कहा गया है । ऋग्वेद में सूर्य को ही वरुण का स्वर्ण पंखोंवाला दूत कहा गया है
[ऋ. १०.१२३] । ईरान के ‘ मिश्र ’ देवता के गुप्तचर भी ‘ स्पश् ’ नाम से प्रसिद्ध हैं, जो वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट मित्र एवं वरुणों के गुप्तचरों से काफी मिलते जुलते हैं ।
वरुण n. अकेले एवं मित्र के साथ वरुण को देवों का, मनुष्यों का तथा समस्त संसार का राजा ( सम्राट् ) कहा गया है
[ऋ. १.१३२, ५.८५] । ऋग्वेद में यह उपाधि प्रायः इंद्र को प्रदान की जाती है, किन्तु वह वरुण को इंद्र से भी अधिक बार प्रदान की गयी है । ऋग्वेद में अन्यत्र इसके सार्वभौम सत्ता ( क्षत्र ) का, एवं एक शासक के नाते ( क्षत्रिय ) इसका अनेक बार निर्देश प्राप्त है । वरुण को प्रकृति के नियमों का महान् अधिपति कहा गया है । इसने द्युलोक एवं पृथ्वी की स्थापना की, एवं इसके विधान के कारण ही द्युलोक एवं पृथ्वी अलग अलग हैं
[ऋ. ६.७०, ८.४२] । इसने ही अग्नि की जल में, सूर्य की आकाश में, एवं सों की पर्वतों पर स्थापना की
[ऋ. ५.८५] । वायुमंडळ में भ्रमण करनेवाला वायु वरुण का ही श्वास है
[ऋ. ७.८७] । पृथ्वी पर रात्रि एवं दिनों की स्थापना वरुण के द्वारा ही की गई है, एवं उनका नियमन भी यही करता है । रात्रि में दिखाई देनेवाले चंद्र एवं तारका इसके कारण ही प्रकाशित होते है
[ऋ. १.२४] । इस प्रकार जहॉं मित्र केवल दिन के दिव्य प्रकाश का अधिपति है, वहॉं वरुण को रात एवं दिन दोनों के ही प्रकाश का अधिपति माना गया है ।
वरुण n. ऋग्वेद में मित्र एवं वरुण को अनेक बार असुर ( रहस्यमय व्यक्ति ) कहा गया है
[ऋ. १.३५.७, २.७.१०, ७.६५.२, ८.४२.१] । इसे एवं मित्र को रहस्यमय एवं उदात्त ( असुरा आर्या ) भी कहा गया है
[ऋ. ७.६५] । ऋग्वेद में अन्यत्र इसके माया ( गुह्यशक्ति ) का निर्देश प्राप्त है, एवं अपनी इस माया के द्वारा सूर्यरुपी परिमापनयंत्र के द्वारा यह पृथ्वी को नापता है, ऐसा भी कहा गया है
[ऋ. ५.८५] । यहां ‘ असुर ’ एवं ‘ गुह्यशक्ति ’ ये दोनों शब्द गौरव के आशय में प्रयुक्त किये गये हैं ।
वरुण n. डॉ. रा. ना. दांडेकरजी के अनुसार, समस्त सृष्टि का संचालन करने की ‘ यात्त्वामक ’ अथवा आसुरी शक्ति वरुण के पास थी, जिस कारण इसे वैदिक साहित्य में असुर ( असु नामक शक्ति से युक्त ) कहा गया है । इसी आसुरी माया के कारण, वरुण निसर्ग, देव एवं मनुष्यों का सम्राट बन गया था, एवं इसी अपूर्व शक्ति के कारण, वैदिक साहित्य में वरुण को यक्षिन् ( जादुगार ) कहा गया है
[ऋ. ७.८८.६] । वरुण की इस आसुरी शक्ति का उदगम निम्नप्रकार बताया जा सकता है । वैदिक आर्यों ने जब देखा की, इस सृष्टि का जीवनक्रम प्रचंड हो कर भी अत्यंत नियमबद्ध एवं व्यवस्थापूर्ण है, तब इस नियमबद्ध सृष्टि का संचालन करनेवाले देवता की कल्पना उनके मन में उत्स्फूर्त हो गयी । आकाश में प्रतिदिन प्रकाशित हो कर अस्तंगत होनेवाले सूर्य चंद्र एवं तारका; अपने नियत मार्ग से बहनेवाली नदियॉं; एवं अपने नियत क्रम से बदलनेवाली ऋतु को देख कर, इस सारे विश्वचक्र का संचालन करनेवाली कोई न कोई अदृश्य देवता होनी ही चाहिए, ऐसी धारणा उनके मन में उत्पन्न हुई । इसी अदृश्य शक्ति अथवा देवता को वैदिक आर्यों के द्वारा वरुण कहा गया, एवं यह अपने दैवी शक्ति ( माया ) के द्वारा सृष्टि का संचालन करता है, यह कल्पना प्रसृत हो गई । वैदिक साहित्य के अनुसार, वरुण अपने सृष्टिसंचालन का यह कार्य सृष्टि के सारे चर एवं अचर वस्तुमात्रों को बंधन में रख का करता है । अपनी ‘ माया ’ के कारण वरुण ने अनेक पाश निर्माण कियें हैं, जिनकी सहाय्यता से पृथ्वी के समस्त नैसर्गिक शक्तियों को यह बॉंध देता है, एवं इसी प्रकार सारे सृष्टि का नियमन करता है । इतना ही नहीं, यह धैर्यशाली ( धृतवत् ) देवता अपने नियमनों के द्वारा वैश्विक धर्म ( ऋत ) का संरक्षण करने के लिए पापी लोगों का शासन भी करता है । इस तरह वैदिक साहित्य में वरुण देवता के दो रुप दिखाई देते हैं: - १. बंधक वरुण, जो सृष्टि के सारे नैसर्गिक शक्तियों को बॉंध कर योजनाबद्ध बनाता है, २. शासक वरुण, जो अपने पाशों के द्वारा आज्ञा पालन न करनेवाले लोगों को शासन करता है । आगे चल कर वैदिक आर्यों को अनेकानेक मानवी शत्रुओं के साथ सामना करना पडा, जिस कारण युद्ध में शत्रु पर विजय प्राप्त करनेवाले विजिगिषु एवं जेतृस्वरुपी नये देवता की आवश्यकता उन्हें प्राप्त होने लगी । इसीसे ही इंद्र नामक नये देवता का निर्माण वैदिक साहित्य में निर्माण हुआ, एवं आर्यों के द्वारा अपने नये युयुत्सु ध्येय - धारणा के अनुसार, उसे राष्ट्रीय देवता के रुप में स्वीकार किया गया । इंद्र के प्रतिष्ठापना के पश्चात्, वरुणदेवता की ‘ विश्वव्यापी सम्राट् ’ उपाधि धीरे धीरे विलीन हो गई, एवं सृष्टि के अनेक विभागोंमें से, केवल समुद्र के ही स्वामी के रुप में उसका महत्व मर्यादित किया गया ।
वरुण n. अथर्ववेद में वरुण एक सार्वभौम शासक नही, बल्कि केवल जल का नियंत्रक बताया गया है
[अ. वे. ३.३] । ब्राह्मण ग्रंथों में भी मित्र एवं वरुण को वर्षा के देवता माने गयें हैं । जलोदार से पीडित व्यक्ति का निर्देश वैदिक साहित्य में ‘ वरुणगृहीत ’ नाम से किया गया है
[तै. सं. २.१.२.१] ;
[श. ब्रा. ४.४.५.११, ऐ. ब्रा. ७.१५] । अथर्ववेद में निर्दिष्ट यह कल्पना ऋग्वेद में निर्दिष्ट वरुणविषयक कल्पना से सर्वथा भिन्न है । ऋग्वेद में वरुण को नदियों का अधिपति एवं जल का नियामक जरुर बताया गया है । किन्तु वहॉं इसे सर्वत्र सामान्य जल से नहीं, बल्कि अंतरिक्षीय जल से संबधित किया गया है । यह मेघमंडळ के जल में विचरण करता है, एवं वर्षा कराता है । ऋग्वेद का एक संपूर्ण सूक्त इसकी वर्षा करने की शक्ति को अर्पित किया गया है
[ऋ. ५.६३] । किन्तु वहॉं सर्वत्र वरुण का निर्देश नैसर्गिक शक्तियों का संचालन करनेवाले देवता के रुप में है, जहॉं जल का महत्व प्रासंगिक है । वैदिकोत्तर साहित्य में वरुण का सारा सामर्थ्य लुप्त हो कर, यह केवल समुद्र के जल का अधिपति बन गया ।
वरुण n. वरुण शब्द संभवतः वर ( ढकना ) धातु से उत्पन्न हुआ है, एवं इस प्रकार इसका अर्थ ‘ परिवृत करनेवाला ’ माना जा सकता है । सायण के अनुसार, ‘ वरुण ’ की व्युत्पत्ति ‘ पापियों को बंधनो से परिवेष्टित करनेवाला ’
[ऋ. १.८९] अथवा ‘ पापियों को अंधकार की भॉंति अच्छादित करनेवाला ’
[तै. सं. २.१.७] बतायी गयी है । किंतु डॉ. दांडेकरजी के अनुसार, वैदिक, साहित्य में वरुण शब्द का अर्थ ‘ बन्धन मैं रखना ’ अभिप्रेत है, एवं इस शब्द का मूल किसी युरोभारतीय भाषा में ढूंढना चाहिए ।
वरुण n. ओल्डेनबर्ग के अनुसार, वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट मित्र एवं वरुण भारोपीय देवता नहीं है, बल्कि इनका उदगम ज्योतिषशास्त्र में प्रवीण सेमेटिक लोगों में हुआ था, जहॉंसे वैदिक आर्यों ने इनका स्वीकार किया । इस प्रकार वरुण एवं मित्र क्रमशः चंद्र एवं सूर्य थे, तथा लघु आदित्यगण पॉंच ग्रहों का प्रतिनिधित्व करते थे
[ओल्डेनबर्ग, वैदिक रिलिजन २८५.९८] ।
वरुण n. इस ग्रंथ में इसे चौथा लोकपाल, आदिति का पुत्र, जल का स्वामी एवं जल में ही निवास करनेवाला देवता बताया गया है । कश्यप के द्वारा अदिति से उत्पन्न द्वादश आदित्यों में से यह एक था
[म. आ. ५९.१५] । इसे पश्चिम दिशा का, जल का एवं नागलोक का अधिपति कहा गया है
[म. स. ९.७] ;
[म.उ. ८६. २०] । इसने अन्य देवताओं के साथ ‘ विशाखयूप ’ में तपस्या की थी, जिस कारण वह स्थान पवित्र माना गया है
[म. व. ८८.१२] । इसे देवताओं के द्वारा ‘ जलेश्वरपद ’ पर अभिषेक किया गया था
[म. श. ४६.११] । सों की कन्या भद्रा से इसका विवाह होनेवाला था । किंतु उसका विवाह सों ने उचथ्य ऋषि से करा दिया । तत्पश्चात क्रुद्ध हो कर इसने भद्रा का हरण किया, किन्तु उचर्थ्य के द्वारा सारा जल पिये जाने पर इसने उसकी पत्नी लौटा दी
[म. अनु. १५४.१३ - २८] ।
वरुण n. अग्नि ने इसकी उपासना करने पर, इसने उसे दिव्य धनुष, अक्षय तरकस एवं कपिध्वज - रथ प्रदान किये थे
[म. आ. २१६.१ - २७] । इसने अर्जुन को पाश नामक अस्त्र प्रदान किया था
[म. व. ४२. २७] । ऋचीक मुनि को इसने एक हजार श्यामकर्ण अश्व प्रदान किये थे
[म. व. ११५.१५ - १६] । इसने स्कंद को यम एवं अतियम नामक दो पार्षद प्रदान किये थे
[म. श. ११.४१ पाठ.] । इसने अपने पुत्र श्रुतायुध को एक गदा प्रदान की थी, एवं उसके प्रयोग के नियम उसे बताये थे
[म. द्रो. ६७.४९] । रावण के बंदिशाला से सीता की मुक्ति होने के पश्चात्, वह निष्कलंक होने के संबंध में इसने राम को विश्वास दिलाया था
[म. व. २७५.२८] ।
वरुण n. इसकी ज्येष्ठ पत्नी का नाम देवी ( ज्येष्ठा ) था, जो शुक्राचार्य की कन्या थी । उससे इसे बल, अधर्म एवं पुष्कर नामक एक पुत्र, एवं सुरा नामक एक कन्या उत्पन्न हुई थी
[म. आ. ६०.५१ - ५२] ;
[म.उ. ९६.१२] । इसकी अन्य पत्नी का नाम वारुणी अर्थात् गौरी था, जिससे इसे गो नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था
[म. स. ९.६.९७*, ९.१०८*] । इसकी तृतीय पत्नी का नाम शीततोया था, जिससे इसे श्रुतायुध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था ( श्रुतायुध देखिये ) । इनके अतिरिक्त, जनक की सभा का सुविख्यात ऋषि बन्दिन् इसीका ही पुत्र था
[म. व. १३४.२४] । रुद्र के यज्ञ से उत्पन्न हुए भृगु, अंगिरस् एवं कवि नामक तीन पुत्रों में से, इसने भृगु का पुत्र के रुप में स्वीकार किया था । इसके कारण यही पुत्र ‘ भृगु वारुणि ’ नाम से सुविख्यात हुआ
[म. अनु. १३२.३६] ; भृगु वारुणि देखिये । अगस्त्य एवं वसिष्ठ ऋषियों को भी मित्रावरुणों के पुत्र कहा गया है विवस्वत् देखिये ।
वरुण II. n. एक आदित्य, जो बारह आदित्यों में से नौवॉं आदित्य माना जाता है । यह श्रावण माह में प्रकाशित होता है
[भावि. बाह्म. ७८] । भागवत के अनुसार, यह शुचि ( आषाढ ) माह में प्रकाशित होता है, एवं इसकी चौदह सौ किरणें रहती हैं
[भा. १२.११] । इसकी पत्नी का नाम चर्षणी था, जिससे इसे भृगु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था
[भा. ६.१८.४] ।
वरुण III. n. एक मरुत्, जो मरुतों के तीसरे गण में शामिल था ।
वरुण IV. n. एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं मुनि के पुत्रों में से एक था
[म. आ. ५९.४१] ।