वानर n. दक्षिण भारत में निवास करनेवाला एक प्राचीन मानवजातिसमूह, जिसका अत्यंत गौरवपूर्ण उल्लेख वाल्मीकि-रामायण में प्राप्त है । इन लोगों का राज्य किष्किंधा में था एवं वालिन, सुग्रीव एवं अगद उनके राजा थे । वानरराज सुग्रीव का प्रमुख अमात्य हनुमत् था, जो आगे चल कर भारतीयों की प्रमुख देवता बन गया। सुग्रीव, हनुमत् आदि वानरों की सहाय्यता से ही राम दाशरथि ने लंका के बलाढ्य राक्षस राजा रावण को परास्त किया (राम दशरथि देखिये) ।
वानर n. रामायण में निर्दिष्ट वानर, मनुष्यों की तरह बुद्धिसंपन्न हैं, मानवभाषा बोलते हैं, कपड़े पहनते हैं, घरों में निवास करते हैं, विवाह संस्कार को मान्यता देते है । एवं राजा के शासन के अधीन रहते है । इससे स्पष्ट है कि, रामायणकाल में ये लोग आज की तरह गिरे हुए जानवर नहीं, बल्कि वास्तव में एक मानवजाति के लोग थे ।
वानर n. इन ग्रंथों में वानरों को हरि नामांतर दिया गया है, एवं उन्हें पुलह एवं हरिभद्रा की संतान बताया गया है । ब्रह्मांड के अनुसार, पुलह ऋषि की कुल बारह पत्नियाँ थी, जो क्रोधा की कन्याएँ थी । उनके नाम निम्न थेः---१. हरिभद्रा; २. मृगी; ३. मृगमंदा; ४. इरावती; ५. भूता; ६. कपिशा; ७. दंष्ट्रा; ८. ऋषा, ९. तिर्या; १०. श्र्वेता; ११. सरमा; १२. सुरसा
[ब्रह्मांड. ३.७. १७१-१७३] । अपनी उपर्युक्त पत्नियों से पुलह को अनेकानेक प्राणि पुत्र के रूप में प्राप्त हुए, जिनमें से हरिभद्रा की संतति निम्नप्रकार थी;---वानर, गोलांगुल, नील, द्वीपिन्, नील, मार्जार, तरक्षु, किन्नर। हरिभद्रा नामक माता से उत्पन्न होने के कारण, वानरों को ‘हरि’ नामांतर प्राप्त हुआ।
वानर n. ब्रह्मांड में वानरों के ग्यारह प्रमुख कुल दिये है, जिनके नाम निम्नप्रकार हैः- द्वीपिन्, शरभ, सिंह, व्याघ्र, नील, शल्यक, कक्ष, मार्जार, लोहास, वानर, मायाय। ये सारे वानर किष्किंधा में रहते थे, एवं उनका राजा वालिन् था
[ब्रह्मांड. ३.७.१७६,३२०] ।
वानर n. ब्रह्मांड में ऋक्ष, सुग्रीव, केसरी एवं अग्नि इन चार प्रमुख वानरों के वंश निम्नप्रकार दिये गये हैः-- (१) ऋक्षशाखाः ऋक्ष (पत्नी विरजाकन्या चारुहासिनी)-महेंद्र-सुग्रीव एवं वालिन् (पत्नी सुपेणकन्या तारा) - अंगद (मैंदकन्या) - ध्रुव
[ब्रह्मांड. ३.७.२४६-२७५] । (२) सुग्रीवशाखा;---ऋक्ष-सुग्रीव (पत्नी पनसकन्या रुमा) - तीन पुत्र। (3) केसरीशाखा;---केसरिन् (पत्नी कुंजरकन्या अंजना)- हनुमत्, श्रुतिमत्, केतुमत्, मतिमत्, धृतिमत्। (4) अग्निशाखा;---अग्नि-नल-तार, कुसुम, पनस, गंधमादन, रुपश्री, विभव, गवय, विकट, सर, सुषेण, सधनु, सुबंधु, शतदुंदुभि आदि
[ब्रह्मांड. ३.७.२४५] ।
वानर n. इन ग्रंथों में राक्षस एवं वानर इन दोनों को एक ही विद्याधरवंश की विभिन्न शाखाएँ मानी गयी है । ये दोनों जातियॉं मानववंशीय ही थी, किंतु उन्हे आकाशगमित्व, कामरूपित्त्व आदि ऐंद्रजालिक विद्याएँ अवगत थी । वानरवंशीय विद्याधरों की ध्वजाओं तथा महलों तथा के शिखरों पर वानर की प्रतिमा रहती थी ।
वानर n. चिं. वि. वैद्य के अनुसार, ये सचमुच ही वानर के समान दिखते थे, अतः इन्हे वानर नाम प्राप्त हुआ था । कई अन्य अभ्यासकों के अनुसार, आजकल के आदिवासियों के समान ये लोग वानर, ऋक्ष, गीध आदि की पूजा करते थे । इसी कारण इन विभिन्न प्राणियों की पूजा करनेवाले आदिवासियों को क्रमशः वानर, ऋक्ष (जांबवत्), एवं गीध (जटायु, संपति) नाम प्राप्त हुए। रे. बुल्के के अनुसार, रामकथा में निर्दिष्ट वानर विंध्यप्रदेश एवं मध्यभारत में रहनेवाली अनार्य जातियाँ थी । छोटा नागपूर में रहनेवाली उराओं तथा मुण्डा जातियों में, आज भी तिग्गा, हलमान, बजरंग, गड़ी नामक गोत्र प्राप्त हैं, जिन सब का अर्थ ‘बंदर’ ही है । सिंघभूम की भुईयाँ जाति के लोक अपना वंश ‘पवन’ अथवा ‘हनुमत’ बताते हैं
[बुरुके, रामकथा पृ. १२१-१२२] ।