विदुर n. एक नितिवेत्ता धर्मपुरुष, जो व्यास ऋषि का दासीपुत्र एवं कौरवों का मुख्यमंत्री था
[म. स. ५१.२०] । व्यास ऋषि के द्वारा, विचित्रवीर्य राजा की पत्नी अंबिका की दासी के गर्भ से यह उत्पन्न हुआ था
[ब्रह्म. १५४] ;
[भा. ९.२२] । महाभारत में वर्णित जीवन-चरित्रों में से विदुर एवं कर्ण ये दोनों शापित प्रतीत होते है, जिनका सारा पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता केवल हीन जन्म के दाग के कारण चूर मूर हो गया। इसी दाग के कारण, इन्हें सारा जीवन अवमानित अवस्था में जीना पड़ा, एवं अनेकानेक प्रकार के कष्ट उठाने पड़े। इसी ‘दैवायत्त’ शाप की कृष्णछाया कर्ण के समान विदुर के ही सारे जीवन को ग्रस्त करती हुई प्रतीत होती है । महाभारत में वर्णित व्यक्तियों में से कृष्ण, युधिष्ठिर, भीष्म एवं विदुर ये चार ही व्यक्ति, सत्य के मार्ग से चल कर अपने अपने पद्धति से जीवन का सही अर्थ खोजने का प्रयत्न करते है । इनमें से अध्यात्म का एक ब्रह्मज्ञान का अधिक बडिवार न करते हुए भी, सदाचरण, नीति एवं मानवता के परंपरागत पद्धति से, सत्य की खोज करनेवाला विदुर सचमुच ही एक धर्मात्मा प्रतीत होता है । विदुर केवल तत्त्वज्ञ ही नहीं, बल्कि श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ राजपुरुष भी था । धृतराष्ट्र, दुर्योधन, युधिष्ठिर आदि भिन्नभिन्न लोगों को सलाह देने का कार्य इसने आजन्म किया, परन्तु कभी भी अपने श्रेष्ठ तत्त्वों से एवं सत्यमार्ग से यह च्युत नही हुआ। धृतराष्ट्र के प्रमुख सलाहगार के नाते, यह उसे सत्य एवं शांति का मार्ग दिखाता रहा, परन्तु यह कार्य इसने इतनी सौम्यता से किया कि, इसके द्वारा कहे गये अप्रिय भाषण सुन कर भी धृतराष्ट्र आजन्म इसका मित्र ही रहा।
विदुर n. महाभारत में समस्त पात्रों में से केवल विदुर एवं कर्ण ही हीनयोनि के क्यों माने जाते हैं, यह एक अनाकलनीय समस्या है । विदुर के पाण्डु एवं धृतराष्ट्र ये दोनों भाई ‘नियोगज’ संतान थे, एवं अपने पिता विचित्रवीर्य की मृत्यु के पश्र्चात्, अंबालिका एवं अंबिका को व्यास के द्वारा उत्पन्न हुए थे । पांडवों का जन्म भी अपने पिता पांडु के द्वारा नहीं, बल्कि विभिन्न देवताओं के द्वारा हुआ था । ऐसी स्थिति में इन सारे लोगों को हीन जन्म का दोष न लगा कर, केवल विदुर एवं कर्ण ही इस दोष के शिकार क्यों बने हैं, यह निश्र्चित रूप से कहना मुष्किल है । इस विरोधाभास के केवल दो ही कारण प्रतीत होते है । एक तो क्षत्रिय स्त्रियों के द्वारा की गयी नियोग की विवाहबाह्य संतति महाभारत काल में धर्म्य मानी जाती थी, एवं दुसरा यह कि, व्यक्ति का कुल से मूल्यांकित किया जाता था । संभवतः इसी मातृप्रधान समाजव्यवस्था के कारण, अंबिका, अंबालिका एवं कुंती आदि के पुत्र उच्चकुलीन क्षत्रिय राजपुत्र कहलाये, एवं विदुर एवं कर्ण जैसे दासीपुत्र एवं सूतपुत्र हीनकुलीन माने गये।
विदुर n. कुरु राजा विचित्रवीर्य की निःसंतान अवस्था में मृत्यु होने के पश्र्चात्, उसकी माता सत्यवती ने अपनी स्नुषा अंबिका को व्यास से पुत्रप्राप्ति कराने की अज्ञा दी। अंबिका को व्यास से धृतराष्ट्र नामक अंधा पुत्र उत्पन्न हुआ। अतएव सत्यवती ने अंबिका को पुनः एक बार व्यास के पास जाने के लिए कहा। किन्तु उस समय अंबिका ने स्वयं न जा कर, अपनी दासी को व्यास के पास भेज दिया। तदुपरान्त उस दासी को व्यास से एक तेजस्वी एवं बुद्धिमान् पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम विदुर रखा गया
[म. आ. १००.२६-२७] । दासी से उत्पन्न होने के कारण, इसे ‘क्षत्ता’ भी कहते थे । शुद्रा के गर्भ से ब्राह्मण के द्वारा उत्पन्न होने के कारण, इसको राज्य की प्राप्ति न हुई थी ।
विदुर n. महाभारत में इसके पूर्वजन्म की कथा प्राप्त है । एक बार अणिमांडव्य ऋषि का यमधर्म से झगड़ा हुआ, जिसमें उसने यमधर्म को शुद्रयोनि में जन्म लेने का शाप दिया। उसी शाप के कारण, यमधर्म ने विदुर के रूप में जन्म लिया था
[म. आ. १०१. २५-२७] ; माण्डव्य देखिये ।
विदुर n. विदुर की प्रवृत्ति बाल्यकाल से ही धर्म तथा सत्य की और थी । भीष्म ने धृतराष्ट्र एवं पाण्डु के साथ इसका भी पालन-पोषण किया था । इसका पाण्डवों पर असीम स्नेह था, तथा यह उन्हें प्राणों से भी अधिक मानता था । इसने समय समय पर पाण्डवों का साथ दिया, उन्हें सांत्वना दी, तथा मृत्यु से बचाया। भीमसेन जब नागलोग में चला गया था, तब इसने कुंती का धीर बधाया था । दुर्योधन के द्वारा पाण्डवों को लाक्षागृह में जलवा देने की योजना इसी के ही कारण असफल हुई। इसने कौरवों के षड्यंत्र से बचने के लिए, सांकेतिक भाषा में युधिष्ठिर को सारे वस्तुस्थिति का ज्ञान कराया। लाक्षागृह में सुरंग बनाने के लिए इसने खनक नामक अपने दूत को पाण्डवों के पास भेजा था । लाक्षागृह से मुक्तता होने के पश्र्चात्, एक मॉंझी की सहाय्यता से इसने उन्हें गंगा नदी के पार पहुचाने के लिए सहाय्यता की थी । लाक्षागृहदाह की वार्ता सुन कर दुःखित हुए भीष्म को, वस्तुस्थिति का ज्ञान इसने ही कराया था
[म. आ. १३५-१३७] ।
विदुर n. यह अत्यंत निःस्पृह राजनीतिशास्त्रज्ञ था, जिस कारण अंधे धृतराष्ट्र राजा ने इसे अपने मुख्य मंत्री नियुक्त किया था, एवं यद्यपि यह उसने उम्र में छोटा था, फिर भी वह इसीके ही सलाह से राज्य का कारोबार चलाता था । दुर्योधन एवं शकुनि के द्वारा द्यूतक्रीडा का षड्यंत्र जब रचाया गया, तब इसने संभाव्य दुष्परिणामों की चेतावनी धृतराष्ट्र को दी थी । इसने द्यूतक्रिडा का तीव्र विरोध किया था, तथा जुएँ के अवसर पर दुर्योधन की कटु आलोचना की थी । जिस समय दुर्योधन ने द्रौपदी को पकड़ कर सभाभवन में लाने का आदेश दिया, उस समय इसने पुनः एक बार दुर्योधन को चेतावनी दी। सभागृह में द्रौपदी ने भीष्म से अपनी रक्षा करने के लिए कई तात्विक प्रश्र्न पुछे, तब इसने प्रह्लाद-सुधन्वन् के आख्यान का स्मरण भीष्म को दे कर, द्रौपदी के प्रश्र्नों का विचारपूर्वक जबाब देने के लिए उसने प्रार्थना की थी
[म. स. ५२-८०] । किन्तु इसके सारे प्रयत्न दुर्योधन की जिद्द एवं धृतराष्ट्र की दुर्बलता के कारण सदैव असफल ही रहे। पाण्डवों के वनवाससमाप्ति के पश्र्चात्, इसने उसका राज्य वापस देने के लिए धृतराष्ट्र को काफ़ी उपदेश दिया। इस समय इसने अतीव राज्यतृष्णा एवं कौटुंबिक कलह के कारण, राजकुल विनाश की गर्ता में किस तरह जाते हैं, इसका भी विदारक चित्र धृतराष्ट्र को कथन किया था । श्रीकृष्णदौत्य के समय, श्रीकृष्ण को धोखे से कैद कर लेने की योजना दुर्योधन आदि ने बनायी। उस समय भी इसने उसे चेतावनी दी थी, ‘इस प्रकार का दुःसाहस तुमको मिटा देगा’
[म. उ. ९०] ।
विदुर n. कृष्णदौत्य के पूर्वरात्रि में, आनेवाले युद्ध की आशंका से धृतराष्ट्र अत्यधिक व्याकुल हुआ, एवं उसने सारी रात विदुर के साथ सलाह लेने में व्यतीत की। उस समय विदुर से धृतराष्ट्र के द्वारा दिया गया उपदेश महाभारत के ‘प्रजागर पर्व’ में प्राप्त है, जो ‘विदुरनीति’ नाम से सुविख्यात है । विदुर-नीति का प्रमुख उद्देश्य, संभ्रमित हुए धृतराष्ट्र को सुयोग्य मार्ग दिखलाना हैं, जो श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को कथन किये गये भगवद्गीता से साम्य रखता है । किन्तु जहाँ भगवद्गीता का सारा उद्देश्य अर्जुन को युद्धप्रवण करना हैं, वहाँ, ‘विदुरनीति’ में सार्वकालिन शांतिमय जीवन का एवं युद्धविरोध का उपदेश किया गया है । अपने द्वारा की गयी गलतियों के परिणाम मनुष्य ने भुगतना चाहिये, एवं इस प्रकार किया गया पश्र्चात्तापविधि एक तरह की तपस्या ही मानी जा सकती है, यह ‘विदुर-नीति’ का प्रमुख सूत्रवाक्य है । अपना यह तत्त्वज्ञान विदुर के द्वारा अनेकानेक नीतितत्त्व एवं सुभाषितों की सहायता से कथन किया गया है । जिस प्रकार उपनिषदों के बहुसंख्य विचार श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में अंतर्भूत किये है, उसी प्रकार तत्कालीन राजनीतिशास्त्रज्ञों के बहुत सारे विचार विदुर के द्वारा ‘विदुर-नीति’ में ग्रथित किये है । इन विचारों के कारण, महाभारत भारतीययुद्ध का इतिहास कथन करनेवाला एक सामान्य, इतिहास ग्रंथ न हो कर, राजनीतिशास्त्र का एक श्रेष्ठ ग्रंथ बन गया है । विदुर के द्वारा किये गये इस उपदेश से धृतराष्ट्र अत्यधिक संतुष्ट हुआ। किन्तु दुर्योधन के संबंध में अपनी असहाय्यता प्रकट करते हुए उसने कहा, ‘तुम्हारे द्वारा कथन की गयी नीति मुझे योग्य प्रतीत होती है । फिर भी दुर्योधन के सामने इन सारे उच्च तत्त्वों को मैं भूल बैठता हूँ’। तत्पश्र्चात् मनःशान्ती के लिए कुछ धर्मोपदेश प्रदान करने की प्रार्थना धृतराष्ट्र ने विदुर से की। इस पर विदुर ने कहा, ‘मैं शुद्र हूँ, इसी कारण तुम्हे धर्मविषयक उपदेश प्रदान करना मेरे लिए अयोग्य है’। तत्पश्र्चात विदुर के कहने पर, धृतराष्ट्र ने सनत्सुजात से अध्यात्मविद्याविषयक उपदेश सुना
[म. उ. ३३-४१] ; सनत्सुजात देखिये ।
विदुर n. इस प्रकार भारतीय-युद्ध रोकने में असफलता प्राप्त होने के कारण, यह अत्यधिक उदिग्न हुआ, एवं युद्ध में भाग न ले कर तीर्थयात्रा के लिए चला गया। विदुर के द्वारा किये गये इस तीर्थयात्रा का निर्देश केवल भागवत में ही प्राप्त है । भारतीय-युद्ध के समाप्ति की वार्ता इसे प्रभास क्षेत्र में ज्ञात हुयी। वहाँ से यमुना नदी ते तट पर जाते ही, इसे उद्धव से श्रीकृष्ण के महानिर्याण की वार्ता विदित हुई। मृत्यु केपूर्व श्रीकृष्ण ने कथन की ‘उद्धव-गीता’ इसने गंगाद्वार में मैत्रेय से पुनः सुन ली। यह मैत्रेय-विदुर संवाद तत्त्वज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है, जिसमें देवहूति-कपिलसंवाद, मनुवंशवर्णन, दक्षयज्ञ, ध्रुवकथा, पृथुकथा, पुरंजनकथा आदि विषय शामिल हैं
[भा. ३-४] ।
विदुर n. हस्तिनापुर के राजगद्दी पर बैठने के उपरांत, युधिष्ठिर ने अपने मंत्रिमंडल की रचना की, जिस समय राज्यव्यवस्था की मंत्रणा एवं निर्णय के मंत्री नाते विदुर की नियुक्ति की गयी थी । युधिष्ठिर के मंत्रिमंडल के अन्य मंत्री निम्न प्रकार थेः - भीम-युवराज; संजय-अर्थमंत्री; नकुल-सैन्यमंत्री; अर्जुन-परचक्रनिवारण मंत्री
[म. शा. ४१.८-१४] । युधिष्ठिर के अश्र्वमेघ यज्ञ के लिए धनप्राप्ति के हेतु अर्जुनादि पाण्डव हिमालय में धन लाने गये थे । वे हस्तिनापुर के सनीप आने पर, विदुर ने पुष्पमाला, चित्रविचित्र पताका, ध्वज आदि से हस्तिनापुर सुशोभित किया, एवं देवमंदिरों में विविध प्रकारों से पूजा करने की आज्ञा दी
[म. आश्र.69] । धृतराष्ट्र एवं गांधारी से मिलने के पश्र्चात्, पाण्डव विदुर से मिलने आये थे
[म. आश्र्व. ७०.७] ।
विदुर n. विदुर के कहने पर धृतराष्ट्र भागीरथी के पावन तट पर तपस्या करने लगा। इस प्रकार जिस नीति एवं मनःशांन्ति का उपदेश इसने धृतराष्ट्र को आजन्म किया, वह उसे प्रापत हुई। अपने जीवित की यह सफल फलश्रुति देख कर विदुर को अत्यधिक समाधान हुआ, एवं वल्कल परिधान कर यह शतयूपाश्रम एवं व्यासाश्रम में आ कर, धृतराष्ट्र एवं गांधारी की सेवा करने लगा। कालोपरान्त मन वश में कर के इसने घोर तपस्या करना प्रारंभ किया
[म. आश्र. २५] । विदुर के यकायक अंतधीन होने के कारण, युधिष्ठिर अत्यधिक व्याकुल हुआ। उसने धृतराष्ट्र से विदुर का पता पूछते हुए कहा, ‘मेरे गुरु, माता, पिता, पालक एवं सखा सभी एक विदुर ही है । उसे मैं मिलना चाहता हूँ ’। इस पर धृतराष्ट्र ने अरण्य में घोर तपस्या में संलग्न हुए विदुर का पता युधिष्ठिर को बताया। वहाँ जा कर युधिष्ठिर ने देखा, तो मुख में पत्थर का टुकडा लिए जटाधारी, कृशकाय विदुर उसे दिखाई पडा। यह दिगंबर अवस्था में था, एवं वन में उड़ती हुई धूल से इसका शरीर आवेष्टित था
[म. आश्र. ३३. १५-२०] ।
विदुर n. शुरू से ही विदुर की यही इच्छा थी कि, मृत्यु के पश्र्चात् इसके अस्तित्व की कोई भी निशानी बाकी न रहे। इसने कहा था, ‘जिस प्रकार प्रज्ञावान् मुनियों के कोई भी पदचिह्न भूमि पर नही उठते है, ठीक उसी प्रकार के मृत्यु की कामना मैं मन में रखता हूँ’। मृत्यु के सबंध में विदुर की यह कामना पूरी हो गयी, एवं विदुर को महाभारत के सभी व्यक्तियों से अधिक सुंदर मृत्यु प्राप्त हुई। जब युधिष्ठिर विदुर के पीछे वन में गया, तब किसी वृक्ष का सहारा ले कर यह खड़ा हो गया। पश्र्चात् युधिष्ठिर इसके आगे खड़े होने पर, यह उसकी ओर एकटक देखने लगा, एवं उसकी दृष्टि में अपनी दृष्टि ड़ाल कर एकाग्र हो गया। अपने प्राणों को उसके प्राणों में, तथा अपनी इंद्रियों को उसकी इंद्रियों में स्थापित कर, यह उसके भीतर समा गया। इस प्रकार योगबल का आश्रय लेकर यह युधिष्ठिर के शरीर में विलीन हो गया
[म. आश्र. ३३.२५] । पद्म के अनुसार, माण्डव्य ऋषि के द्वारा दिये गये शाप की अवधि समाप्त होते ही, यह साभ्रमती एवं धर्ममती नदियों के संगम पर गया। वहाँ स्नान करते ही शूद्रयोनि से मुक्ति पा कर, यह स्वर्गलोक चला गया
[पद्म. उ. १४१] । भागवत के अनुसार, इसने प्रभासक्षेत्र में देहत्याग किया था
[भा. १.१५.४९] ।
विदुर n. मृत्यु की पश्र्चात् विदुर का शरीर वृक्ष के सहारे खड़ा था । आँखे अब भी उसी तरह निर्निमिष थी, किन्तु अब वे चेतनारहित बन गयी थी । युधिष्ठिर ने विदुर के शरीर का दाहसंस्कार करने का विचार किया, किन्तु उसी समय आकाशवाणी हुयीः-- ज्ञानदग्वस्य देहस्य पुनदीहो न विद्यते।
[म. आश्र. ३५.३७*] । (ज्ञान से दग्ध हुए शरीर को अंतिम दाहकर्म की जरूरी नही होती है) । इससे प्रतीत होता है कि, महाभारतकाल में संन्यासियों का दाहकर्म धर्मविरूद्ध माना जाता था । जहाँ भीष्म जैसे सेनानी की लाश रेशमी वस्त्र एवं मालाएँ पहना कर चंदनादि सुगंधी काष्ठों से जलायी गयी, विदुर जैसे यति का मृतदेह बिना दाहसंस्कार के ही वन में छोड़ा गया
[म. अनु. १६८.१२-१८] ।
विदुर n. देवक राजा की ‘पारशवी’ कन्या से विदुर का विवाह हुआ था । अपनी इस पत्नी से विदुर को कई पुत्र भी उत्पन्न हुए थे, किन्तु विदुर के पत्नी एवं पुत्रों के नाम महाभारत में अप्राप्य है
[म. आ. १०६.१२-१४] ।
विदुर II. n. एक वेश्यागामी ब्राह्मण, जिसकी पत्नी का नाम बहुला था । अपनी पत्नी के द्वारा किये गये पुण्यों के कारण इसे मुक्तिप्राप्त हुई (बहुला देखिये) ।
विदुर III. n. पांचाल देश का एक क्षत्रिय, जो सोंवती अमावस्या के दिन प्रयोग के गंगासंगम में स्नान करने के कारण, ब्रह्महत्या के पातक से मुक्त हुआ
[पद्म. उ. ९१-९२] । पद्म में निर्दिष्ट इस कथा का संकेत संभवतः महाभारत में निर्दिष्ट धर्मात्मा विदुर से ही होगा, जिसे पूर्वजन्म में अणीमाण्डव्य ऋषि से शाप प्राप्त हुआ था (विदुर १. देखिये) ।
विदुर IV. n. पुरु राजा विडूरथ का नामान्तर (विडूरथ देखिये) ।