विश्वामित्र n. (सो. अमा.) एक सुविख्यात ऋषि, जो अपने युयुत्सु, विजिगिषु एवं युगप्रवर्तक व्यक्तित्व के कारण, वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में अमर हो चुका है । कान्यकुब्ज देश के कुशिक नामक सुविख्यात क्षत्रियकुल में उत्पन्न हुआ विश्र्वामित्र, ज्ञानोपासना एवं तपःसामर्थ्य के कारण, एक श्रेष्ठततम ऋषि एवं वैदिक सूक्तद्रष्टा आचार्य बन गया। इस कार्य में देवराज वसिष्ठ जैसे परंपरागत ब्राह्मण आचार्यों से इसे आमरण संघर्ष करना पड़ा। अंत में इस संघर्ष में पुरी तरह से यशस्वी हो कर, यह एवं इसके वंश के लोग सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण मानने जाने लगे, जो इसके जीवन की सब से बड़ी फलरुति कही जा सकती है ।
विश्वामित्र n. इसके ‘विश्र्वामित्र’ नाम की व्युत्पत्ति आरण्यक ग्रंथों में ‘विश्र्व का मित्र’ शब्दों में दी गयी है
[ऐ. आ. १.२.२] । व्याकरणशास्त्रीय दृष्टि से ‘विश्र्वामित्र’ एक अनियमित रूप है । पाणिनि के अनुसार ‘मित्र’ शब्द के पहले जब ‘विश्र्व’ शब्द का उपयोग होता है, एवं उस शब्द का अर्थ ऋषि होता है, तब उक्त शब्द ‘विश्र्वामित्र’ नही, बल्कि ‘विश्र्वामित्र’ बनता है
[पा. सू. ६.३.१३०] ।
विश्वामित्र n. विश्र्वामित्र का जन्म कान्यकुब्ज देश के सुविख्यात अमावसु वंश में हुआ था, एवं यह कुशिक राजा का पौत्र, एवं गाथिन् (गाधि) राजा का पुत्र था । इसका जन्मनाम विश्र्वरथ था । विश्र्वामित्र यह नाम इसे ब्राह्मण होने के पश्र्चात् प्राप्त हुआ। वेदार्थ दीपिका में विश्र्वामित्र के जन्म के संबंध में निम्न कथा प्राप्त है । इसका पितामह कुशिक स्वयं एक अत्यंत बलाढ्य राजा था, एवं अपने पिता इषीरथ के समान प्रजाहितदक्ष था । इंद्र के समान तेजस्वी पुत्र प्राप्त होने के लिए कुशिक ने तपस्या की। उस समय स्वयं इंद्र ने ही गाथिन् नाम धारण कर, कुशिक-पुत्र के रूप में जन्म लिया, एवं इसी गाधिन्रूपधारी इंद्र से विश्र्वामित्र का जन्म हुआ। इस प्रकार विश्र्वामित्र का वंशक्रम निम्नप्रकार कहा जा सकता हैः- इषीरथ--कुशिक--गाथिन् (इंद्र)---विश्र्वामित्र
[वेदार्थ. ३.१] । वाल्मीकि रामायण में विश्र्वामित्र का वंशक्रम निम्नप्रकार दिया गया हैः-- प्रजापति--कुश--कुशनाभ--गाथिन्--विश्र्वामित्र
[वा. रा. बा. ५१] ।
विश्वामित्र n. विश्र्वामित्र के पितामह कुशिक की पत्नी का नाम पौरुकुत्सी था, जो अयोध्या के पुरुकुत्स राजा की कन्या थी । इसकी बहन का नाम सत्यवती था, जिसका विवाह ऋचीक भार्गव ऋषि से हुआ था । सत्यवती के पुत्र का नाम जमदग्नि था । इस प्रकार जमदग्नि ऋषि एवं उसका पुत्र परशुराम जामदग्न्य ये दोनों विश्र्वामित्र के समवर्ती एवं निकट के रिश्तेदार थे ।
विश्वामित्र n. अपने पिता के पश्र्चात् विश्र्वामित्र कान्यकुब्ज देश का राजा बन गया। पुराणों में इसका निर्देश कुशिक एवं गाथिन् राजाओं का ‘दायाद’ (उत्तर कालीन राजा) नाम से किया गया है । आगे चल कर, इसने क्षत्रियधर्म का त्याग कर ब्राह्मण बनने का निश्र्चय किया, एवं यह सरस्वती नदी के किनारे ‘रूपंगु-तीर्थ’ पर तपस्या करने चला गया
[म. श. ३८.२२-३४, ४१.२३०७] ;
[वा. रा. बा. ५१-५६] । वायु के अनुसार, इसने ‘सागरानूप प्रदेश’ में तपस्या की थी
[वायु. ९१.९२-९३] । इन निर्देशों से प्रतीत होता है कि, विश्र्वामित्र का तपस्यास्थान आधुनिक राजपुताना के रेगिस्तान में कहीं था, जो प्रदेश प्राचीन काल में पश्र्चिम समुद्र का तटवर्ती प्रदेश माना जाता था । घोर तपस्या के द्वारा विश्र्वामित्र को ब्राह्मणत्व प्राप्त होने का निर्देश अनेकानेक वैदिक संहिता एवं ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त है
[का. स. १६.१९] ;
[मै. सं. २.७.१९] ;
[तै. सं. २.२.१.२] ;
[ऐ. ब्रा. ६.१८.१] ;
[कौ. ब्रा. १५.१] ;
[जै. उ. ब्रा. २.३.१३] ;
[ऐ. आ. २.२.३] ;
[बृ. उ. २.२.४] । इससे प्रतीत होता है कि, विश्र्वामित्र का यह वर्णांतर प्राचीन काल में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना मानी गयी थी ।
विश्वामित्र n. विश्र्वामित्र को क्षत्रियधर्म छोड़ कर ब्राह्मण बनने की इच्छा क्यों हुई, इस संबंध में एक कल्पनारम्य कथा महाभारत एवं वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है । एक बार यह वसिष्ठ ऋषि के आश्रम में अतिथि के नाते गया, जहाँ वसिष्ठ ने अपनी नंदिनी नामक कामधेनु की सहाय्यता से इसका उत्तम आदरातिथ्य किया। अनेकानेकदैवी गुणों से युक्त नंदिनी कामधेनु को देख कर, यह अत्यधिक प्रसन्न हुआ, एवं इसने उस धेनु की माँग वसिष्ठ से की। वसिष्ठ ने उसका इन्कार करने पर, यह उस धेनु की प्राप्ति के लिए अपना सारा राज्य देने के लिए सिद्ध हुआ। फिर भी वसिष्ठ ने इसे नंदिनी न दी। पश्र्चात् इसने अपने सैन्यबल से नंदिनी का हरण करना चाहा। किंतु उस धेनु से उत्पन्न हुए शक, यवन, पह्लव, बर्बर, किरात आदि लोगों ने विश्र्वामित्र की सेना को परास्त किया, एवं इस प्रकार नंदिनी का हरण करने का इसका प्रयत्न असफल ही रहा। तदुपरांत वसिष्ठ का पराजय करने के लिए इसने अनेकानेक प्रकार के अस्त्र संपादन करने के लिए, इसने अनेकानेक प्रकार के अस्त्र संपादन करने का निश्र्चय किया, एवं उस हेतु अत्यंत कठोर तपस्या भी की! किंतु अस्त्रप्राप्ति के पश्र्चात् भी वसिष्ठ अजेय ही रहा, एवं इसे जीवन में सर्वप्रथम ही साक्षात्कार हुआ कि, क्षत्रबल से ब्रह्मबल अधिक श्रेष्ठ है । पश्र्चात् वसिष्ठ के समान ब्रह्मबल प्राप्त करने के हेतु इसने स्वयंब्राह्मण बनने का निश्र्चय किया, एवं तत्प्रीत्यर्थ कौशिकी नदी और ‘रुषंगु तीर्थ’ पर घोर तपस्या करके यह ब्राह्मण बन गया
[म. व. ८५.९,१२] ;
[वा, रा. बा. ५१-५६] । महाभारत में प्राप्त उपर्युक्त कथा कालदृष्टि से विसंगत प्रतीत होती है । नंदिनी गाय का पालकर्ता वसिष्ठ ऋषि ‘वसिष्ठ देवराज’ न हो कर ‘वसिष्ठ अथर्वनिधि’ था, जो विश्र्वामित्र से काफ़ी पूर्वकालीन था (वसिष्ठ अथर्वनिधि देखिये) । फिर भी महाभारत में विश्र्वामित्र ऋषि के समकालीन देवराज वसिष्ठ को नंदिनी का पालनकर्ता चित्रित किया गया है । अतएव विश्र्वामित्र-वसिष्ठ संघर्ष की कारणपरंपरा बतानेवाली महाभारत में प्राप्त उपर्युक्त सारी कथा अनैतिहासिक प्रतीत होती है ।
विश्वामित्र n. ब्राह्मणपद प्राप्त होने के पश्र्चात्, विश्र्वामित्र ने अपनी पत्नी एवं पुत्र कोसल देश में स्थित एक आश्रम में रख दीं, एवं यह स्वयं पुनः एक बार सागरानूप तीर्थ पर तपश्र्चर्या करने चला गया। इसकी अनुपस्थिति में कोसल देश में बड़ा भारी अवर्षण आया, एवं विश्र्वामित्र की पत्नी एवं पुत्र भूख के कारण तड़पने लगे। अन्न प्राप्त कराने के लिए अपने एक पुत्र के गले में रस्सी बॉंध कर, उसे खुले बाजार में बेचने का आपत्प्रसंग विश्र्वामित्र ऋषि की पत्नी पर आया, जिस कारण उस पुत्र को ‘गालव’ नाम प्राप्त हुआ।
विश्वामित्र n. उस समय कोसल देश के त्रैय्यारूण राजा के पुत्र सत्यव्रत (त्रिशंकु) विश्र्वामित्रपत्नी की सहाय्यता की, तथा उसकी एवं विश्र्वामित्र पुत्रों की जान बचायी। त्रिशंकु स्वयं जंगल से शिकार कर के लाता था, एवं वह माँस विश्र्वामित्र के परिवार को खिलाया करता था । इन्हीं दिनों में एक बार त्रिशंकु राजा ने वसिष्ठ ऋषि केनंदिनी नामक गाय का वध कर, उसका मांस विश्र्वामित्र परिवार को खिलाने की कथा पुराणों में प्रतीत है । किन्तु जैसे पहले ही कहा गया है, नंदिनी का पालनकर्ता वसिष्ठ विश्र्वामित्र के समकालीन नहीं था । इसी कारण, यह कथा कल्पनारम्य एवं विश्र्वामित्र वसिष्ठ का शत्रुत्व बढ़ाने के लिए वर्णित की गयी प्रतीत होती है । बारह वर्षो के पश्र्चात् अपनी तपस्या समाप्त कर विश्र्वामित्र कोसल देश को लौट आया वहाँ अपने न होने के काल में त्रिशंकु ने अपने परिवार के लोगों की अच्छी तरह से देखभाल की, यह बात जान कर इसे त्रिशंकु के प्रति काफ़ी कृतज्ञता प्रतीत हुई। देवराज वसिष्ठ के द्वारा अयोध्या के राजगद्दी से पदभ्रष्ट किये गये उस राजकुमार को पुनः राजगद्दी पर बिठाने का आश्वासन इसने दे दिया।
विश्वामित्र n. आगे चल कर विश्र्वामित्र ने अयोध्या के राजपुरोहित देवराज वसिष्ठ को परास्त कर, त्रिशंकु को अयोध्या के राजगद्दी पर बिठाया। त्रिशंकु ने भी अपने राजपुरोहित देवराज वसिष्ठ को हटा कर उसके स्थान पर विश्र्वामित्र की नियुक्ति की, एवं इस प्रकार ब्राह्मण बन कर वसिष्ठतुल्य राजपुरोहित बनने की विश्र्वामित्र की आकांक्षा पूर्ण हो गयी।
विश्वामित्र n. आगे चल कर विश्र्वामित्र ने त्रिशंकु के अनेकानेक यज्ञों का अयोजन किया। यही नहीं, सदेह स्वर्गारोहण करने की उस राजा की इच्छा भी अपनी भी अपने तपःसामर्थ्य से पूरी की। इस संबंध में अपने पुराने शत्रु देवराज वसिष्ठ से इसे अत्यंत कठोर संघर्ष करना पड़ा। देवराज इंद्र के द्वारा त्रिशंकु के स्वर्गारोहण के लिए विरोध किये जाने पर, इसे उससे भी घोर संग्राम करना पड़ा। किन्तु अन्त में यह अपने कार्य में यशस्वी हो कर ही रहा (त्रिशंकु देखिये) । पार्गिटर के अनुसार, त्रिशंकु के स्वर्गारोहण की पुराणों में प्राप्त सारी कथा कल्पनारम्य प्रतीत होती है । आकाश में स्थित ग्रहों में से एक ग्रहसमूह को विश्र्वामित्र ने त्रिशंकु का नाम दिलवाया, यही इस कथा का तादृश अर्थ है । वाल्मीकि रामायण में भी, त्रिशंकु का वर्णन चंद्रमार्ग पर स्थित एक ग्रह के नाते गुरु, बुध, मंगल आदि अन्य ग्रहों के साथ किया गया है
[वा. रा. अयो. ४१.१०] । उपर्युक्त कथा में वर्णित इंद्र-विश्र्वामित्र संघर्ष भी कल्पनारम्य प्रतीत होता है, एवं देवराज वसिष्ठ से विश्र्वामित्र के द्वारा किये गये संघर्ष का वर्णन वहाँ देवराज इंद्र के संघर्ष में परिवर्धित किया गया है ।
विश्वामित्र n. विश्वामित्र के द्वारा त्रिशंकु को पुनः राज्य प्राप्त होने की घटना, अयोध्या के इक्ष्वाकु राजवंश के इतिहास में महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है । अयोध्या के पुरातन इक्ष्वाकु राजवंश को दूर हटा कर वहाँ अपना स्वयं का राज्य स्थापन करने का प्रयत्न देवराज वसिष्ठ कर रहा था । उसे असफल बना कर, इक्ष्वाकु राजवंश का अधिराज्य अबाधित रखने का कार्य विश्वामित्र ने किया। इस प्रकार, ‘त्रिशंकु-वसिष्ठ-विश्वामित्र’ आख्यान का वास्तव नायक इक्ष्वाकुराज त्रिशंकु ही है । उसे गौण स्थान प्रदान कर, विश्वामित्र एवं वसिष्ठ का जो संघर्ष रामायण महाभारतादि ग्रन्थों में सविस्तृत रूप में वर्णित किया गया है, वह अनैतिहासिक प्रतीत होता है ।
विश्वामित्र n. सत्यव्रत त्रिशंकु के राज्य काल में शुरू हुआ इसका एवं देवराज वसिष्ठ का संघर्ष सत्यव्रत के पुत्र हरिश्र्चंद्र, एवं पौत्र रोहित के राज्यकाल में चालु ही रहा। सत्यव्रत के सदेह स्वर्गारोहण के पश्र्चात्, उसके पुत्र हरिश्र्चंद्र ने विश्वामित्र को अपना पुरोहित नियुक्त किया। किन्तु उस के राजसूय यज्ञ में बाधा उत्पन्न कर, वसिष्ठ ने अपना पौरोहित्यपद पुनः प्राप्त किया। सत्यव्रत के विजनवास में, उसका पुत्र हरिश्र्चंद्र वसिष्ठ के ही मार्गदर्शन में पालपोस कर बड़ा हुआ था । अयोध्या के ब्राह्मण लोग भी पहले से ही विश्वामित्र के विरूद्ध थे । इन दोनों घटनाओं की परिणिति हरिश्र्चंद्र के राजसूय यज्ञ के समय हुई, जहॉं हरिश्र्चंद्र ने विश्वामित्र को दक्षिणा देने से इन्कार कर दिया। इस अपमान के कारण रुष्ट हो कर इसने अयोध्या का पुरोहितपद छोड़ दिया, एवं यह पुष्करतीर्थ में तपस्या करने के लिए चला गया।
विश्वामित्र n. इस संदर्भ में मार्कंडेय-पुराण में वसिष्ठ एवं विश्वामित्र के संघर्ष की, अनेकानेक कल्पनारम्य कथाएँ प्राप्त है, जहाँ विश्र्वामित्र के द्वारा हरिश्र्चंद्र राजा को दक्षिणा प्राप्ति के लिए त्रस्त करने की, इसने एक पक्षी बन कर वसिष्ठ पर आक्रमण करने का, एवं वसिष्ठ के सौ पुत्रों का वध करने का निर्देश प्राप्त है
[मार्क. ८-९] । इन तीनों कथाओं में से पहली दो कथाएँ संपूर्णतः कल्पनारम्य है, एवं तीसरी हरिश्र्चंद्रकालीन विश्वामित्र की न हो कर, सुदासकालीन विश्वामित्र की प्रतीत होती है (विश्वामित्र ४ देखिये) । हरिश्र्चंद्र के ही राज्यपाल में उसके पुत्र रोहित को यज्ञ में बलि देने का, एवं इक्ष्वाकु राजवंश को निर्वेश करने का षड्यंत्र वसिष्ठ के द्वारा रचाया गया था । किन्तु विश्वामित्र ने रोहित की, एवं तत्पश्र्चात् उसके स्थान पर बलि जानेवाले अपने भतीजे शुनःशेप की रक्षा कर, इक्ष्वाकु राजवंश का पुनः एक बार रक्षण किया। तदुपरांत विश्वामित्र ने शुनःशेप को अपना पुत्र मान कर, उसका नाम देवरात रख दिया
[ऐ. ब्रा. ७.१६] ;
[सां. श्रो. १५.१७] ; शुनःशेप देखिये ।
विश्वामित्र n. क्षत्रिय विश्र्वामित्र को ब्रह्मर्षिपद कैसे प्राप्त हुआ, इसकी कथाएँ वाल्मीकि रामायण एवं पुराणों में प्राप्त है । रुषंगु-तीर्थ पर तपस्या करने के कारण यह ब्राह्मण बना गया। शुनःशेप का संरक्षण करने के कारण, ब्रह्मर्षिपद प्राप्त हुआ। इतना होते हुए भी, क्रोध, मोह आदि विकार काबू में न रख सकता था । इसी कारण अपने तपस्या का भंग करने के लिए आयी हुई रंभा को इसने शिला बनाया था । पश्र्चात् काम क्रोध पर विजय पाने के लिए इसने पुनः एक बार तपस्या की, जिस कारण इसे जितेंद्रियत्व एव ब्रह्मर्षिपद प्राप्त हुआ
[वा. रा. बा. ६२-६६] ;
[स्कंद. ६.१.१६७-१६८] । ब्रह्मर्षिपद प्राप्त होने के पश्र्चात्, इसे इंद्र के साथ सोंपान करने का सन्मान प्राप्त हुआ
[म. आ. ६९.५०] । इंद्र के कृपापात्र व्यक्ति के रूप में आरण्यक ग्रंथों में इसका निर्देश प्राप्त है
[ऐ. आ. २.२.३] ;
[सां. आ. १.५] ।
विश्वामित्र n. विश्र्वामित्र को ब्रह्मर्षिपद कैसे प्राप्त हुआ, इस संबंध में एक कथा महाभारत में प्राप्त है । एक बार धर्म ऋषि इसके पास आया एवं इसके पास भोजन माँगने लगा। धर्म के लिए चावल पकाने लगा, जितने में वह चला गया। पश्र्चात् यह सौ वर्षों तक धर्मऋषि की राह देखते वैसा ही खड़ा रहा। इतने दीर्घकाल तक खड़े रह कर भी इसने अपनी मनःशांति नही छोड़ी, जिस कारण धर्म ने इसकी अत्यधिक प्रशंसा की, एवं इसे ब्रह्मर्षि-पद प्रदान किया
[म. उ. १०४.७-१८] । महाभारत में अन्यत्र त्रिशंकु-आख्यान, रंभा को शाप, विश्र्वामित्र के द्वारा कुत्ते का माँसभक्षण आदि इसके जीवन से संबंधित कथाएँ एकत्र रूप दी गयी है । भविष्यपुराण के अनुसार, ब्रह्मा को अत्यंत प्रिय ‘प्रतिपदा’ का व्रत करने के कारण, इसे देहान्तर न करते हुए भी ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हो गयी
[भवि. ब्राह्म. १६] । मृत्यु के पश्र्चात् यह शिवलोक गया, जो फल इसे हिरण्या नदी के संगम पर स्नान करने के कारण प्राप्त हुआ था
[पद्म. उ. १४०] ।
विश्वामित्र n. विश्र्वामित्र का आश्रम कुरुक्षेत्र में सरस्वती तीर नदी के पश्र्चिम तट पर स्थाणु-तीर्थ के सम्मुख था
[म. श. ४१.४-३७] । इस आश्रम के समीप, सरस्वती नदी पर स्थित रुषंगु-आश्रम में विश्वामित्र ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था
[म. शा. ३८.२२-३२] । विश्वामित्र का अन्य एक आश्रम आधुनिक बक्सार में ‘ताटका-वन’ के समीप था । महाभारत के अनुसार, इसका आश्रम कौशिकी नदी (उत्तर बिहार की आधुनिक कोशी नदी) के तट पर स्थित था एवं उस नदी का ‘कौशिकी’ नाम भी इसीके ‘कौशिक’ पैतृक नाम से प्राप्त हुआ था
[म. आ. ६५.३०] । यह वही पुण्य स्थान था, जहाँ पूर्वकाल में वामन ने बलि वैरोचन से त्रिपाद भूमि की माँग की थी । यही स्थानमहात्म्य जान कर इसने ‘सिद्धाश्रम’ में अपना आश्रम बनाया था
[वा. रा. बा. २७-२९] । संभवतः यह आश्रम आद्य विश्वामित्र ऋषि का न हो कर, रामायणकालीन विश्र्वामित्र महर्षि का होगा। इनके अतिरिक्त इसके देवकुण्ड (वेदगर्भपुरी), एवं विश्वामित्री नदी के तट पर स्थित अन्य दो आश्रमों का निर्देश भी प्राप्त है ।
विश्वामित्र n. विश्र्वामित्र के कुल एक सौ एक पुत्र थे, जिनमें से मँझले (इक्कावनवे) पुत्र का नाम मधुच्छन्दस् था । अपने भतिजे शुनःशेप को पुत्र मान लेने पर, विश्र्वामित्र ने उसे ‘देवरात’ नाम प्रदान कर, अपना ज्येष्ठ पुत्र नियुक्त किया, एवं अपने बाकी सारे पुत्रों को उसका ‘ज्येष्ठपद ’ मानने की आज्ञा दी। विश्र्वामित्रपुत्रों में से पहले पचास पुत्रों ने विश्र्वामित्र की यह आज्ञा अमान्य कर दी, जिस कारण इसने उन्हें म्लेंच्छ बनने का शाप दिया। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, अपने इन पुत्रों को इसने अन्ध्र, पुण्ड्र, शबर, पुलिंद, मूतिब आदि अन्त्य जाति के लोग बनने का शाप दिया
[ऐ. ब्रा. ७.१८] ; रैभ्य एवं ऋषभ याज्ञतुर देखिये । मधुच्छंदस् एवं अन्य पचास कनिष्ठ पुत्रों ने विश्र्वामित्र की आज्ञा मान ली, जिस कारण इसने उन्हें अनेकानेक आशीर्वाद प्रदान किये। विश्र्वामित्र के उपर्युक्त शाप के कारण, इसके पुत्रों की एवं वंशजों की निम्नलिखित दो शाखाएँ बन गयीः-१. कुशिक शाखा,---जो विश्र्वामित्र के कृपापात्र पुत्रों से उत्पन्न हुयी, जिनमें देवरात प्रवर आता है
[भा. ९.१६.२८-३७] ; २. विश्र्वामित्र शाखा,---जो विश्र्वामित्र के शाप के कारण हीनकुलीन बन गये थे ।
विश्वामित्र n. विश्र्वामित्र की पत्नीयाँ, एवं उनसे उत्पन्न इसके पुत्रों की जानकारी ब्रह्म, हरिवंश, वायु, ब्रह्मांड आदि पुराणों में प्राप्त है, जो संक्षेपरूप में नीचे दी गयी है :---
पत्नी का नाम - १ रेणु
पुत्रों के नाम - रेणु, सांकृति, गालव, मधुच्छंदस्, जय, देवल, कच्छप, हरित, अष्टक ।
पत्नी का नाम - २. शालावती
पुत्रों के नाम - हिरण्याक्ष, देवश्रवस्, कति ।
पत्नी का नाम - ३. सांकृति
पुत्रों के नाम - मौद्गल्य, गालव ।
पत्नी का नाम - ४. माधवी
पुत्रों के नाम - अष्टक ।
पत्नी का नाम - ५. दृषद्वती
पुत्रों के नाम - कृत, ध्रुव, पूरण । वायु में दृषद्वती का पुत्र केवल अष्टक ही बताया गया है ।
[ह.वं. १.३२] ;
[ब्रह्म. १०] ;
[वायु. ९१.९९-१०३] ।
विश्वामित्र n. विश्र्वामित्र के पुत्रों की नामावली महाभारत, वाल्मीकि रामायण एवं विभिन्न पुराणों में प्राप्त है, जो निम्न दी गयी हैः- (१) महाभारत में---अक्षीण, अंभोरुद, अरालि, आंध्रिक, आश्रलायन, आसुरायण, उज्जयन, उदापेक्षिन्, उपगहन, उलूक, ऊर्जयोनि, कपिल, करीष, कालपथ, कूर्चांमुख, गार्ग्य, गार्दभि, गालव, चक्रक, चांपेय, चारुमत्स्य, जंगारि, जाबालि, तंतु, ताडकायन, देवरात (शुनःशेप), नवतंतु, नाचिक, नारद, नारदिन्, नैकदृश, पर, पर्णजंघ (वल्गुजंघ), पौरव, बकनख, बभ्रु, बाभ्रवायणि, भूति, मधुच्छंदस् मारुतंतव्य, मार्दम, मुसल, यति, यमदूत, याज्ञवल्क्य, लीलाढ्य, वक्षोग्रीव, वज्र, वातघ्न, वादुलि, विभूति, शकुन्त, शिरीशिन्, शिलायूप, शुचि, श्यामायन, संश्रुत्य, सालंकायन, सित, सुरकृत्, सुश्रुत, सूत, सेयन, सैंधवायन, स्थूण, हिरण्याक्ष
[म. अनु. ४.४९-५९] । इन पुत्रों में से हिरण्याक्ष को छः पुत्र उत्पन्न हुए थे । (२) रामायण में---दृढनेत्र, मधुष्पंद, महारथि एवं हविष्पंद
[वा. रा. बा. ५७] । विश्र्वामित्र के ये सारे पुत्र ब्राह्मणवंशविवर्धक एवं गोत्रकार माने जाते है । (3) हरिवंश एवं पद्म में.---कवि, क्रोधन, स्वसृम (स्वसृप), पितृवति (पितृवर्तिन्), पिशुन, वाग्दुष्ट, हिंस्त्र
[ह. वं. १.२१.५] ;
[पद्म. सृ. १०] । (४) अन्य ग्रंथों में---हिरण्याक्ष, देवश्रवस्, (देवरात, शुनःशेप), कति, रेणु (रेणुक, रेणुमत्), सांकृति, गालव, मधुच्छन्दस्, जय (नय), देवल (देव), कच्छप, हरित (हारित), अष्टक, कृत, ध्रुव, पूरण। इनमें से काति एवं अष्टक को क्रमशः कात्यायन एवं लौहि नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे । (५) वायु एवं ब्रह्मांड में---मधुच्छन्दस्, नय एवं देव
[वायु. ९१.९६] ;
[ब्रह्मांड. ३.६६] । (६) ब्रह्म में---मौंद्रल्य, गालव, कात्यायन
[ब्रह्म. १०.१३] ।
विश्वामित्र n. विश्र्वामित्रकुल में उत्पन्न निम्नलिखित गोत्रों की नामावलि महाभारत एवं पुराणों में दी गयी है---१. उदुंबर, २. कारूषक (करीषय, कारीपव, कारिषि); ३. कौशिक (कुशिक); ४. गालव; ५. चांद्रव (यममुंचत); ६. जाबाल; ७. तालकायन (तारक, तारकायन); ८. देवरात; ९. देवल. १०. ध्यानजाप्य; ११. पणिन (पाणिन्, पाणिनि); १२. पार्थिव; १३. बभ्रु; 14. बादर; १५. बाष्कल (वास्कल); १६. मधुच्छंदस्; १७. यमदूत (यामदूत, यामभूत); १८. याज्ञवल्क्य; १९. रेणव; २०. लालाक्य (ददाति); २१. लौहित (लोहित, लोहिण्य); २२. वाताड्य (उदुम्लान); २३. शालंकायन; २४. श्यामायन (शालावत्य); २५. समर्षण; २६. सांकृत (स्यंकृत); २७. सैंधवायन; २८. सौश्रव (सोश्रुत, सोश्रुम); २९. हिरण्याक्ष
[म. अनु. ४.५०-६०] ;
[वायु. ९१.९७-१०२] ;
[ब्रह्मांड. ३.६६.६९-७४] ;
[ह. वं. २७.१४६३-१४६९] ;
[ब्रह्म. १०.६१-६३, १३] । उपर्युक्त नामावलि में से १०-२६ नाम ब्रह्म के तेरहवें अध्याय में, एवं १२-२६ नाम ब्रह्म के दसवें अध्याय में अप्राप्य है ।
विश्वामित्र n. इन गोत्रकारों के त्रिप्रवरान्वित (तीन प्रवरोंवाले) एवं द्विप्रवरान्वित (दो प्रवरोंवाले) ऐसे दो प्रमुख प्रकार है -- (१) त्रिप्रवरान्वित गोत्रकार---विश्र्वामित्रकुल के बहुसंख्य गोत्रकार ‘तीन प्रवरोंवाले’ ही हैं, किंतु प्रवरभेद के अनुसार उनके अनेक उपविभाग हैं, जिनकी जानकारी नीचे दी गयी हैः -- (अ) उद्दल, देवरात एवं विश्र्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार---अभय, आयतायन, उलूप (ग, उल्लप), औपहाव (ग), करीष (ग), खरवाच, जनपादप (ग), जाबाल (ग), देवरात, पयोद (ग), बाभ्रव्य (ग), याज्ञवल्क्य (ग), वतंड, वास्तुकौशिक (ग), विश्र्वामित्र, वैकृतिगालव (वैकलिनायन), शलंक, श्यामायन (ग), संश्रुत (ग), संश्रुत्य (ग), साधित (ग), हलयम (ग) । (ब) वैश्र्वामित्र, दैवश्रवस, दैवरात प्रवरों के गोत्रकार---कारुकायण ( कामुकायन, ग), कुशिक, देवश्रवस, वैदेहरात, वैदेहनात, वैदेवराज (ग), सुजातेय, सौमुक (तौसुक) । (क) वैश्र्वामित्र माधुच्छंदस, आज (आद्य) प्रवरों के गोत्रकार---कपर्देय, धनंजय, परिकूट, पाणिनि। (ड) अघमर्षण, मधुच्छंदस् एवं विश्र्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार---आद्य, माधुच्छंदस्, विश्र्वामित्र। (इ) आश्मरथ्य, वंजुलि, एवं वैश्र्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार---अश्मरथ्य (ग), कामलयनिज, वंजुलि। (ई) ऋणवत् गतिन् एवं विश्र्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार---उदरेणु, विश्र्वामि, उदाहि, क्रथक। (उ) खिलिखिलि, आज (विद्य) एवं वैश्र्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार---उदुंबर, कारीराशिन्, त्राक्षायणि, मौंजायनि (कौब्जायनि), लावकि, शाठ्यायनि (कात्यायनि), शालंकायनि, सैपिरिटि। इन गोत्रकारों के लिए खिलि, क्षितिमुखाविद्ध, एवं विश्वामित्र ये प्रवर भी कई पुराणों में प्राप्त है । (२) द्विप्रवरान्वित गोत्रकार---विश्र्वामित्र, एवं पूरण दो प्रवरों के गोत्रकार---अष्टक, पूरण, लोहित
[मत्स्य. १९८] ।
विश्वामित्र II. n. एक ऋषि, जिसे ऊर्वशी अप्सरा से शकुंतला नामक कन्या उत्पन्न हुई थी
[भा. ९.१६.२८-३७] । यह ऋषि पूरुवंशीय दुष्यंत एवं भरत राजाओं का समकालीन था । इस प्रकार, अयोध्या के त्रिशंकु, हरिश्र्चंद्र आदि राजाओं से यह काफ़ी उत्तरकालीन था ।
विश्वामित्र III. n. एक ऋषि, जिसने अयोध्या के राम दशरथि के द्वारा ताटका राक्षसी, एवं मारीच, सुबाहु आदि राक्षसों का वध करवाया था
[वा. रा. बा. २४-२७] ; राम दशरथि देखिये । यह साक्षात् धर्म का अवतार था, एवं इसके समान पराक्रमी एवं विद्यावान् सारे संसार में दूसरा कोई न था
[वा. रा. बा. २१] ।
विश्वामित्र IV. n. एक ऋषि, जो उत्तर पंचाल देश के पैजवन सुदास राजा का पुरोहित था
[ऋ. ३.५३, ७.१२] । ऋग्वेद के तृतीय मंडल के प्रणयन का श्रेय इसे एवं इसके वंश में उत्पन्न ऋषियों को दिया गया है । ऋग्वेद में इसने स्वयं को ‘कुशिक’ का वंशज कलहाया है
[ऋ. ३.५३.५] । इसी कारण इसका निर्देश ‘कुशिक’ नाम से भी प्राप्त है
[ऋ. ३.३३.५] । इसके परिवारा के लोगों को भी ‘कुशिकाः’ कहा गया है । इसके परिवार के लोगों को ‘विश्र्वामित्र’ उपाधि भी प्राप्त है
[ऋ. ३.५३.१३, १०.८९.१७] ।
विश्वामित्र IV. n. विश्वामित्र ‘गाथिन्’ राज का वंशज था, जिस कारण इसे ‘गाथिन्’ पैतृक नाम प्राप्त है । विश्र्वामित्र गाथिन के द्वारा विरचित अनेक सूक्त ऋग्वेद में प्राप्त हैं
[ऋ. ३.१-१२, २४, २५, २६[१-६,८, ९]२७ -३२, ३३[१-३,५,७,९,११-१३],३४, ३५, ३६ [१-९, ११], ३७-५,५७-६२, ९.६७.१३-१५, १०.१३७.५,१६७]विश्वामित्र IV. n. इसके द्वारा विरचित एक सूक्त में विपाश् एवं शुतुद्री (आधुनिक बियास् एवं सतलज नदियाँ) नदियों की संगम पर राह देने के लिए प्रार्थना की गयी है
[ऋ. ३.३३] । अभ्यासकों का कहना है, कि, इस सूक्त के प्रणयन के समय विश्र्वामित्र पैजवन सुदास राजा का पुरोहित था, एवं पंजाब के संवरण राजा पर आक्रमण करनेवाली सुदास की विजयी सेना को मार्ग प्राप्त कराने के लिए इसने इस ‘नदीसूक्त’ की रचना की थी
[गेल्डनर, वेदिशे स्टूडियन. ३.१५२] । सायण के अनुसार, सुदास राजा से विपुल धनसंपत्ति प्राप्त करने के पश्र्चात्, विश्र्वामित्र के कई विपक्षियों ने इसका पीछा करना शुरू किया। उस समय भागते हुए विश्र्वामित्र ने इस नदीसूक्त की रचना थी
[ऋ. ३.३३, सायणभाष्य] । किन्तु सायण का यह मत अयोग्य प्रतीत होता है । स्वयं यास्क भी सायण के इस मत से असहमत है
[नि. २.२४] ।
विश्वामित्र IV. n. ऋग्वेद में प्राप्त निर्देशों से प्रतीत होता है कि, यह शुरू में सुदास राजा का पुरोहित था
[ऋ. ३.५३] । किन्तु इसके इस पदसे भ्रष्ट होने के पश्र्चात्, वसिष्ठ सुदास का पुरोहित बन गया। तदुपरांत यह सुदास के शत्रुपक्ष में शामिल हुआ, एवं इसने सुदास के विरूद्ध दाशराज्ञ-युद्ध में भाग लिया (वसिष्ठ देखिये) । इसी संदर्भ में इसने ‘वसिष्ठ-द्वैषिण्यः’ नामक कई ऋचाओं की रचना की, जो शौनक के काल से सुविख्यात है । वसिष्ठगोत्र में उत्पन्न लोग आज भी इन ऋचाओं का पठन नही करते। ऋग्वेद का एक भाष्यकार दुर्गाचार्य ने स्वयं वसिष्ठगोत्रीय होने के कारण, इन ऋचाओं पर भाष्य नही लिखा है
[ऋ. ३.५३.२०-२४] ;
[नि. १०.१४] ।
विश्वामित्र IV. n. वसिष्ठ ऋषि के पुत्र शक्ति से विश्र्वामित्र के द्वारा किये गये संघर्ष का निर्देश भी ऋग्वेद में प्राप्त है । सुदास राजा के यज्ञ के समय हुए वादविवाद में शक्ति ने इसे परास्त किया। फिर विश्र्वामित्र ने जमदग्नि ऋषि से ‘ससर्परी’ विद्या प्राप्त कर, शक्ति को परास्त किया
[ऋ. ३.५३.१५-१६, वेदार्थदीपिका] । आगे चल कर इसने सुदास के सेवकों के द्वारा शक्ति का वध करवाया
[तै. सं. ७.४.७.१] ;
[ऋ. सर्वानुक्रमणी ७.३२] । शक्ति ऋषि से हुए वादविवाद में इसने कथन की हुई ऋचाएँ ‘मौनी विश्र्वामित्र’ की ऋचाएँ नाम से प्रसिद्ध है, जिनमें इसने कहा है, ‘आप लोग इस ‘अन्तक’ (विश्र्वामित्र) के पराक्रम को नही जानते। इसी कारण मुझे वादविवाद में स्तब्ध देख कर आप हँस रहे है । किंतु आप नहीं जानते, कि विश्र्वामित्र अपने शत्रु से लड़ना ही जानता है । शत्रु से शरणागति उसे मंजुर नहीं है’
[ऋ. ३.५३.२३-२४] । ब्राह्मण ग्रंथों में निम्नलिखित वैदिक मंत्रों के प्रणयन का श्रेय भी विश्र्वामित्र को दिया गया हैः-- १. संपात ऋचाएँ---जिनका प्रणयन एवं प्रचार क्रमशः विश्र्वामित्र एवं वामदेव ऋषियों ने किया
[ऐ. ब्रा. ६.१८] ; २. रोहित-कूलीय साममंत्र---जिनका प्रणयन सौदन्ति लोगों से मिलने के लिए जानेवाले विश्र्वामित्र ने नदी को लाँधते समय किया था
[पं. ब्रा. १४.३.१३] ।
विश्वामित्र IX. n. ब्रह्मराक्षसों का एक समूह, जो ‘रात्रिराक्षसों’ के चार समूहों में से एक माना जाता है
[ब्रह्मांड. ३.८.५९-६१] । इन्हें ‘कौशिक’ नामान्तर भी प्राप्त था ।
विश्वामित्र V. n. एक धर्मशास्त्रकार, जिसका निर्देश, ‘वृद्धयाज्ञवल्क्य स्मृति’ में प्राप्त है । ‘अपरार्क’, ‘स्मृतिचंद्रिका’, जीमूतवाहनकृत ‘कालविवेक’ आदि धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथों में विश्र्वामित्र के निम्नलिखित विषयों से संबंधित अभिमत उद्धृत किये हैः-- व्यवहार, पंचमहापातक श्राद्ध, प्रायश्र्चित् आदि। इसके द्वारा विरचित नौ अध्यायों की ‘विश्र्वामित्रस्मृति’ मद्रास राज्य के द्वारा प्रकाशित की गयी है
[मद्रास राज्य कृत पाण्डुलिपियों की सृचि पृ. १९८५, क्रमांक २७१७] ।
विश्वामित्र VI. n. एक ऋषि, जो रैभ्य नामक ऋषि का पिता, एवं अर्वावसु एवं परावसु ऋषियों का पितामह था । यह चेदि देश का राजा वसु एवं बृहद्युम्न राजाओं का समकालीन था (यवक्रीत एवं भरद्वाज देखिये) ।
विश्वामित्र VII. n. वैवस्वत मन्वन्तर का एक ऋषि, जो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उपस्थित था
[भा. ८.१३.५, १०.७४.८] । यह स्यमंतपंचक क्षेत्र में श्रीकृष्ण से मिलने आया था, एवं कृष्ण के द्वारा किये गये यज्ञ का यह पुरोहित था
[भा. १०.८४.३, ११.१.१२] ।
विश्वामित्र VIII. n. एक ऋषि, जो फाल्गुन माह के सूर्य के साथ घूमता है
[विष्णु. २.१०.१८] ।