व्यास (धर्मशास्त्रकार) n. एक धर्मशास्त्रकार, जिसके द्वारा रचित एक स्मृति आनंदाश्रम, पूना, व्यंकटेश्र्वर प्रेस, बंबई एवं जीवानंद स्मृतिसंग्रह में प्रकाशित की गई है । इस ‘स्मृति’ के चार अध्याय, एवं २५० श्र्लोक है ।
व्यास (धर्मशास्त्रकार) n. ‘व्यासस्मृति’ में वर्णाश्रमधर्म, नित्यकर्म, स्नानभोजन, दानधर्म आदि व्यवहारविषयक धर्मशास्त्रीय विषयों की चर्चा की गयी है । ‘अपरार्क,’ ‘स्मृतिचंद्रिका’ आदि ग्रंथों में इसके व्यवहारविषयक उद्धरण प्राप्त है ।
व्यास (धर्मशास्त्रकार) n. ‘व्यासस्मृति’ के अतिरिक्त इसके निम्नलिखित ग्रंथों का निर्देश भी निम्नलिखित स्मृतिग्रंथों में प्राप्त हैं:- १. गद्यव्यास-स्मृतिचंद्रिका; २. वृद्धव्यास-अपरार्क; ३. बृहद्व्यास-मिताक्षरा; ४. लघुव्यास, महाव्यास, दानव्यास-दानसागर। पुराण में यह एवं कृष्ण द्वैपायन व्यास एक ही व्यक्ति होने का निर्देश प्राप्त है
[भवि. ब्राह्म. १] । किंतु इस संबंध में निश्र्चित रूप से कहना कठिन है ।
व्यास (पाराशर्य) n. एक सुविख्यात आचार्य, जो वैदिक संहिताओं का पृथक्करणकर्ता, वैदिक शाखाप्रवर्तकों का आद्य आचार्य, ब्रह्मसूत्रों का प्रणयिता, महाभारत पुराणादि ग्रंथो का रचयिता, एवं वैदिक संस्कृति का पुनरुज्जीवक तत्त्वज्ञ माना जाता है । यह सर्वज्ञ, सत्यवादी, सांख्य, योग, धर्म आदि शास्त्रों का ज्ञाता एवं दिव्यदृष्टि था
[म. स्व. ५. ३१-३३] । वैदिक, पौराणिक एवं तत्त्वज्ञान संबंधी विभिन्न क्षेत्रों में व्यास के द्वारा किये गये अपूर्व कर्तुत्व के कारण, यह सर्व दृष्टि से श्रेष्ठ ऋषि प्रतीत होता है । प्राचीन ऋषिविषयक व्याख्या में, असामान्य प्रतिभा, क्रांतिदर्शी द्रष्टापन, जीवनविषयक विरागी दृष्टिकोण, अगाद्य विद्वत्ता, एवं अप्रतीम संगठन-कौशल्य इन सारे गंणों का सम्मिलन आवश्यक माना जाता था । इन सारे गुणों की व्यास जैसी मूर्तिमंत साकार प्रतिमा प्राचीन भारतीय इतिहास में क्वचित् ही पायी जाती है । इसी कारण, पौराणिक साहित्य में इसे केवल ऋषि ही नहीं, किन्तु साक्षात् देवतास्वरूप माना गया है । इस साहित्य में इसे विष्णु का
[वायु. १.४२-४३] ;
[कूर्म. १.३०.६६] ;
[गरुड. १.८७.५९] ; शिव का
[कूर्म. २.११.१.३६] ; ब्रह्मा का
[वायु. ७७.७४-७५] ;
[ब्रह्मांड. ३.१३.७६] ; एवं ब्रह्मा के पुत्र का
[लिंग. २.४९.१७] अवतार कहा गया है ।
व्यास (पाराशर्य) n. श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त सनातन हिंदू धर्म का व्यास एक प्रधान व्याख्याता कहा जाता है । व्यास महाभारत का केवल रचयिता ही नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक पुनरुज्जीवन का एक ऐसा आचार्य था कि, जिसने वैदिक हिंदूधर्म में निर्दिष्ट समस्त धर्मतत्त्वों को बदलते हुए देश काल-परिस्थिति के अनुसार, एक बिल्कुल नया स्वरूप दिया। भगवद्गीता जैसा अनुपम रत्न भी इसकी कृपा से ही संसार को प्राप्त हो सका, जहाँ इसने श्रीकृष्ण के अमर संदेश को संसार के लिए सुलभ बनाया। इसी कारण युधिष्ठिर के द्वारा महाभारत में इसे ‘भगवान्’ उपाधि प्रदान की गयी है-- भगवानेव नो मान्यो भगवानेव नो गुरुः।। भगवानस्य राज्यस्य कुलस्य च परायणम् ।।
[म. आश्र. ८.७] ।(भगवान् व्यास हमारे लिये अत्यंत पूज्य, एवं हमारे गुरु है । हमारे राज्य एवं कुल के वे सर्वश्रेष्ठ आचार्य हैं) ।
व्यास (पाराशर्य) n. वैदिक-संहिता साहित्य में व्यास का निर्देश अप्राप्य है । ‘सामविधान ब्राह्मण’ में इसे ‘पाराशर्य’ पैतृक नाम प्रदान किया गया है, एवं इसे विष्वकूसेन नामक आचार्य का शिष्य कहा गया है
[सा. ब्रा. १.४.३३७] । तैत्तिरीय आरण्यक में भी महाभारत के रचयिता के नाते व्यास एवं वैशंपायन ऋषियों का निर्देश प्राप्त है
[तै. आ. १.९.२] । वेबर के अनुसार, शुक्ल-यजुर्वेद की आचार्यपरंपरा में पराशर एवं उसके वंशजों का काफ़ी प्रभुत्व से ही प्रतीत होता है । बौद्धसाहित्य में बुद्ध के पूर्वजन्मों में से एक जन्म का नाम ‘कण्ह दीपायन’ (कृष्ण द्वैपायन) दिया गया है
[वेबर. पृ. १८४] । इससे प्रतीत होता है कि, बौद्ध साहित्य की रचनाकाल में व्यास का कृष्ण द्वैपायन नाम काफ़ी प्रसिद्ध हो चुका था ।
व्यास (पाराशर्य) n. पाणिनि के अष्टाध्यायी में व्यास का निर्देश अप्राप्य है, एवं महाभारत शब्द का भी वहाँ एक ग्रंथ के नाते नहीं, बल्कि भरतवंश में उत्पन्न युधिष्ठिर, आदि श्रेष्ठ व्यक्तियों को उद्दिश्य कर प्रयुक्त किया गया है
[पा. सू. ६.२.३८] । पतंजलि के व्याकरण-महाभाष्य में महाभारत कथा का निर्देश अनेकबार प्राप्त है, इतना ही नहीं, शुक वैयासिक नामक एक आचार्य का निर्देश भी वहॉं प्राप्त है, जिसे व्यास का पुत्र होने के कारण ‘वैयासकि’ पैतृक नाम प्राप्त हुआ था
[महा. २.२५३] । इससे प्रतीत होता है कि, महाभारत का निर्माण पाणिनि के उत्तर काल में, एवं पतंजलि के पूर्वकाल में उत्पन्न हुआ होगा।
व्यास (पाराशर्य) n. इन ग्रंथों में इसे महर्षि पराशर का पुत्र कहा गया है, एवं इसकी माता का नाम सत्यवती (काली) बताया गया है, जो कैवर्तराज (धीवर) की कन्या थी । इसका जन्म यमुनाद्वीप में हुआ था, जिस कारण इसे ‘द्वैपायन’ नाम प्राप्त हुआ था
[म. आ. ५४.२] । इसकी माता का नाम ‘काली’ होने के कारण इसे ‘कृष्ण’ अर्थात कृष्ण द्वैपायन नाम प्राप्त हुआ था । भागवत के अनुसार, यह स्वयं कृष्णवर्णीय था, जिस कारण इसे ‘कृष्ण’ द्वैपायन नाम प्राप्त हुआ था ।
व्यास (पाराशर्य) n. वैशाख पूर्णिमा यह दिन व्यास की जन्मतिथि मानी जाती है । उसी दिन इसका जन्मोत्सव भी मनाया जाता है । आषाढ पौर्णिमा को इसीके ही नाम से ‘व्यास पौर्णिमा’ कहा जाता है ।
व्यास (पाराशर्य) n. इसने समस्त वेदों की पुनर्रचना की थी, जिस कारण इसे व्यास नाम प्राप्त हुआ थाः-- विव्यास वेदान् यस्मात्स तस्माद् व्यास इति स्मृतः।
[म. आ. ५७.७३] । महाभारत में इसके पराशरात्मज, पाराशर्य, सत्यवती सुत नामान्तर बताये गये है । वायु में इसे ‘पुराणप्रवक्ता’ कहा गया है, जो नाम इसे आख्यान, उपाख्यान, गाथा कुल, कर्म आदि से संयुक्त पुराणों की रचना करने के कारण प्राप्त हुआ था
[वायु. ६०.११-२१] ;
[विष्णुधर्म. १.७४] ।
व्यास (पाराशर्य) n. अत्यंत कठोर तपस्या कर के इसने अनेकानेक सिद्धियाँ प्राप्त की थी । यह दूरश्रवण, दूर-दर्शन आदि अनेक विद्याओं में प्रवीण था
[म. आश्र. ३७.१६] । अपनी तपस्या के बारे में यह कहता है - पश्यन्तु तपसो वीर्यमद्य में चिरसंभृतम्। तदुच्यर्ता महाबाहो कं कामं प्रदिशामि ते।। प्रवणोऽस्मि वरं दातुं पश्य में तपसो बलम्।।
[म. आश्र. ३६.२०-२१] ।
व्यास (पाराशर्य) n. यह कौरवपाण्डवों का पितामह था, इसी कारण यह सदैव उनके हित के लिए तत्पर रहता था । इसके द्वारा विरचित महाभारत ग्रंथ में यह केवल निवेदक के नाते नहीं, बल्कि पांडवों के हितचिंतक के नाते कार्य करता हुआ प्रतीत होता है ।
व्यास (पाराशर्य) n. महाभारत के अनुसार, यह जनमेजय के सर्पमित्र में उपस्थित था । इसे आता हुआ देख कर जनमेजय ने इसका यथोचित स्वागत किया, एवं सुवर्ण सिंहासन पर बैठ कर इसका पूजन किया था । पश्र्चात् जनमेजय ने ‘महाभारत’ का वृत्तांत पूछा, तब इसने अपने पास बैठे हुए वैशंपायन नामक शिष्य को स्वरचित ‘महाभारत’ कथा सुनाने की आज्ञा दी
[म. आ. ५४] । उस समय व्यास को नमस्कार कर वैशंपायन ने ‘कार्प्णवेद’ नाम से सुविख्यात महाभारत की कथा कह सुनाई।
व्यास (पाराशर्य) n. इसने पाण्डवों को द्रौपदी स्वयंवर की वार्ता सुनाई थी । इसने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय अर्जुन, भीम, सहदेव एवं नकुल को क्रमशः उत्तर, पूर्व, दक्षिण तथा पश्र्चिम दिशाओं की ओर जाने के लिए उपदेश दिया था । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, यह ब्रह्मा बना था । उसी समय में, आनेवाले क्षत्रियसंहार का भविष्य इसने युधिष्ठिर को सुनाया था ।
व्यास (पाराशर्य) n. पांडवों के वनवासकाल में भी, समय समय उनका धीरज बँधाने का कार्य यह करता रहा। वनवास के प्रारंभकाल में युधिष्ठिर जब अत्यंत निराश हुआ था, तब इसने उसे ‘प्रतिस्मृतिविद्या’ प्रदान की थी । इसी विद्या के कारण, अर्जुन रुद्र एवं इंद्र से अनेकानेक प्रकार के अस्त्र प्राप्त कर सका
[म. व. ३७.२७-३०] । पश्र्चात् यह कुरुक्षेत्र में गया, एवं वहाँ स्थित सभी तीर्थों का इसने एकत्रीकरण किया। वहाँ स्थित ‘व्यासवन’ एवं ‘व्यासस्थली’ में इसने तपस्या की।
व्यास (पाराशर्य) n. भारतीय युद्ध के समय, इसने धृतराष्ट्र को दृष्टि प्रदान कर, उसे युद्ध देखने के लिए समर्थ बनाना चाहा। किंतु धृतराष्ट्र के द्वारा युद्ध का रौद्र स्वरूप देखने के लिए इन्कार किये जाने पर, इसने संजय को दिव्यदृष्टि प्रदान की, एवं यृद्धवार्ता धृतराष्ट्र तक पहुँचाने की व्यवस्था की थी
[म. भी. २.९] । भारतीय युद्ध में, सात्यकि ने संजय को पकड़ने का
[म. श. २४.५१] , एवं मार ड़ालने का
[म. श. २८.३५-३८] प्रयत्न किया। किंतु इन दोनों प्रसंग में व्यास ने संजय की रक्षा की। युद्ध के पश्र्चात्, व्यासकृपा से संजय को प्राप्त हुई दिव्यदृष्टि नष्ट हो गयी
[म. सौ. ९.५८] । पुत्रवध के दुख से गांधारी पांडवों को शाप देने के लिए उद्यत हुई, किंतु अंतर्ज्ञान से यह जान कर, व्यास ने उसे परावृत्त किया
[म. स्त्री. १३.३-५] । धृतराष्ट्र एवं गांधारी को दिव्यचक्षु प्रदान कर, इसने उन्हें गंगा नदी के प्रवाह में उनके मृत पुत्रों का दर्शन कराया था
[म. आश्र. ४०] ।
व्यास (पाराशर्य) n. युद्ध के पश्र्चात् इसने युधिष्ठिर को शंख, लिखित, सुद्युम्न, हयग्रीव, सेनाजित् आदि राजाओं के चरित्र सुना कर राजधर्म एवं राजदंड का उपदेश किया। इसने युधिष्ठिर को सेनाजित् राजा का उदाहरण दे कर निराशावादी न बनने का, एवं जनक की कथा सुना कर प्रारब्ध की प्रबलता का उपदेश निवेदित किया। पश्र्चात् इसने उसे मनःशांति के लिए प्रायश्र्चित्तविधि भी कथन किया।
व्यास (पाराशर्य) n. इसने अपने पुत्र शुकदेव को निम्नलिखित विषयों पर आधारित तत्त्वज्ञानपर उपदेश कथन किया थाः---सृष्टिक्रम एवं युगधर्मः ब्राह्मप्रलय एवं महाप्रलय, मोक्षधर्म एवं क्रियाफल आदि।
व्यास (पाराशर्य) n. नारद के मुख से इसे सात्वतधर्म का ज्ञान हुआ था, जो इसने आगे चल कर युधिष्ठिर को कथन किया था । इसके अतिरिक्त इसने भीष्म
[म. अनु. २४.५-१२] ; मैत्रेय
[म. अनु. १२०-१२२] ; शुक आदि को भी उपदेश प्रदान किया था ।
व्यास (पाराशर्य) n. इसने युधिष्ठिर को मनःशांति के लिए अश्र्वमेध यज्ञ करने का आदेश दिया था । इस यज्ञ में अर्जुन, भीम, नकुल एवं सहदेव को क्रमशः अश्र्वरक्षा, राज्यरक्षा, कुटुंबव्यवस्था का कार्य इसी के द्वारा ही साँपा गया था । यज्ञ के पश्र्चात्, युधिष्ठिर ने अपना सारा राज्य इसे दान में दिया। इसने उसे स्वीकार कर के उसे पुनः एक बार युधिष्ठिर को लौटा दिया, एवं आज्ञा दी कि, वह समस्त धनलक्ष्मी ब्राह्मणों को दान में दे।
व्यास (पाराशर्य) n. घृताची अप्सरा (अरणी) से इसे शुक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था
[म. आ. ५७.७४] । स्कंद में शुक को जाबालि ऋषि की कन्या वटिका से उत्पन्न पुत्र कहा गया है
[स्कंद. ६८.१४७-१४८] । शुक के अतिरिक्त, इसे विचित्रवीर्य राआजों की अंबिका एवं अंबालिका नामक पत्नीयों से क्रमशः धृतराष्ट्र एवं पाण्डु नामक नियोगज पुत्र उत्पन्न हुए थे । विदुर भी इसीका ही पुत्र था, जो अंबालिका के शूद्रजातीय दासी से इसे उत्पन्न हुआ था ।
व्यास (पाराशर्य) n. इसके पुत्र शुक ने इसका वंश आगे चलाया। शुका का विवाह पीवरी से हुआ था, जिससे उसे भूरिश्रवस्, प्रभु, शंभु, कृष्ण एवं गौर नामक पाँच पुत्र, एवं कीर्तिमती नामक एक कन्या उत्पन्न हुई थी, जिसका विवाह अणुह राजा से हुआ था । कीर्तिमती के पुत्र का नाम ब्रह्मदत्त था
[वायु. ७०.८४-८६] ।
व्यास (पाराशर्य) n. कुरुवंशीय राजाओं में से शंतनु, विचित्रवीर्य, धृतराष्ट्र, कौरवपाण्डव, अभिमन्यु, परिक्षित्, जनमेजय, शतानीक आठ पीढ़ीयों के राजाओं से व्यास का जीवनचरित्र संबंधित प्रतीत होता है । ये सारे निर्देश इसके दीर्घायुष्य की ओर संकेत करते है । प्राचीन साहित्य में इसे केवल दीर्घायुषी ही नहीं, बल्कि चिरंजीव कहा गया है ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास के जीवन से संबंधित निम्नलिखित स्थलों का निर्देश महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त हैः-- (१) व्यासवन---यह कुरुक्षेत्र में है
[म. व. ८१.७८] ;
[नारद. ३.६५.५] ; ८२;
[वामन. ३५.५] ; ३६.५६ । (२) व्यासस्थली---यह कुरुक्षेत्र में है । यहाँ पुत्रशोक के कारण, व्यास देहत्याग के लिए प्रवृत्त हुआ था
[म. व. ८१.८१] ;
[नारद. उ. ६५.८५] ;
[वामन. ३६.६०] । (३) व्यासाश्रम---यह हिमालय पर्वत में बदरिकाश्रम के पास अलकनंदा-सरस्वती नदियों के संगम पर शम्याप्रासतीर्थ के समीप बसा हुआ था । इसी आश्रम में व्यास के द्वारा समंतु, वैशंपायन, जैमिनि एवं पैल आदि आचार्यों के वेदों की शिक्षा दी गयी थी । व्यास का वेदप्रसार का कार्य इसी आश्रम में प्रारंभ हुआ था, एवं चारों वर्णों में वेदप्रसार करने के नियम आदि इसी आश्रम में व्यास के द्वारा निश्र्चित किये गये थे
[म. शां. ३१४] । (४) व्यासकाशी---यह वाराणसी में रामनगर के समीप बसी हुई थी ।
व्यास (पाराशर्य) n. यद्यपि महाभारत की रचना करनेवाले व्यास महर्षि एक ही थे, फिर भी पुराणों में अठ्ठाईस व्यासों की एक नामावलि दी गयी है, जिसके अनुसार वैवस्वत मन्वन्तर के हर एक द्वापर में उत्पन्न हुआ व्यास अलग व्यक्ति बताया गया है । वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के अठ्ठाईस द्वापर आज तक पूरे हो चुके है, इसी कारण पुराणों में व्यासों की संख्या अठ्ठाईस बतायी गयी है, जहाँ कृष्ण द्वैपायन व्यास को अठ्ठाइसवाँ व्यास कहा गया है । पुराणों में दी गयी अठ्ठाईस व्यासों की नामावलि कल्पनारम्य, अनैतिहासिक एवं आद्य व्यास महर्षि की महत्ता बढ़ाने के लिए तैयार की गयी प्रतीत होती है । विभिन्न पुराणों में प्राप्त अठ्ठाईस व्यासों के नाम एक दूसरे से मेल नहीं खातें है । इन व्यासों का निर्देश एवं जानकारी प्राचीन साहित्य में अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं है । विष्णु पुराण में प्राप्त अठ्ठाईस व्यासों की नामावलि नीचे दी गयी है, एवं अन्य पुराणों में प्राप्त पाठभेद कोष्टक में दिये गये हैं---१. स्वयंभु (प्रभु, ऋभु, ऋतु); २. प्रजापति (सत्य); ३. उशनस् (भार्गव); ४. बृहस्पति (अंगिरस्); ५. सवितृ; ६. मृत्यु; ७. इंद्र; ८. वसिष्ठ; ९. सारस्वत; १०. त्रिधामन्; ११. त्रिवृषन (निवृत्त); १२. भरद्वाज (शततेजस्); १३; अन्तरिक्ष (धर्मनारायण); १४. वप्रिन् (धर्म, रक्ष, स्वरक्षस्, सुरक्षण); १५. त्रय्यारुण (आरुणि); १६. धनंजय (देव, कृतंजय, संजय, ऋतंजय); १७. कृतंजय (मेधातिथि); १८. ऋणज्य (व्रतिन्); १९. भरद्वाज; २०. गौतम; २१. उत्तम (हुर्यात्मन्); २२. वेन (राजःस्रवस्, वाजश्रवस्, वाजश्रवस्, वाचःश्रवस्); २३. शुष्मायण सों (तृणबिंदु, सौम आमुष्यायण); २४. वाल्मीकि (ऋ.क्षभार्गव); २५.शक्ति (शक्ति वसिष्ठ, भार्गव, यक्ष, कृष्ण); २६. पराशर (शाक्तेय); २७. जातूकर्ण; २८. कृष्ण द्वैपायन (प्रस्तुत)
[विष्णु. ३.३.११-२०] ;
[दे. भा. १.३] ;
[लिंग. १.२४. शिव. शत. ५] ;
[शिव. वायु. सं. ८] ;
[वायु. २३] ;
[स्कंद. १.२.४०] ;
[कूर्म. पूर्व. ५१.१-११] ।
व्यास (पाराशर्य) n. पुराणों में निर्दिष्ट उपर्युक्त अठ्ठाईस व्यासों के अतिरिक्त कई पुराणों में व्यास, सहायक शिवावतार भी दिये गये हैं, जो कलियुग के प्रारंभ में उत्पन्न हो कर द्वापर युग के व्यासों को कार्य आगे चलाते है । व्याससहायक शिवावतार के, एवं उसके चार शिष्यों के नाम विभिन्न पुराणों में दिये गये है
[शिव. शत. ४-५] ;
[शिव. वायु. ८.९] ;
[वायु. २३] ;
[लिंग. ७] ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास के कर्तृत्त्व के तीन प्रमुख पहलू माने जाते हैं :---१. वेदरक्षणार्थ वेदविभाजन; २. पौराणिक साहित्य का निर्माण; ३. महाभारत का निर्माण। व्यास के इन तीनों कार्यों की संक्षिप्त जानकारी नीचे दी गयी है ।
व्यास (पाराशर्य) n. द्वापर युग के अन्त में वेदों का संरक्षण करनेवाले द्विज लोग दुर्बल होने लगे, एवं समस्त वैदिक वाङमय नष्ट होने की संभावना उत्पन्न हो गयी। वेदों का नाश होने से समस्त भारतीय संस्कृति का नाश होगा, यह जान कर व्यास ने समस्त वैदिक वाङमय की पुनर्रचना की। इस वाङमय का ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद इन चार स्वतंत्र संहिताओं में विभाजन कर, इन चार वेदों की विभिन्न शाखाएँ निर्माण की। आगे चल कर, इन वैदिक संहिताओं के संरक्षण एवं प्रचार केलिए इसने विभिन्न शिष्यपरंपराओं का निर्माण किया
[वायु. ६०.१-१६] । व्यास के द्वारा किये गये वैदिक संहिताओं की पुनर्रचना का यह क्रान्तिदर्शी कार्य इतना सफल साबित हुआ कि, आज हज़ारों वर्षों के बाद भी वैदिक संहिता ग्रंथ अपने मूल स्वरूप में ही आज उपलब्ध है ।
व्यास (पाराशर्य) n. पुराणों के अनुसार, व्यास के द्वारा चतुष्पाद वैदिक संहिता ग्रंथ का विभाजन कर, इनकी चार स्वतंत्र संहिताएँ बतायी गयीः-- ततः स ऋच उद्धृत्य ऋग्वेदसमकल्पयत्।
[वायु. ६०.१९] ;
[ब्रह्मांड. ३.३४.१९] । (व्यास ने ऋग्वेद की ऋचाएँ अलग कर, उन्हें ‘ऋग्वेद संहिता’ के रूप में एकत्र कर दिया) । व्यास के पूर्वकाल में ऋक्, यजु, साम, एवं अथर्व मंत्र यद्यपि अस्तित्व में थे, फिर भी वें सारे एक ही वैदिक संहिता में मिलेजुले रूप में अस्तित्व में थे । इसी एकात्मक वैदिक संहिता को चार स्वतंत्र संहिताओं में विभाजित करने का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य व्यास ने किया। इस प्रकार विद्यमानकालीन वैदिक संहिताओं का चतुर्विध विभाजन, एवं उनका रचनात्मक अविष्कार ये दोनों वैदिक साहित्य को व्यास की देन है, जो इस साहित्य के इतिहास में एक सर्वश्रेष्ठ कार्य माना जा सकता है । व्यास के द्वारा रचित वैदिक संहिताओं को तत्कालीन भारतीय ज्ञाताओं ने बिना हिचकिचाहट स्वीकार किया, यह एक ही घटना व्यास के कार्य का निर्दोषत्व एवं तत्कालीन समाज में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान प्रस्थापित कर देती है
[पार्गि. ३१८] ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास की वैदिक शिष्यपरंपरा की विस्तृत जानकारी पुराणों में दी गयी है । इनमें से सर्वाधिक प्रामाणिक एवं विस्तृत जानकारी वायु एवं ब्रह्मांड में प्राप्त है, जिसकी तुलना में विष्णु एवं भागवत में दी गयी जानकारी त्रुटिपूर्ण एवं संक्षेपित प्रतीत होती है । इस जानकारी के अनुसार, व्यास की वैदिक शिष्यपरंपरा के ऋक्, यजु, साम एवं अथर्व ऐसें चार प्रमुख विभाग थे । व्यास की उपर्युक्त शिष्यपरंपरा में से ‘मौखिक’ सांप्रदाय के प्रमुख आचार्यों की नामावलि ‘वैदिक धर्मग्रन्थ’ की तालिका में दी गयी है ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास की ऋक्शिष्यपरंपरा का प्रमुख शिष्य पैल था । व्यास से प्राप्त ऋक् संहिता की दो संहिताएँ बना कर पैल ने उन्हें अपने इंद्रप्रमति एवं बाष्कल (बाष्कलि) नामक दो शिष्यों को प्रदान किया।
(अ) बाष्कल-शाखा-- यही संहिता आगे चल कर बाष्कल ने अपने निम्नलिखित शिष्यों को सिखायीः-- १. बोध्य (बोध, बौध्य); २. अग्निमाठर (अग्निमित्र, अग्निमातर); ३. पराशर; ४. याज्ञवल्क्य; ५. कालायनि (वालायनि); ६. गार्ग्य (भज्य); ७. कथाजव (कासार) । इनमें से पहले चार शिष्यों के नाम सभी पुराणों में प्राप्त है, अंतिम नाम केवल भागवत एवं विष्णु में ही प्राप्त है ।
(आ) इंद्रप्रमति-शाखा---इंद्रप्रमति का प्रमुख शिष्य माण्डुकेय (मार्कंडेय) था । आगे चल कर माण्डुकेय ने वह संहिता अपने पुत्र सत्यश्रवस् को सिखायी। सत्यश्रवस् ने उसे अपने शिष्य सत्यहित को, एवं उसने अपने पुत्र सत्यश्री को सिखायी। विष्णु में इंद्रप्रमति के द्वितीय शिष्य का नाम शाकपूणि (शाकवैण) रथीतर दिया गया है, किन्तु वायु एवं ब्रह्मांड में सत्यश्री शाकपूणि को सत्यश्री का पुत्र बताया गया है ।
(इ) सत्यश्री-शाखा-- सत्यश्री के निम्नलिखित तीन सुविख्यात शिष्य थेः---१. देवमित्र शाकल्य, जिसे भागवत में सत्यश्री का नहीं, बल्कि माण्डुकेय का शिष्य कहा गया है । २. शाकवैण रथीतर (रथेतर, रथान्तर); ३. बाष्कलि भारद्वाज, जिसे भागवत में जातूकर्ण्य कहा गया है ।
(ई) देवमित्र शाकल्य-शाखा-- देवमित्र के निम्नलिखित शिष्य प्रमुख थेः-- १. मुद्गल; २. गोखल (गोखल्य, गोलख); ३. शालीय (खालीय, खलियस्); ४. वत्स (मत्स्य., वास्त्य, वास्य); ५. शैशिरेय (शिशिर); ६. जातूकर्ण, जिसका निर्देश केवल भागवत में ही प्राप्त है ।
(उ) शाकवैण रथीतर-शाखा-- इसके निम्नलिखित चार शिष्य प्रमुख थेः-- १. केतव (क्रौंच, पैज, पैल); २. दालकि (वैतालिक, वैताल, इक्षलक); ३. शतबलाक (बलाक, धर्मशर्मन्); ४. नैगम (निरुक्तकृत, विरज गज, देवशर्मन्) ।
(ऊ) बाष्कलि भारद्वाज-शाखा-- इसके निम्नलिखित तीन शिष्य प्रमुख थेः---१. नंदायनीय (अपनाप); २. पन्नगारि; ३. अर्जव (अर्यव)
[विष्णु. ३.४.१६-२६] ;
[भा. १२.६.५४-५९] ;
[वायु. ६०.२४-६६] ;
[ब्रह्मांड. २.३४-३५] ।
व्यास (पाराशर्य) n. १
ऋग्वेद - पैल
यजुर्वेद - वैशंपायन
सामवेद - जैमिनि
अथर्ववेद - सुमन्त
२
ऋग्वेद - इंद्रप्रमति, वाष्कल
यजुर्वेद - -
सामवेद - सुमन्तु - जैमिनि
अथर्ववेद - कबंध
३
ऋग्वेद - बोध्य, याज्ञवल्क्य, पराशर, माण्डुकेय
यजुर्वेद - याज्ञवल्क्य - ब्रह्मराति
सामवेद - सुत्वन् - जैमिनि
अथर्ववेद - पथ्य, देवादर्श
४
ऋग्वेद - सत्यश्रवस्
यजुर्वेद - तित्तिरी
सामवेद - सुकर्मन् - जैमिनि
अथर्ववेद - पिप्पलाद
५
ऋग्वेद - सत्यहित
यजुर्वेद - -
सामवेद - पौष्पिण्ड्य
अथर्ववेद - जाजलि - शौनक
६
ऋग्वेद - सत्यश्री
यजुर्वेद - माध्यंदिन, काण्व
सामवेद - लौगाक्षि, कुथुमि, कुशितिन्, लांगलि
अथर्ववेद - सैन्धवायन, बभ्रु
७
ऋग्वेद - शाकल्य, वाष्कलि, शाकपूर्ण
यजुर्वेद - याज्ञवल्क्य
सामवेद - राणायनीय, तण्डिपुत्र, पराशर, भागवित्ति
अथर्ववेद - -
८
ऋग्वेद - पन्नगारि, शैशिरेय, वत्स, शतबलाक
यजुर्वेद - श्यामायनि, आसुरि अलम्बि
सामवेद - -
अथर्ववेद- - मुंजकेश
९
ऋग्वेद - -
यजुर्वेद - -
सामवेद - लोमगायनि, पाराशर्य, प्राचीनयोग
अथर्ववेद - -
१०
ऋग्वेद - -
यजुर्वेद - -
सामवेद - आसुरायण, पतंजलि
अथर्ववेद - -
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास के प्रमुख शिष्यप्रशिष्यों को ‘शाखाप्रवर्तक आचार्य’ कहा जाता है, एवं उन्हींके द्वारा प्रणीत संहितापरंपरा को ‘शाखा’ कहा जाता है । इन विभिन्न शाखाओं द्वारा पुरस्कृत वैदिक संहिता यद्यपि एक ही थी, फिर भी विभिन्न ‘दृष्टिविभ्रम’ एवं ‘स्वरवर्ण’ (उच्चारपद्धति) के कारण हरएक शाखा की संहिता विभिन्न बन जाती थी । पौराणिक साहित्य में ऋग्वेद के विभिन्न शाखाओं का यद्यपि निर्देश है, फिर भी इनमें से बहुत ही थोड़ी शाखाएँ व्यासशिष्य परंपरा में निर्दिष्ट आचार्यों के नामों से मिलती जुलती दिखाई देती है । पतंजलि महाभाष्य एवं महाभारत में ऋग्वेद की इक्कीस शाखाओं का निर्देश प्राप्त है । किंतु उनकी नामावलि वहाँ अप्राप्य है
[महा. १] ;
[म. शां. ३३०.३२] ;
[कर्म. पूर्व. ५२.५९] । ‘चरणव्यूह’ में ऋग्वेद की निम्नलिखित पाँच शाखाओं का निर्देश प्राप्त हैः-- १. शाकल (शैशिरीय); २. बाष्कल; ३. आश्र्वलायन; ४. शांखायन; ५. मण्डूकायन। इनमें से शाकल, बाष्कल एवं माण्डूकायन इन शाखा प्रवर्तकों का निर्देश व्यास की वैदिक शिष्यपरंपरा में प्राप्त है । किन्तु आश्र्वलायन एवं शांखायन शाखाओं के प्रवर्तक आचार्य कौन थे, यह कहना मुष्किल है । इन दोनो शाखाओं का निर्देश अग्नि में प्राप्त है
[अग्नि. २७१.२] । उपर्युक्त शाखाओं में से शांखायन के अतिरिक्त बाकी सारी शाखाएँ शाकल्य के शिष्यों के द्वारा शुरू की गयी थीं, जिस कारण वे ‘शाकल’ सामूहिक नाम से प्रसिद्ध है (वेदार्थदीपिका प्रस्तावना) वर्तमानकाल में उपलब्ध सायण भाष्य से सहित ऋकूसंहिता आश्र्वलायन शाखान्तर्गत मानी जाती है । ‘चरणव्यूह’ ग्रंथ के महिधर-भाष्य से यही सिद्ध होता है । सत्यव्रत सामाश्रमी के ऐतरेयालोचन में भी यही सिद्धांत प्रस्थापित किया गया है ।
व्यास (पाराशर्य) n. वेद | शाखा | उपलब्ध संहिता | ब्राह्मण | आरण्यक | उपनिषद | श्रौतसूत्र | गृह्य, धर्म एवं शुल्ब सूत् | व्याकरण |
ऋग्वेद | २१ | १ शाकल, २ बाष्कल, ३ शांख्यायन | १ ऐतरेय, २ शांख्यायन | १ ऐतरेय, २ शांख्यायन | १ ऐतरेय, २ कौषितकी, ३ बाष्कल | १ आश्वलायन, २ शांख्यायन | १ आश्वलायन (गृह्य), २ शांख्यायन (गृह्य), ३ वसिष्ठ (धर्म) | १ ऋक्प्रातिशाख्य |
कृष्णयजुर्वेद | ८६ | १ तैत्तिरीय, २ मैत्रायणी, ३ कठ, ४ कपिष्ठल | १ तैत्तिरीय, २ कठ | १ तैत्तिरीय, २ मैत्रायणी | १ तैत्तिरीय, २ महानारायण, ३ मैत्रायणी, ४ कठ, ५ श्वेताश्वेतर, ६ मैत् | १ आपस्तंब, २ बौधायन, ३ भारद्वाज, ४ मानव, ५ वाधूल, ६ वाराह, ७ वैखानस, ८ हिरण्यकेशी (सत्याषाढ) | १ आपस्तंब (गृह्य, शुल्ब, धर्म), २ कंठ (गृह्य), वाराह (गृह्य), ३ बौधायन (गृह्य, शुल्ब, धर्म), ४ मानव (गृह्य), ५ वैखानस (धर्म), ६ हिरण्यकेशी (गृह्य, धर्म) | १ तैत्तिरीय प्रातिशाख्य |
शुक्लयजुर्वेद | १५ | १ काण्व, २ माध्यंदिन | १. शतपथ काण्व (१७ काण्ड), २. शतपथ माध्यंदिन (१४ काण्ड) | १ बृहदारण्यक | १ ईशावास्य [संहिता में से ४० वाँ अध्याय] २. बृहदारण्यक | १ कात्यायन | १ पारस्कर गृह्य (कात्यायन) | १. कात्यायन प्रातिशाख्य २. भाषिकसूत्र |
सामवेद | १००० | १ कौथुम, २ राणायनीय | १ पंचविंश (प्रौढ, तांड्य), २ षडविंश, ३ सामविधान, ४ आर्षैय, ५ मंत्र, ६ दैवताध्याय, ७ वंश, ८ संहितोपनिषद्, ९ जैमिनीय, १० जैमिनीयोपानिषद् | १ जैमिनीय | १ छांदोग्य (तांड्य), २ केन [जै. उ. ब्रा. ४.१८.२१] | १ खादिर, २ द्राह्यायन, ३ लाट्यायन | १ खादिर (गृह्य), २ गोभिल (गृह्य), ३ गौतम (गृह्य और धर्म), ४ जैमिनि (गृह्य) | १. पुष्पसूत्र |
अथर्ववेद | २ | १ पिप्पलाद, २ शौनक | १ गोपथ | | १ प्रश्न, २ मांडुक्य, ३ मुंडक इत्यादि | १ वैतान | १. कौशिक | १. पंचपटलिका, २. अथर्व प्रातिशाख्य |
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास की यजुःशिष्यपरंपरा का प्रमुख शिष्य वैशंपायन था । वैशंपायन के कुल ८६ शिष्य थे, जिनमें याज्ञवल्क्य वाजसनेय प्रमुख था । आगे चल कर, याज्ञवल्क्य ने अपनी स्वतंत्र यजूर्वेद शाखा प्रस्थापित की, एवं वैशंपायन की ८५ शिष्य बाकी रहे। ये सारे शिष्य ‘तैत्तिरीय’ अथवा ‘चरकाध्वर्यु’ सामूहिक से सुविख्यात है । (अ) वैशंपायन शाखा---इस शाखा में ‘उदिच्य’ एवं मध्यदेश एवं प्राच्य ऐसी तीन उपशाखाएँ प्रमुख थीं, जिनके प्रमुख आचार्य क्रमशः श्यामायनि, आसुरी एवं आलम्बि थे । (आ) याज्ञवल्क्य शाखा---इस शाखा में अंतर्गत याज्ञवल्क्य के शिष्य ‘वाजिन’ अथवा ‘वाजसनेय’ सामूहिक नाम से सुविख्यात थे । याज्ञवल्क्य के पंद्रह शाखाप्रवर्तक शिष्यों का निर्देश वायु एवं ब्रह्मांड में प्राप्त है, जिनमें से ब्रह्मांड में प्राप्त नामावली नीचे दी गयी हैः-- १. कण्व; २. बौधेय; ३. मध्यंदिन; ४. सापत्य; ५. वैधेय; ६. आद्ध; ७. बौद्धक; ८. तापनीय; ९. वास; १०. जाबाल; ११. केवल; १२. आवटिन्; १३. पुण्ड्र; १४. वैण; १५. पराशर
[ब्रह्मांड. २.३५.८-३०] ;याज्ञवक्ल्य वाजसनेय देखिये ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास की सामशिष्यपरंपरा का प्रमुख शिष्य जैमिनि था, जिसके पुत्रपौत्रों ने सामशिष्यपरंपरा आगे चलायी । जैमिनि के सामशिष्यपरंपरा का विद्यावंश निम्नप्रकार थाः-- जैमिनि-सुमंतुसुत्वत् (सुन्वत्)- सुकर्मन् ।
(अ) सुकर्मन्-शाखा-- सुकर्मन् ने ‘सामवेदसंहिता’ के एक हजार संस्करण बनायें, एवं उनमें से पॉंचसौ संहिता पौष्यंजि नामक आचार्य को, एवं उर्वरीत पाँचसौ हिरण्यनाभ कौशल्य (कौशिक्य) राजा को प्रदान की । उनमें से पौष्यांजे एवं हिरण्यनाभ के शिष्य क्रमशः ‘उदीच्य सामग’ एवं ‘प्राच्य सामग’ नाम से सुविख्यात हुए । विष्णु में इन दोनों सामशिष्यों की संख्या प्रत्येक की पंद्रह बतायी गयी है । हिरण्यनाभ के शिष्यों में कृत (कृति) प्रमुख था, जो एक प्रमुख शाखाप्रवर्तक आचार्य माना जाता है ।
(आ) कृत-शाखा---कृत के कुल चौबीस शिष्य थे, जिनकी नामावलि वायु एवं ब्रह्मांड में निम्नप्रकार दी गयी हैः---१. राडि (राड); २. राडवीय (महावीर्य); ३. पंचम; ४. वाहन; ५. तलक (तालक); ६. मांडुक (पांडक); ७. कालिक, ८. राजिक, ९. गौतम; १०. अजवस्ति, ११. सोंराजायन (सोंराज); १२. पुष्टि (पृष्ठघ्न); १३. परिकृष्ट; १४. उलूखलक; १५. यवियस; १६. शालि (वैशाल); १७. अंगुलीय; १८. कौशिक; १९. शालिमंजरिपाक (सालिजीमंजरिसत्य); २०. शधीय (कापीय); २१. कानिनि (कानिक), २२. पाराशर्य (पराशर); २३. धर्मात्मन्; २४. वाँ नाम प्राप्त नहीं है ।
(इ) पौष्यंजि-शाखा---पौष्यंजि के निम्नलिखित शिष्य प्रमुख थेः-- १. लौगाक्षि (लौकाक्षि, लौकाक्षिन्); २. कुशुभि; ३. कुशीदि (कुसीद, कुसीदि); ४. लांगलि (मांगलि), जिसे ब्रह्मांड एवं वायु में ‘शालिहोत्र’ उपाधि प्रदान की गयी है; ५. कुल्य; एवं ६. कुक्ष।
(ई) लांगलि-शाखा-- लांगलि के निम्नलिखित छः शिष्य थे, जो ‘लांगल’अथवा ‘लांगलि’ सामूहिक नाम से प्रसिद्ध थेः-- १. हालिनी (भालुकि); २. ज्यामहानि (कामहानि); ३. जैमिनि; ४. लोमगायनि (लोमगायिन्); ५. कण्डु (कण्ड); ६. कोहल (कोलह) ।
(उ) लौगाक्षि-शाखा---लौगाक्षि के निम्नलिखित छः शिष्य थेः-- १. राणानीय (नाडायनीय); २. सहतंडिपुत्र; ३. वैन (मूलचारिन्); ४. सकोतिपुत्र (सकतिपुत्र); ५. सुसहस् (सहसात्यपुत्र); ६. इनमें से राणायनीय के निम्नलिखित दो शिष्य थेः-- १. शौरिद्यु (शोरिद्यु); २. शृंगीपुत्र। इनमें से शृंगीपुत्र के वैन (चैल); प्राचीनयोग एवं सुबाल नामक तीन शिष्य थे ।
(उ) कुथुमि अथवा कुशुमिशाखा---कुथुमि के निम्नलिखित तीन शिष्य थेः---१. औरस (पाराशर्य कौथुम); २. नाभिवित्ति (भागवित्ति); ३. पाराशरगोत्री (रसपासर) । इनमें से औरस (पाराशर्य कौथुम) के निम्नलिखित छः शिष्य थेः-- १. आसुरायण; २. वैशाख्य; ३. वेदवृद्ध; ४. पारायण; ५. प्राचीनयोगपुत्र; ६. पतंजलि। इन शिष्यों में से पौष्यंजि एवं कृत ये दो शिष्य प्रमुख होने के कारण उन्हें ‘सामसंहिताविकल्पक’ कहा गया है
[ब्रह्मांड. २.३५.३१-५४] ;
[वायु ६१.२७-४८] ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास की अथर्व शिष्यपरंपरा का प्रमुख शिष्य सुमन्तु था । सुमन्तु के शिष्य का नाम कव्रंध था, जिसके निम्नलिखित दो शिष्य थेः-- १. देवदर्शन (वेददर्श, वेदस्पर्श); २. पथ्य।
(अ) देवदर्श-शाखा-- देवदर्श के निम्नलिखित पाँच शिष्य थेः--
१. शौल्कायनि (शौक्वयनि);
२. पिप्पलाद (पिप्पलायनि);
३. ब्रह्मबल (ब्रह्मबलि);
४. मोद (मोदोष, मौद्ग);
५. तपन (तपसिस्थित) ।
(आ) पथ्य-शाखा---पथ्य के निम्नलिखित तीन शिष्य थेः--
१. जजलि;
२. कुमुदादि (कुमुद);
३. शौनक (शुनक) ।
(इ) शौनक-शाखा---शौनक के निम्नलिखित दो शिष्य थेः--
१. बभ्रु, जिसे ब्रह्मांड एवं वायु में ‘मुंजकेश्य,’ एवं ‘मुंजकेश’ उपाधियाँ प्रदान की गयी है ।
२. ??
(ई) सैंधवायन-शाखा-- सैंधवायन के दोनों शिष्यों ने प्रत्येकी दो दो संहिताओं की रचना की थी ।
व्यास (पाराशर्य) n. इस संहिता के निम्नलिखित पाँच कल्प माने गये हैः-- १. नक्षत्रकल्प, २. वेदकल्प (वैतान) ३. संहिताकल्प; ४. आंगिरसकल्प; ५. शान्तिकल्प
[विष्णु. ३.६.९-१४] ;
[भा. १२.७.१-४] ;
[वायु. ६१.४९-५४] ;
[ब्रह्मांड २.५.५५-६२] ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास के द्वारा किये गये वैदिक संहिताओं के विभाजन को आदर्श मान कर, आगे चल कर संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद तथा श्रौत, गृह्य, धर्म, शुल्बसूत्र आदि वैदिक साहित्य का विस्तार हुआ। व्यास के शिष्यपरंपरा में से अनेकानेक आचार्यों का निर्देश यद्यपि पुराणों में प्राप्त है, फिर भी, इन आचार्यों के द्वारा निर्माण की गयी बहुत सारी ग्रंथसंपत्ति आज अप्राप्य, अतएव अज्ञात है । इस कारण संभवतः यही है कि, व्यास की उपर्युक्त सारी शिष्यपरंपरा ‘ग्रांथिक’ न हो कर ‘मौखिक’ थी, जिनका प्रमुख कार्य ग्रंथनिष्पत्ति नहीं, बल्कि वैदिक संहितासाहित्य की मौखिक परंपरा अटूट रखना था । व्यास के कई अन्य शिष्यों के द्वारा रचित वैदिक ग्रंथसंपत्ति में से जो भी कुछ साहित्य उपलब्ध है, उसकी जानकारी (‘वैदिक साहित्य के धर्मग्रंथों की तालिका’) में दी गयी है ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास के द्वारा विभाजन की गयी वैदिक संहिताएँ विशुद्ध रूप में कायम रखने के लिये व्याकरणशास्त्र, उच्चारणशास्त्र, वैदिक स्वरों का लेखनशास्त्र आदि अनेकानेक विभिन्न शास्त्रों का निर्माण हुआ, जिनकी संक्षिप्त जानकारी नीचे दी गयी है । वैदिक व्याकरणविषयक ग्रंथों में शौनककृत ‘ऋक्प्रातिशाख्य’, ‘तैत्तिरीय प्रातिशाख्य,’ कात्यायनकृत ‘शुक्लयजुर्वेद प्रातिशाख्य,’ अथर्ववेद का ‘पंचपटलिका ग्रंथ’, एवं सामवेद का ‘पुष्पसूत्र,’ आदि ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय है । वैदिक मंत्रों के उच्चारणशास्त्र के संबंध में अनेकानेक शिक्षाग्रंथ प्राप्त हैं, जिनमें वेदों के उच्चारण की संपूर्ण जानकारी दी गयी है । इन शिक्षा-ग्रंथों में अनुस्वार एवं विसर्गों के नानाविध प्रकार, एवं उनके कारण उत्पन्न होनेवाले उच्चारणभेदों की जानकारी भी दी गयी है । वैदिक साहित्य की परंपरा शुरू में ‘मौखिक’ पद्धति से चल रही थी । आगे चल कर, इन मंत्रों का लेखन जग शुरू हुआ, तब उच्चारानुसारी लेखन का एक नया शास्त्र वैदिक आचार्यों के द्वारा निर्माण हुआ । इस शास्त्र के अनुसार, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि स्वरों के लेखन के लिए, अनेकानेक प्रकार के रेखाचिन्ह वैदिक मंत्रों के अक्षरों के ऊपर एवं नीचे देने का क्रम शुरू किया गया । यजुर्वेद संहिता में तो वैदिक मंत्रों के अक्षरों के मध्य में भी स्वरचिह्नों का उपयोग किया जाता है । विनष्ट हुए ‘ब्राह्मण ग्रन्थ’ ब्राह्मण ग्रंथों में से जिन ग्रन्थों के उद्धरण वैदिक साहित्य में मिलते है, किंतु जिसके मूल ग्रंथ आज अप्राप्य है, ऐसे ग्रन्थों की नामावलि निम्नप्रकार हैः--
(१). ऋग्वेदीय ब्राह्मण-ग्रन्थ १. शैलालि।
(२) कृष्णयजुर्वेदीय ब्राह्मण- ग्रन्थ---१. आह्वरक; २. कंकटिन्; ३. चरक; ४. छागलेय (तैत्तिरीय); ५. पैंग्यायनि; ६. मैत्रायणी; ७. श्र्वेताश्र्वतर (चरक, चारायणीय); ८. हारिद्राविक (चरक, चारायणीय) ।
(३) शुक्लयजुर्वेदीय ब्राह्मण-ग्रन्थ-- १. जाबालि।
(४) सामवेदीय ब्राह्मण-ग्रन्थ-- १. जैमिनीय २. तलवकार (राणायनीय); ३. कालवविन्; ४. भाल्लविन्; ५. रौरुकि; ६. शाट्यायन (रामायनीय); ७. माषशराविन् (वटकृष्ण घोष, कलेक्शन ऑफ दि फ्रॅग्मेन्ट्स ऑफ लॉस्ट ब्राह्मणाज) ।
व्यास (पाराशर्य) n. वैदिक ग्रंथों की पुनर्रचना के साथ साथ, व्यास ने तत्कालीन समाज में प्राप्त कथा आख्यायिका एवं गीत (गाथा) एकत्रित कर आद्य ‘पुराणग्रंथों’ की रचना की, एवं इस प्रकार यह प्राचीन पौराणिक साहित्य का भी आद्य जनक बन गया। प्राचीन भारत में उत्पन्न हए राजवंश एवं मन्वन्तरों की परंपरागत जानकारी एकत्रित करना यह पुराणों का आद्य हेतु है । किन्तु उसका मूल अधिष्ठान नीतिप्रवण धर्मग्रंथों का है, जहाँ धर्म एवं नीति की शिक्षा सामान्य मनुष्यमात्र की बौद्धिक धारणा ध्यान में रखकर दी गयी है । पंचमहाभूत, प्राणिसृष्टि एवं मनुष्यसृष्टि की ओर भूतदयाबाद का आदर्श पुराणग्रंथों में रखा गया है, जहाँ व्रत, उपासना एवं तपस्या को अधिकाधिक प्राधान्य दिया गया है । कुटुम्ब, राज्य, राष्ट्र, शासन आदि की ओर एक आदर्श नागरिक के नाते हर एक व्यक्ति के क्या कर्तव्य हैं, इनका उच्चतम आदर्श सामान्य जनों के सम्मुख पुराण ग्रंथ रखते है । इस प्रकार जहाँ राज्यशासन के विधिनियम अयशस्वी होते हैं, वहाँ पुराणग्रंथों का शासन सामान्य जनमानस पर दिखाई देता है ।
व्यास (पाराशर्य) n. पौराणिक साहित्य के ‘महापुराण’, ‘उपपुराण’ एवं ‘उपोपपुराण’ नामक तीन प्रमुख प्रकार माने जाते है । जिन पुराणों में वंश, वंशानुचरित, मन्वन्तर, सर्ग एवं प्रतिसर्ग आदि सारे विषयों का समावेश किया जाता है, उन पुराणों को महापुराण कहते हैं -- आख्यानैश्र्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः। पुराणसंहितां चक्रे पुराणार्थविशारदः।।
[विष्णु. ३.६.१६-१६] उपर्युक्त विषयों में से एक ही उपांग पर जो पुराणग्रंथ आधारित रहता है, उसे ‘उपपुराण’ कहते है । उपोपपुराण स्वतंत्र ग्रंथ न हो कर, महापुराण का ही एक भाग रहता है ।
व्यास (पाराशर्य) n. पौराणिक साहित्य में चर्चित विषयों की जानकारी वायु में प्राप्त है, जिसके अनुसार ब्रह्मचारिन्, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्सासी, रागी, विरागी, स्त्री, शूद्र एवं संकर जातियों के लिए सुयोग्य धर्माचरण क्या हो सकता है, इसकी जानकारी पुराणों में प्राप्त होती है । इन ग्रंथों में यज्ञ, व्रत, तप, दान, यम, नियम, योग, सांख्य, भागवत, भक्ति, ज्ञान, उपासनाविधि आदि विभिन्न धार्मिक विषयों की जानकारी प्राप्त है । पुराणों में समस्त देवताओं का अविरोध से समावेश करने का प्रयत्न किया गया है, एवं ब्राह्म, शैव, वैष्णव, सौर, शाक्त, सिद्ध आदि सांप्रदायों के द्वारा प्रणीत उपासना वहाँ आत्मौपम्य बुद्धि से दी गयी है । देवताओं का माहात्म्य बढाना, एवं उनके उपासनादि का प्रचार करना, यह पुराणग्रंथों का प्रमुख उद्देश्य है ।
व्यास (पाराशर्य) n. मत्स्य में पुराणों के सात्विक, राजस एवं तामस तीन प्रकार बताये गये है । मत्स्य में प्रतिपादन किया गया पुराणों का यह विभाजन देवताप्रमुखत्व के तत्त्व पर आधारित है, एवं विष्णु, ब्रह्मा एवं अग्नि शिव की उपासना प्रतिपादन करनेवाले पुराणों को वहाँ क्रमशः ‘सात्विक’, ‘राजस’ एवं ‘तामस’ कहा गया है । सरस्वती एवं पितरों का माहात्म्य कथन करनेवाले पुराणों को वहाँ ‘संकीर्ण’ कहा गया है
[मत्स्य. ५३.६८-६९] । पद्म एवं भविष्य में भी पुराणों के सात्विक आदि प्रकार दिये गये है, किन्तु वहाँ इन पुराणों का विभाजन विभिन्न प्रकार से किया गया है
[पद्म. उ. २३६.८१-८५ आनंदाश्रम संस्करण] ;
[भविष्य. प्रति. ३.२८.१०-१५] ।
व्यास (पाराशर्य) n. विभिन्न पुराणों की श्र्लोकसंख्या बहुत सारे पुराणों में दी गयी है, जिसमें प्रायः एकवाक्यता है । पुराणों के इसी श्र्लोकसंख्या से विशिष्ट पुराण पूर्ण है, या अपूर्णावस्था में उपलब्ध है, इसका पता चलता है ।
व्यास (पाराशर्य) n. पुराणों का कथन करनेवाले आचार्यों को ‘वक्ता’ कहा जाता है, जिनकी सविस्तृत नामावलि भविष्य पुराण में प्राप्त है
[भवि. प्रति. ३.२८.१०-१५] ।
व्यास (पाराशर्य) n. महापुराणों की संख्या अठारह बतायी गयी है, जिनके नामों के संबंध में प्रायः सर्वत्र एकवाक्यता है । इन पुराणों के नाम, उनके अधिष्ठात्री देवता, श्र्लोकसंख्या एवं निवेदनस्थल आदि की जानकारी ‘महापुराणों की तालिका’ में दी गयी है । इस तालिका में जिन पुराणों के नाम के आगे ’*’ चिन्ह लगाया गया है, उनके महापुराण होने के संबंध में एकवाक्यता नहीं है ।
व्यास (पाराशर्य) n. | महापुराण | वक्ता | देवता | गुण | श्लोक संख्या | अपूर्ण या पूर्ण | प्रसंग एवं स्थल |
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१. | अग्नि (सर्वविद्यायुक्त) | आंगिरस् (अग्निवसिष्ठ संवाद) | अग्नि | तामस | १५,४०० | अपूर्ण | नैमिषारण्य |
२. | कूर्म | व्यास | शिव | सात्विक | १७,००० | अपूर्ण | नैमिषारण्य सत्र |
३. | गरुड | हरि | विष्णु | सात्विक | १९,००० | अपूर्ण | नैमिषारण्य |
४. | नारद | नारद | विष्णु | सात्विक | २५,००० | अपूर्ण | नैमिषारण्य, सिद्धाश्रम |
५. | पद्म | ब्रह्मन् (रोमहर्षण पुत्र प्रोक्त) | ब्रह्मन् | सात्विक | ५५,००० | अपूर्ण (प्रक्षेपयुक्त) | नैमिषारण्य |
६. | ब्रह्म | ब्रह्मन् - मरीचि संवाद | ब्रह्मन् | राजस | १०,००० | पूर्ण | नैमिषारण्य, द्वादशवार्षिकसत्र |
७. | ब्रह्मवैवर्त | सावर्णि - नारद संवाद | सूर्य | राजस | १८,००० | पूर्ण | नैमिषारण्य |
८. | नृसिंह | व्यास | विष्णु | | | | सूत - भारद्वाज संवाद, प्रयाग |
९. | ब्रह्मांड | तंडिन् | शिव | राजस | १२,००० | पूर्ण | नैमिषारण्य, सहस्रवार्षिकसत्र |
१०. | भविष्य | सुमन्तु शतानीक | शिव | राजस | १४,५०० | अपूर्ण | शतानीकनृपसभा |
११. | भागवत (अ) विष्णु (ब) देवी | शुक | विष्णु देवी | सात्विक | १८,००० | पूर्ण | सहस्रवार्षिकसत्र |
१२. | मत्स्य | व्यास | शिव | तामस | १४,००० | अपूर्ण | नैमिषारण्य, दीर्घसत्र |
१३. | मार्कंडेय | मार्केंडेय | शिव | राजस | ९,००० | अपूर्ण | |
१४. | लिंग | तंडिन् | शिव | राजस | ११,००० | पूर्ण | नैमिषारण्य |
१५. | वराह | मार्केंडेय | शिव | सात्विक | २४,००० | अपूर्ण | पृथ्वी -वराह संवाद |
१६. | वामन | व्यास | शिव | राजस | १०,००० | अपूर्ण | |
१७. | वायु | व्यास | शिव | | २४,००० | पूर्ण | |
१८. | विष्णु | पराशर | विष्णु | सात्विक | ७००० | पूर्ण | दृषद्वतीतीर दीर्घसत्र हिमालय राक्षससत्र |
१८ (अ). | विष्णुधर्मोत्तर | पराशर | विष्णु | सात्विक | १६००० | पूर्ण | दृषद्वतीतीर दीर्घसत्र हिमालय राक्षससत्र |
१९. | शिव | व्यास | शिव | तामस | २४,००० | पूर्ण | प्रयाग महासत्र |
२०. | स्कंद | शिव | शिव | तामस | ८१,००० | अपूर्ण | नैमिषारण्य, दीर्घसत्र |
व्यास (पाराशर्य) n. उपपुराणों की संख्या भी अठारह बतायी गयी है, किन्तु विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में से कौन-कौन से ग्रंथों का ‘अठारह उपपुराणों’ की नामावलि में समाविष्ट करना चाहिये, इस संबंध में मतैक्य नहीं है । विभिन्न पुराणों में प्राप्त उपपुराणों के नाम नीचे दीये गये हैः---आखेटक, आंगिरस, आण्ड, आद्य, आदित्य, उशनस्, एकपाद, एकाभ्र, कपिल, कालिका, काली, कौमार, कौर्म, क्रियायोगसार, गणेश, गरुड, दुर्वास, देवी, दैव, धर्म, नंदी, नारद, नृसिंह, पराशर, प्रभासक, बार्हस्पत्य, बृहद्धर्म, बृहन्नंदी, बृहन्नारद, बृहन्नारसिंह, बृहद्वैष्णव, ब्रह्मांड, भागवत (देवी अथवा विष्णु), भार्गव, भास्कर, मानव, मारीच, माहेश, वसिष्ठ, मृत्युंजय, लीलावती, वामन, वायु, वरुण, विष्णुधर्म, लघुभागवत, शिवधर्म, शौकेय, सनत्कुमार, सांब, सौर (ब्रह्म) एकाभ्र. १.२०-२३;
[कूर्म. पूर्व. १.१७-२०] ;
[गरुड. १.२२३] ; १७-२०;
[दे. भा. १.३.१३-१६] ;
[स्कंद. प्रभास. २.११-१५] ;
[सूतसंहिता १.१३-१८] ;
[पद्म. पा. ११५] ; उ. ९४-९८;
[ब्रह्मांड. १.२५.२३-२६] ; पराशर. १.२८-३१;
[वारुण. १] ;
[मत्स्य. ५३.६०-६१] ।
व्यास (पाराशर्य) n. पुराणों के शैव, वैष्णव, ब्राह्म, अग्नि आदि विभिन्न प्रकार है, जो उनके द्वारा प्रतिपादित उपासना-सांप्रदायों के अनुसार किये गये है । उपास्य दैवतों के अनुसार, पुराणों का विभाजन निम्न प्रकार किया जाता हैः-- (१) शिव-उपासना के पुराण---१. कूर्म; २. ब्रह्मांड; ३. भविष्य; ४. मत्स्य; ५. मार्कंडेय; ६. लिंग; ७. वराह; ८. वामन; ९. शिव; १०. स्कंद। (२) विष्णु-उपासना के पुराण---१. गरुड; २. नारद; ३. भागवत; ४. विष्णु। (३) ब्रह्मा-उपासना के पुराण---१. अग्नि। (५) सवितृ-उपासना के पुराण---१. ब्रह्मवैवर्त
[स्कंद. शिवरहस्य. संभव. २.३०-३८] ; पंडित ज्वालाप्रसाद, अष्टादशपुराणदर्पण. पृ. ४६ ।
व्यास (पाराशर्य) n. कूर्मपुराण में निम्नलिखित ‘गीताग्रंथ’ प्राप्त है, जो महाभारत में प्राप्त ‘भगवद्गीता’ के ही समान श्रेष्ठ श्रेणि के तत्त्वज्ञानग्रंथ माने जाते हैः-- १. ईश्र्वरगीता
[कूर्म. उत्तर. १-११] ; २. व्यासगीता
[कूर्म. उत्तर. १२-२९] इत्यादि ।
व्यास (पाराशर्य) n. पुराणग्रंथों के निर्माण के पश्र्चात्, व्यास ने ये सारे ग्रंथ अपने पुराणशिष्यपरंपरान्तर्गत प्रमुख शिष्य रोमहर्षण ‘सूत’ को सिखाये, जो आगे चल कर व्यास के पुराणशिष्यपरंपरा का प्रमुख आचार्य बन गया। रोमहर्षण शाखा---रोमहर्षण के शिष्यों में निम्नलिखित आचार्य प्रमुख थेः-- १. सुमति आत्रेय (त्रैयारुणि); २. अकृतव्रण काश्यप (कश्यप); ३. अग्निवर्चस् भारद्वाज; ४. मित्रयु वसिष्ठ; ५. सोंदत्ति सावर्णि
[ब्रह्मांड. २.३५.६३-६६] ;
[भा. १२.६] ; ६. सुशर्मन् शांशपायन (शांतपायन)
[वायु. ६१.५५-५७] ;
[विष्णु. ३.६.१५-१८] ; ७. वैशंपायन; ८. हस्ति; ९. सूत ।
व्यास (पाराशर्य) n. पौराणिक साहित्य के साथसाथ संस्कृत साहित्य का आद्य एवं सर्वश्रेष्ठ ‘इतिहास पुराण ग्रंथ’ माने गये ‘महाभारत’ का निर्माण भी व्यास के द्वारा हुआ। शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय आरण्यक, एवं छांदोग्य उपनिषद में ‘इतिहास पुराण’ नामक साहित्य प्रकार का निर्देश प्राप्त है । किन्तु इन ग्रंथों में निर्दिष्ट ‘इतिहास पुराण’ स्वतंत्र ग्रंथ न हो कर, आख्यान एवं उपाख्यान के रूप में ब्राह्मणादि ग्रंथों में ग्रथित किये गये थे । ये आख्यान अत्यंत छोटे होने के कारण, उनका विभाजन ‘पर्व’ ‘उपपर्व’ आदि उपविभागों में नहीं किया जाता था, जैसा कि उन्हीं ग्रंथों में निर्दिष्ट ‘सर्पविद्या,’ ‘देवजनविद्या’ आदि पौराणिक कथानकों में किया गया है ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास की श्रेष्ठता यह हैं कि, इसने ब्राह्मणादि ग्रंथों में निर्दिष्ट ‘इतिहास-पुराण’ साहित्य जैसा तत्कालीन राजकीय इतिहास, ‘सर्पविद्या’ जैसे पौराणिक कथानकों के लिए ही उपयोग किये गये पर्व, उपपर्वादि से युक्त साहित्यप्रकार में बाँध लिया । इस प्रकार यह एक बिल्कुल नये साहित्यप्रकार का आद्य जनक बन गया, एवं इसके द्वारा विरचित ‘महाभारत’ बृहदाकार ‘इतिहास पुराण’ साहित्य का आद्य ग्रंथ साबित हुआ । भारतीययुद्ध में विजय प्राप्त करनेवाले पाण्डुपुत्रों की विजयगाथा चित्रित करना, यह इसके द्वारा रचित ‘जय’ नामक ग्रंथ का मुख्य हेतु था । पाण्डुपुत्रों के पराक्रम का इतिहास वर्णन करते समय, इसने तत्कालीन धार्मिक, राजनैतिक तत्त्वज्ञानों के समस्त स्त्रोतों को अपने ग्रंथ में ग्रथित किया। इतना ही नहीं, इसी राजनीति को धार्मिक, राजनैतिक एवं अध्यात्मिक आधिष्ठान दिलाने का सफल प्रयत्न व्यास के इस ग्रंथ में किया गया है । अपने इस ग्रंथ में, आदर्श राजनैतिक जीवन के उपलक्ष में प्राप्त भारतीय तत्त्वज्ञान व्यास के द्वारा ग्रथित किया गया है । इस प्रकार व्यक्तिविषयक आदर्शों को शास्त्रप्रमाण्य एवं तत्त्वज्ञान की चौखट में बिठाने के कारण, महाभारत सारे पुराणग्रंथों में एक श्रेष्ठ श्रेणि का तत्त्वज्ञानग्रंथ बन गया है । धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इन चतुर्विध पुरुषार्थों के आचरण में ही मानवीय जीवन की इतिकर्तव्यता है, एवं कर्म, ज्ञान, उपासना आदि से प्राप्त होनेवाला मोक्ष अन्य तीन पुरुषार्थों के आचरण के बिना व्यर्थ है, यही संदेश व्यास के द्वारा महाभारत में दिया गया है । व्यास के द्वारा विरचित महाभारत के इस राजनैतिक एवं तात्त्विक अधिष्ठान केकारण, यह एक सर्वश्रेष्ठ एवं अमर इतिहास-ग्रंथ बना है । इस ग्रंथ की सर्वंकषता के कारण, मानवी जीवन के एवं समस्याओं के सारे पहलू किसी न किसी रूप में इस ग्रंथ में समाविष्ट हो चुके हैं, जिस कारण ‘व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्’ यह आर्षवाणी सत्य प्रतीत होती है (वैशंपायन एवं वाल्मीकि देखिये) ।
व्यास (पाराशर्य) n. इस ग्रंथ की विषयव्याप्ति बताते समय स्वयं व्यास ने कहा है, ‘हस्तिनापुर के कुरुवंश का इतिहास कथन कर पाण्डुपुत्रों की कीर्ति संवर्धित करने के लिए इस ग्रंथ की रचना की गयी है । इस वंश में उत्पन्न गांधारी की धर्मशीलता, विदुर की बुद्धिमत्ता, कुंती का धैर्य, श्रीकृष्ण का माहात्म्य, पाण्डवों की सत्यपरायणता एवं धृतराष्ट्रपुत्रों का दुर्व्यवहार चित्रित करना, इस ग्रंथ का प्रमुख उद्देश्य है
[म. आ. १. ५९-६०] ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास के द्वारा विचचित महाभारत ग्रंथ का नाम ‘जय’ था, जिसकी श्र्लोकसंख्या लगभग २५००० थी । अपना यह ग्रंथ इसने वैशंपायन नामकअपने शिष्य को सिखाया, जिसने आगे चल कर उसी ग्रंथ का नया परिवर्धित रूप ‘भारत’ नाम से तैयार किया, जिसका नया परिवर्धित संस्करण रोमहर्षण सौति के द्वारा ‘महाभारत’ नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकार महाभारत का प्रचलित संस्करण सौति के द्वारा तैयार किया गया है (वैशंपायन एवं रोमहर्षण सूत देखिये) ।
व्यास (पाराशर्य) n. महाभारत का विद्यमान संस्करण एक लाख श्र्लोकों का है, जो निम्नलिखित अठारह पर्वों में विभाजित हैः-- १. आदि; २. सभा; ३. वन (आरण्यक); ४. विराट; ५. उद्योग; ६. भीष्म; ७. द्रोण; ८. कर्ण; ९. शल्य; १०. सौप्तिक; ११. स्त्री; १२. शांति; १३. अनुशासन; १४. आश्र्वमेधिक; १५. आश्रमवासिक; १६. मौसल; १७. महाप्रस्थानिक; १८. स्वर्गारोहण।
व्यास (पाराशर्य) n. उपर्युक्त पर्वों में से बहुशः सभी पर्वों के अंतर्गत कई छोटे-छोटे आख्यान भी है, जिन्हें ‘उपपर्व’ कहते है । महाभारत के पर्वों में प्राप्त उपपर्वों की संख्या नीचे दी गयी हैः---१. वनपर्व---२०; २. आदिपर्व---१९; 3. उद्योगपर्व---१०; ४. सभापर्व---८; ५. द्रोणपर्व---८. ६. भीष्मपर्व---३, ९. आश्र्वमेधिकपर्व---३; १०. आश्रमवासिकपर्व ३; ११. सौप्तिकपर्व---२; १२. अनुशासनपर्व - -२ । कर्ण, मौसल, महाप्रस्थानिक एवं स्वर्गारोहण पर्वों में उपपर्व नहीं है ।
व्यास (पाराशर्य) n. महाभारतांतर्गत ‘हरिवंश’ महाभारत का ही एक भाग माना जाता है । इसी कारण उसे महाभारत का ‘खिल’ एवं ‘परिशिष्ट’ पर्व कहा जाता है । महाभारत की एक लक्ष श्लोकसंख्या भी ‘हरिवंश’ को समाविष्ट करने के पश्र्चात् ही पूर्ण होती है । ‘हरिवंश’ के निम्नलिखित तीन पर्व हैः--
१. हरिवंशपर्व [५५ अध्याय]
२. विष्णुपर्व [१२८ अध्याय];
३. भविष्यपर्व [१३५ अध्याय] ।
हरिवंश में यादववंश की सविस्तृत जानकारी प्राप्त है, जो पुरुवंश एवं भारतीय युद्ध का ही केवल वर्णन करनेवाले ‘महाभारत’ में अप्राप्य है । हरिवंश में प्राप्त यादवों के इस इतिहास से, महाभारत में दिये गये पूरुवंश के इतिहास की पूर्ति हो जाती है । भागवतादि पुराणों में यादववंश की जो जानकारी प्राप्त है, उससे कतिपय अधिक जानकारी हरिवंश में प्राप्त है । ‘हरिवंश माहात्म्य’ के छः अध्याय पद्म में उद्धृत किये गये है । किन्तु आनंदाश्रम पूना के द्वारा प्रकाशित पद्म के संस्करण में वे अध्याय अप्राप्य है । भारतसावित्री’ नामक सौ श्र्लोकों का एक प्रकरण उपलब्ध है, जिसमें भारतीय युद्ध की तिथिवार जानकारी एवं प्रमुख वीरों की मृत्युतिथियाँ दी गयी हैं ।
व्यास (पाराशर्य) n. व्यास के जीवन से संबंधित एक उद्बोधक आख्यायिका वायु में प्राप्त है । पुराणों की रचना करने के पश्र्चात् एक बार इसे संदेह उत्पन्न हुआ कि, ‘यज्ञकर्म’, ‘चिंतन’ (ज्ञान) एवं ‘उपासना’ ये परमेश्र्वरप्राप्ति के जो तीन मार्ग इसने पुराणों में प्रतिपादन किये है, वे सच है या नहीं? इसके इस संशय की निवृत्ति करने के लिए, चार ही वेद मानुषीरूप धारण कर इसके पास आये । इन वेद पुरुषों के शरीर पर यज्ञकर्म, ज्ञान एवं उपासना ये तीनों ही उपासनापद्धति विराजित थी, जिन्हें देख कर व्यास को अत्यंत आनंद हुआ, एवं अपने द्वारा प्रणीत परमेश्र्वरप्राप्ति के मार्ग सत्य होने का साक्षात्कार इसे प्राप्त हुआ
[वायु. १०४.५८-९४] ।
व्यास (पाराशर्य) n. चतुर्विधपुरुषार्थों में से केवल धर्माचरण से ही अर्थकामादि पुरुषार्थ साध्य हो सकते हैं, क्यों कि, मानवीय जीवन में एक धर्म ही केवल शाश्र्वत, चिरंतन एवं नित्य है, बाकी सारे सुखोपभोग एवं पुरुषार्थ अनित्य हैं, ऐसा व्यास का मानवजाति के लिए प्रमुख संदेश था । महाभारत पुराणादि अपने सारे साहित्य में इसने यही संदेश पुनः पुनः कथन किया। इतना ही नहीं, महाभारत के अंतिम भाग में भी इसने यही संदेश दुहराया है, जिसमें एक द्रष्टा के नाते इसकी जीवनव्यथा बहुत ही उत्स्फूर्त रूप से प्रकट हुई है -- उर्ध्वबाहुर्विरौस्येष नच कच्छिच्छृणोति माम् । धर्मादर्थश्र्च कामश्र्च स किमर्थं न सेव्यते
[म. स्व. ५.४९] । हाथ ऊंचा कर सारे संसार से मैं यह कहता आ रहा हूँ कि, अर्थ एवं काम से भी अधिक धर्म महत्त्वपूर्ण है । किंतु कोई भी मनुष्य मेरे इस कथन की ओर ध्यान नहीं देता है ।
व्यास (वादरायण) n. ब्रह्मसूत्रों का कर्ता माने गये बादरायण नामक आचार्य का नामांतर (बादरायण देखिये) । भागवत के अनुसार, यह एवं कृष्ण द्वैपायन व्यास दोनों ही व्यक्ति थे
[भा. ३.५.१९] । किंतु इस संबंध में निश्र्चित रूप से कहना कठिन है ।