च्यवन भार्गव n. . एक प्राचीन ऋषि । ऋग्वेद में इसे एक व्रुद्ध तथा जराक्रान्त व्यक्ति के रुप में दिखाया गया हैं । इसे अश्वियों ने पुनः युवावस्था तथा शक्ति प्रदान की, तथा इसे अपनी पत्नी के लिये स्वीकार्य तथा कन्याओं का पति बना दिया
[ऋ. १.११२.६,१०, ११७.१३, ११८.६, ५.७४.५,७.६८.६, १०.३९.४] । ऋग्वेद में सर्वत्र इसे च्यवन कहा गया है । च्यवन नाम से इसका निर्देश, ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य सभी वैदिक ग्रंथो में, निरुक्त में तथा महाकाव्य में मिलता है ।
[नि.४.१९] । सर्वानुक्रमणी में इसे भार्गव कहा है
[ऋ. १०.१९] । यह भृगु का पुत्र था । ब्राह्मणों में इसे दधीच कहा गया है
[श. ब्रा.४.१.५] ;
[पं. ब्रा.१४.६.१०] । ग्राम के बाहर बैठे हुए, भयानक आकृतिवाले, तथा अत्यंत वृद्ध च्यवन को, बालकों ने पत्थर मारे, आदि कथाएँ पुराणों के समान ब्राह्मणों में भी प्राप्य है । यह सामों का द्रष्टा भी था
[पं. ब्रा.१३.५.१२,१९.३.६] । ऋग्वेद में, इसे अश्विनों का मित्र, तथा इंद्र एवं उसका एक उपासक पक्थ तुर्वयाण का विरोधक दर्शाया है
[ऋ. १०.६१.१-३] । भृगु का अन्य पुत्र विदन्वत् ने इसे इंद्र के विरुद्ध सहायता की थी
[जै. ब्रा.४.१.५.१३] । आगे चल कर, इंद्र से इसकी संधि हो गई
[ऋ.८.२१.४] । यह भृगु ऋषि तथा पुलोमा का पुत्र था । पुलोमा के उदर में भृगूवीर्य से गर्भसंभव हुआ । एक बार, भृगु नदी पर स्नान करने गया । तब पुलोम नामक राक्षस ने पुलोमा का हरण किया । कई ग्रंथों में, इस राक्षस का नाम दमन भी दिया गया है
[पद्म. पा.१४] । भय के कारण, मार्ग में ही पुलोमा प्रसूत हो गई । अतः इस पुत्र को च्यवन नाम प्राप्त हो गया । च्यवन के दिव्यतेज से पुलोम जल कर भस्म हो गया । बालक को ले कर पुलोमा भृगआश्रम में वापस आई
[म.आ.४-६,६०.४४] । बडा होने पर, च्यवन वेदवेदांगो में निष्णात वना । पश्चात् यह कठोर तपस्या करने लगा । तपश्चर्या करते समय, इसके शरीर पर एक बडा वल्मीक तैय्यार हो गया । इसी वन में, राजा शर्याति अपने परिवार के साथ क्रीडा करने आया । उसकी रुपवती कन्या सुकन्या अपनी सखियों के साथ घूमते घूमते, उस वल्मीक के पास आई । उसने देखा कि, वल्मीक के अंदर कुछ चमक रहा है । चमकनेवाला पदार्थ क्या है, यह देखने के लिये उसने कांटो से उसे टोका । इससे च्यवन ऋषि की ऑखें फूट गई । अत्यंत संतप्त हो कर, इसने संपूर्णसेना समेत राजा का मलमूत्रावरोध कर दिया । राजा हाथ जोड कर इसकी शरण में आया । च्यवन ने कहा, ‘तुम्हारी कन्या मुझे दो’ । राजा ने यह मान्य किया । सुकन्या का वृद्ध च्यवन से विवाह हो गया
[म.आ.९८] । बाद में उसी वन में, सुकन्या अपने पतिसमवेत वास करने लगी । एक दिन अश्विनीकुमारों ने उसे देखा । उसने सुकन्या से कहा, ‘तुम हमारे साथ चलो’ । तब इसने अपने पातिव्रत्य से अश्वियों को आश्चर्यचकित कर दिया । सुकन्या ने कहा, ‘मेरे पति को यौवन प्रदान करो’। अश्विनीकुमारों के प्रसाद से च्यवन तरुण हुआ । एक तालाब में डुबकी लगाने के कारण, च्यवन पुनः युवा हो गया, ऐसी कथा ब्राह्मणों में दी गयी है
[श. ब्रा.४. १.१५.१] । अश्वियों का इस उपकार का बदला चुकाने के लिये, च्यवन अपने श्वसुर के गृह में गया । शर्याति राजा के हाथ से एक विशाल यज्ञ करवा कर, अश्विनीकुमारों को यह हविर्भाग देने लगा । परंतु अश्विनीयों को हविर्भाग मिलना, इंद्र को अच्छा न लगा । उसने इसे मारने के लिये वज्र उठाया । च्यवन ने इन्द्र के नाशार्थ मद नामक राक्षस उत्पन्न किया । उसे देखते ही भयभीत हो कर, इन्द्र इसे शरण आया । इसी समय से, अश्विनीकुमारों को यज्ञ में हविर्भाग मिलने लगा
[म.व.१२१-१२५] ;
[अनु.२६१ कुं] ;
[भा. ९.३] ;
[दे. भा.७.३.-७] । एक बार प्रयागक्षेत्र में च्यवन ने उदवाराव्रत का प्रारंभ किया । रातदिन यह जल में जा कर बैठता था । सब मछलियॉं इसके आसपास एकत्रित हो जाती थीं । एक बार कुछ मछुओं ने मछलियॉं पकडने के लिये जाल लगाया । तब उसमें मछलियों के साथ, च्यवन ऋषि भी पकडा गया । मछुएँ घबरा कर नहुष राजा के पास गये । राजा ने ऋषि की पूजा की । कहा, ‘आपको जो चाहिये आप मुझे से मॉंग ले’। तब च्यवन ने कहा, ‘मेरे योग्य कीमत ऑंक कर इन मछुओं को दे दे’ । अपना संपूर्ण राज्य देने के लिये राजा तैय्यार हो गया । फिर भी च्यवन की योग्य कीमत ऑंकी नहीं गई । तब गविजात नामक ऋषि ने राजा को इसे गोधन देने के लिये कहा । राजा द्वारा गायें दी जाने पर, यह अत्यंत संतुष्ट हुआ । पश्चात् इसने नहुष को गोधन का महत्त्व समझाया
[म.अनु. ८५-८७] । कुशिकवंश के कारण, अपने वंश में भिन्नजातित्व का दोष उत्पन्न होगा, यह इसने तपःसामर्थ्य से जान लिया । उस वंश का नाश करने के उद्देश्य से, यह कुशिक राजा के पास गया । उससे कहा, ‘हे राजा! मैं तपश्चर्या करना चाहता हूँ । इसलिये तुम अपनी भार्यासमवेत अहर्निश मेरी सेवा करो’। राजा ने ऋषि का यह कहना मान्य किया । तदनंतर राजा को इसने भोजन लाने को कहा । भोजन लाते ही, च्यवन ने उस भोजन को जला कर भस्म कर दिया । तदनंतर यह राजपर्यक पर निद्राधीन हो गया । राजा अपनी भार्या सहवर्तमान इसके पैर दबाने लगा । इसप्रकार एक ही करवट पर, यह २१ दिन तक सोया रहा । तब तक बिना कुछ खाये पीये, राजा इसके पैर दबाते बैठ गया । २१ दिन के बाद नींद से जागृत हो कर, यह यकायक भागने लगा । क्षण में यह दिखता था, क्षण में अदृश्य हो जाता था । ऐसी स्थिति में भी, राजा इसके पीछे भागता रहा । यह अदृश्य होते ही, राजा राजमहल में आया । उसने देखा, च्यवन सो रहा है । कुछ समय के बाद, यह जागृत हुआ । किंतु दूसरी करवट ले कर पुनः २१ दिन तक सोया । बाद में जागृत होते ही, च्यवन ने रथ को घोडों के बदले एक ओर कुशिक को तथा दूसरी ओर उसके पत्नी को जोत लिया । स्वयं हाथ में चाबुक ले कर, उन्हें मारते हुए यह अरण्य से रथ हॉंकने लगा । यह सब च्यवन ने इसी उद्देश्य से किया कि, त्रस्त हो कर कुशिक उसका तिरस्कार करें । तब इस निमित्त को ले कर, यह उसे जलाकर भस्म कर सके । इसी उद्देश्य से इसने कई प्रकारों से कुशिक को अत्यधिक कष्ट दिया । पर कुछ फायदा नहीं हुआ । अन्त में प्रसन्न हो कर इसने उस राजा को वर दिया, ‘तुम्हारे कुल में ब्राह्मण उत्पन्न होगा’
[म. अनु. ८७-९०] । इसे मनुपुत्री आरुषी से और्व नामक एक पुत्र हुआ
[म. आ.४-६] । इसका आश्रम गया में था
[वायु. १०८.७६] । च्यवन एक उत्कृष्ट वक्ता था, तथा सप्तर्षियों में से एक था
[म.अनु.८५] । इसे प्रमति नामक एक पुत्र था (म.आ.८.२। यह भृगुगोत्र का एक प्रवर भी था । यह ऋषि तथा मंत्रकार था (भार्गव देखिये) । इसे कांचन ऐसा नामांतर था
[वारा.उ.६६.१७] ।