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अंबरीष n. ऋज्राश्व, सहदेव, सुराधस् एवं भयमान, इनके साथ वार्षागिर नाम से इसका उल्लेख है [ऋ.१.१००.१७] ।
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अंबरीष II. n. (सू. नभग.) नाभाग का पुत्र [म.स. ८.१२ कुं.] । यह बडा शूर तथा धार्मिक था । यह हजारों राजाओं से अकेला लडता था । इसने लाखों राजा तथा राजपुत्र, यज्ञ में दान दिये थे । अभिमन्यु की मृत्यु से दुःखित धर्मराज की सांत्वना करने के लिये, अंबरीष की भी मृत्यु हो गयी, ऐसे नारद ने बताया [म.द्रो. ६४] ;[म.शां. २९.९३. परि १.८. पंक्ति.५८८] इसने दीर्घकाल राज्य किया [कौ. अ. २२] । एक बार कार्तिक माह की एकादशी का त्रिदिनात्मक उपोषण इसे था । द्वादशी के दिन, इसके घर पर दुर्वास अतिथि बनकर आया तथा आह्रिक करने नदी पर गया । इधर द्वादशी काल समाप्त हो रहा था, अतः इसने नैवेद्य समर्पण किया, तथा तीर्थ ले कर उपवास छोडा । यह जान कर, दुर्वास ने अपनी जटा के केशों द्वारा निर्मित एक कृत्या अंबरीष पर छोडी । इतने में, विष्णु के सुदर्शन ने कृत्या का नाश किया तथा चक्र दुर्वास के पीछे लगा । इस स्थिति में, विष्णु ने भी उसका संरक्षण करना अस्वीकार कर, पुनः अंबरीष के यहॉं जाने को कहा । दुर्वास को अंबरीष के यहॉं लौटने में एक वर्ष लगा । तब तक अंबरीष भूखा ही था । इसने दुर्वास को देखते ही उसका स्वागत किया । चक्र की स्तुति कर उसे वापस भेजा तथा दुर्वास को उत्तम भोजन दिया । [भा.९.४-५] । इसने पक्षवर्धिनी एकादशी का व्रत किया था । योग्य समय पर उपवास छोडने के कारण, यह विष्णु को प्रिय हुआ । अतः इसे मोक्ष प्राप्त हुआ [पद्म. उ.३८.२६-२७] । इसने भीष्मपंचक व्रत किया था [पद्म. उ.१२५.२९-३५] । जब यह स्वर्ग में गया, तब इसे स्वर्ग में सुदेव नामका इसका सेनापति दिखाई दिया । तब इसे आश्चर्य हुआ । ‘स्वर्ग में कौन आता हैं’ इस विषय पर इन्द्र से इसका संवाद हुआ । इन्द्र ने इसे बताया कि, सुदेव की रणांगण में मृत्यु होने के कारण, उसे स्वर्गप्राप्ति हुई [म.शां.९९कुं.] इसके पुत्र का नाम सिंधुद्वीप । इसे विरुप, केतुमान तथा शंभु नामक तीन पुत्र भे थे [भा.९.६.१] । इसने सकल राष्ट्र का दान किया था [म.अनु.१.३७.८] ।
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अंबरीष III. n. (सू.इ.) मांधाता को बिंदुमती से प्राप्त तीन पुत्रों में से मँझला [भा.९.७.१] ।
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अंबरीष IV. n. (सू.इ.) त्रिशंकु के दो पुत्रों में से दूसरा । इसे श्रीमती नामक कन्या थी । वह नारद तथा पर्वत के वाद में विष्णु ने प्राप्त की [अ.रा.३-४] । यह एक बार यज्ञ कर रहा था, तब इसके दुर्वर्तन के कारण, इंद्र ने इसका यज्ञपशु उडा लिया । तब इसने ऋचीक ऋषि को द्रव्य दे कर, उसका शुनःशेप नामक पुत्र खरीद लिया तथा यज्ञ पूरा किया । धर्मसेन इसका नामांतर है, एवं यौवनाश्व इसका पुत्र है । यही हरिश्चंद्र है [लिंग. २.५.६.] ;[वा.रा.बा.६१] ; शुनःशेप देखिये ।
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