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श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. एक सुविख्यात तत्त्वज्ञानी आचार्य, जिसका अत्यंत गौरवपूर्ण उल्लेख शतपथ ब्राह्मण, छांदोग्य उपनिषद, बृहदारण्यक उपनिषद आदि ग्रंथों में पाया जाता है । यह अरुण एवं उद्दालक नामक आचार्यों का वंशज था, जिस कारण इसे ‘आरुणेय’ एवं ‘औद्दालकि’ पैतृक नाम प्राप्त हुए थे [श. ब्रा. ११.२.७.१२] ;[छां. उ. ५.३.१] ;[बृ. उ. ३.७.१, ६.१.१] । कौषीतकि उपनिषद में इसे आरुणि का पुत्र, एवं गोतम ऋषि का वंशज कहा गया है [कौ. उ. १.१] । छांदोग्य उपनिषद में इसे अरुण ऋषि का पौत्र, एवं उद्दालक आरुणि का पुत्र कहा गया है [छां. उ. ५.११.२] । कौसुरुबिंदु औद्दालकि नामक आचार्य इसका ही भाई था । यह गौतमगोत्रीय था । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. अपने पिता आरुणि की भाँति यह कुरु पंचाल देश का निवासी था । अन्य ब्राह्मणों के साथ यात्रा करते हुए यह विदेह देश के जनक राजा के दरबार में गया था । किन्तु उस देश में इसने कभी भी निवास नहीं किया था [श. ब्रा. ११.६.२.१] । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. यह पंचाल राजा प्रवाहण जैवल राजा का समकालीन था, एवं उसका शिष्य भी था [बृ. उ. ६.१.१. माध्यं] ;[छां. उ. ५.३.१] । यह विदेह देश के जनक राजा का भी समकालीन था एवं इस राजा के दरबार में इसने वाजनेय से वादविवाद किया था [बृ. उ. ३.७.१] । इस वादविवाद में यह याज्ञवल्क्य से पराजित हुआ था । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. इसके बाल्यकाल के संबंध में संक्षिप्त जानकारी छांदोग्य उपनिषद में प्राप्त है । बचपन में यह अत्यंत उद्दण्ड था, जिस कारण बारह वर्ष की आयु तक इसका उपनयन नहीं हुआ था । बाद में इसका उपनयन हुआ, एवं चौबीस वर्ष की आयु तक इसने अध्ययन किया । इसके पिता ने इसे उपदेश दिया था, ‘अपने कुल में कोई विद्याहीन पैदा नहीं हुआ है । इसी कारण तुम्हारा यही कर्तव्य है कि, तुम ब्रह्मचर्य का सेवन कर विद्यासंपन्न बनो’। अपने पिता की आज्ञा के अनुसार, अपनी आयु के बारहवें वर्ष से चौबीस वर्ष तक इसने गुरुग्रह में हर कर विद्याग्रहण किया । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. कोषीतकि उपनिषद् के अनुसार, इसने चित्र गार्ग्यायणि के पास जा कर ज्ञान संपादन किया [कौ. उ. १.१] । अपने समकालीन प्रवाहण जैवल नामक राजा से भी इसके विद्या प्राप्त करने का निर्देश भी बृहदारण्यक उपनिषद में प्राप्त है । एक बार जब यह पांचालों की विद्वत्सभा में गया था, तब उस समय पांचाल राजा प्रवाहण जैवल से इसका तत्त्वज्ञानविषयक वादविवाद हुआ। इस वादविवाद में प्रवाहण के द्वारा कई प्रश्र्न पूछे जाने पर, यह उनका योग्य जबाब नहीं दे सका। इतना ही नहीं, इसका पिता उद्दालक आरुणि भी प्रवाहण के इन प्रश्र्नों का जवाब नहीं दे सका। इस कारण यह एवं इसके पिता परास्त हो कर प्रवाहण की शरण में गये, एवं उसे अपना गुरु बना कर इन्होंनें उससे ज्ञान प्राप्त किया [बृ. उ. ६.२] । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. इस प्रकार विद्याहरण कर विद्वान होने के कारण, यह अपने को बड़ा विद्वान समझने लगा, एवं दिन-ब-दिन इसका अहंकार बढ़ता गया । उस समय इसके पिता ने किताबी ज्ञान से अनुभवगम्य ज्ञान किस प्रकार अधिक श्रेष्ठ है, इसका ज्ञान इसे दिया, एवं इसे आत्मज्ञान का उपेदश किया, जो ‘तत्त्वमसि’ नाम से सुविख्यात है । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. इसके पिता उद्दालक अरुण ऋषि के द्वारा इसे दिया हुआ ‘तत्त्वमसि’ का उपदेश छांदोग्य उपनिनिषद में प्राप्त है [छां. उ. ६.८-१६] इसने अपने पिता से प्रश्र्न किया, ‘मिट्टी के एक परमाणु का ज्ञान होने से उसके सभी भेदों, नामों एवं रूपों का ज्ञान हमें प्राप्त होता है । उसी प्रकार आप ऐसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म वस्तु का ज्ञान मुझे बतायें कि, जिस कारण सृष्टि के समस्त चराचर वस्तुओं का ज्ञान मुझें प्राप्त हो सके।’ इस पर इसके पिता ने इसे जवाब दिया, ‘तुम (याने तुम्हारी आत्मा), एवं इस सृष्टि की सारी चराचर वस्तुएँ दोनों एक है, एवं ये सारी वस्तुओं कर रूप तू ही है (तत्त्वमसि) । अगर तू अपने आपको (याने अपनी आत्मा को) जान सकेगा, तो तुझे सृष्टि का ज्ञान पूर्ण रूप से हो जायेगा’। इसे उपर्युक्त तत्त्व समझाते हुए इसके पिता ने नदी, समुद्र, पानी, नमक, आदि नौ प्रकार के दृष्टान्त इसे दिये, एवं हर समय ‘तत्त्वमसि’ शब्दप्रयोग आगे चल कर, अद्वैत वेदान्त के महावाक्यों में से एक बन गया । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. कौषीतकि ब्राह्मण में इसे कौषीतकि लोगों के यज्ञसंस्था का प्रमुख आचार्य कहा गया है । यज्ञसंस्था में विविध पुरोहितों के कर्तव्य क्या होना चाहिए, यज्ञपरंपरा में कौनसी त्रुटियाँ है, इस संबंध में अनेकानेक मौलिक विचार इसने प्रकट किये है । ब्रह्मचारी एवं तापसी लोगों के लिए विभिन्न आचरण भी इसने प्रतिपादित किये है, एवं उस संबंध में अपने मौलिक विचार प्रकट किये है । इसके पूर्वकालीन धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथों में, ब्रह्मचारियों के द्वारा मधु भक्षण करने का निषेध माना गया है । किन्तु इसने मधुभक्षण करने के संबंध में यह आक्षेप को व्यर्थ बतलाया [श. ब्रा. ३१.५.४.१८] । अन्य ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त यज्ञविषयक कथाओं में भी इसके अभिमतों का निर्देश प्राप्त है [शां. ब्रा. २६.४] ;[गो. ब्रा. १.३३] । आचार्यों के द्वारा किये गये यज्ञकार्यों में ज्ञान की उपासना प्रमुख, एवं अर्थोपार्जन गौण मानना चाहिए इस संबंध में इसका एवं इसके पिता उद्दालक आरुणि का एक संवाद शांखायन श्रौतसूत्र में प्राप्त है [शां. श्रौ. १६.२७.६] । एक बार जल जातुकर्ण्य नामक आचार्य काशी, कोसल एवं विदेह इन तीनों देश के राजाओं का पुरोहित बन गया । उस समय यह अत्यधिक रुष्ट हो कर पिता से कटु वचन करने लगा। इस पर पिता ने इसे, कहाः-- (पुरोहित के लिए यही चाहिए कि वह ज्ञान से प्रेम करें, एवं भौतिक सुखों की ज्यादा लालच न करें) । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. आपस्तंब धर्मसूत्र में इसे ‘अवर’ (श्रेष्ठ आचार्य) कहा गया है [आप. ध. १.२.५.४-६] । अन्य उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में इसके अनेकानेक निर्देश मिलते हैं। फिर भी इसका सर्वप्रथम निर्देश शतपथ ब्राह्मण में प्राप्त होने के कारण, यह पाणिनि पूर्वकालीन आचार्य माना जाता है । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. वात्स्यायन कामसूत्र में प्राप्त निदर्शों के द्वारा प्रतीत होता है कि, नंदिन् के द्वारा विरचित आद्य कामशास्त्र ग्रंथ का इसने संक्षेप कर, उसे ५०० अध्यायों में ग्रथित किया । आगे चल कर ‘श्र्वेतकेतु के इसी ग्रंथ का बाभ्रव्य पांचाल ने पुनःसंक्षेप किया; एवं उसे सात अधिकरणों में ग्रंथित किया । बाभ्रव्य के इसी ग्रंथ को पुनः एक बार संक्षेप कर, एवं उसमें दत्तकाचार्य कृत ‘वैशिक’, चारणाचार्य कृत ‘साधारण अधिकरण’, सुवर्णनाभ कृत ‘सांप्रयोगिक’, घोटकमुख कृत ‘कन्यासंप्रयुक्त,’ गोनदिय कृत ‘भार्याधिकारिक,’ गोणिकापुत्र कृत ‘पारदारिक’ एवं कुचमारकृत ‘औपनिषदिक’ आदि विभिन्न ग्रंथों की सामग्री मिला कर वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र की रचना की। फिर भी उसके मुख्य आधारभूत ग्रंथ श्र्वेतकेतु एवं बाभ्रव्य पांचाल के द्वारा लिखित कामशास्त्रविषयक ग्रंथ ही थे । ब्राह्मण जाति के लिए मद्यपान एवं परस्त्रीगमन वर्ज्य ठहराने का महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार श्र्वेतकेतु के द्वारा ही प्रस्थापित हुई [का. सू. १.१.९] । ब्राह्मणों के लिए परस्त्रीगमन वर्ज्य ठहराने में इसका प्रमुख उद्देश्य था कि, ब्राह्मण लोग अपने स्वभार्या का संरक्षण अधिक सुयोग्य प्रकार से कर सकें [का. सू. ५.६.४८] । इस प्रकार श्र्वेतकेतु भारतवर्ष का पहला समाजसुधारक प्रतीत होता है, जिसने समाजकल्याण की दृष्टि रख कर, अनेकानेक नये यम-नियम प्रस्थापित किये। इसीने ही सर्व प्रथम लैंगिक व्यवहारों में नीतिबंधनों का निर्माण किया, एवं सुप्रजा, लैंगिक नितिमत्ता, परदारागमननिषेध आदि के संबध में नये नये नियम किये, एवं इस प्रकार विवाहसंस्था की नींव मजबूत की। श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. वैवाहिक नीतिनियमों का निर्माण करने की प्रेरणा इसे किस कारण प्रतीत हुई, इस संबंध में अनेकानेक चमत्कृतिपूर्ण कथा महाभारत में प्राप्त है । यह उद्दालक ऋषि का औरस पुत्र न हो कर, उसके पत्नी से उसके एक शिष्य के द्वारा उत्पन्न हुआ था [म. शां. ३५.२२] । आगे चल कर इसकी माता का एक ब्राह्मण ने हरण किया । उसी कारण इसने स्त्रियों के लिए पातिव्रत्य का, एवं पुरुषों के लिए एकपत्नीव्रत के नियमों का निर्माण किया । महाभारत में इसे उद्दालक ऋषि का पुत्र कहा गया है, एवं इसके मामा का नाम अष्टावक्र बताया गया है [म. आ. ११३.२२] । जन्म से ही इस पर सरस्वती का वरद हस्त था [म. व. १३२.१] । जनमेजय के सर्पसत्र का यह सदस्य था, एवं बंदिन् नामक आचार्य को इसने वाद-विवाद में परास्त किया था [म. आ. ४८.७] ;[व. १३३] । किंतु जनमेजय के सर्पसत्र में भाग लेनेवाला श्र्वेतकेतु कोई उत्तरकालीन आचार्य होगा । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) n. देवल ऋषि कन्या सुवर्चला इसकी पतनी थी । इससे उसने ‘पुरुषार्थ-सिद्धि’ पर वादविवाद किया था [म. शां. परि. १९.९९-११८] । महाभारत में इसका वंशक्रम निम्नप्रकार दिया गया हैः-- उपवेश--अरुण उद्दालक-श्र्वेतकेतु। उसी ग्रंथ में इसे शाकल्य, आसुरि, मधुक, प्राचीनयोग्य एवं सत्यकाम ऋषियों का समकालीन कहा गया है । श्र्वेतकेतु (औद्दालकि आरुणेय) II. n. लांगलिन् नामक शिवावतार का शिष्य।
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