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उशनस् [uśanas] m. m. [वश्-कनसि संप्र˚ [Uṇ.4.238] ] (Nom. sing. उशना; Voc. sing. उशनन्, उशन, उशनः) N. of Śukra, regent of the planet Venus, son of Bhṛigu and preceptor of the Asuras. In the Vedas he has the epithet (or patronymic name) Kāvya given to him, probably because he was noted for his wisdom; मित्रावरुणावुशनां काव्यम् (अवथः) [Av.4.29.6.] cf. कवीनामुशना कविः [Bg. 1.37;] He is also known as a writer on civil and religious law (Y.1.4). and as an authority on civil polity; शास्त्रमुशनसा प्रणीतम् [Pt.5;] अध्यापितस्योशनसापि नीतिम् [Ku.3.6.] -Comp.
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उशनस् n. अग्नि देवताओं का दूत है । तथा उशना काव्य असुरों का कुलगुरु व अध्वर्यु है । अग्नि तथा उशना काव्य दोनों प्रजापति के पास गये, तब प्रजापति ने उशना काव्य की ओर पीठ कर अग्नि को नियुक्त किया, जिस कारण देवताओं की जय तथा असुरों की पराजय हुई [तै. सं.२.५.८] । यह असुरों का पुरस्कर्ता था [जै. उ.ब्रा. २.७.२-६] । वारुणि भृगु का पुलोमा से उत्पन्न पुत्र [मत्स्य. २४९.७] ;[ब्रह्म. ७३.३१-३४] । भृगु का उषा से उत्पन्न पुत्र [विष्णुधर्मोत्तर.१.१०६] . उमा ने इसे दत्तक लिया था [म.शां.२७८.३४] । इसको काव्य [मत्स्य.२५.९] ;[वायु.६५. ७४-७५] कवि [म.आ.६०. ४०] . शुक्र अंधक देखिये;[म.शां.२७८.३२] कवींद्र [म.क.९८] कविसुत, ग्रह, आदि नाम थे । ब्रह्मदेव ने पुत्र माना इसलिये ब्राह्म, शिव ने वरुण माना इसलिये वारुण आदि नामों से इसे संबोधित करते हैं । उशना, शुक्र तथा काव्य ये सब एक है [वायु. ६५.७५] । इसकी माता का नाम ख्याति तथा पिता का नाम कवि मिलता है [भा.४.१] । भृगु का दिव्या से उत्पन्न शुक्र तथा यह एक ही है । [ब्रह्मांड.३.१.७४] । इसकी स्त्री शतपर्वा [म.उ.११५.१३] । इसकी पितृसुता आंगी नामक एक स्त्री थी । इसके अतिरिक्त निम्न लिखित स्त्रियां भी थीं । प्रियव्रतपुत्री ऊर्जस्वती [भा. ५.१] ; पुरंद्र कन्या जयंती [मत्स्य.४७] । पितृकन्या गौ [ब्रह्मांड ३.१.७४] । यह पर्जन्याधिपति, योगाचार्य, देव तथा दैत्यों का गुरु है [वायु. ६५.७४-८५] । उशनस् काव्य कुछ सूक्तों का द्रष्टा है [ऋ., ८.८४,९. ८७-८९] । यह दानवों का पुरोहित था [तै. सं.२.५ ८.५] ;[तां. ब्रा. ७.५.२०] ;[सां श्रौ. सू. १४.२७.१] । इस की योग्यता बडी थी [ऋ.१.२६.१] । इसके कुल में भृगु से ही संजीवनी विद्या अवगत है (भृगु देखिये) । इसने यह विद्या शंकर से प्राप्त की थी [दे. भा.४.११] । उशनस् ने कुबेर का धन लूट लिया था इसलिये शंकर ने इसे निगल लिया । तब यह शंकर के शिश्न से बाहर आया तथा शंकर का पुत्र हुआ । तब से इसका नाम शुक्र पडा [म.शां२७८.३२] ;[विष्णुधर्म १.१०६] । असुर लगातार हारने लगे तब उन्हें स्वस्थ शांत रहने का आदेश देकर शुक्र, बृहस्पति को जो मालूम नहीं है ऐसे मंत्र जानने के लिये शंकर के पास गया । यह संधि जानकर देवाने पुनः असुरों को कष्ट देना प्रारंभ किया । तब शुक्र की माता सामने आयी तथा उसने देवताओं को जलाना प्रारंभ किया । परंतु इंद्र ने पलायन किया तथा विष्णुने इसकी माता का वध कर दे देवताओं की रक्षा की परंतु स्त्री पर हथियार चलाने के कारण, भृगु ने विष्णु को पृथ्वी पर जन्म लेने का शाप दिया तथा शुक्र की माता का सिर पुनः चिपका कर उसे सजीव किया । तब इंद्र अत्यंत भयभीत हुआ तथा उसने अपनी जयंती नामक कन्या शुक्र को दी । शुक्र ने भी हजार वर्षोतक तप करके शंकर से प्रजेशत्व, धनेशत्व तथा अवध्यत्व प्राप्त किया [मत्स्य. ४७.१२६] ;[विष्णुधर्म, १.१०६] । शुक्र ने प्रमास क्षेत्र में शुक्रेश्वर के पास [स्कंद.७.१.४८] दुधर्ष नामक लिंग की स्थापना करके संजीवनी विद्या प्राप्त की [पद्म उ. १५३] । जयंती द्स वर्षो तक इसके साथ अदृश्य स्वरुप में थी । यह तप वामन अवतार के बाद किया । परंतु वायुपुराण में कहा है कि वे दोनों अदृश्य थे, इसीलिये बृहस्पति का निम्नलिखित पड्यंत्र सफल हुआ । ऐन समय पर युक्ति से बृहस्पति ने शुक्र का रुप ले लिया तथा मैं ही तुम्हारा गुरु हूँ, शुक्र का रुप ले आनेवाला यह व्यक्ति झूठा है ऐसा बतला कर उसे वापिस भेज दिया तथा स्वयं ने असुरो को दुर्वृत्त बनाकर हीन बना डाला [मत्स्य.४७] ;[वायु. २.३६] ;[दे.भा.४.११-१२] । इसे ऊर्जस्वती तथा जयंते से देवयानी उत्पन्न हुई । देवी नामक कन्या इसने वरुण को ब्याही थी [म. आ. ६०. ५२] । इसे षण्ड तथा मर्क नामक दो पुत्र थे [भा.७. ५.१] । इसे आंगी से त्वष्ट्ट, वरुत्रिन् तथा पण्डामर्क हुए (कच, वामन तथा बृहस्पति देखिये) । इसे अरजा नामक एक पुत्री थी [पद्म. सृ. ३७] । छठवें मन्वंतर में यह व्यास था । (व्यास देखिये) । शिवावतार गोकर्ण का शिष्य । सारा जग मनोमय है, यह बताने के लिये इसकी कथा प्रयुक्त की गयी है [यो.वा.४.५-१६] । इसने वास्तुशास्त्र पर एक ग्रंथ रचा है [मत्स्य. २५२] । यह धर्मशास्त्रकार था । उशनधर्मशास्त्र नामक सात अध्यायोंवाली एक छोटी पुस्तक उपलब्ध है जिसमें श्राद्ध, प्रायश्चित्त, महापातकों के लिये प्रायश्चित्त तथा अन्य व्यावहारिक निबधों के संबंध में जानकारी दी गयी है । उसके धर्मसूत्र में बहुत से सूत्र मनुस्मृति तथा बौधायन धर्मसूत्र के सूत्रों से मिलते जुलते है । याज्ञवल्क्य ने इसका निर्देश किया है [याज्ञ. १.५] ; मिताक्षरा [मिता. ३.२६०] ; तथा अपरार्क ग्रंथ में औशनस धर्मशास्त्र के कुछ उद्वरण लिये गये है । उसी तरक औशनसस्मृति नामक दो ग्रंथ पहला ५१ श्लोकों का व दूसरा ६०० श्लोकों का जिवानंदसंग्रह में उपलब्ध है । राजनीति विषय पर इसका शुक्रनीति नामक ग्रंथ उपलब्ध है । इसमें से कौटिल्य ने बहुत से उद्वरण लिये हैं । उशनस् उपपुरण का निर्देश औशनस उपपौराण कि लिये किया गया है । अनेक स्थानों पर औशनस उपपुराण का निर्देश मिलता है [कूर्म.१.३] ;[गरुड.१.२२३.१९] ।
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-प्रियम् A kind of gem Called गोमेद (वैडूर्य ?)
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उशनस् m. m.
आ ([Pāṇ. 7-1, 94] ; Ved. acc. आम्; Ved. loc. and dat. ए; voc. अस्, अ, and अन्, [Kāś.] on [Pāṇ.] ) N. of an ancient sage with the patronymic काव्य, [RV.] ; [AV. iv, 29, 6] ; [Kauś.] (in later times identified with शुक्र, the teacher of the असुरs, who presides over the planet Venus)
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