सीता (वैदेही) n. विदेह देश के सीरध्वज जनक राजा की कन्या, जो इक्ष्वाकुवंशीय राम दाशरथि राजा की पत्नी थी ।
सीता (वैदेही) n. जिस काल में बहुपत्नीकत्व रूढि क्षत्रिय समाज में प्रतिष्ठित थी, उस समय एकपत्नीकत्व का नया आदर्श राम दशरथि राजा के रूप में वाल्मीकि ने अपने ‘वाल्मीकि रामायण’ के द्वारा प्रस्थापित किया (राम दशरथि देखिये) । उसके साथ ही साथ एकपत्नीकत्व के व्रत का आचरण करनेवाले क्षत्रिय के पत्नी को किस प्रकार वर्तन करना चाहिए, इसका आदर्श वाल्मीकि ने सीता के रूप में चित्रित किया । इसी कारण राम दाशरथि के साथ सीता भारतीय स्त्री जाति के सतीत्व, एकनिष्ठा एवं पवित्रता की ज्वलंत एवं साकार प्रतिमा बन कर अमर हो गयी है ।
सीता (वैदेही) n. वाल्मीकि रामायण में सीता के स्वरूप का अत्यंत काव्यमय वर्णन प्राप्त है, जहाँ इसे पूर्णचंद्रवदना, अपनी प्रभा से सभी दिशाओं को प्रकाशित करनेवाली
[वा. रा. सुं. १५.२७-३९] ; कोमलांगिनी, शुद्धस्वर्णवर्णा
[वा. रा. अर. ४३.१-२] ; लक्ष्मी एवं रति का प्रतिरूपा, नखशिख सौंदर्यमयी
[वा. रा. अर. ४६.१६, २२] कहा गया है । इसके अप्रतीम सौंदर्य के संबंध में स्वयं रावण कहता है--नैव देवी न गंधर्वा न यक्षी नच किन्नरी। नैवंरूपा मया नारी दृष्टपूर्वा महीतले॥
[वा. रा. अर. ४६.२३] । (सीता के समान सौंदर्यवती स्त्री मैं ने इस धरती पर देव, गंधर्व, यक्ष, किन्नर आदि में कहीं भी नहीं देखी है ।)
सीता (वैदेही) n. यद्यपि यह सीरध्वज जनक की कन्या मानी जाती है, फिर भी यह उसकी अपनी कन्या न थी । वाल्मीकि रामायण में इसका जन्म भूमि से बताया गया है, एवं इसके जन्म के संबंधी निम्नलिखित कथा वहाँ दी गयी है । एक दिन जनका राजा यज्ञभूमि तैयार करने के लिए हल चला रहा था, उस समय एक छोटीसी कन्या मिट्टी से निकली। उसने इसे पुत्री के रूप में ग्रहण किया, एवं उसका नाम सीता रखा
[वा. रा. वा. ६६.१३-१५] । सीता का यह अवतार उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ। रे. बुल्के के अनुसार भूमिजा सीता की अलौकिक जन्म कथा सीता नामक कृषि की अधिष्ठात्री देवी के प्रभाव से उत्पन्न हुई थी । सीता का शब्दशः अर्थ ‘हल से खींची हुई रेखा’ होता है । अतएव भूमि में हल चलाते समय इसके निकलने के कारण इसे सीता नाम प्राप्त हुआ होगा । संभव है, किसी निश्चित कुलपरंपरा के अभाव में ऐतिहासिक राजकुमारी सीता की जन्मकथा पर कृषि के अधिष्ठात्री देवी के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा हो।
सीता (वैदेही) n. इसके जन्म के संबंध में अन्य आख्यायिकाएँ विभिन्न रामायण ग्रंथों में एवं पुराणों में प्राप्त है, जो निम्नप्रकार हैः-- (१) अग्निजा सीता---‘आनंद रामायण’ (१५ वी शताब्दी) के अनुसार इसके पिता का नाम पद्माक्ष दिया गया है । पद्माक्ष राजा ने लक्ष्मी को पुत्रीरूप में पाने के लिए विष्णु की उपासना की। विष्णु ने उसे महालिंग दिया, जिससे एक सुंदर कन्या निकली, जिसका नाम पद्मा रखा गया । पद्मा के स्वयंवर के समय, दैत्यों ने स्वयंवर मंडप ध्वस्त किया, एवं पद्माक्ष राजा का संपूर्ण विनाश हो कर वह स्वयं भी मारा गया । यह देख कर पद्मा ने अग्नि में प्रवेश किया । इसकी खोज के लिए दैत्यों ने बड़ी खोज बीन की, किन्तु इसका कहीं पता न चला। एक बार यह अग्निकुंड से बाहर का कर बैठी थी, तब विमान से जानेवाले रावण ने इसे देखा, एवं वह कामातुर हो कर इसकी और दौड़ा। उसे आता हुआ देख कर यह फिर अग्नि में प्रविष्ट हुई। इसे ढूँढने के लिए रावण ने समस्त यज्ञकुड खोद डाला, जिससे इसे जीवित सीता तो न मिली, किन्तु इसीका ही एक जड़ रूप पाँच रत्नों के रूप में प्राप्त हुआ।इन रत्नों को एक पेटिका में बन्द कर रावण लंका में गया, एवं उसे अपनी पत्नी मंदोदरी के हाथ सौंप दिया । वहाँ पेटिका खोलते ही पद्मा अपने मूल कन्यारूप में प्रकट हुई। इस पर पद्माक्ष के सारे कुल कए एवं राज्य का विनाश करनेवाली इस कन्या को लंका से बाहर छोड़ देनेकी प्रार्थना रावण ने मंदोदरी से की। मंदोदरी की इस प्रार्थना के अनुसार रावण ने इस कन्या को पुनः एक बार पेटिका में बंद किया, एवं वह पेटिका मिथिला में गड़वा दी। पेटिका में बन्द करने के पूर्व इसने रावण को शाप दिया, ‘मैं तुम्हारा एवं तुम्हारे सारे परिवार का नाश करने के लिए लंका में फिर आउँगी’। पश्चात् मिथिला के एक ब्राह्मण को जमीन पर हल चलाते समय वही पेटिका प्राप्त हुई, जो उसने राजधन मान कर जनक राजा को सुपुर्द किया । उस पेटिका से निकली हुई कन्या को जनक ने बेटी के रूप में पाला, एवं उसका नाम सीता रख दिया । मातुलिंग से निलकने के कारण, इसे ‘मातुलिंगी’; रत्न में होने के कारण ‘रत्नावलि’; धरणी से निकलने के कारण ‘धरणीजा’; जनक के द्वारा पाले जाने के कारण ‘जानकी’; जमीन से निकलने के कारण ‘अग्निजा’; एवं पूर्वजन्म के नाम के कारण ‘पद्मा’ आदि नामान्तर प्राप्त हुए
[आ. रा. ७.३] ;
[भावार्थ रा. १.१५] ।(२) रक्तजा सीता---रक्तजा के रूप में सीता का जन्म होने की कथा ‘अदभुत रामायण’ में पायी जाती है । रावण जनस्थान के मुनियों पर अत्याचार करता था, एवं अपने बाणों की नोंक से ऋषियों के शरीर से रक्त निकाल कर एक मटके में जमा करता था । इसी वन में गृत्समद नामक एक ऋषि रहता था, जो लक्ष्मी के समान कन्या की इच्छा से तपस्या करता था । दर्भ के अग्रभाग से दूध को ले कर, मंत्रोच्चारण के साथ वह उसे प्रतिदिन इकठा करता था । एक दिन रावण ने गृत्समद ऋषि का मटका चुरा लिया, एवं उसमें इकठा किया दूध ऋषियों के रक्त से भरे हुए मटके में डाल दिया, एवं उसे मंदोदरी के पास रखने के लिए दिया । आगे चल कर रावण के कुकृत्यों से तंग आ कर मंदोदरी ने आत्महत्त्या के हेतु से मटके में स्थित दूधयूक्त रक्त प्राशन किया, जिससे वह गर्भवती रही। अपना यह गर्भ उसने कुरुक्षेत्र की भूमि में गाड़ दिया । उसी गर्भ से आगे चल कर सीता का जन्म हुआ, जिसे विदर्भ देश के जनक राजा ने पालपोस कर बड़ा किया
[अ. रा. ८] ।(३) रावणात्मजा सीता---सीताजन्म के संबंधित सर्वाधिक प्राचीन कथा में, सीता को रावण की कन्या माना गया है । इस कथा के अनुसार रावण ने मय राक्षस की कन्या मन्दोदरी से विवाह करना चाहा। उस समय मय ने रावण से कहा कि, मन्दोदरी के जन्मजातक से मंदोदरी की पहली संतान कुलघातक उत्पन्न होनेवाली है; अतएव उस संतान का वध करना उचित होगा । मय की इस सलाह को मान कर, रावण ने अपनी प्रथमजात कन्या को पेटिका में बन्द कर जनकपुरी में गड़वा दिया । इसी कन्या ने आगे चल कर रावण के समस्त कुल का नाश कर दिया
[दे. भा. ४२] । (४) जनकात्मजा सीता---महाभारत में सर्वत्र सीता को जनक राजा की अपनी कन्या माना गया है
[म. व. २५८.९] । सीता के जन्मसंबंधित उपर्युक्त सारी कथाएँ कल्पनारम्य प्रतीत होती है, जिनकी रचना राम के द्वारा किया गया रावणवध गृहीत मान कर की गयी है ।
सीता (वैदेही) n. एक बार परशुराम अपना प्रचंड शिव धनुष ले कर जनक राजा से मिलने आया । परशुराम का यह धनुष इतना बड़ा था, कि उसे ले जाने के लिए दो सौ पचास बैल जोड़ियों की शक्ति आवश्यक थी । परशुराम का यह अजस्त्र धनुष इसने सहजही उठा लिया, एवं उसे घोड़ा बनाकर यह खेलने लगी। यह देख कर इसके दैवी अंश के संबंध में परशुराम को आभास मिल गयी, एवं उसने जनक राजा को अपना धनुष दे कर आज्ञा दी, ‘जो वीर इस धनुष के तोड़ने का सामर्थ्य रखता हो, उसीके साथ ही सीता का विवाह कर देना’
[वा. रा. बा. ६६.२६] ;
[आ. रा. सार. ३] । परशुराम की आज्ञा के अनुसार, जनक राजा ने इसका स्वयंवर उद्घोषित किया । इस स्वयंवर में उपस्थित सारे राजा धनुष तोड़ने में असमर्थ रहे। अन्त में अयोध्या के राम दशरथि राजा ने शिवधनुष को भङ्ग कर, सीता का वरण किया
[वा. रा. बा. २३] ।
सीता (वैदेही) n. राम के वनवासगमन के समय, वन की भयानकता बता कर राम ने इसे अत्यधिक भयभीत किया, किन्तु ‘जहाँ राम वहाँ सीता’ ऐसे कह कर यह अपने निश्र्चय पर अटल रही
[वा. रा. अयो. २६-३०] । उस समय इसने यह भी कहा कि, ज्योतिर्विदों के द्वारा बारह वर्ष के वनवास का जातक पहले ही कहा जा चुका है
[वा. रा. अयो. २९.८] ;
[अ. रा. २.४.७६] । अपनी सारी आयु राजप्रसादों में व्यतीत करनेवाली सीता को वनवास का सारा ही जीवन अननुभूत था, यहाँ तक कि, वल्कल पहनना भी इसे न आता था । किन्तु राम के साथ ही यह वानवासिक जीवन से जल्द ही परिचित हो गयी।
सीता (वैदेही) n. जनस्थान में रावण ने इसका धोखे से हरण किया, एवं अत्यधिक विलाप करते हुए सीता को वह लंका जे जाने लगा। रास्ते में ऋष्यमूक पर्वत पर इसने अपने उत्तरीय वस्त्र, एवं अलंकार फेंक दिये, जिससे राम को पता चल जाए कि यह हरण की गयी है । पश्चात् रावण ने इसे लंका नगरी में स्थित अशोकवन में राक्षसियों की रखवाली में रख दिया, एवं वह प्रतिदिन कामातुर हो कर अपने वश में लाने के लिए इसकी प्रार्थना करने लगा। उस समय उसेन इसे डराया, धमकाया एवं काफ़ी प्रलोभन भी दिखाये। किन्तु यह अपने सतीत्व पर अचल रही। रावण के आते ही लोकलज्जा में लिपटी हुई सीता अपने जंघाओं से अपने पेट को, एवं अपने दोनों बाहुओं से वक्षःस्थलों को ढँक देती थी
[वा. रा. सुं. १९.३] । परस्त्री पर पापदृष्टि रखनेवाले रावण की इसने काफ़ी निर्भत्सना की। किन्तु रावण पर इसका कुछ भी असर न हुआ, एवं अपने राक्षसियों के द्वारा वह इसे वश में करने का प्रयत्न करता ही रहा।
सीता (वैदेही) n. एक दिन सीता के शोध के लिए राम के द्वारा भेजा गया हनुमत् अशोकवन में आ पहुँचा, एवं उसने राम के द्वारा दी गयी अभिज्ञान की अँगुठी इसे दिखा कर अपना परिचय दिया । उसी समय अपने पीठ पर इसे बिठा कर, रावण के कारावास से इसे मुक्त करने की तैयारी भी हनुमत् ने दिखायी। उस समय एक क्षत्रियकुलोत्पन्न वीरस्त्री के नाते हनुमत् के इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुएँ इसने कहा -- बलैः समग्रैर्यदि मां हत्वा रावणमाहवे। विजयी स्वपुरीं रामो नयेत्तत् स्याद्यशस्करम्॥ यथाहं तस्य वीरस्य वनादुपधिना हता। रक्षसा तद्भयादेव तथा नार्हति राघवः।
[वा. रा. सुं. ६८.१२-१३] । (मेरे पति राम ही रावण को परास्त कर मुझे ले जाएँगे । रावण के समान लुकछिप कर मुझे ले जाना राम को, तथा उसकी कीर्ति को शोभा न देगा) ।
सीता (वैदेही) n. युद्ध के पश्चात् राम ने विभिषण को इसे अपने पास लाने की आज्ञा दी। तदनुसार सुस्नात हुई यह मूल्यवान् वस्त्र एवं आभूषण पहन कर, एवं शिबिका में बैठ कर यह राम से मिलने गयी। वहाँ ध्यानस्थ बैठे हुए राम को इसने आगमन की वार्ता विभीषण ने सुनायी। विभिषण के पीछे-पीछे चल कर, यह लाज में लिपटी हुई अपने पति के सम्मुख गयी। किन्तु राम के चेहरे पर इसे सहानुभूति के स्थान पर कठोरता ही दिखायी दी। पश्चात् पराये घर में एक साल तक निवास करने के कारण राम ने इसको अस्वीकार करना चाहा (राम दशरथि देखिये) । राम का यह निश्र्चय सुन कर इसने अपने सतीत्व की सौगंध खायी। पश्चात् अग्निपरिक्षा के लिए इसने लक्ष्मण को चिता तैयार करने की आज्ञा दी, एवं उसमें अपना शरीर झोंक दिया । तदुपरान्त इसे हाथ में धारण कर अग्नि देवता स्वयं प्रकट हुई, एवं इसके सतीत्त्व की साक्ष दे कर इसको स्वीकार करने की आज्ञा उसने राम को दी
[बा. रा. १६६.११] ।
सीता (वैदेही) n. पश्चात् राम के साथ यह अयोध्या नगरी में गयी, जहाँ इसे राम के साथ राज्याभिषेक किया गया । कुछ समयोपरांत यह गर्भवती हुई, एवं इसने वनविहार की इच्छा राम से प्रकट की। उसी दिन रात को लोकापवाद के कारण राम ने इसका त्याग करने का निश्र्चय किया । दूसरे दिन सुबह राम ने लक्ष्मण को बुलाया, एवं इसे गंगा के उस पार छोड़ आने का आदेश दिया । तपोवन दिखलाने के बहाने लक्ष्मण इसे रथ पर ले गया, एवं उसने इसे वाल्मीकि के आश्रम के समीप छोड़ दिया । उस समय यह आत्महत्त्या कर के प्राणत्याग करना चाहती थी, किन्तु गर्भवती होने के कारण यह वह पापकर्म न कर सकी।
सीता (वैदेही) n. राम के द्वारा परित्याग किये जाने पर, वाल्मीकि के आश्रम का सहारा ले कर यह वहीं रहने लगी। पश्चात् इसी आश्रम में इसने दो यमल पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम वाल्मीकि के द्वारा कुश एवं लव रखे
[वा. रा. उ. ६६] ।
सीता (वैदेही) n. कालोपरान्त राम के द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ में, इसके पुत्र कुशलव की राम से भेंट हुई। उस समय कुशलवों से इसका सारा वृत्तांत जान कर राम ने इसे पुनः एक बार अयोध्या बुला लिया । वाल्मीकि ऋषि इसे स्वयं रामसभा में ले गये, एवं भरी सभा में उन्होनें इसके सतीत्व की साक्ष दी। उस समय जनता को विश्वास दिलाने के उद्देश्य से राम ने इससे अनुरोध किया कि, यह अपने सतीत्व का प्रमाण दे। इस समय इसने सौगंध खाते हुए कहा -- मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये। तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति॥ (मन से, कर्म से अथवा वाचा से अगर मैने राम के सिवा किसी अन्य पुरुष का चिंतन किया हो, तो पृथ्वीमाता दुभंग हो कर मुझे स्वीकार करें) । सीता के द्वारा उपर्युक्त आर्त प्रार्थना किये जाने पर, पृथ्वी देवी एक दिव्य सिंहासन पर बैठी हुई प्रकट हुई, एवं इसे अपने शरण ले कर पुनः एक बार गुप्त हुई। यह दिव्य दृश्य देख कर राम स्तिमित हो उठा, एवं अत्यधिक विलाप करने लगा। पश्चात् उसने इसे लौटा देने का पृथ्वी को अनुरोध किया, एवं इसे न लौटा देने पर समस्त पृथ्वी को दग्ध करने की धमकी दी। अन्त में ब्रह्मा ने स्वयं प्रकट हो कर राम को सांत्वना दी।
सीता (वैदेही) n. एक आदर्श भारतीय पतिव्रता मान कर वाल्मीकि रामायण में सीता का चरित्र चित्रण किया गया है । राम इसके लिए देवता है, एकमात्र गति है, इस लोक एवं परलोक का स्वामी है (इह प्रेत्य नारिणां पतिरेको गतिः सदा)
[वा. रा. अयो. २७.६] । पातिव्रत्य धर्म के संबंध में यह सावित्री को आदर्श मानती है
[वा. रा. अयो. २९.१९] । सावित्री के ही समान यह कुलरीति
[वा. रा. अयो. २६.१०] , राजनीति
[वा. रा. अयो. २६.४] , लौकिक नीति
[वा. रा. कि. ९.२] इन सारे तत्त्वों का ज्ञान रखती है, जिसकी सराहना स्वयं राम के द्वारा की गयी है ।
सीता (वैदेही) n. तुलसी के ‘मानस’ में चित्रित की गयी सीता, शिव, पार्वती, गणेश आदि की उपासिका है
[मानस. २.२.२६.७-८] । यह राम की केवल पत्नी ही नहीं, बल्कि अनन्य भक्त भी है । इसका ध्यान सदैव रामचरण में ही रहता हैः--सियमन राम चरण मन लागा।
[मानस. २.२.२६.८] ।