कल्माषपाद n. (सू.इ.) सुदास राजा का पुत्र । इसे कोसलाधिपति मित्रसह अथवा सौदास ये नामांतर है
[म.आ.१६८] ;
[वायु.८८.१७६] ;
[लिंग.१.६६] ;
[ब्रह्म ८] ;
[ह.वं. १.१५] । परंतु इसे ऋतपर्ण का पुत्र भी कहा है
[मत्स्य.१२] ;
[अग्नि.२७३] । कल्माषपाद नाम से यह विशेष प्रख्यात था ।
कल्माषपाद n. यह नाम इसे प्राप्त होने का कारण यह था । एक बार जब यह मृगयाहेतु से अरण्य में गया था, तब इसने दो बाघ देखे । वे एक दूसरों के मित्र
[वा.रा.उ.६५] । तथा भाई भाई थे
[भा.९.९] । रेवा तथा नर्मदा के किनारे शिकार करते समय, नर्मदा तट पर, इसने बाघ का एक मैथुनासक्त जोड देखा । उन में से मादा को इसने मार डाला । परंतु मरते मरते वह बहुत बडी हो गई
[नारद १.९] । तब दूसरे बाघ ने राक्षसरुप धारण करके कहा कि, कभी न कभी मैं तुमसे बदला अवश्य चुकाउंगा । यों कह कर वह गुप्त हो गया ।
कल्माषपाद n. एक बार इसने अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ किया । तब यज्ञ के निमित्य से, वसिष्ठ ऋषि लंबी अवधि तक इसके पास रहा । यज्ञसमाप्ति के दिन, एक बार वसिष्ठ स्नानसंध्या के लिये गया था । यह संधि देख कर उस राक्षस ने वसिष्ठ का रुप धारण कर लिया, तथा राजा से कहा कि, आज यज्ञ समाप्त हो गया है, इसलिये तुम मुझे जल्द मांसयुक्त भोजन दो । राजा ने आचारी लोगों को बुला कर, वैसा करने की आज्ञा दी । राजाज्ञा से आचारी घबरा गये । परंतु पुनः उसी राक्षस ने आचारी का रुप धारण कर, मानुष मांस तैय्यार कर के राजा को दिया । तदनंतर वह अन्न राजा ने पत्नी मदयंती सह गुरु वसिष्ठ को अर्पण किया । भोजनार्थ आया हुआ मांस मानुष है यह जान कर, वसिष्ठ अत्यंत क्रुद्ध हुआ तथा उसने राजा को नरमांसभक्षक राक्षस होने का शाप दिया । तब इसने कहा कि, अपने, ही मुझे ऐसी आज्ञा दी । यह सुनते ही वसिष्ठ ने अन्तदृष्टी से देखा । तब उसे पता चला कि, यह उस राक्षस का दुष्कृत्य है । तदनंतर उसने कहा कि, मेरा कथन असत्य नही हो सकता । तुम केवल बारह वर्षो तक नरमांसभक्षक रहोंगें ।
कल्माषपाद n. यह सुन कर क्रुद्ध हो कर, इसने मुनी को शाप देने के लिये हाथ में पानी लिया । परंतु गुरु को शाप देना अयोग्य है, यो कह कर भार्या ने इसका निषेध किया । तब इसने सोचा कि, यह पानी यदि पृथ्वी पर पडेगा, तो अनाज आदि जल कर खाक हो जायेंगे, तथा आकाश की ओर डाला तो मेघ सूख जावेंगे । ऐसा न हो, इसलिये इसने वह पानी अपने पैरों पर डाला । इसके क्रोध से वह पानी इतना अधिक तप्त हो गया था कि, वह पानी पडते ही इसके पैर काले हो गये । तबसे इसे कल्माषपाद कहने लगे
[वा.रा.उ.६५] ;
[भा.९.९.१८-३५] ;
[नारद. १.८-९] ;
[पद्म. उ.१३२] ।
कल्माषपाद n. महाभारतादि ग्रंथों में, इस के राक्षस होने के कारण भिन्न भिन्न दिये गये है । एक बार जब यह शिकार से वापस आ रहा था, तब एक अत्यंत सँकरे मार्ग पर वसिष्ठपुत्र शक्ति तथा इसकी मुलाकात हुई । मार्ग इतना सँकरा था कि, केवल एक ही व्यक्ति वहॉं से जा सकता था । इसने शक्ति को हटने के लिये कहा, परंतु उसने अमान्य कर दिया । बल्कि वह राजा को बताने लगा कि, मार्ग ब्राह्मणों का है । धर्म यही है कि, राजा ब्राह्मण को मार्ग दे । अन्त में अत्यंत क्रोधित हो कर, इसने राक्षस के समान उस ब्राह्मणको चाबूक से खूब मारा । तब शक्ती ने कल्माषपाद को शाप दिया कि, तुम आज से नरभक्षक राक्षस बनोगे । यही राजा जब यज्ञ करने के लिए तैय्यार हुआ तब, विश्वामित्र ने इसका अंगिकार किया । इसी लिये वसिष्ठ तथा विश्वामित्र में वैरभाव निर्माण हुआ । विश्वामित्र ने इसे कहा कि, जिसे तुमने मारा वह वसिष्ठ पुत्र शक्ति है । तब इसे अत्यंत दुख हुआ । बाद में जब यह शक्ती के पास उश्शाप मांगने गया, तब विश्वामित्र ने इसके शरीर में रुधिर नामक राक्षस को प्रवेश करने की आज्ञा दी
[लिंग.१.६४] । राक्षस के द्वारा त्रस्त, यह राजा एक दिन वन में घूम रहा था, तब क्षुधाक्रान्त ब्राह्मण ने इसे देखा । उस ब्राह्मण ने इसके पास मांसयुक्त भोजन की याचना की । उसे कुछ काल तक स्वस्थ रहने की आज्ञा दे कर यह घर आया, तथा अन्तःपुर में स्वस्थता से सो गया । मध्यरात्रि के समय जब यह जागृत हुआ, तो इसे ब्राह्मण को दिये हुए वचन का स्मरण हुआ । तव इसने आचारी को मांसयुक्त भोजन बनाने की आज्ञा दी । वहॉं मांस बिल्कुल न था । तब राजा ने कहा कि, अगर दूसरा मांस नहीं है तो मनुष्यमांस ही बना दो । उसको भोजन दो बस । आचारी ने आज्ञानुसार कार्य कर, वह अन्न उस तपस्वी ब्राह्मण को दिया । तब वह अन्न अभोज्य है, ऐसा जान कर उसने भी इसे नरमांसभक्षक राक्षस होने का शाप दिया । तीसरे दिन इन दोनों शापों से इसके शरीर में राक्षस का संचार हुआ । यह शापदान नौमिषारण्य में हुआ
[वायु.१.२] ।
कल्माषपाद n. आगे चल कर थोडे ही दीनों में, इसकी शक्ति से मुलाकात हुई । वंशावली की दृष्टि से यह गलत है (शतयातु देखिये) । तब इसने कहा, “चूकि तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है, मैं तुमसे ही मनुष्युभक्षण प्रारंभ करता हूँ।" यो कह कर इसने उसे खा डाला । आगे चल कर, इस राजा के शरीर में प्रविष्ट राक्षस को विश्वामित्र के बारबार उपदेश करने के कारण, इसने वसिष्ठ के सौ पुत्र भी खा डाले । वसिष्ठ ने पुत्रशोक से प्राण देने का काफी प्रयत्न किया, परंतु वह असफल रहा
[म.आ.१६६-१६७] ;
[अनु.३] ;
[ब्रह्मांड. १. १२] । एक बार यह नर्मदा के किनारे
[नारद. १.९] वन में घूम रहा था, तब इसने एक ब्राह्मण दंपती को क्रीडा में निमग्न देखा । उन्हें देखते ही, कल्माषपाद ने दौड कर उनमें से ब्राह्मण का भक्षण कर लिया । तब क्रुद्ध हो कर ब्राह्मणी ने उसे शाप दिया कि, स्त्री समागम करते ही तुम मृत हो जाओगे । यो कह कर वह सती हो गई
[म.आ.१८२] ;
[भा.९.९.१८-३५] ;
[स्कंद. ३.३.२] ।
कल्माषपाद n. वसिष्ठ ने इसे उश्शाप दिया कि, तुम राक्षस बनोगे तथा आगे चल कर तुम्हारे शरीर पर गंगाबिंदु पडेंगे, तब तुम मुक्त होगे । परंतु ब्राह्मणी ने उपरोक्त वर्णित शाप दे कर, तुम सदा राक्षस ही रहोगे ऐसा शाप दिया । इसको दूसरे शाप से क्रोध आया तथा इसने ब्राह्मणी को उलटा शाप दिया कि, पुत्रसमवेत तुम पिशाची बनो । आगे चल कर पिशाची तथा यह राक्षस एक स्थान पर आये, जहॉं पीपल था । वहॉं कल्माषपाद तथा सोमदत्त नामक एक ब्रह्मराक्षस का गुरुविषयक संवाद हो कर उन दोनों के पाप नष्ट हो गये । उधर से एक गर्ग नामक कलिंगदेशी मुनि गंगा ले कर जा रहा था । इनकी प्रार्थना से उसने इनके शरीर पर गंगोदक छिडकते ही, वह पिशाची तथा ब्रह्मराक्षस दोनों मुक्त हो गये । यह शोक कर रहा था, तब आकाशवाणी हुई, “शोक मत करो । तुम भी मुक्त हो जावोगे।" वहॉं से यह काशी गया, तथा छः महीनों तक इसने गंगास्नान किया । इससे सब पातकों से मुक्त हो कर, वसिष्ठ ने बडे सन्मान से इसे राज्याभिसेक किया । गौतम ऋषी की अनुज्ञा से गोकर्ण क्षेत्र में जा कर यह मुक्त हुआ । अन्त में यह शिवलोक गया
[स्कंन्द.३.३.२] ;
[नारद.१.८-९] । साभ्रमती में स्नान कर के यह मुक्त हो गया
[पद्म. उ.६. १३२] ।
कल्माषपाद n. इसकी पत्नी मदयंती अरण्य में निरंतर इसके साथ रहती थी
[म.आ.१७३.५-६] । यह दिन के छठवें प्रहर में आहार करता था । उस समय केवल वह सामने नही आती थी । एक बार अहिल्या के कथनानुसार गौतमशिष्य उत्तक मदयंती के कुंडल मांगने आया । यह उसको खाने के लिये दौडा । परंतु उसने कहा, कि मेरा कार्य हो जाने दो, मैं वापस आ रहा हूँ । तब इसनें पूछा कि तुम्हें क्या कार्य है, तथा कार्यपूर्ति के लिये इसने उत्तंक को मदंयती के पास जाने के लिये कहा । मदयंती ने पति से एक चिन्ह लाने के लिये कहा । वह चिन्ह इससे लाते ही मदंयती ने कुंडल उत्तंक को दिये, तथा सम्हाल कर ले जाने के लिये कहा । जाते जाते कल्माषपाद ने उत्तंक को प्रतिज्ञा से मुक्त कर दिया
[म.आश्व. ५५-५६] । पतिव्रता के उपरोक्त शाप के कारण यह प्रजोत्पादन नहीं कर सकता था । तब इसने वसिष्ठ के द्वारा अपनी पत्नी मदयंती में गर्भधारणा करवाई । वही अश्मक है
[म.आ. ११३.२१-२२,१६८.२१-२५] ;
[शं.२२६.३०] ;
[अनु.१३७.१८] ;
[वा.रा.सुं. २४] ;
[वायु. ८८. १७७] । इसे सर्वकर्मा नामक पुत्र था
[मत्स्य.१२] । इसका वसिष्ठ के साथ गाय के माहाम्त्य के बारे में संवाद हुआ था । इसने काफी गायें दान में दी । मृत्यु के बाद इसे सद्नति मिली.
[म. अनु. ७८.८०] ।