जैगीषव्य n. एक ऋषि
[म.स.१२५ पंक्ति ५] ;
[म. अनु ४९.३७ कुं.] । इस के पिता का नाम शतशलाक
[ब्रह्मांड ३.१०.२०] । इसकी तीन पत्नियॉं थीः- १. पर्णा
[मत्स्य. १७९] , २. हिमवान की कन्या एकपाटला । इसके शिष्य का नाम असित देवल था । उसे इसने अपने तप का अद्भुत तेज तथा लीलायें दर्शाई । इसमें ब्रह्मलोकगमन का सामर्थ्य था
[म.श.४९] । असित देवल के साथ इसका ब्रह्मप्राप्तिविषयक संवाद प्रसिद्ध है । विष्णु का तथा इसने गरुड का रुप लिया थ
[वराह.४] । इसे योगशास्त्र की जानकारी देने के लिये, ब्रह्मदत्तपुत्र विष्वक्सेन ने, योगशास्त्र पर ग्रंथ लिखा
[भा.९.२१.२५-२६] । इसने प्रभास क्षेत्र में घोर तपश्चर्या की । पूर्वकल्प में ‘महोदय’ नाम से प्रसिद्ध लिंग की इसने स्थापना की । शिव के प्रसन्न होने पर, ‘मुझे ज्ञानयोग दीजिये,’ ये वर इसने मॉंगा । इसके द्वारा स्थापित लिंग को आजकल सिद्धेश्वर कहते है
[स्कंद.७.१.१४] । दूसरे स्थान पर विभिन्न कथा प्राप्त है । इस ऋषि ने जिद की, ‘जब तक मुझे शिवदर्शन नहीं होगा, तब तक मैं पानी भी नहीं पाऊंगा । शंकर को यह ज्ञात होते ही, वह पार्वती के साथ इसे दर्शन देने आया । शंकर ने इसकी सारी इच्छाएँ पूरी की, तथा इससे शिवलिंग की स्थापना करवायी
[स्कंद.४.२.६३] ।
जैगीषव्य II. n. वाराहकल्प के वैवस्वत मन्वन्तर में से शंकर का अवतार । यह काशी के दिव्य प्रदेश में दर्भांसन पर बैठनेवाला महायोगी था । इसे सारसत, योगीश, मेघवाह तथा सुवाहन नामक चार पुत्र थे
[शिव. शत. ४] ।