त्रित n. एक ऋषि तथा देवता । परंतु निरुक्त में इसे एक द्रष्टा कहा है
[नि.४.६] । इन्द्र ने त्रित के लिये अर्जुन का वध किया
[ऋ..२.११.२०] । त्रित ने त्रिशीर्ष का
[ऋ.१०.८.८] ।, एवं त्वष्ट्रपुत्र विश्वरुप का वध किया
[ऋ.१०.८.९] । मरुतों ने युद्ध में त्रित का सामर्थ्य नष्ट नहीं होने दिया
[ऋ.८.७.२४] । त्रित ने सोम दे कर सूर्य को तेजस्वी बनाया
[ऋ.९.३७.४] । त्रित तथा त्रित आप्त्य, एक ही होने का संभव है । त्रिंत को आप्त्य विशेषण लगाया गया है । इसका अर्थ सायण ने उदकपुत्र किया है
[ऋ.९.४७.१५] । यह अनेक सूक्तों का द्रष्टा है
[ऋ.१.१०५,८.४७,६.३३,३४,१०२,१०.१-७] । एक स्थान पर इसने अग्नि की प्रार्थना की है कि, मरुदेश के प्याऊ के समान पूरुओं को धन से तुष्ट करते हो
[ऋ.१०४] । त्रित शब्द इंद्र के लिये उपयोग में लाया गया है
[ऋ.१.१८७.२] । उसी प्रकार इंद्र के भक्त के रुप में भी इसका उल्लेख है
[ऋ.९.३२.२.१०,.८.७-८] । त्रित तथा गृत्समद कुल का कुछ संबंध था, ऐसा प्रतीत होता है
[ऋ.२.११.१९] । त्रित को विभूवस का पुत्र कहा गया है
[ऋ.१०.४६.३] । त्रित अग्नि का नाम हैं
[ऋ. ५.४१.४] । त्रित की वरुण तथा सोम के साथ एकता दर्शाई है
[ऋ.८.४१.६,९.९५.४] । एक बार यह कुएँ में गिर पडा । वहॉं से छुटकारा हो, इस हेतु से इसने ईश्वर की प्रार्थना की । यह प्रार्थना बृहस्पति ने सुनी तथा त्रित की रक्षा की
[ऋ.१.१०५.१७] । भेडियों के भय से ही त्रित कुएँ में गिरा होगा
[ऋ.१.१०५.१८] । इसी ऋचा के भाष्य में, सायण ने शाटयायन ब्राह्मण की एक कथा का उल्लेख किया है । एकत, द्वित तथा त्रित नामक तीन बंधु थे । त्रित पानी पीने के लिये कुएँ में उतरा । तब इसके भाईयों ने इसे कुएँ में धक्का दे कर गिरा दिया, तथा कुँआ बंद करके चले गये । तब मुक्ति के लिये, त्रित ने ईश्वर की प्रार्थना की
[ऋ.१.१०५] । यह तीनों बंधु अग्नि के उदक से उत्पन्न हुएँ थे
[श. ब्रा.१.२.१.१-२] ;
[तै.ब्रा ३.२.८.१०-११] । महाभारत में, त्रित की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है । गौतम को एकत, द्वित तथा त्रित नामक पुत्र थे । यह सब ज्ञाता थे । परंतु कनिष्ठ त्रित तीनों में श्रेष्ठ होने के कारण, सर्वत्र पिता के ही समान उसका सत्कार करना पडता था । इन्हें विशेष द्रव्य भी प्राप्त नहीं होता था । एक बार त्रित की सहायता से यज्ञ पूर्ण कर के, इन्होंने काफी गौए प्राप्त की । गौए ले कर जब ये सरस्वती के किनारे जा रहे थे, तब त्रित आगे था । दोनों भाई गौओं को हॉंकते हुए पीछे जा रहे थे । इन दोनों को गौओं का हरण करने की सूझी । त्रित निःशंक मन से जा रहा था । इतने में सामने से एक भेडिया आया । उससे रक्षा करने के हेतु से त्रित बाजू हटा, तो सरस्वती के किनारे के एक कुएँ में गिर पडा । इसने काफी चिल्लाहट मचाई । परंतु भाईयों ने सुनने पर भी, लोभ के कारण, इसकी ओर ध्यान नहीं दिया । भेडिया का डर तो था ही । जलहीन, धूलियुक्त तथा घास से भरे कुएं में गिरने के बाद, त्रिस्त ने सोचा कि, ‘मृयु भय से मैं कुए में गिरा । इसलिये मृत्यु का भय ही नष्ट कर डालना चाहिये’। इस विचार से, कुएँ में लटकनेवाली वल्ली को सोम मान कर इसने यज्ञ किया । देवताओं ने सरस्वतीं के पानी के द्वारा इसे बाहर निकाला । आगे वह कूप ‘त्रित-कूप’ नामक तीर्थ स्थल हो गया । घर वापस जाने पर, शाप के द्वारा इसने भाईयों को भेडिया बनाया । उनकी संतति को इसने बंदर, रीछ आदि बना दिया । बलराम जब त्रित के कूप के पास आया, उस समय उसे यह पूर्वयुग की कथा सुनाई गयी
[म.श.३५] ;
[भा.१०.७८] । आत्रेय राजा के पुत्र के रुप में, त्रित की यह कथा अन्यत्र भी आई है
[स्कंद.७.१.२५७] ।
त्रित II. n. चक्षुर्मनु को नड्वला से उत्पन्न पुत्रों में से एक ।
त्रित III. n. अंगिरस् गोत्र का एक मंत्रकार ।
त्रित IV. n. ब्रह्मदेव के मानस पुत्रों में से एक ।