नल n. निषध देश का सुविख्यात राजा । वह वीरसेन राजा का पुत्र था
[पद्म. सृ ८] ;
[लिंग.१.६६.२४-२५] ;
[वायु.८८,१७४] ;
[मत्स्य.१२.५६] ;
[ह.वं.१.१५] ;
[ब्रह्मांड.२.६३.१७३-१७४] । मत्स्य तथा पद्म ए मतानुसार वीरसेनपुत्र नल तथा निषधपुत्र नल दोनों इक्ष्वाकु वंश के ही है । किंतु लिंग, वायु तथा ब्रह्मांड एवं हरिवंश में वीरसेनपुत्र नल वंश नहीं दिया गया है । पांडवो के वनवासकाल में, युधिष्ठिर ने बृहदश्व ऋषि से कहा, ‘मेरे जैसा बदनसीब राजा इस दुनिया में कोई नहीं होगा’। फिर बृहदश्व ने, युधिष्ठिर की सांत्वना के लिये उससे भी ज्यादा बदनसीब राजा की एक कहा सुनायी । वही नल राजा की कथा है
[म.व.५०] । नल राजा निषेध देश का अधिपति था, एवं युद्ध में अजेय था
[म.आ.१.२२६-२३५] । एक बार, बल ने सुवर्ण पंखों से विभूषित बहुत से हंस देखे । उनमें से एक हंस को इसने पकड लिया
[म.व.५०.१९] । फिर उस हंस ने नल से कहा, ‘आप मुझे छोड दें । मैं आपका प्रिय काम करुँगा । विदर्भनरेश भीम राजा की कन्या दमयंती, को आप के गुणा बताउँगा, जिससे वह आपके सिवा दूसरे का वरण नहीं करेंगी’। हंस का यह वचन सुन कर, नल ने उसे छोड दिया
[म.व.५०-२०-२२] । पश्चात् हंस ने दमयंती के पास जा कर, नल के गुणों का वर्णन किया । उससे दमयंती नल के प्रति अनुरक्त हो गयी
[म.व.५०-५१] । यथावकाश दमयंती-स्वयंवर की घोषणा विदर्भधिपति भीम राजा राजा ने की । उसे सुन कर, नल राजा स्वयंवर के लिये विदर्भ देश की ओर खाना हुआ । नारद द्वारा दमयंती स्वयंवर की हकीकत इंद्रादि लोकपालों को भी ज्ञात हुई । वे भी स्वयंवर के लिये विदर्भ देश चले आये । नल को देखते ही इसके असामान्य सौंदर्य के कारण, दमयंतीप्राप्ति की आशा इंद्रादि लोकपालों ने छोड दी । बाद में इंद्र ने नल राजा को सहायता के वचन में फँसवा, एवं उसे दूत बनाकर दमयंती को बताने के लिये कहा, ‘लोकपाल तुम्हारा वरण करना चाहते है।’ इंद्र के आशीर्वाद के कारण अदृश्य रुप में यह कुंडिन पुर में दमयंती के मंदिर में प्रविष्ट हो गया । वहॉं दमयंती तथा उसके सखियों के सिवा यह किसी को भी नहीं दिखा । इस कारण, यह दमयंती तक सरलता से पहुँच सका । दमयंती के मंदिर में नल के प्रविष्ट होते ही, उसकी सारी सखियॉं स्तब्ध हो गई तथा दमयंती भी इस पर मोहित हो गई । बाद में दमयंती द्वारा पूछा जाने पर नल ने अपना नाम बता कर देवों का संदेशा भी उसे बताया
[म.व.५१-५२] । फिर भी दमयंती का नल को पति बनाने का निश्चय अटल रहा । दमयंती स्वयंवर में, उसकी परीक्षा लेने के लिये, नल के ही समान रुप धारण कर, इंद्रादि देव सभा में बैठ गये । स्वयंवर के लिये आये सहस्त्रावधि राजाओं का वरण न कर, दमयंती उस स्थान पर आई जहॉं नल बैठ था । वहॉं उसने देखा, पॉंच पुरुष एक ही स्वरुप धारण कर एक साथ बैठे हैं । उसके सामने बडी ही समस्या उपस्थित हो गई। बाद में उसने कहा कि ‘नल के प्रति मेरा अनन्य प्रेम हो, तो वह मुझे गोचर हो ।’ इतना कहते ही उसके पातिव्रत्यबल से सारे देव उनके ‘वास्त्व देवता स्वरुप’ में उसे दिख पडे । धर्मबिंदुविरहित स्तब्ध दृष्टिवाले, प्रफुल्ल पुष्पमाला धारण करनेवाले, धूलि स्पर्शविरहित, तथा भूमि को स्पर्श न करते हुएँ खडे देव उसने देख’। उन देवों को नमन कर, दमयंती ने नल को वरमाला पहनायी । नल का वरण दमयंती द्वारा किये जाने के कारण, देवों को भी आनंद हुआ तथा उन्होंने इसे दो दो वर दिये । इंद्र ने इसे वर दिया, ‘तुम्हे यज्ञ में मेरा प्रत्यक्ष दर्शन होगा, तथा सद्गति प्राप्त होगी’। अग्नि ने वर दिया, ‘चाहे जिस स्थान पर तुम मेरी उत्पत्ति कर सकोम्गे, तथा मेरे समान तेजस्वी लोक की प्राप्ति तुम्हें होगी’। यम ने इसे अन्नरस तथा धर्म के उपर पूर्ण निष्ठा रहने का, उसी प्रकर वरुण ने इच्छित स्थल पर जल उत्पन्न करने की शक्ति का वर दिया । वरुण ने इसे एक सुगंधी पुष्पमाला भी प्रदान की, एवं वर दिया, ‘तुम्हारे पास के पुष्प कभी भी नहीं कुम्हलायेंगे’। इन वरों के अतिरिक्त, देवताप्रसाद से कहीं भी प्रवेश होने पर इसे भरपूर जगह मिलती थी, ऐसी भी कल्पना है । पश्चात् भीमराज ने दमयंती विवाह का बडा समारोह किया । काफी दिनों तक नल को अपने पास रख लेने के बाद, इसे दमयंती सहित निषध देश में पहुँचा दिया । निषध आने के बाद, इसने प्रजा का उत्तम पालन किया तथा अश्वमेधादि यज्ञ कर देवों को भी तृप्त किया । कुछ काल के बाद, दमयंती से इसे इंद्रसेन नामक पुत्र, तथा इंद्रसेन नामक कन्या ये अपत्य भी पैदा हुएँ
[म.व.५३-५४] । एक बार देवसभा में, इंद्रादि देवों ने नल की स्तुति की । वह स्तुति वहॉं बैठे कलि पुरुष को सहन नहीं हुई । देवों के जाने के बाद वह द्वापर नामक युगपुरुष के पास गया, एवं उसने कहा, ‘अगर तुम द्यूत के प्यादों’ में मुझे प्रविष्ट होने दोंगे, एवं मेरी सहायता करोंगे, तो मैं नल को राज्य भ्रश्ट कर दूँगा’
[म.व.५५-१३] । द्वापर के द्वारा मान्यता मिलने पर, उसे ले कर कलिपुरुष निषध देश में गया । वहॉं नल के शरीर में प्रविष्ट होने की संधि देखते हुए, गुपरुप से वह अनेक वर्षो तक रहा । एक दिन मूत्रोत्सर्ग करने के बाद, पादप्रक्षालन न करते हुए ही नल संध्योपासना करने बैठा । यह संधि देख, कली ने इसके शरीर में प्रवेश किया । शरीर में कलि प्रवेष्ट होते ही, नल को द्यूत खेलने की इच्छा हुई । इसने तत्काल अपने पुष्कर नामक भ्रात को द्यूत खेलने के लिये बुलाया । पुष्कर ने पास ही वृषभ रुप ले कर खडे कलि को दॉंव पर लगा कर, नल को खेलने का आह्रान दिया । दमयंती के सामने दिया यह आह्रान अपना अपमान समझ कर, नल ने दॉंव पर दॉंव लगाना शुरु किया । यह वृत्त नागरिकजनों को ज्ञात होते ही उन्होंने, मंत्रियो ने तथा स्वयं दमयंती ने हर प्रकर से इसे द्युत से परावृत्त करने की कोशिश की । शरीर में स्थित कलि के प्रभाव के कारण, नल द्यूत खेलता ही रहा । उस कारण, इसकी सारी संपत्ति, सुवर्ण, वाहन, रथ, घोडे तथा वस्त्र दूसरे पक्ष ने जीत लिये । अपना तथा अन्य किसी का भी उपदेश राजा नहीं सुन रहा है यह देख, दमयंती न अपने पुत्र तथा कन्या को वार्ष्णेय नामक सारथि के साथ रथ में बैठा कर, अपने पिता के यहॉं कुंडिनपुर भेज दिया
[म.व.५६-५७] । नल का समस्त राज्य हरण कर लेने के बाद, पुष्कर ने इसे एक वस्त्र दे कर राज्य के बाहर निकाल दिया । इसके साथ दमयंती भी एक वस्त्र पहन कर निकल पडी । नगर के बाह्र नल तीन दिनों तक रहा । पुष्कर ने ढिंढोरा पिटवाया, ‘जो नल का सत्कार करेंगे, या उससे सज्जनता का व्यवहार करेंगे, उन्हें मृत्यु की सजा दी जावेगी’। इस कारण किसीने नल की सहायता नहीं की । पश्चात अपना राज्य छोड कर, नल एवं दमयंती अरण्य के मार्ग से जाने लग ए। काफी दिन इसी प्रकार व्यतीत होने पर, क्षुधाग्रस्त नल को सुवर्णमय पंखयुक्त कुछ पंछी दिखे । खाने के लिये तथा धनप्राप्ति के हेतु से, वे पक्षी पकडने की इच्छा नल को हुई । इसलिये इसने उन्हें अपने वस्त्र में पकड लिया किंतु दुर्दैवशात् द्यूत के प्यादे ही नल का पीछा करते हुए, पक्षीरुप धारण कर के आये हुए थे । वे इसका वस्त्र ले कर, वह भी चला गया एवं नग्न स्थिति में यह आगे जाने लगा । जाते जाते नल ने दमयंती को कोसल तथा विदर्भ देश की ओर जानेवाला मार्ग दर्शायाअ, एवं कहा. ‘तुम अपने पिता के घर विदर्भ देश चली जाओ’। फिर दमयंती ने नल से कहा, ‘हम दोनों ही विदर्भ देश को जायें’ किंतु नल को यह अच्छा न लगा । पश्चात् मार्ग में नल एवं दमयंती को एक घर दिखा । दोनों उस घर में गये । थकावट के कारण दमयंती शीघ्र ही निद्राधीन हो गई । यह देख, उसे छोड कर अकेले चले जाने की इच्छा नल के मन में उत्पन्न हुई । तलवार से दमयंती का आधा वस्त्र का कर, वह इसने परिधान किया । तथा चुपचाप उसे वहीं छोड कर, यह चला गया
[म.व.५८.५९] ; दमयंती देखिये । बाद में चेदि देश के सुबाहु राजा की पत्नी की सैरंध्री बन कर दमयंती ने अपने बुरे दिन व्यतीत किये । दमयंती को छोड कर चले जाने के बाद, नल ने एक स्थान पर प्रदीप्त दावाग्नि देखा । उससे कारुण ध्वनि निकल रही थी, ‘हे नल! मेरी रक्षा करो’। फिर अग्नि में घिरे कर्कोटक नाग को इसने बाहर निकाला । तब वह नाग प्रसन्न हो कर उसने नल से कहा, ‘एक दो, तीन, इस क्रम से तुम चलना शुरु करो । मैं तुम्हारा कुछ कल्याण करना चाहता हूँ । तुम्हारा चलना शुरु होते ही, वह कार्य मैं पूरा करुँगा । कर्कोटक के आदेशानुसार यह कदम गिनते गिनते चलने लगा । अपने दसवें कदम पर इसने ‘दश’ कहा । ‘दश’ कहते ही कर्कोटक्ल नाग ने इसे दंश किया, जिससे इस का रुप बदल कर, यह कृष्णवर्ण एवं कुरुप बन गया । फिर नल ने व्याकुल हो कर कर्कोटक से पूछा, ‘तुमने यह् क्या किया?’ कर्कोटक ने इस पर कहा, ‘तुम नाराज न हो । तुम्हारे लाभ के लिये ही मैंने तुम्हे दंश किया है । तुम्हारे ये बदले हुए रुप से अब तुम्हें कोई भी पहचान नहीम सकेगा । इतना ही नहीं, मेरे विष की बाधा तुम्हारे शरीरस्थ कलि को ही हो जायेगी’। नल को एक वस्त्र प्रदान कर कर्कोटक ने आगे कहा, ‘अब तुम बाहुक नामांतर से अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण के पास जा कर वास करो । जब पूर्ववत् सुरुप होने की इच्छा तुम करोगे, तब स्नान करके यह वस्त्र ओढ लेना । इससे तुम्हे पूर्वस्वरुप प्राप्त होगा’। इतना कह कर कर्कोटक अंतर्धान हो गया
[म.व.६३.१९-२३] । कर्कोटक के गुप्त होने के बाद नल दस दिनों से अयोध्या जा पहुँचा । ऋतुपर्ण राजा से मिल कर इसने कहा, ‘मुझे अश्वविद्या तथा सारथ्य कर पूर्ण ज्ञान है । आप-मुझे आश्रय दें, तो मैं अपने पास रहने के लिये तैयार हूँ । ऋतुपर्ण ने इसे अपने आश्रय में रखा, एवं इसे अपनी अश्वशाला का प्रमुख बना दिया । नल के पुराने सारथि वार्ष्णेय तथा जीवल पहले से ही ऋतुपर्ण की अश्वशाला में काम करते थे । संयोगवश नल के ये पुराने नौकर इसके सहयक बना दिये गये । किंतु इस नये रंगरुप में वे इसे पहचान नहीं सके । अपनी पत्नी दमयंती, कन्या, तथा पुत्र का स्मरण कर के यह रोज विलाप करता था । एक दिन जीवन ने इसे पूछा. ‘किसके लिये तुम हररोज शोक करते हो?’ कुछ न कह कर यह स्तब्ध रह गया
[म.व.६४.१२-१९] । ऋतुपर्ण राजा के यहॉं नौकरी करने से पहले ही वार्ष्णेय ने दमयंती के कथनानुसार उसके पुत्र तथा कन्या को कुंडिनपुर में भीमराजा के पास पहुँचा दिया था, तथा कहॉं था, कि ‘नलराजा द्यूतासक्त हो गया अब उसका कोई भरोंसा नहीं है’ । बाद में भीमराजा को ज्ञात हुआ कि राज्यभ्रष्ट हो कर नल दमयन्ती सह अरण्य में चला गया है । अपनी कन्या एवं जमाई को ढूँढने के लिये भीमराजा ने सारे देशों में ब्राह्मण भेजे । उनमें से सुदेव नामक ब्राह्मत घूमते घूमते वहॉं गया, जहॉं दमयंती राजपत्नी की सैरंध्री बन कर दिन काट रही थी । दमयंती के पीपलत्ते के समान ताम्रवर्णीय दाग के कारण उसने दमयंती को पहचान लिया ,तथा कहा, ‘तुम्हारे पिता की आज्ञानुसार मैं तुम्हें ढूँढने ने आया हूँ। यह सुन कर दमयंती अपने आपको सम्हाल न सकी, एवं फूट फूट कर रोने लगी । यह सारा वृत्त चोदराजपत्नी सुनंदा ने राजमाता को बताया, उसे दमयंती की दुखभरी कहानी सुन कर बहुत ही खेद हुआ । बाद में उसने दमयंती का बडा सत्कार कर तथा साथ में सेना दे कर पालकी से इसे कुंडिनपुर पहुँचा दिया । दमयंती को देख कर भीम को अत्यंत आनंद हुआ । कन्या का शोध लगने के कारण एक चिंता से भीमराजा मुक्त हुआ । केवल नल ही को मालूम हो ऐसे संकेतदर्शक वाक्यों के साथ भीमराजा ने अनेक ब्राह्मण देश देश में नल को ढूँढने के लिये भेज दिये
[म.व.६४-६६] । उनमें से पर्णाद नामक ब्राह्मण अयोध्या नगरी में आया । वहॉं पहुँचने के बाद दमयंती द्वारा बताये गये पूर्वस्मृति-निदर्शक तथा कर्तव्यबुद्धि जागृत करनेवाले अनेक वाक्य कहते कहते, वह नगर की वस्ती वस्ती में घूमने लगा । वे वाक्य सुन कर नल को अत्यंत दुख हुआ तथा एकांत में पर्णाद से मिल कर इसने कहा ‘हेन दशा प्राप्त होने के कारण मैनें पत्नी का त्याग किया, इसलिये वह मुझे दोष न दे’। इतना होते ही पर्णाद द्रुतगति से अयोध्या से चला गया, एवं कुंदिनपुर आ कर यह वृत्त उसने दमयंती को बताया । यह वृत्त सुन, दमयंती को अत्यंत आनंद हुआ, किंतु पर्णादं द्वारा किये गये बाहुक के रुपवर्णन के कारण वह संदेह में पड गयी । उस संदेह की निष्कृति करने के लिये उसने अपनी माता के द्वारा ऋतुपर्ण को संदेसा भेजा, ‘नल जीवित है या मृत यह न समझने के कारण दमयंती अपना दूसर स्वयंवर कल सूर्योदय के समय कर रही है; इसलिये अगर इच्छा हो तो आप वहॉं आयें’
[म.व.६५] । कुंडिनपुर से अयोध्या काफी दूर होने के कारण, एक दिन में वहॉं पहुँचना ऋतुपर्ण को अशक्यप्रायसा लगा । फिर भी अपने सारथि बाहुक से उसने पूछा । बाहुक ने एक दिन में रथ से अयोध्या पहुँचने की शर्त मान्य की एवं बडी ही तेजी से रथ हॉंका । मार्ग में ऋतुपर्ण का उत्तरीय गिर पडा । उसे उठाने के लिये राजा ने बाहुक को रथ खडा करने के लिये कहां । फिर बाहुक ने कहा ‘आपका वस्त्र एक योजन पीछे रह गया है’। यह देख कर ऋषुपर्ण बाहुक के सारथ्यकौशल्य पर बहुत ही खुष हुआ । बाद में बाहुक से अश्वहृदयविद्या सीख कर, ऋतुपर्ण ने उसे ‘अक्षहृदयविद्या’ (द्यूत खेलने की कला ) प्रदान की
[म.व.७०.२६] । इस प्रकार ये दोनों परम मित्र बन गये
[ह.वं.१.१५] ;
[वायु.२६] ;
[विष्णु.४.४.१८] ;
[ब्रह्म.८.८०] । अक्षहृदय विद्या प्राप्त होते ही, कलिपुरुष नल के शरीर से बाहर निकला । उसे देख कर जब नल उसे शाप देने के लिये उद्युक हुआ, तब कलि ने इसकी प्रार्थना करते हुए कहा ‘हे पुण्यश्लोक नल! तुम मुझे शाप मत दो । कर्कोटक नाग के विष से मेरा शरेर दग्ध हो गया है । दमंयती के शाप से भी मैं पीडित हूँ । आयदा से, कर्कोटक, दमयंती, नल तथा ऋतुपर्ण का नामसंकीर्तन करनेवालों को कलि की बाधा न होगी
[म.व.७८] । इतना कहते हुए कह वेडेलि के वृक्ष में प्रविष्ट हुआ । इस ‘कलिप्रवेश’ के कारण, बेहडे (बिभीतक) का वृक्ष अपवित्र माना जाने लगा
[म.व.७०.३६] । सायंकाल होने के पहले ही, बाहुक ने रथ कुंडिनपुर पहुँचाया । किंतु वहॉं स्वयंवरसमारोह का कुछ भी चिह्र मौजुद नहीं था । इस कारण, ऋतुपर्ण मन ही मन शरमा गया, एवं अपना मुँह बचाने के लिये कहा, ‘यूँ ही मिलने के लिये मैं आया हूँ’। आये हुएँ लोगों में दमयंती को नल नहीं दिखा । किंतु ऋतुअपर्ण के त्वरित आगमन का कारण नल ही है ऐसा विश्वास उसे हो गया, तथा जादा पूँछताछ के लिये, उसने अपने केशिनी नामक दासीए को बाहुक के पास भेज दिया । उस दासी न बडे ही चातुर्य से, बाहुक के साथ दमयंती के बारे में प्रश्नोत्तर क्रिये । फिर नल का हृदय दुख से भर आया, तथा वह रुदन करने लगा । यह सब वृत्त केशिनी ने दमयंती को बताया
[म.व.७१-७२] । बाद में दमयंती ने केशिनी को बाहुक की हलचल पर सक्त नजर रखने के लिये कहा । बाहुक की एक बार परीक्षा लेने के लिये, दमयंती ने अग्नि तथा उदक न देते हुए अन्य पाकसाहित्य दिलाया । वह ले कर एवं जल तथा अग्नि स्वयं उत्पन्न कर बाहुक ने पाकसिद्धि की । उसी प्रकर बाहुक को अवगत ‘पुष्पविद्या’ (मसलने पर भी पुष्पों का न कुम्हलाना) तथ आकृतिविद्या (‘छोटी चीज बडे बनाना’) आदि बातें केशिनी ने स्वयं देखी
[म.व.७३.९,१६] । बाद में दमयंती ने अपने पुत्र एवं पुत्री को दासी के साथ बाहुक के पास भेज दिये । नल अपना शोक संयमित न कर सका । बाद में में ही बाहुक ने फिर दासी से कहा ‘मेरे भी पुत्र ऐसे होने के कारण मुझे उनकी याद आयी
[म.व.७३,२६-२७] । फिर दमयंती ने अपनी माता के पास संदेश भिजवाया, ‘यद्यपि नल के अधिकांश चिह्र बाहुक में हैं, तथापि रुप के कारण मुझे कुछ शंका हो रही है । अगर आपकी आज्ञा मिले तो उसे बुला कर, मैं कुछ परीक्षा ले लूँ’। माता की आज्ञा प्राप्त होते ही उसने बाहुक से कहा, ‘प्रतिव्रता तथा निरपराध स्त्री को अरण्य में अकेली छोड जानेवाला पुरुष पृथ्वी पर नल राज के सिवा अन्य कोई नहीं है’। यह सुनते ही बाहुक ने कहा, ‘पति सदाचारी तथा जीवित होते हुए भी, स्वयंवर करनेवाली स्त्री तुम्हारे सिवा अन्य कोई नहीं है’। फिर नल एवं दमयंती ने एक दूसरी को पहचान लिया । दमयंती ने कहा, ‘यह सारा नाटक तुम्हे ढूँढने के लिये ही मैंने रचाया था । दूसरी बार स्वयंवर करने की ही लालसा मुझे होती, तो क्या मैं अन्य राजाओं को निमंत्रित नहीं करती?’ इतना कह कर वह स्तब्ध हो गई । इतने में वायु द्वारा आकाशवाणी हुई ‘दमयंती निर्दोष है । तुम उसका स्वीकार करो’। उसे सुनते ही नल ने कर्कोटक नाग का स्मरण किया एवं उसने दिये दिव्य वस्त्र परिधान कर लिया । उस वस्त्र के कारण, नल का कुरुपत्व नष्ट हो कर, वह सुस्वरुप दिखने लगा । फिर नल ने दमयंती तथा पुत्रों का आलिंगन किया
[म.व.७३-७४] । नल एवं दमयंती का मीलन होने के पश्चात् भीमराजा ने उनको एक माह तक अपने पास रख लिया । तब बाद में दमयंती एवं पुत्रों को सथ ले कर, नल राजा निषध देश की ओर मार्गस्थ हुआ । वहॉं पहुँचते ही नल ने पुष्कर को बुलावा भेजा, तथा उससे द्यूत खेल कर अपना राज्य हासिल किया
[म.व.७७] । मृत्यु के पश्चात्, नल यमसभा में उपस्थित हो कर, यम की उपासना करने लगा
[म.स.८.१०] । भारतीय युद्ध के समय, यह देवराज इंद्र के विमान में बैठ कर, युद्ध देखने आया था
[म.वि.५१.१०] ।
नल n. पूर्वजन्म में, नल राजा गौड देश के सीमा पर स्थित एक देश के पिप्पल नामक नगर में, एक वैश्य था । संसर से विरक्त हो, यह एक बार अरण्य में चला गया । वहॉं एक ऋषि के उपदेशानुसार, ‘गणेशव्रत’ करने के कारण यह अगले जन्म में नल राजा बन गया
[गणेश. २.५२] । इसके ही पहले के जन्म में, नल एवं दमयंती आहुक एवं आहुका नामक भील तथा भीलनी थे । शिवप्रसाद से उन्हें राजकुल में जन्म प्राप्त हुआ । शंकर ने हंस का अवतार ले कर उन्हें सहायता दी थी (यतिनाथ देखिये) । पाकशास्त्र तथा अश्वविद्या पर लिखित, राजा के कई ग्रंथ प्रसिद्ध हैं ।
नल II. n. (सू. इ.) अयोध्या के ऋतुपर्ण राजा का पुत्र । इसे सुदास नामक पुत्र था । इसका मूल नाम सर्वकर्मन् अथवा सर्वकाम था
[लिंग. १.६६.१] । इसका पिता ऋतुपर्ण, निषध देश के नल राजा का मित्र था (नल १. देखिये) वायुपुराण के मत में, प्राचीन भारतीय इतिहास में दो नल सुविख्यात थेः--- (१) अयोध्या का राजा इक्ष्वाकुवंशज नल---यह ऋतुपर्ण का पुत्र था । (२) वीरसेन का पुत्र नैषध नल
[वायु.८८.१७४-१७५] ।
नल III. n. (सो. क्रोष्टु.) भागवतमत में यदु राजा का पुत्र । इसे ‘नील’नामांतर भी प्राप्त था ।
नल IV. n. (सो. कुकुर.) यादव राजा विलोमन् (तित्तिरि) का पुत्र । इसे ‘नंदनोदरदुंदुभि’ नामान्तर भी प्रप्त था
[मत्स्य.४४.६३] । मत्स्यमत में यह सर्प था ।
नल IX. n. रामसेना का एक वान्र, एवं रामसेतु बॉंधनेवाला स्थापत्यविशारद । यह देवों के शिल्पी विश्वकर्मा एवं घृताची नामक अप्सरा का पुत्र था
[म.व.२६७.४१] । ऋतुध्वज मुनि के शाप से, विश्वकर्मा को वानरयोनि प्राप्त हुई । उसी जन्म में उसे यह पुत्र गोदावरी नदी के तट पैदा हुआ
[वामन.६२] । इसे अग्नि का पुत्र भी कहा है
[स्कंद.३.१.४२] । जी चाहे वह वस्तु निर्माण करने की शक्ति का वर, इसके पिता ने इसे दिया था
[वा.रा.यु.२२] । राम की आज्ञा से इसने दक्षिण समुद्र पर सौ योजन लंबे एवं दस योजन चौडे सेतु का निर्माण किया । वह सेतु ‘रामसेतु’ अथवा ‘नलसेतु’ नाम से प्रसिद्ध है
[म.व.२६७-४६] । इसने एक ब्राह्मण को जाह्रवी नदी में शालिग्राम विसर्जन करने के कार्य में मदद की थी । इस पुण्यकार्य के कारण, उस ब्राह्मण ने इसे वर दिया, ‘तुम्हारे पत्थर पानी में तर सकेंगे । ‘इसी सिद्धि के कारण, सेतुबंधन का कार्य यह सफलता से कर सका सेतु बांधने का कार्य शुरु करने से पहले इसने गणेश तथा नवग्रहों की पूजा की थी
[आ.रा.सार.१०] प्रतपन, अकंपन, तथा प्रहस्त आदि रावणपक्षीय राक्षसों से युद्ध करते समय इसने काफी पराक्रम दर्शाया था (कुशलव देखिये) । राम केअश्वमेध यज्ञ के समय, यह अश्वरक्षण के लिये शत्रुघ्न के साथ गया था
[पद्म. पा.११] ।
नल V. n. इन्द्रसभा में उपस्थित एक ऋषि ।
नल VI. n. (सू. इ.) दल का नामान्तर ।
नल VII. n. तेरह सैंहिकेयों में से एक
[ब्रह्म.३] ।
नल VIII. n. निषध राजा का पुत्र । इसका पुत्र नभ अथवा नभस्
[ह.वं.१.१५.२८] ;
[ब्रह्म. ८] ;
[पद्म. सृ. ८] ;
[मत्स्य. १२.५६] ।