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मंकि

   
Script: Devanagari

मंकि

मंकि n.  एक प्राचीन आचार्य, जिसकी कथा भीष्म ने युधिष्ठिर से कही थी । इस कथा का यही सार था कि, जो भाग्य में होगा उसे कोई टाल नहीं सकता । ‘चाहे जितना बल पौरुष का प्रयोग करो, किन्तु यदि भाग्य में बदा नहीं है, तो कुछ भी न होगा । संसार में हर एक व्यक्ति के सामान्य कामनाएँ भी अपूर्ण रहती है । इसे कारण कामना का त्याग करना ही सुखप्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है’ यही महान तत्त्व मंकि के जीवनकथा से दर्शाया गया है । मंकि नामक एक लोभी किसान था, जो हर क्षण धन प्राप्त की लिप्सा में सदैव अन्धा रहता था । एक बार इसने दो बैल लिए, तथा उन्हे जुएँ में जोत कर यह खेत पर काम कर रहा था । जिस समय बैल तेजी के साथ चल रहे थे, उसी समय उनके मार्ग में एक ऊँट बैठा था । इसने ऊँट न देखा, और बैलों के साथ उसकी पीठ पर जा पहुँचा । इसका परिणाम यह हुआ कि, दौडते हुए दोनों बैलों को अपनी पाठ पर तराजू की भॉंति लटका कर ऊँट भी इतनी जोर से भगा कि, दोनों बैल तत्काल ही मर गये । यह देख कर मंकि को बडा दुःख हुआ, एवं इस अवसर पर इसने भाग्य के सम्बन्ध में बडे उच कोटि के विचार प्रकट किये, जिसमें तृष्णा तथा कामना की गहरी आलोचना प्रस्तुत की गयी है । इसके यह सभी विचार ‘मंकि गीता’ में संग्रहित हैं । उक्त घटना से इसे वैराग्य उत्पन्न हुआ, एवं अन्त में यह धनिलिप्सा से विरक्त हो कर परमानंद स्वरुप परब्रह्म को प्राप्त हुआ [म.शां.१७१.१-५६]
मंकि n.  ‘मंकि गीता’ का सार भीष्म के द्वारा इस प्रकार वर्णित हैः--- सर्वसाम्यगों अनायासः, सत्यवाक्यं च भारत। निर्वेदश्वाविवित्सा च, यस्य स्यात्स सुखी नरः॥ [म.शां.१७१.२] । मंकि का यह तत्त्वज्ञान बौद्धपूर्वकालीन आजीवक सम्प्रदाय के आचार्य मंखलि गोसाल के तत्त्वज्ञान से काफी साम्य रखता है । यह दैववाद की विचारधारा को मान्यता देनेवाला आचार्य था । केवल दैव ही बलवान् है, कितना ही परिश्रम एवं पुरुषार्थ करो, किन्तु सिद्धि प्राप्त नहीं होगी, यही ‘मंकि गीता’ का उपदेश है, तथा ऐसा ही प्रतिपादन मंखलि गोसाल का था । सभ्भव है, मंकी तथा मंखलि गोसाल दोनों एक ही व्यक्ति हों । आजीवक सम्प्रदाय भोग-प्रधान दैववाद का अनुसरण करनेवाला था । सम्राट अशोक के समय आजीवक संप्रदाय का काफी प्रचार था, एवं समाज उसका काफी आदर करता था । अशोक शिलालेखों में आजीवक लोगों का बडे सम्मान के साथ निर्देशन किया गया है । नागार्जुन पहाडियों में उपलब्ध शिलालेखों में आजीवकों को गुहा प्रदान करने का निर्देश प्राप्त है । आगे चलकर बौद्ध एवं जैन एवं के प्रचार के कारण आजीतकों की लोकप्रियता धीरे धीरे विनष्ट हो गयी, तथा आजीवकों के द्वारा ब्रह्मप्राप्ति की प्रधानता का बोलबाला हुआ ।
मंकि II. n.  त्रेतायुग का ऋशि, जो कौषीतक नामक ब्राह्मण का पुत्र था । यह वैदिकधर्म का पालन करनेवाला, अग्निहोत्र करनेवाला , एवं वैष्णवधर्म पर विश्वास करनेवाला परम सदाचारी ब्राह्मण था । इसे स्वरुपा एवं विश्वरुपा नामक दो पत्नियॉं, थी, किन्तु कोई पुत्र न था । इसी कारण इसने अपने गुरु की आज्ञा से साबरमती नदी के तट चार वर्षो तक तपस्या की, जिससे इसे अनेक पुत्र उत्पन्न हुये । साबरमती के तट पर जिस स्थान पर इसने तप किया उसे ‘मंकितीर्थ’ नाम प्राप्त हुआ । इस तीर्थ को ‘सप्तसारस्वत’ नामांतर भी प्राप्त था । द्वापर युग में पाण्डव इस तीर्थ के दर्शनों के लिए आये थे । उस समय उन्होंने इस तीर्थ को ‘सप्तधार’ नाम प्रदान किया था [पद्म.उ.१३६]

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