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दुर्वासस्, आत्रेय n. बडे उग्र तथा क्रोधी स्वभाव का एक ऋषि [मार्क.१७.९-१६] ;[विष्णु, १.९.४.६] । इसीके नाम से, क्रोधी एवं दूसरे को सतानेंवाले मनुष्य को ‘दुर्वासस्’ कहने की लोकरीति प्रचलित हो गयी है ।
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दुर्वासस्, आत्रेय n. दुर्वासस् का जन्म किस प्रकार हुआ, इसकी तीन अलग कथाएँ प्राप्त है । वे इस प्रकार हैः---(१) ब्रह्माजी के मानसपुत्रों में से, दुर्वासस् एक था । (२) अत्रि तथा अनसूया के तीन पुत्रों में से, दुर्वासस् एक था [भा.४.१, विष्णु.१.२५] । पुत्रप्राप्ति के हेतु, अत्रि त्र्यक्षकुल पर्वत पर तपस्या करने गया । वहॉं उसने काफी दिनों तक तपस्या की । उस तपस्या के कारण, उसके मस्तक से प्रखर ज्वाला निकली, एवं त्रैलोक्य को त्रस्त करने लगी । पश्चात ब्रह्मा, विष्णु, एवं शंकर अत्रि के पास आये । अत्रि का मनोरथ जान कर, अपने अंश से तीन तेजस्वी पुत्र होने का वर उन्होंने अत्रि को दिया । उस वर के कारण, अत्रि को ब्रह्मा के अंश के सोम (चंद्र), विष्णु के अंश से दत्त, एवं शंकर के अंश से दुर्वासस् ये तीन पुत्र हुएँ [शिव. शत.१९] । (३) शंकर के अवतारों में से दुर्वासस् एक था [मार्क.१७.९-११] ;[विष्णु.१.९.२] । शंकर ने त्रिपुर का नाश करने के लिये एक बाण छोडा । त्रिपुर का नाश करने के बाद, वह बाण छोटे बालक का रुप लेकर, शंकर की गोद में आ बैठा । उस बालक को ही दुर्वासस् नाम प्राप्त हुआ [म.अनिउ.१६०.१४-१५] ।
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दुर्वासस्, आत्रेय n. (१) अंबरीष [भागवत. ९.४.३५] , (२) श्वेतकि [म.आ.परि.१.११८] , (३) राम दाशरथि [पद्म. उ. २७१.४४] ।, (४) कुन्ती [म.आ.६७] , (५) कृष्ण [ह.वं.२९८.३०३] , (६) दौंपदी [म.व.परि.१ क्र.२५] । इन निर्देशों से, प्रतीत होता है कि, नारद के समान दुर्वासस् भी तीनो लोक में अप्रतिबंध संचार करनेवाली एक अमर व्यक्तिरेखा थी । इंद्र से अंबरीष, राम एवं कृष्ण तक, तथा स्वर्ग से पाताल तक किसी भी समय वा स्थान, प्रकट हो कर, अपना विशिष्ट स्वभाव दुर्वासस दिखाता है । कालिदास के ‘शाकुंतल’ में भी, शकुंतला की संकटपरंपरा का कारण, दूर्वासस् का शाप ही बताया गया है । क्रुद्ध हो कर शाप देना, एवं प्रसन्न कर वरदान देना, यह दूर्वासस् के स्वभाव का स्थायिभाव था । इस कारण सारे लोग इससे डरते थे । इसका स्वभाव बडा हे क्रोधी । इसके क्रोध की अनेक कथाएँ पुराणो में दी गयी है । यह स्वयं कठोर व्रत का पालन करनेवाला तथा गूढ स्वभाव का था । इसके मन में क्या है, इसका पता यह किसी को नहीं लगने देता था ।
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दुर्वासस्, आत्रेय n. इसका वर्ण कुछ पिंग-हरा तथा दाढी बहुत ही लंबी थी । यह अत्यंत कृश तथा पृथ्वी के अन्य किसी भी ऊँचे मनुष्य से अधिक ऊँचा था । यह हमेशा चिथडे पहनता था । एक बिल्ववृक्ष की लंबी लकडी हाथ में पकड कर तीनों लोकों में स्वच्छन्दती से घुमने की इसकी आदत थी [म.व.२८७.४-६] ;[अनु.१५९. १४-१५] अपने क्रोधी स्वभाव से यह हमेशा लोगों को त्रस्त करता था । और्व ऋषि की कन्या कंदली इसकी पत्नी थी । एकबार इसने क्रोधित हो कर, शाप से उसको जला दिया [ब्रह्मवै.४.२३-२४] । जाबालोपनिषद में इसका निर्देश है [जा.६] ; नारद तथा वपु देखिये । जैमिनिगृह्यसूत्र के उपाकर्माग तर्पण में दुर्वासस् का निर्देश है। उस से ज्ञात होता है कि यह एक सामवेदी आचार्य था । इसके नाम पर; आर्याद्विशती, देवीमाहिम्नस्तोत्र, परशिवमहिमास्तोत्र, ललितास्तवरत्न आदि ग्रंथो का निर्देश है (C.C.) । दुर्वासस् के क्रोध की एवं अनुग्रह की अनेक कथाएँ पुराणो में दी गयी है । उनमें से कुछ उल्लेखनीय कथाएँ नीचे दी गयी है ।
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