और भाद्रपद आदि तीन तीन मासोंमे क्रमसे पूर्व आदि दिशामें वास्तुपुरुषका मुख होता है जिस दिशाको वास्तुपुरुषका मुख हो उसीमें गृहका मुख शुभ होता है ॥१०१॥
अन्यदिशाको है मुख जिसका ऎसा घर दु:ख शोक भयका देने वाला होता है और वृषकी संक्रांतिसे तीन तीन संक्रांतियोंमें वेदीके विषै और सिंहकीसंक्रांतिसे तीन २ संक्रांतियोंमें गृहकै विषै ॥१०२॥
और मीनकी संक्रांतिसे तीन २ संक्रांतियोंमें देवमंदिरके विषै और मकरकी संक्रांतियोंमें तडागके विषै गिने तो पूर्व आदिदिशाओंमे शिरकरके वास्तुनाग तीन २ संक्रांतियोंमें सोते हैं ॥१०३॥
भाद्रपद आदि तीन २ महिनोमें वास्तु पुरुषके वामपाश्व्के क्रोड ( भाग ) में घरका बनाना शुभ होता है और पूर्वोक्त क्रमसे ईशानदिशासे कालसर्प चलता है ॥१०४॥
ईशान आदि विदिशाके मध्यमें वास्तुपुरुषका मुख जो चौथी विदिशामें है वह त्यागने योग्य है और संक्रांतिमें प्रमाणसे सौरमान कर खनन करै ( खोदे ) और विपरीत रीतिसे करै तो अशुभ होता है ॥१०५॥
जो घर चार या शालावाला बनाया जाय उसमें यह दोष नहीं, वास्तुनाग और नक्षत्रकी भली प्रकार शुध्दिसे एकवार मंदिरका आरंभ करना शुभ होता है ॥१०६॥
अधोमुख नक्षत्र शुभदिन और शुभवासरमें और चन्द्रमा और तारागण इनकी अनुकूलतामें खनन करता शुभ होता है ॥१०७॥
ई० |
वायु |
नै० |
ग्नि |
मा |
मा |
फा |
ज्यै |
फु |
पौ |
चै |
आ |
क |
मा |
वै |
श्रा |
मार्गशिरसे लेकर तीन तीन मासोंमें पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशाओंमें क्रमसे राहु रहता है ॥१०८॥
राहूकी दिशामें स्तम्भके रखनेसे वंशका नाश और व्दार चढानेसे वहिका भय और गमन करनेमें कार्यकी हानि और गृहके आरंभके कुलका क्षय होता है ॥१०९॥
सूर्यवारसे लेकर क्रमसे नैऋति उत्तर अग्नि पच्शिम ईशान दक्षिण वायव्य इन दिशाओंमे राहु बसता है, इन दिशाओंके चक्रमें मुखके विषे गमन और घरका बनाना उत्तम है ॥११०॥
राहुके शिरके स्थानमें खनन करै तो आत्माका नाश, पृष्ठभागमें खनन करनेसे माता पिताका नाश, पुच्छमें खनन करनेसे स्त्री -पुत्रका नाश, राहुगात्रमें खनन करनेसे पुत्रका नाश होता है ॥१११॥ कुक्षिमें खनन करनेसे सम्पूर्ण ऋध्दि बढती है और धन पुत्रोंका आगमन होता है, सिंह आदि मासोंके विषे अग्निकोणमें रहता है ॥११२॥
वृश्चिक आदि मासोंमें ईशानमें, कुम्भ आदि मासोंमें वायुकोणमें, वृष आदि मासोंमें नैऋतिकोणमें राहुका मुख होता है और राहुका पुच्छ शोभन नहीं होता ॥११३॥
कृत्तिकाआदि सात नक्षत्र पूर्वमें, मघा आदि सात नक्षत्र दक्षिणमें, अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिममें, धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तरमें रहते हैं ॥११४॥
चन्द्रमा अग्रभागमें होय तो स्वामीको भय होता है, पीठपर चन्द्रमा होय तो कर्मका कर्ता नष्ट होता है, दक्षिणमें होय तो धनको देता है, वामभागमें चन्द्रमा होय तो स्त्री और सुखसंपदाओंको देता है ॥११५॥
गृहमे मिलेहुए नक्षत्रोंमें जिन नक्षत्रोंसे चन्द्रमा होय उन सातों नक्षत्रोंमें शलाकसप्तकमें कृत्तिका आदि नक्षत्रोंके क्रमसे रक्खे ॥११६॥
चन्द्रमा और वास्तुका नक्षत्र अग्र और पृष्ठभागमें श्रेष्ठ नहीं होता, लग्न और नक्षत्रसे विचाराहुआ यह चन्द्रमा शीघ्र फ़लको देता है ॥११७॥
गृहका चन्द्रमा पीठपर हो वा सन्मुख होय तो शुभ नही होता, वाम और दक्षिण भागका चन्द्रमा वास्तुकर्ममें श्रेष्ठ होता है ॥११८॥
लोहदण्ड ( फ़ावला ) और भैरव इनको भली प्रकार पूजकर और दशों दिक्पाल और भूमिको नमस्कार करिके ॥११९॥
‘शिवोनाम ’ इस मंत्रस लोहद्ण्डका भली प्रकार पूजन करै और ‘ निवर्तयामि ’ इस मंत्रसे पार्वतीके पति महादेवका भलीप्रकार ध्यान करे ॥१२०॥
लोहके दण्डको लेकार जोरसे वास्तुपुरुषका खनन करे वह लोहका दण्ड जितना अधिक भूमिमें प्रविष्ट होजाय उतने कालतक उस गृहकी स्थिती होती है ॥१२१॥
वस्त्रसे ढकेहुए उस लोहदण्डको ब्राम्हणके प्रति निवेदन करे, यदि लोहदण्डकी विषम अंगुली हों तो पुत्रोंको देताहै सम अंगुली हों तो कन्याओंको देता है ॥१२२॥
जिस लोहदण्डको न सम अंगुली हों न विषम हो वह दु:खदायी होता है, उस वास्तुपुरुषके खननसमयमें शुभवाणी और मंगल और सुन्दरवस्तु दर्शन ॥१२३॥
वेद और गीतकी ध्वनी, पुष्पफ़लका लाभ वेणु वीणा मृदंग इनका सुनना और देखना शुभ होता है ॥१२४॥
दही दूब कुशा इन द्र्व्योंका दर्शन कल्याणकारी होता है, सुवर्ण चांदी तांबा शंख मोती मूंगा ॥१२५॥ मणिरत्न्र वैडूर्य स्फ़टिक सुखकी दाता मिट्टी और गरुडकी फ़ल पुष्प और मिट्टीका गुल्म (गुच्छा ) ॥१२६॥ भक्षण करने योग्य कंदमूल इनका दर्शन होय तो वह भूमि सुख देनेवाली होती है; कंटक सांप खजूर दर्द्रु ॥१२७॥
विच्छू पत्थर वज्र छिद्र लोहका मुद्दर केश अंगार भस्म चर्म अस्थि लवण ॥१२८॥
और रुधिर मज्जा इनका दर्शन होय और जो भूमि रससे युक्त होय इतनी भूमि श्रेष्ठ नहीं होती ॥
इति पण्डितमिहिरचन्द्रकृतभाषाविवृतिसहिते वास्तुशास्त्रे भूम्यादिपरीक्षालक्षणं नाम प्रथमोऽध्याय: ॥१॥