अध्याय तीसरा - श्लोक १ से २०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


इससे आगे कालका निर्णय कहते हैं- कालके अनुसार शुभ मुहूर्तको जानकर भवनका प्रारंभ करे ॥१॥

मृदु ( मृ० रे० चि० अ० ) ध्रुव (उ० ३ रो० स्वाति धनिष्ठा श्रवण मूल पुनर्वसु ) इनपर सूर्य हो और सौम्यवारको होय तो गृहका प्रारंभ श्रेष्ठ होता है ॥२॥

आदित्य भौमको छोडकर समस्त वार शुभदायी होते हैं ॥२। ३। ६। ५। ७। १०। १२। ११। १३। और पूर्णिमा १५ ये तिथी शुभदायी कही हैं ॥३॥४॥

प्रतिपदा दारिद्र्यको करती है और अष्टमी उच्चाटन करती है, नवमी शस्त्रोंसे घात कराती है ॥५॥

अमावास्याको राजासे भय, चतुर्दशीको पुत्र और द्वारका नाश होता है, घनिष्ठा आदि पांच ५ नक्षत्रोंमें स्तंभका स्थापन न करैं ॥६॥

सूत्रधार शिलाका स्थापन और प्राकार आदिको करले, दो प्रकारका यामित्र, वेध उपग्रह और कर्तरीयोग ये भी वर्जने योग्य हैं ॥७॥

एकार्गल, लत्ता युति और क्रकचयोग, दो प्रकारका पात, वैधृति ये भी वर्जित हैं ॥८॥

कुलिक कंटल काल यमघंट और जन्मसे तीसरा, पांचवां और छठा तारा और नक्षत्र वरर्जित है ॥९॥

कुयोग, वनसंज्ञकयोग, तीन तिथियोंका जिसमें स्पर्श हो ऎसा दिष्टदिन, पाप लग्न, पापका नवांश और पापग्रहोंका वर्ग येभी वर्जित हैं ॥१०॥

तिथि वारके कुयोग, तिथि नक्षत्रके कुयोग, नक्षत्र वारके कुयोग जो विवाह आदिमें वर्जित हैं वे वास्तुकर्ममें भी वर्जित हैं ॥११॥

उस वास्तुचक्रको कहताहूं जो व्यासने कहा है, जिस नक्षत्रपर सूर्य होय उससे लेकर तीन नक्षत्र मस्तक पर रक्खे ॥१२॥

चार नक्षत्र अग्रपाद और चार नक्षत्र पश्चिम पादमें, तीन नक्षत्र पीठ पर, चार नक्षत्र दाहिनी कुक्षिमें चार नक्षत्र पूंछपर और चार नक्षत्र वामकुक्षिमें रक्खे ॥१३॥

तीन नक्षत्र मुखपर होते है. इस प्रकात अट्टाईस तारा होते है. शिरका तारा अग्निका दाह करता है, अग्रपादमें गृहसे उद्वास (निकसना) ॥१४॥

पश्चिम पादके पादके नक्षत्रोमें स्थिरता, पीठके नक्षत्रोंमें धनका आगम, दक्षिण कुक्षिके नक्षत्रमें लाभ पुच्छके नक्षत्रोंमें स्वामीका नाश होता है ॥१५॥

वाम कुक्षिके नक्षत्रमें दरिद्रता, मुखके नक्षत्रोंमें निरंतर पीडा होती है, पुनर्वसु नक्षत्रमें राजा आदिके सूतिकागृहको बनवावे ॥१६॥

श्रवण और अभिजित नक्षत्रमें सूतिकागृहमें प्रवेश करवावे. चार लग्न और चरलग्नके नवांशको सर्वथा वर्जदे ॥१७॥

जन्मकी राशिसे उपचय ( वृध्दि ) का लग्न और उपचयकी राशिमें प्रारंभ करै. जन्मलग्नसे आठवें लग्नको वर्जदे ॥१८॥

पापग्रह (३।६।११।) में सौम्यगृह केन्द्र ( १।४।७।१० ) और त्रिकोण ( ९।५ ) में हों ऎसे लग्न्में बुध्दिमान मनुष्य गृहको बनवावे और अष्टम लग्नमें पापग्रह होंय तो मरण होता है ॥१९॥

मनुष्यलग्न होय और सौम्यग्रहोंकी दृष्टिका योग होय तो कुंभसे भिन्न किसी सौम्यग्रहसे युक्त लग्नमें ॥२०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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