अब वापी कूप तडाग पुष्कर उद्यान मण्डप इनके बनबानेकी विधिको क्रमसे कहता हूं ॥१॥
आय और व्यय आदिकी भली प्रकार शुध्दिको और मास शुध्दिको यहां भली प्रकार विचारे, जैसे घर और देवमन्दिरमें कहाआये हैं ॥२॥
त्रिकोण चतुरस्त्र वर्तुलं तडाग आदि उत्तम कहा है. धनुष कलश पद्मके आकारका जलस्थान मध्यम कहा है ॥३॥
सर्प उरग ध्वजाके आकारका न्यून और निन्दित कहा है. कोश धान्य भय शोकनाश सुख ॥४॥
भय रोग और दु:ख कीर्ति द्रव्य अग्निका भय और यश ये फ़ल क्रमसे चैत्र आदि मासमें जलस्थालके बनवानेमें कहे है ॥५॥
रोहिणी तीनों उत्तरा पुष्य अनुराधा शतभिषा मघा और घनिष्ठा ये नक्षत्रोंका गण जल स्थानके बनवानेमें विहित है, आदित्यवार को जलस्थान बनवावे तो जलका शोष, भौमवारमें ॥६॥
रिक्त, शनैश्वरको मलिनता होती है शेषवार शुभदायी होते हैं, नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा जो क्रमसे तिथी होती हैं वे अपने नामके अनुसार फ़लको करती हैं ये कर्मके कर्ताने कहा है ॥७॥
लग्नमें चन्द्रमा होय वा जलोदय राशिका होय अथवा पूर्णचन्द्रमा केन्द्र वा बारहवें स्थानमें हो, लग्नमें बृहस्पति शुक्र वा बुध हो तो चिरकाल तक स्थायी रसवाले सुगंधित जलको कहै ॥८॥
भौम लग्नसे तीसरे हो, शुक्र सातवें हो, छठे सूर्य हो, ग्यारहवें शनैश्वर हो, चद्रमा द्वादशभवनको छोडकर छठे आठवें हो तो बडा प्रिय विचित्र जल होता है ॥९॥
शनैश्वर तीसरे हो, चन्द्रमा सातवें हो, सूर्य छठे और भौम ग्यारहवें स्थानमें हो, अष्टमराशिको छोडकर शुभग्रह केन्द्रमें होय तो धन और पुत्रका दाता स्थिर जल होता है ॥१०॥
केन्द्र और त्रिकोणमें शुभ ग्रह स्थित हों, पापग्रह केन्द्र और अष्टमसे भिन्नस्थानमें होय तो सब कार्योंमें प्रासाद कूप तडाग वापी आदि शुभ होते हैं ॥११॥
उस दिन चन्द्रमाका उदय हो, बृहस्पति केन्द्रमें स्थित हो, पापग्रह उच्च भवनके होय तो उद्यान कूप वापी तडाग जलाशयोंका करना अत्यन्त श्रेष्ठ होता है ॥१२॥
सिंह वृश्चिक धनुको छोडकर सब लग्नोंमें जलके स्थानको शुभ कहते हैं, श्रेष्ठ ग्रहोंकी दृष्टि, सौम्य योगोंसे जल राशियोंके नवांश और वर्गमें जलस्थानको बनवावे ॥१३॥
सम्पूर्ण दिशाओंमें जलके स्थानको बनवावे, नैऋत्य दक्षिण अग्नि और वायव्यदिशाको त्यागदे, पूर्व उत्तर ईशान और पश्चिम दिशाओंमें किया हुआ जलस्थान सुख और सुतका दाता होता है ॥१४॥
पूर्व और वरुणकी दिशामें भी पूर्वोक्त फ़ल होता है गृहके मध्यमें स्थित जलस्थानको वर्ज दे, क्रमसे गर्ग वसिष्ठ हैं मुख्य जिनमें ऐसे ऋषि दिशाओंमें स्थित जलाशयोंका यह फ़ल कहते हैं ॥१५॥
पुत्रकी पीडा, अग्निका भय, विनाश, स्त्रियोंका कलह और दुष्टता, धनका नाश, धन और पुत्रोंकी विशेषकर वृध्दि यह पूर्व आदि दिशाओमें जलस्थाकका फ़ल होता है ॥१६॥
जलस्थानके व्यासका जो प्रमाण उसको द्विगुणित करे और हारके उत्तरोत्तरके जो हार हैं उनके मध्यमें आठ हारोंमें पिण्ड संज्ञा होती है उनमें एक आदि विषम हार ( १, ३, ५, ७ ) श्रेष्ठ कहे है ॥१७॥
एक हारके अनन्तरपर सन्धिके स्थानमें जलस्थान दीखे तो व्याधिविनाश भय महान शोक होता है. और हारके मध्य भागको छोडकर आदि अन्तमें जलस्थान होय तो सपत्नीके विनाशको करता है ॥१८॥
पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिणके जो छिद्र और हार है उनके मध्यस्थान जलभागमें होय तो शोक मरण और बन्धुओंके नाशको करते हैं. यह बात मध्यके हारोंमें विचारने योग्य है ॥१९॥
जो हारके सूत्र आदि अन्तरमें गतहो और हारके मध्यभागमें जलाशय होय तो शुभ होता है. इसी प्रकार हारके उत्तरोत्तर क्रमसे जलाशय भ्राता और कलत्राअदिको श्रेष्ठ कहे हैं ॥२०॥