अध्याय ग्यारहवाँ - श्लोक १ से २०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


इसके अनंतर हे विप्रेंद्र ! तिसी प्रकार दुर्गोंके करनेको श्रवण करो जिसके ज्ञानमात्रसे निर्बलभी प्रबल होजाता है ॥१॥

जिस दुर्गके आश्रयके बलसे भूतलमें राजा राज्य करते हैं. राजाओंका विग्रह ( लडाई ) भी सामान्य शत्रुओंके संग दुर्गके ही आश्रयसे होता है ॥२॥

विषम दुर्गम और घोर वक्र ( टेढा ) भीरु भयका दाता और वानरके शिरकी तुल्य ( समान ) रौद्र अलकमंदिर ॥३॥

ऐसा स्थानको विचारकर उसमें विषमदुर्गकी कल्पना ( रचना करे जिसका प्रथम परकोट मिट्टीका कहा है. दूसरा कोट जलका होजाता है ॥४॥

तीसरा-ग्रामकोट होता है, चौथा-गिरिगह्डर होता है. पांचवां-पर्वतारोह होता है, छठाकोट डामर होता है ॥५॥

सातवां कोट वक्रभूमिमें होता है. आठवां-कोट विषम होता है चौकोर और वर्तुल ( गोल ) ॥६॥

दीर्घ जो द्वार उनसे आक्रांत ( युक्त ) हो त्रिकोण हो, जिसका एक मार्ग हो, वृत्त ( गोल ) दीर्घ ( लंबे ) जिसके चार द्वार हों जो अर्ध्द्वचन्द्राकार हो ॥७॥

गौके स्तनकी तुल्य जिसके चार द्वार हों धनुषाकार और मार्गकंटक और पद्मपत्रके समान और छत्रके आकारके तुल्य ॥८॥

हे द्विजोंमें श्रेष्ठ ! ये दश प्रकारके दुर्ग मैंने कहे, मृन्मयदुर्गमें खनन ( खोदना ) से भिति होती है, जलमें स्थित दुर्गमें मोक्षबंधनसे भय होता है अर्थात पुलके टूट्नेका भय होता है ॥९॥

ग्रामदुर्गमें अग्निके दाहसे और गह्डमें प्रवेशका भय होता है पर्वतमें स्थानके भेदसे और डामरमें भूमिके बलसे भय होता है ॥१०॥

वक्रनामके दुर्गमें वियोगसे और विषमदुर्गमें स्थायी राजाओंको भय होता है और बल अबलसे मैं फ़िर यमपदको कहता हूं ॥११॥

अतिदुर्ग कालवर्ण चक्रावर्त डिंबर नालावर्त पद्माक्ष और सर्वत: ( चारोंतरफ़से ) पक्षभेद इनको ॥१२॥

राजा प्रथम करवावे, पीछेसे दुर्ग बनवावे प्रथम प्राकार ( कोट ) बनवावे फ़िर बाह्ममें जो मनुष्य स्थित रहैं उनकी पूजा करे ॥१३॥

उस दुर्गकी परिखाओंको करवाकर उसके मध्यमें वाम और दक्षिण मार्गसे उस दुर्गके मार्गकी कल्पना करै ॥१४॥

बाहर स्थित जो घर हैं उनको कोण २ में बनवावे और बाह्यदेशमें जो कोणोंमें स्थित घर हैम उनको विषम अर्थात गमनके अयोग्य बनवावे फ़िर ॥१५॥

पत्रकाल है नाम जिसका ऐसी परिखाकी कालरुपिणी प्रतोली बनवावे. उसमें शकलीयन्त्रोंसे अर्थात छिद्रोंसे मंडित रमणीक यन्त्रको करवाकर ॥१६॥

मुशल मुद्नर प्रास यन्त्र खड्ग धनुर्धारी इनसे युक्त बनवावे. शूरवीर जो योध्दा हैं उनसे संयुक्त करवावे ॥१७॥

कोण २ में उन शस्त्रोंके चलानेके अंत्रपुर ( छिद्र ) बनवावे. उसके बाह्य देशमें परिखाका आकार कालरुप विस्तारसे बनवावे ॥१८॥

मध्यमें जो समान देशहो उसमें बडे २ घर बनवावे उन घरोंमें वास्तु और कोटपालक पूजन करे ॥१९॥

विधिपूर्वक क्षेत्रपालक पूजन करे. यह विधि सम्पूर्ण दुर्गोंमेम शास्त्रोक्तविधिसे होती है ॥२०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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