अध्याय तेरहवाँ - श्लोक २१ से ४०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


घरसे दूना द्वार हो उसको भी गृहवेध कहते हैं दृष्टिवेधमें धनका नाश और निश्चयसे मरण होता है ॥२१॥

समान क्षुद्र ( छोटा ) जो घर है वह क्षुद्रवेध होनेपर अत्यन्त पशुहानियोंको करता है, जिस घरमें दूसरे वा तीसरे पहरमें अन्य घरमी छाया पडे ॥२२॥

छायावेधका वह घर है वह रोग और पशु हानिको देता है और जिस घरमें पहिली गृहोंकी पंक्ति पूर्व उत्तरको हो और पिछली पंक्ति दक्षिण पश्चिमको हो ॥२३॥

वास्तुके मध्यमें जिसकी समान मित्तिहो वह घर शुभदायी कहा है. विषम घरमें अर्थात जो एकतरफ़ लंबा और एक तरफ़ न्यून हो उसमें अनेक दोषोंका दाता ऋजुवेध होता है ॥२४॥

ऋजुवेधवाले घरमें महान त्रास होता है इसमें संशय नहीं है और जिस घरके वंशके आगे वंश हो वा आगे बाह्यकी भित्ति हो ॥२५॥

वह वंशवेध जिस घरमें हो उसमें वंशकी हानि होती है जिस घरकी उक्षो ( भुजा ) का संयोग यूपके अग्रभागमें होजाय अर्थात स्तंभके सन्मुख हो ॥२६॥

उसको उक्षवेध जाने उसमें और कलह होता है. जिस वास्तुकी पूर्वोत्तरकी भूमि विपरीत हो वा निम्र ( नीची ) हो ॥२७॥

वह उच्चवेध होता है वह शुभदायी नहीं होता है. दो घरोंके अन्तर्गत ( मध्यमें ) जो घर है वह शुभदायी होता है ॥२८॥

जिस घरकी ऊँचाईसे आधे भागपर दूसरा घर हो और तैसेही पारके अग्रभागमें स्थित हों. जिस घरमें दो घरोंकी भित्ति एक स्थानमें हो वह संघातमें होता है ॥२९॥

उन घरोंमें विधिवशसे शीघ्रही दोनों स्वामियोंका मरण होता है, पर्वतसे निकासा हुआ पत्थर जिसकी भित्तिके संमुख हो ॥३०॥

उसको दन्तवेध कहते हैं वह शोक और रोगको करता है जो घर पर्वतकी भूमिके ऊपर हो वा जो घर पर्वतके नीचे भागमें हो ॥३१॥

जो घर पत्थरोंसे मिला हो वा पाषाणोंसे युक्त घोर हो वा जो धाराके अग्रभागमें स्थित हो वा पर्वतके मध्यमें मिला हो ॥३२॥

जो नदीके तीरमें स्थित हो, दो श्रृंगो ( शिखर ) के अंतर्गत हो जो घर भित्तियोंसे भिन्न हो, जो सदैव जलके समीप हो ॥३३॥

जिसका द्वार रोताहुआ हो अर्थात उदासीन हो जिसमें काक और उल्लुओंका निवास हो, जो कपाट और छिद्रोंसे हीन हो, जिसमें शशेका शब्द हो ॥३४॥

जिसमें अजगर सर्पका निवास हो, जो वज्र और अग्निसे दूषित हो जो जलके स्त्राव ( बहाव ) से युक्त हो वा कुब्ज काणा बधिर हो ॥३५॥

जो उपघात ( लडाईसे मरण ) से युक्त हो, जो ब्रह्महत्यासे युक्त हो जो शालासे रहित हो वा शिखासे विहीन हो ॥३६॥

भित्तिके बाह्यके जो दारु काष्ठ हैं उनसे जो रुधिर संयुक्त हो जो कांटोसे युक्त चारों कोणोंमें हो ॥३७॥

जो श्मशानसे दूषित हो वा जो चैत्य ( चबुतरा ) पर स्थित हो, जो मनुष्योंके वाससे हीन हो, जिसमें म्लेच्छ चांडाल वसे हों ॥३८॥

जो घर छिद्रोंके अन्तर्गत हो, जिसमें गोधाका निवास हो इस पूर्वोक्त सब प्रकारके घरमें कर्ता न वसे और वसे तो न जीवै ॥३९॥

तिससे बुध्दिमान मनुष्य इन पूर्वोक्त प्रकारके घरोंको वर्जदे, अन्य घरमें लगेहुए अन्य गृहमें न लगावे ॥४०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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