शिखा की महत्ता
मंत्र प्रयोगादि सभी कर्म शिखा बांधकर करने चाहिए । शास्त्रकारों ने भी शिखा ( चोटी ) को आवश्यक माना है । संस्कार भास्कर में शिखा के न होने पर कुश की शिखा बनाने की आज्ञा देकर उसे अनिवार्य बताया गया है । इसे इन्द्रयोनि भी कहते हैं । योगी लोग इसे सुषुम्ना का मूल स्थान कहते हैं । वैद्यादि इसे मस्तुमस्तिष्क कहते हैं । योगविद्या विशारद इसे ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं । यह विषय कृत्रिम नहीं हैं , किन्तु सत्यता से युक्त प्राकृतिक है । अतः शिखा की महत्ता सर्वोपरि है ।
तिलक लगाना
उंगली द्वारा तिलक लगाने का विधान है । चंदनादि के अभाव में गंगाजल से तिलक करें । तिलक करने में अनामिका उंगली शांति देने वाली , मध्यमा आयु की वृद्धि करने वाली , अंगूठा पुष्टि देने वाला तथा तर्जनी मोक्ष प्रदान करने वाली है । वस्तुतः चकले पर घिसा चंदन नहीं लगाना , कुछ विद्वानों का ऐसा विचार है । निम्न मंत्र के द्वारा चंदन लगाने की क्रिया करें -
चंदनस्य महत् पुण्यं पाप - नाशनम् ।
आपदं हरते नित्यं लक्ष्मीस्तिष्ठति सर्वदा ॥
तिलक - धारण के संबंध में बतलाया गया है कि ललाट में केशव , कंठ में पुरुषोत्तम , हदय में बैकुंठ , नाभि में नारायण , पीठ में पदमनाभ , बाएं पार्श्व में विष्णु , दाएं पार्श्व में वामन , बाएं कर्ण में यमुना , दाएं कर्ण में गंगा , बायीं भुजा में कृष्ण , दायीं भुजा में हरि , मस्तक में ऋषिकेश एवं गरदन में दामोदर का स्मरण करते हुए चंदन का तिलक लगाएं ।
भस्म धारण विधि
प्रातः जल मिश्रित , मध्याह्न में चंदन मिश्रित और सायंकाल में सुखी भस्म लगाएं । बाएं हाथ में भस्म ले और दाएं हाथ से ढककर निम्न मंत्र से भस्म को अभिमंत्रित करें -
ॐ अग्निरिति भस्म
ॐ वायुरिति भस्म
ॐ जलमिति भस्म
ॐ स्थलमिति भस्म
ॐ व्योमेति भस्म
ॐ ह वा इदम् भस्म
ॐ मन एतानि चक्षूंषि भस्मानीति
अब निम्नलिखित मंत्र से सूचित स्थानों में भस्म लगाएं -
ललाट में - ॐ त्र्यायुषं जमदग्नेः
कंठ में - ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषं
भुजाओं में - ॐ येवेषु त्र्यायुषं
हदय में - ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषं
इसके पश्चात् संध्या - वंदन करें । यदि संध्या न आती हो तो गायत्री मंत्र द्वारा सूर्यनारायण को प्रातः सूर्योदय से पूर्व तीन , सूर्योदय के पश्चात् चार , मध्याह्न में यथा समय एक , बाद में दो और सायं यथासमय बाद तीन और बाद में चार अर्घ्य प्रदान करें ।
तदनन्तर नीचे लिखे पद्य से क्षमा - प्रार्थना करें -
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणामस्त्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत्प्रासादात् सुरेश्वरि ॥
इस प्रकार प्रारंभिक नित्यकर्म करने के पश्चात् तंत्र साधना एवं प्रयोग में प्रवृत्त होना चाहिए । उड्डीश तंत्र आदि के प्रयोग भी उपरोक्त क्रियाओं के पश्चात् ही करने चाहिए । विधिपूर्वक किए गए प्रयोग सदैव सफल होते हैं ।