चतुर्थ पटल - चतुष्चक्र

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


चतुष्चक्र --- हे पार्वतीपते ! अब चतुष्चक्र कहती हूँ । बायीं ओर से दाहिनी ओर पाँच रेखा खींचे ॥१४८॥

फिर पूर्वदिशा से पश्चिम दिशा में भी पाँच रेखा खींचे । फिर दाहिनी ओर के चार चार कोष्ठकों में तथा बायीं ओर के चार चार कोष्ठकों में साधक वर्णों को इस प्रकार लिखे - प्रथम चार मन्दिर में जिनकी १ . शीघ्र , २ . शीतल , ३ . जप्त और ४ . सिद्ध संज्ञा है । उसमें प्रथम गृह में उकार , ऊकार , लृकार , तथा सौंकार लिखे । ये वर्ण शीघ्र अथवा ऊर्ध्वस्थ्ह कोष्ठ में लिखे । हे प्रभो ! शीतल गृह में रहने वाले वर्णों को सुनिए वे अकार , उकार लृ लृ सोकार हैं ॥१४९ - १५२॥

उसके नीचे जपगृह में रहने वाले वर्णों को सुनिए । हे महाप्रभो ! इकार ऋकार उसके बाद एकार वर्ण हैं ॥१५३॥

हे शङ्कर ! अब सिद्ध गृह में रहने वाले सर्वसुखप्रद वर्णों को सुनिए प्रथम उसके दक्षिण के चार गृहों में रहने वाले वर्णों को कहती हूँ । उनके क्रमशः आहलाद प्रत्यय , मुख तथा शुद्ध नाम है । अब उन - उन गृहों में रहने वाले शुभाशुभ फल देने वाले उन सभी वर्णों को कहती हूँ ॥१५४ - १५५॥

ककारा ऋकार , ऋकार , अकार ये आहलाद में रहने वाले वर्ण हैं जो प्राप्तिमात्र से सिद्धि प्रदान करते हैं । गकार , घकार , ट और ठ ये ’ प्रत्यय ’ संज्ञक गृह में रहने वाले वर्ण हैं । डकार , चकार , ड और ढ - ये मुख संज्ञक गृह के वर्ण हैं ॥१५६ - १५७॥

उकार , जकार , ण और त - ये ’ शुद्ध ’ गृह संज्ञक गृह में रहने वाले वर्ण हैं । उसके नीचे रहने वाले ४ गृह लौकिक , सत्त्विक , मानसि , राजसिक हैं , जिनमें लौकिक गृह में रहने वाले थकार , दकार तथा मकार वर्ण हैं । धकार , लकार और यकार - ये सात्त्विक गृह के वर्ण हैं । हे प्रभो ! पकार , फ , म ये मानसिंहक गृह के वर्ण हैं ॥१५८ - १६०॥

हे प्रभो ! अब राजसिक गृह के वर्णों को सुनिए । वे भकार , व और न हैं । हे पञ्चानन प्रभो ! अब आगे के चार गृहों के नाम सुनिए ॥१६१॥

उनके नाम सुप्त , क्षिप्त , लिप्त तथा दुष्ट मन्त्र हैं । उसमें प्रथम कहे गये ऊर्ध्व गृह स्थित वर्णों को जो साधक ग्रहण करते हैं । ( द्र० १५१ ) । किन्तु सुप्त , क्षिप्त , लिप्त तथा दुष्ट अक्षर वाले मन्त्र का परित्याग कर देते हैं । उन्हें इस लोक में सिद्धि प्राप्त होती हैं तथा उस लोक में मोक्ष प्राप्त होता है ॥१६२ - १६३॥

यदि अभाग्य वश मन्त्र वर्ण सुप्तादि गृहों में प्राप्त होते हों तो उस मन्त्र को सुप्त स्तम्भित और कील से तथा बढे हुये दोष जालों से उत्पन्न उनके अशुभ की भूतशुद्धि के लिए साधक को भूतलिपि ( द्र० ७ . १ - ४ ) से संपुटित कर जप करना चाहिए । तब सिद्धि प्राप्त होती है ॥१६४ - १६५॥

मन्त्र वर्ण से वेष्टित चौथा ( सिद्ध ) गृह कदापि वर्जित न करे । हे पञ्चानन प्रभो ! अब सुप्त गेह में स्थित वर्णों को सुनिए । नकार और हकार सुप्त गेह स्थित वर्ण हैं । उससे अन्य क्षिप्त गृह में रहने वाले शकार तथा लकार ये दो वर्ण है । धकार तथा क्षकार ये दो वर्ण लिप्त गृह में रहने वाले हैं । इसी प्रकार , हे नाथ ! शकार तथा गगन ( ह ) ये दुष्टगृह में रहने वाले वर्ण हैं । इस प्रकार जो मन्त्र अपने सौभाग्य से युक्त हो उसी का आश्रय ग्रहण करना चाहिए ॥१६६ - १६८॥

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Last Updated : July 29, 2011

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