दूसरा वीरभाव मध्यम कहा गया है , किन्तु प्रथम पशुभाव सर्वथा निन्दित है । क्योंकि यह बहुत जप से , बहुत होम से तथा कायक्लेश से सिद्ध होता है ॥७३॥
हे देवि ! भाव के बिना तन्त्र - मन्त्र फल प्रदान नहीं करते । अतः भाव के बिना वीर साधना से क्या ? भाव के बिना मोक्ष विद्या
( वेदान्तादि ) के समूह से भी कोई लाभ नहीं ? भाव के बिना पीठ पूजन से क्या ? कन्या भोजनादि से भी क्या ? अपनी योषित तथा अन्य की योषित में प्रीतिपूर्वक दान देने से भी क्या ? इन्द्रियों को जीतने से क्या ? कुलाचार पालन रुप कर्म से क्या ? यदि कुलपरायण भव विशुद्ध नहीं है तो उक्त सभी कार्य व्यर्थ ही हैं ॥७४ - ७६॥
भाव से मनुष्य मुक्ति प्राप्त करता है और भाव से कुल की वृद्धि होती है । भाव से गोत्र की वृद्धि होती है तथा भाव से कुल शुद्ध रहता है । यदि भाव नहीं है तो पूजा पाठ से क्या लाभ ? भाव के बिना कौन विद्या की पूजा करे । भाव के बिना कौन मन्त्र का जप करें ? ॥७७ - ७८॥
हे देवेश ! भाव के अभाव के कारण किए गये कार्य का फल नहीं होता । इस मन्त्र ( शास्त्र ) के कहने में मेरा मन सशंकित हो रहा है । यह आगमशास्त्र सभी रत्नों के समान है । यह त्रिलोकी को भी जीत सकता है अतः बिना निर्जन देखे इसका उपदेश न करे अतः इस विषय में आपसे क्या कहूँ ॥७९ - ८०॥
श्रीआनन्दभैरव ने कहा --- हे महादेवि ! हे महाविद्या और स्वप्न में ज्ञान से प्रबुद्ध करने वाली ! हे महेश्वरि ! सभी पञ्चतत्त्व के प्रपञ्चों की दीक्षा देनी चाहिए । हे देवि ! मैं वह देव हूँ जो सभी भुतों को शयन कराने का कारण हूँ । अतः मैं उन्हें शयन करा देता हूँ । निर्जन हो जाने के कारण अब आप मुझसे सभी भावों में उत्तमोत्तम ( दिव्य ) भाव को कहिए ॥८२॥