हे शङ्कर ! अब जिस प्रकार दिव्यभाव में वीरभाव होता है उसे श्रवण कीजिए । जो पवित्रता पूर्वक मध्याहन से लेकर सन्ध्यापर्यन्त चित्त स्थिर रख कर किसी एकान्त निर्जन प्रदेश में जप तथा ( ध्यान एवं ) धारणा , करता है . वह निश्चित रुप से सिद्ध हो जाता है ॥३४ - ३५॥
वीरभाव की प्राप्ति के लिए ऊपर कहे गये काल में भावमात्र ही साधन है । क्योंकि भाव सिद्धि प्राप्त होती है । वीरभाव भाव ( त्रय ) से अलग पदार्थ नहीं है वही भाव है ॥३६॥