इक्कीसवाँ पटल - वारिचक्र

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


करोड़ों सूर्य के समान प्रकाश करने वाली पैर के अंगूठे पर्यन्त देवमाता कुण्डलिनी का ध्यान कर साधक सर्वसिद्धिश्वर बन जाता है । यदि मनुष्य वारि चक्र मध्य में कुण्डली का ध्यान करे तो वे सत्त्व योग में स्थित होकर अमर हो जाते हैं और षट्‍चक्र के फल के भोग करने वाले हो जाते हैं ॥९७ - ९८॥

महाबली साधक उन चारों चतुष्कों को पार कर जल से परिपूर्ण अत्यन्त निर्मल वामावर्त स्थित सप्त खण्ड का ध्यान करे । सप्त वृत्त के ऊपर सोलह पत्ते वाले कमल का ध्यान करे , जिसके प्रत्येक दल पर महातीर्थ स्थित हैं । ऐसा करने से साधक निश्चित रुप से सिद्ध हो जाता है ॥९९ - १००॥

आवृत की तरह शोभा पाते हैं । पूर्व से दक्षिण की ओर व्याप्त रहने वाले उन तीर्थ समूहों के फल के सुनिए । जिसके दर्शन मात्र से साधक जीवन्मुक्त हो जाता है ॥१०१ - १०२॥

गङ्गा , गोदावरी , देवी , गया ये गुह्म हैं जो महाफल प्रदान करने वाले हैं । यमुना तथा बुद्धिदा सरस्वती करोड़ों तीर्थ का फल देने वाली हैं । मणिद्वीप एवं श्वेत - गङ्रा महापुण्यदायक एवं महाफल वाली हैं । जब श्वेत - गङ्गा महापुण्य वाली हैं तो भर्ग ( शिव )- गङ्गा महान् फल देने वाली हैं ॥१०३ - १०४॥

स्वर्ग - गङ्गा तथा महाक्षेत्र पुष्कर सभी तीर्थों से श्रेष्ठ हैं । कावेरी , पुण्यदायिनी सिन्धु तथा नर्मदा सर्वदा शुभ देने वाली हैं । आठ कोणों पर आठ सिद्धियाँ है जो वारि से परिपूर्ण है और फल देने के लिए उदीयमान हैं । सात कोणों पर सप्ता सिन्धु हैं । यति को पूर्वादि दिशा में उनका ध्यान करना चाहिए ॥१०५ - १०६॥

लवण , इक्षु , सुरा , सर्पि , दक्षि , दुग्ध तथा जल से परिपूर्ण रहने वाले ये सात समुद्र महासत्त्व सकार को व्याप्त कर स्थित रहते हैं । इस प्रकार यति को इनका ध्यान करना चाहिए । वारिचक्र के मध्य में रहने वाले चतुष्कोण में करोड़ों विद्युत् ‍ के समान देदीप्यमान शक्ति का ध्यान कर साधक करोड़ों विद्याओं का अधिपति हो जाता हैं ॥१०७ - १०८॥

उसके बायें भाग में आद्या प्रकृति सुन्दरी नामक शक्ति बीज ( ह्रीं ) का निवास है जो काम के नाश करने के लिए शोभा पाती हैं , वही योगिनी सज्जनों की गति है । उसके दक्षिण में पुं शिवात्मक पुङ्कला नामक शक्ति बीज हैं । वह सदा भावना रुप आभा वाला है । अतः ईश्वर सिद्धि के लिए साधक उसका भजन करता है ॥१०९ - ११०॥

शक्ति बीज के ऊपरी भाग में अत्यन्त मनोहर पूर्ण चन्द्र हैं । साधु लोग धर्म काम तथा अर्थ सिद्धि के लिए उन पूर्ण चन्द्र का ध्यान करते हैं । शक्ति बीज के नीचे करोड़ों उत्का के समान काल वहिन से उत्पन्न श्री सूर्य देव हैं । उनका ध्यान करने से मनोरथों से भी अधिक फल की प्राप्ति होती है ॥१११ - ११२॥

वारिचक्र की कृपा होने पर मनुष्य चिरजीवी होता है तथा भूति में स्थित चार पत्ते वाले मूलाधार में ध्यान करने से महाकाल रुपी हो जाता है । चारदला के अतिरिक्त अन्य दलों पर स ष अन्त वाला वारिचक्र है , जो करोड़ों विद्युत् ‍ की आभा वाला है उसका ध्यान करने से साधक योगिराज बन जाता है ॥ ११३ - ११४॥

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Last Updated : July 30, 2011

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