होमविधि --- हे नाथ ! अब पुरश्चरण की सिद्धि के लिए सङ्केत भाषा द्वारा होम का विधान कह्ती हूँ , उसे सुनिए । आत्मा अपरिच्छिन्न है और वह सूक्ष्म रुप में स्थित है , ऐसा ध्यान कर आत्मा के तीन स्वरुप की कल्पना करे । चित्त को चौकोर कुण्ड , जिसमें आनन्द की मेखला तथा नाभि ज्ञान की वहिन हो , जिसकी योनि अर्द्धमात्रा वाली आकृति से भूषित हो साधक को उसी में होम करना चाहिए ॥११९ - १२१॥
इस प्रकार मन्त्र से उस वहिन में सोऽहं भाव से होम करे । वाहन्यादि में विहित विधान का त्याग कर मूल मन्त्र से अपने तेज को छवि मानकर ज्ञान से प्रदीप्त नाभि स्थित चैतन्य रुप अग्नि में मन रुपी स्त्रुचा के द्वारा अक्षवृत्ति वाला मैं यह नित्य होम करता हूँ , इस प्रकार की प्रथम आहुति से मूल मन्त्र पढ़ते हुए क्रिया का आरम्भ करें , फिर दूसरी आहुति दे कर होम करने से जितेन्द्रिय हो जावे ॥१२२ - १२४॥
धर्माधर्म से प्रदीप्त हुई आत्मा रुप अग्नि में मन की स्त्रुचा से सुषुम्ना मार्ग द्वारा मैं अपनी अक्षवृत्ति का हवन करता हूँ । प्रथम मूल मन्त्र पढ़कर अन्त में स्वाहा का उच्चारण कर एक भाव से मूलाधार के पद्म मन्डल में होम करे ॥१२५ - १२६॥
चौथी बार पूर्णाहुति के होम में इसी मन्त्र से होम करे । यह चौथा वक्ष्यमाण मन्त्र पूर्ण विद्या का फल प्रदान करता है ।अन्तः करणावच्छिन्न देश में बिना इन्धन के निरन्तर प्रज्वलित होने वाले , माया रुप अन्धकार को नष्ट करने वाले , अदभुत प्रकाश के विकास की भूमि वाले , ज्ञानरुप अग्नि में वसुधा से लेकर शिव पर्यन्त मैं सबकी आहुति दे देता हूँ ॥१२७ - १२८॥
इस प्रकार अन्तर्याग कर साधक साक्षात् ब्रह्ममय हो जाता है , उसको पुण्य पाप नहीं लगते , वह निश्चय ही जीवन्मुक्त हो जाता है । ज्ञानी योगियों को उक्त अन्तर्याग सिद्धि प्रदान करता है ॥१२९ - १३०॥