अरित्र
अब सभी देवताओं के लिए पवित्र एवं दमनक के अर्पण की विधि कहता हँ । वर्ष भर की पूजा की फल प्राप्ति के लिए पवित्री श्रावण में तथा दमनक चैत्र में समर्पित कर विधिवत् विष्णु देव का पूजन करना चाहिए ॥१-२॥
पवित्र एवं दमनक के अर्पण की तिथि-
चैत्र शुक्ल चतुर्दशी दो दमनक से श्रीविष्णु का, चैत्र शुक्ल द्वादशी को नारायण का, अष्टमी को पार्वती का, सप्तमी को सूर्य का तथा चतुर्थी को श्री गणेश का पूजन करना चाहिए । इसी प्रकार श्रावण की उक्त तिथियोम में पवित्रक से तत्तदेवताओं का पूजन करना चाहिए ॥२-४॥
दमनक पूजाविधि - दमनक पूजा से एक दिन पहले अपने इष्टदेव की पूजा के दमनक (अशोक) के उपवन में जा कर मूल्य दे कर दमनक का क्रय करना चाहिए । फिर शुद्ध स्थान पर बैठकर ‘अशोकाय नमस्तुभ्यं; से ‘जनयस्व में’ पर्यन्त (द्र० २३.६) श्लोक पढकर प्रार्थना कर उस पर रति एव्म काम का उनके अपने अपने मन्त्रों से पूजन करना चाहिए ॥४-७॥
अब कामदेव का मन्त्र कहते हैं - प्रारम्भ में काम (क्लीं) फिर कामदेवाय उसके अन्त में हृदय (नमः) लगाने से ८ अक्षरों का कामदेव मन्त्र बनता है । माया (ह्रीं) फिर रत्यै और अन्त में हृदय (नमः) लगाने से ५ अक्षरों का रतिमन्त्र बनता है ॥७-९॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप - कामदेव का मन्त्र - क्लीं कामदेवाय नमः, रति का मन्त्र - ह्रीं रत्यै नमः ॥७-९॥
इसके पश्चात् ‘इष्टदेवस्य पूजार्थं त्वां नेष्यामि’ ऐसा कह कर उखाडकर पञ्चगव्य से अभिषेक कर जल से प्रक्षालित करना चाहिए । तदनन्तर गन्ध अदि से (गन्धं समर्पयामि नमः) पूजा कर उसे पीले कपडे से ढक कर, बाँस की टोकरी में स्थापित कर, गाते-बजाते घर ले जाकर, इष्टदेव का स्मरण करते हुये पूजा स्थान में इस प्रकार स्थापित करना चाहिए ॥८-१०॥
इसके बाद इष्टदेव के सामने अष्टदल कमल बनाकर श्वेत, काले, रक्त एवं पीत वर्णों से उसे रंग देना चाहिए । उसके बाद भूपुर बनाकर उसे पीले रङ्ग से रंग देना चाहिए । पुनः उसके ऊपर सफेद लाल एवं पीले रङ्ग के तीन वृत्तों का निर्माण करना चाहिए । फिर उसके बाहर चतुरस्त्र बनाकर लाल रङ्ग से भर देना चाहिए ॥११-१३॥
इस प्रकार से निर्मित् रम्य सार्वकामिका मण्डल पर अथवा सर्वतोभद्र मण्डल पर दमनक की पिटारी को रख देना चाहिए ॥११-१३॥
अधिवास का विधान -
सायंकालीन पूजा के बाद दमनक का इस प्रकार अधिवासन करना चाहिए । प्रणव सहित काम मन्त्र (ॐ क्लीं कामदेवाय नमः) एवं रतिमन्त्र (ह्रीं रत्यै नमः) से उन दोनों का पूजन कर तदनन्तर रति सहित कामदेव के आठ नामों के मन्त्र से अष्टदलों में पृथक् रुप से पूजन करना चाहिए ॥१४-१५॥
१. काम, २. भस्मशरीर, ३. अनङ्ग, ४. मन्मथ, ५. बसन्तसखा, ६. स्मर, ७. इक्षुधनुर्धर एवं ८. पुष्पबाण - ये कामदेव के आठ नाम कहे गये हैं ॥१६-१७॥
इन नामों के चतुर्थ्यन्त रुपों के प्रारम्भ में प्रणव सहित कामबीज और अन्त में हृदय (नमः) लगाकर नाम मन्त्रों से कर्पूर, गोरोचन, कस्तूरी, अगर, कुंकुम, आँवला, चन्दन, एवं पुष्पों से उक्त आठ कामों का पूजन करना चाहिए ॥१७-१८॥
फिर गन्ध , पुष्पादि द्वारा दमनक का पूजन कर मन्त्रवित् साधक काम गायत्री के मन्त्र से उसे १०८ बार अभिमन्त्रित करे ॥१९॥
अब कामदेव गायत्री कहते हैं -
‘कामदेवाय’ पद के बाद ‘विद्महे’ कहना चाहिए । फिर ‘पुष्पबाणाय’ पद के अनन्तर ‘धीमहि’ पद का उच्चारण करना चाहिए । तत्पश्चात् ‘तन्नोऽनङ्गः प्रचो’ तथा ‘दयात्’ वर्णों को कहना चाहिए । यह कामगायत्री हैं, जो जप करने मात्र से लोगों को मोहित करती हैं, ऐसा विद्वानों का कथन है ॥२०-२१॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘कामदेवाय विद्महे पुष्पबाणाय धीमहि । तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्’ ॥२०-२१॥
फिर नमः मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देकर ‘नमोऽस्तु पुष्पबाणाय...रतिप्रतिप्रदायिने’ पर्यन्त मन्त्र (द्र० २३. २२-२३) पढकर उन्हे प्रणाम करे ॥२२-२३॥
फिर ‘आमन्त्रितोसि देवेश ... तवाज्ञाय’ पर्यन्त मन्त्र (द्र० २३.२४) पढकर इष्ट देवता को निमन्त्रित करे ॥२३-२४॥
तदनन्तर पुष्पाञ्जलि चढाकर दण्डवत् प्रणाम कर, वर्म (हुं) मन्त्र से दमन का अवगुण्ठन कर, अस्त्र (फट्) मन्त्र से उनका संरक्षण करे । उपर्युक्त समस्त विधियों को दमनक का अधिवासन कहा जाता है ॥२५-२६॥
फिर इष्टदेव के गुणों का गान करते हुये तथा उनके मन्त्रों का जप करते हुये जागरण करे । सभी प्रकार के अधिवासन में नृत्य और जागरण करना चाहिए - ऐसा विधान है ॥२६-२७॥
विमर्श - आठ कामों के नामामन्त्रों से पूजा विधि -
ॐ क्लीं कामाय नमः, ॐ क्लीं भस्मशरीराय नमः,
ॐ क्लीं अनङ्गाय नमः, ॐ क्लीं मन्मथाय नमः,
ॐ क्लीं वसन्तसखाय नमः, ॐ क्लीं स्मराय नमः,
ॐ क्लीं इक्षुधनुर्धराय नमः, ॐ क्लीं पुष्पबाणाय नमः ।
कामदेव की गायत्री स्पष्ट है ॥१४-२७॥
दमन पूजा - प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो कर इष्टदेव की नियमित पूजा समाप्त करने के बाद उनकी आज्ञा ले कर ‘वर्षपूजा साङ्गत्याय दमनार्चा करिष्ये’ ऐसा संकल्प करना चाहिए ॥२७-२८॥
फिर दोनों हाथों में दमनक की शुभ मज्जरी ले कर ‘नमः’ मन्त्र से अभिमन्त्रित कर - ‘सर्वरत्नमयीं दिव्यां ... नमस्तेऽस्तु कृपानिधे - पर्यन्त श्लोक (द्र० २३. २९-३०) पढकर मूल मन्त्र से घण्टा आदि जयघोष के साथ उन मञ्जरियों को देवता के शिर पर चढाकर दमनक की बनी बनी माला ‘नमः’ पद के साथ - ‘सर्वरत्नमयीं नाम ... विभो’ पर्यन्त (द्र० २३. ३२) मन्त्र पढकर अभिमन्त्रित करनी चाहिए ॥२९-३२॥
इसके पश्चात् इष्टदेव के परिवार की भी दमनक द्वारा पूजा करनी चाहिए । फिर नैवेद्य एवं ताम्बूल समर्पित कर दण्डवत् प्रणाम कर ‘देव देव जगन्नाथ... कामेश्वरीप्रिय - पर्यन्त श्लोक (द्र० २३. ३५) पढते हुये पूजित दमनक को देवाधिदेव के लिए निवेदित करनी चाहिए ॥३३-३५॥
फिर मूल मन्त्र का जप कर अग्नि में होम कर देवता का विसर्जन कर गुरु के पास जा कर दमनक से उनकी भी पूजा चाहिए और धन दे कर उन्हें संतुष्ट करना चाहिए ॥३६॥
पश्चात् ब्राह्मण भोजन करा कर स्वयं इष्टदेव का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए । ऐसा करने से मनुष्य कृतार्थ जो जाता है और उसे पूरे वर्ष की पूजा का फल प्राप्त होता है ॥३७॥
इस प्रकार दमनक पूजा कही गई । अब पवित्रपूजा का क्रम कहता हूँ - पवित्र का निर्माण कर सोना, चाँदी, ताँबी, रेशम, अथवा ब्राह्मणों के द्वारा अथवा अन्य सदाचरिणी सधवा स्त्री के हाथ से काते हुये कपास के सूत का पवित्रक बनान चाहिए । व्याभिचारिणी, वेश्यादि द्वारा काते गये सूत का पवित्र कभी न बनावे । तीन धागों को तीन गुनाकर इस प्रकार नवसूत्रिक निर्माण कर पञ्चगव्य से उसका प्रोक्षण कर ऊष्ण जल से उसे प्रक्षालित करना चाहिए ॥३८-४२॥
फिर प्रणव से उनका अभिषेक करे तथा १०८ इष्टदेव के मूलमन्त्र एवं उनकी १०८ गायत्री से उसे अभिमन्त्रित करना चाहिए ॥४२-४३॥
फिर किसी शुद्ध स्थान पर प्रसन्नता पूर्वक बैठकर १०८, या उसके आधे ५४, या उसके आधे २७ नवसूत्रिकाओं से जानुपर्यन्त, ऊरु पर्यन्त अथवा नाभि पर्यन्त प्रमाण वाली पवित्रा का निर्माण करना चाहिये ॥४३-४४॥
ये क्रमशः ज्येष्ठ, मध्यम एवं कनिष्ठ संज्ञक होती है । फिर इनमें क्रमशः ३६, २४, एवं १२ गाँठ लगाना चाहिए । एक हजार आठ से बनी नवसूत्रिका में १०८ गाँठो के द्वारा निर्मित पवित्रा को वनमाला कहते हैं ॥४५-४६॥
उक्त प्रकार से पवित्रा का निर्माण कर उनकी उनकी ग्रन्थियों को गोरोचन के शर आदि से रङ्गना चाहिए । फिर वैष्णव पटल पर उन्हें श्वेत वस्त्र से ढक कर स्थापित कर पुनः २७, १६, एवं १२ नवसूत्रिकाओं से आवरण पूजा के लिए अन्यान्य पवित्रियॉ बनानी चाहिए । गुरु के लिए २७ नवसूत्रिका की, अग्नि के लिए भी उतनी ही संख्या की तथा २६ नव सूत्रिकाओं को अपने लिए भी पवित्री निर्माण करनी चाहिए ॥४७-४९॥
इन पवित्राओं में जितने ग्रन्थि शोभा के लिए अपेक्षित हो उतनी ग्रन्थि लगानी चाहिए तथा उन्हें भी उक्त प्रकार से रङ्गना चाहिए । तदनन्तर उन्हे किसी पात्र में स्थापित कर १२ नव सूत्रिकाओं की जिसमें १२ ग्रन्थियाँ लगी हो उसकी एक अन्य गन्धपवित्रा बनानी चाहिए । इस रीति से पवित्रा निर्माण कर पूजन के लिए मण्डल बनाना चाहिए ॥५०-५१॥
अब पवित्र पूजा के लिए मण्डल (यन्त्र) निर्माण का विधान कहते हैं -
षोडशदल का कमल बना कर उसमें नीला, पीला, लाल, भूरा, सफेद, सिन्दूरी, धूम्रवर्ण, तथा काला रङ्ग भर देना चाहिए । उसके ऊपर क्रमशः श्वेत पीत, तथा लाल रङ्ग के सूर्य, सोम एवं अग्नि-संज्ञक तीन वृत्त निर्मित करना चाहिए । तदनन्तर उसके बाहर लाल अथवा श्चेत रङ्ग से हुये अष्टदल कमल का निर्माण करना चाहिए ॥५२-५४॥
यन्त्र पर इष्टदेव के पूजन का प्रकार कहते हैं -
उक्त प्रकार का यन्त्र निर्माण करने के पश्चात् पुष्पादि द्वार उसका पूजन कर उसके ऊपर सुन्दर वितान बाँध देना चाहिए । तदनन्तर उस मण्डल पर निज इष्टदेव की प्रतिमा अथवा सचित्र पट स्थापितकर फिर उसका पूजन कर खीर का नैवेद्य समर्पित करना चाहिए ॥५४-५६॥
फिर देवता के आगे पवित्रयों के दोनो पात्र रखकर अधिवासित करना चाहिए । पूर्वोक्त संख्या के सूत्र न मिलने पर जितना प्राप्त हो उसी से ज्येष्ठ आदि पवित्राओं का निर्विकल्प निर्माण कर लेना चाहिए ॥५६-५७॥
अथ पवित्री के अधिवासन का प्रकार कहते हैं -
दोनों पात्रों में स्थापित पवित्राओं पर वक्ष्यमाण २२ देवताओं का आवाहन कर उनका पूजन करना चाहिए । ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश - ये तीन सूत्रीय देवता हैं - ॐकार, चन्द्रमा, अग्नि, ब्रह्मा, नाग, कार्तिकेय, सूर्य, सदाशिव एवं विश्वेशर - नव सूत्रिका के अधिदेवता है, क्रिया, प्रौरुषी, वीरा, अपराजिता, विजया, जया, मुक्तिदा, सदाशिवा और ८ वीं मनोन्मनी दशवीं सर्वतोमुखी - ये पवित्री के ग्रन्थियों की देवत कही गई हैं ॥५८-६१॥
उत्तम साधक आवाहनी आदि पूर्वोक्त ९ मुद्राओं (आवाहनी स्थापनी, सन्निधापनी, सन्निरोधिनी, संमुखीकरण, सकलीकरण, अवगुण्ठनी, अमृतीकरण, परमीकरण और धेनुमुद्रा । द्र० २२. ४५-५६) से आवाहनादि कर चन्दन आदि से उनका पूजन करे । इसी प्रकार पवित्राओं का गन्धादि द्वारा भी पूजन करे और उसे प्रणव से धूप दिखाकर ‘नमः’ से अभिमन्त्रित करना चाहिए ॥६२-६३॥
फिर इष्टदेव को प्रणाम कर ‘आमन्त्रितोऽसि देवेश० से ले कर ... सान्निध्यं कुरु केशव - पर्यन्त (द्र० २३. ६४-६६) दो श्लोको को पढकर निज इष्टदेव की प्रार्थना करनी चाहिए ॥६४-६६॥
इसके बाद गन्ध पवित्रा को निज इष्टदेव के चरणों में चढा देना चाहिए । प्रार्थना के इस श्लोक में यदि यदि इष्ट देव शंकर, गणेश, शक्ति या भास्कर हों तो उनके नामों का ऊहापोह कर सन्निविष्ट कर लेना चाहिए ॥६६-६७॥
विमर्श - पूजाविधि - सर्वप्रथम सूत्र के प्रथम द्वितीय और तृतीय धागे में निम्न मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए । यथा - ॐ ब्रह्मणे नमः प्रथमदोरके,
ॐ विष्णवे नमः द्वितीयदोरके, ॐ महेशाय नमः तृतीयदोरके ।
इसके बाद नवसूत्रिका के प्रत्येक धागे में इस रीति से पूजा करनी चाहिए । यथा - ॐकाराय नमः प्रथमसूत्रे,
ॐ चन्द्रमसे नमः द्वितीयसूत्रे, ॐ वहनये नमः, तृतीयसूत्रे,
ॐ ब्रह्मणे नमः, चतुर्थसूत्रे, ॐ नागेभ्यो नमः पञ्चमसूत्रे,
ॐ कार्तिकेयाय नमः, षष्ठसूत्रे, ॐ सूर्याय नमः सप्तमसूत्रे,
ॐ सदाशिवाय नमः, अष्टमसूत्रे, ॐ विश्वेभ्यो देवभ्यो नमः, नवमसूत्रे,
इसके बाद ग्रन्थिस्थ देवताओं की निम्न मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए । यथा - ॐ क्रियायै नमः प्रथमग्रन्थौ, ॐ पौरुष्ये नमः, द्वितीयग्रन्थौ,
ॐ वीरायै नमः, तृतीयग्रन्थौ, ॐ अपराजितायै नमः, चतुर्थग्रन्थौ,
ॐ विजयायै नमः, पञ्चमग्रथौ, ॐ जयायै नमः षष्ठग्रथौ,
ॐ मुक्तिदायै नमः, सप्तमग्रथौ, ॐ सदाशिवायै नमः अष्टमग्रन्थौ,
ॐ मनोन्मयै नमः नवमग्रन्थौ, ॐ सर्वतोमुख्यै नमः दशमग्रन्थौ ॥५८-६७॥
उक्त प्रकार से पवित्रा का अधिवासन कर निज इष्ट देवता के नाम एवं गुणादि द्वारा स्तुति कर जागरन करना चाहिए ॥६९॥
अब पवित्रक पूजा का विधान कहते हैं -
प्रातःकालिक नित्य पूजा करने के बाद पवित्रा को हाथ में ले कर मूल मन्त्र से एक सौ आठ बार अभिमन्त्रित करना चाहिए । फिर घण्टा, वाद्य, वेद ध्वनि एवं जय-जयकार के घोषों के साथ मूल का उच्चारण करते हुये उस पूजित पवित्रा को निज इष्टदेव के कण्ठ में पहना देना चाहिए ॥६९-७०॥
मध्यम एवं कनिष्ठ प्रकार की पवित्राओं के चढाने की भी यही विधि है । किन्तु कुछ विशेषता इस प्रकार है - कनिष्ठ पवित्रा चढाते समय श्वेत वर्ण वाले, मध्यम चढाते समय रक्त वर्ण तथा ज्येष्ठ पवित्रा चढाते समय पीतवर्ण वाले निज इष्टदेवता का ध्यान करना चाहिए ॥७१॥
वनमाला संज्ञक पवित्रा को मूल मन्त्र से एक सौ आठ बार अभिमन्त्रित कर मूलमन्त्र से इष्टदेव के मुकुट पर उसे समर्पित करना चाहिए । तदनन्तर मूलमन्त्र से अभिमन्त्रित अमलतास के १०० पुष्पों को मूलमन्त्र से देवता के मस्तक पर चढाना चाहिए ॥७२-७३॥
पटल पर विद्यमान् पवित्राओं को ‘नमः’ मन्त्र से अभिमन्त्रित् करे, तथा उसे आवरण देवताओं के चतुर्थ्यन्त नामों के साथ ‘नमः’ लगाकर निष्पन्न मन्त्रों से आवरण देवताओं पर चढाना चाहिए ॥७४॥
इस प्रकार पवित्राओं से देव पूजन कर धूप, दीप, नैवेद्य आदि से उनका पूजन करना चाहिए । तदनन्तर अग्नि में निज इष्टदेव का आवाहन कर नित्य होम संपादन कर देवस्मरण करते हुये मूलमन्त्र से उनको अग्निपवित्रा चढानी चाहिए ॥७५-७६॥
उसकी पूजा विधि इस प्रकार है -
मूर्तिस्थ देवता में अपनी आत्मा को अग्नि से संयुक्त कर इष्टदेव को पुष्पाञ्जलि देकर कर्म की समाप्ति करे । ‘मन्त्रहीनं ... पवित्रेणार्पितेन ते (द्र० २३. ७७-७८) पर्यन्त श्लोक का उच्चारण कर इष्टदेव की प्रार्थना करनी चाहिए, और उन्हे अपने हृदय्में स्थापित करना चाहिए ॥७६-७८॥
इसके बाद निज गुरुदेव के पास जा कर उन्हें पुष्पाञ्जलि निवेदति कर अपने अङ्गों में षडङ्गन्यास कर पश्चात गुरुदेव के शरीर में षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥८३॥
फिर उन्हें पाद्य और अर्ध्य देकर मूल मन्त्र से वस्त्र, अलंकार, चन्दन एवं पुष्पों से उनका पूजन कर उनके कण्ठ में पवित्रा पहना देनी चाहिए । अपनी शक्ति के अनुसार गुरु को दक्षिणा देकर दण्डवत् प्रणाम करना चाहिए ॥८०-८१॥
इसी प्रकार अपने संप्रदाय के अन्य विशिष्ट एवं वयोवृद्ध लोगों के भी गले में पवित्रा पहना देनी चाहिए । साधक को सदैव अपने गुरु का पूजन करना चाहिए । ऐसा न करने पर सारी पूजा निष्फल हो जाती है ॥८१-८२॥
गुरु के अभाव में उनके पुत्र की, उनके भी न होने पर पौत्र की, उसके भी अभाव में उनके दौहित्र की तथा उसके भी न होने पर गुरु के कुटुम्ब एवं गोत्र के व्यक्तियों की पूजा करनी चाहिए ॥८३॥
इतना कर लेने के पश्चात् स्वयं पवित्रा धारण कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन करा कर उनकी आज्ञा से अपने बन्धुओं तथा पुत्रों के साथ स्वयं भोजन करे ॥८४॥
उक्त विधि से पवित्रार्पण करने में असमर्थ व्यक्ति वार्षिक पूजा की पूर्ति हेतु जिस किसी भी तरह पवित्राओं से इष्टदेव का अर्चन करे । यदि पूर्वोक्त निर्धारित तिथि में पवित्रा पूजा न की जा सके तो जिस किसी भी उत्तम तिथि में पवित्रार्पण कर देना चाहिए । किन्तु श्रावण मास में तो निश्चित रुप से ही पविर्त्रापण करना ही चाहिए ॥८५-८६॥
जो व्यक्ति इस प्रकार प्रति वर्ष पवित्राओं से देव-पूजन करता है, वह आरोग्य एवं ऐश्वर्य के साथ अनेक वर्षो तक जीवित रहता है । देवता की पूरे वर्ष की पूजा पवित्रा एवं दमनक के चढाने से पूर्ण हो जाती है ॥८७-८८॥
अब इष्टदेव के महोत्सव का काल कहते हैं - सूर्य एवं चन्द्रमा का ग्रहण पूष ऊउर माघ के महीनों में जब रविवार को अमावस्या तिथि को हो उस अर्धादय काल में, मकर संक्रान्ति में तथा अन्य अलभ्य योगों, युगादि एवं मन्वादि तिथियों से विशेष रुप से अपने इष्टदेव का महोत्सव करना चाहिए ॥८९॥
जिस जिस क्रम से अपने इष्टदेव में मनुष्यों की भक्ति बढती है उसी उसी क्रम से अनायास उनके मनोरथ भी सफल होते हैं ॥९०॥
विद्वान् को आषाढ में तत्त्द्देवताओम की शयन तिथियों में उन-उन देवताओम का शयनोत्सव तथा कार्तिक की उन-उन तिथियों में देवोत्थान का महोत्सव मनाना चाहिए ॥९१॥
माघ कृष्णा चतुर्दशी (अमान्त मास के गणनानुसार) शिव रात्रि को विशेषरुप से भगवान् सदाशिव का पूजन करना चाहिए । आश्विन मास के प्रारम्भिक ९ दिनों (नवरात्रों) में भगवती दुर्गा का विधिवत् पूजन करना चाहिए ॥९२॥
श्रावण कृष्णाटमी (जन्माष्टमी) के दिन विद्वान को श्रीगोपाल का पूजन करना चाहिए । चैत्र शुक्ला नवमी को श्रीराम का पूजन करना चाहिए ॥९३॥
वैशाख कृष्णा चतुर्दशी (नृसिं चतुर्दशी) को श्रीनृसिंह का, भाद्र शुक्ल चतुर्थी (गणेश चतुर्थी) तथा माध शुक्ल चतुर्थी को गणपति का, भाद्र कृष्ण अष्टमी के दिन विद्वान् व्यक्ति को महालक्ष्मी का पूजन करना चाहिए । इसी प्रकार माघ शुक्ल सप्तमी को विशेष रुप से सूर्य का पूजन करना चाहिए । शुक्लपक्ष की जिस किसी महीने की सप्तमी को रविवार का दिन हो तो उस दिन भी भगवान् भास्कर को पूर्वोक्त रीति से अर्घ्य दान देना चाहिए ॥९४-९६॥
देवताओं में उपासना सम्बन्धी प्रीति बढाने वाले अन्यान्य कल्प भी तत्तद् ग्रन्थों में प्रतिमादित है । अतः साधकों को उन-उन नियमों को जान कर अनन्य भक्ति से उनकी उपासना करनी चाहिए ॥९७॥
आषाढ की पूर्णिमा से लेकर कार्तिक मास की पूर्णिमा पर्यन्त अर्थात चातुर्मास्य में किसी विशेष नियम का पालन करना चाहिए । उस समय विद्वान् साधक जप और पूजा में तत्पर रह कर अपने इष्टदेव को प्रसन्न करे ॥९८॥
इस रीति से जो मनुष्य भगवान् विष्णु, रुद्र, दुर्गा, गणेश अथवा सूर्यदेव की श्रद्धापूर्वक सदैव उपासना करता है वह कभी भी दुःखी नहीं रहता ॥९९॥
धर्माचरण करने वाला और देवपूजा में परायण रहने वाला तथा जितेन्द्रिय व्यक्ति इस लोक में समस्त भोगों को प्राप्त कर अन्त में अनन्त में लीन हो जाती है ॥१००॥