व्याकरण - शास्त्रका वर्णन
सनन्दन उवाच
अथ व्याकरणं वक्ष्ये संक्षेपात्तव नारद ।
सिद्धरूपप्रबन्धेन मुखं वेदस्य साम्प्रतम् ॥१॥
सनन्दनजी कहते हैं --- अब मैं शब्दोंके सिद्धरूपोंका उल्लेख करते हुए तुमसे संक्षेपमें व्याकरणका वर्णन करता हूँ ; क्योंकि व्याकरण वेदका मुख है॥१॥
सुप्तिडन्तं पदं विप्र सुपां सप्त विभक्तय : ।
स्वौजस : प्रथमा प्रोक्ता सा प्रातिपदिकात्मिका ॥२॥
विप्रवर ! सुबन्त१ और तिडस्त२ पदको शब्द कहते हैं ( जिसके अन्तमें ‘ सुप् ’ प्रत्यय हों , वह सुबन्त कहलाता है ) । सुप्की सात विभक्तियाँ हैं । उनमेंसे प्रथमा ( पहली ) विभक्ति सु , औ , जस् - इस प्रकार बतायी गयी है (‘ सु ’ प्रथमाका एकवचन है , ‘ औ ’ द्विवचन है और ‘ जस ’ बहुवचन है ) । प्रथमा विभक्ति प्रातिपदिक ( नाम ) स्वरूप मानी गयी है ॥२॥
सम्बोधने च लिङ्गादावुक्ते कर्मणि कर्तरि ।
अर्थवत्प्रातिपदिकं धातुप्रत्ययवर्जितम् ॥३॥
सम्बोधनमें प्रथमा विभक्तिका प्रयोग होता है ; जहाँ प्रातिपदिकके अतिरिक्त लिङ्ग , २ परिमाण३ और वचन आदिका बोध कराना हो , वहाँ भी प्रथमा विभक्तिका ही प्रयोग होता है । उक्त कर्ममें ( जहाँ कर्म वाच्य हो , उसमें ) तथा उत कर्तामें ( जहाँ कर्ता वाच्य हो , उसमें ) भी प्रथमा विभक्तिका ही प्रयोग होता है । धातु और प्रत्ययसे रहित सार्थक शब्दकी प्रातिपदिक७ संज्ञा होती है ॥३॥
अमौशसो द्वितीया स्यात् तत्कर्म क्रियते च यत् ।
द्वितीया कर्मणि प्रोक्तान्तरान्तरेण संयुते ॥४॥
अम् , औ , शस् - यह द्वितीया विभक्ति है ( यहाँ भी ‘ अम् ’ आदिको क्रमश : एकवचन , द्विवचन और बहुवचन समझना चाहिये ) । जो किया जाता है , उसे कर्म कहते हैं । अनुक्त८ कर्ममें द्वितीया विभक्तिका प्रयोग कहा गया है ( कर्तृवाच्य वाक्योंमें कर्म अनुक्त होत है , वहाँ उसकी प्रधनता नहीं रह्ती , इसीलिये उसे ‘ अनुक्त ’ कहा गया है ) । ‘ अन्तरा ’, ‘ अन्तरेण ’ इन शब्दोंका जिसके साथ संयोग या अन्वय हो . उस शब्दमें द्वितीया विभक्तिका प्रयोग करना चाहिये ॥४॥
टाभ्याम्भिसस्तृतीया स्यात् करणे कर्तरीरिता ।
येन क्रियते तत्करणं स कर्ता स्यात्करोति य : ॥५॥
‘ टा ’,‘ भ्याम ’, भिस ’- यह तृतीया विभक्ति अहि ( यहाँ भी पूर्ववत् एकवचन आदिका विभाग समझना चाहिये ) । करणमें और अनुक्त कर्तामे तृतीया विभक्ति बतायी गयी है । जिसकी सहायतासे कार्य किया जाता है , उसका नाम करण है और जो कार्य करता है , उसे कर्ता कहते हैं ( जिस वाक्यमें कर्मकी प्रधानता होती है , वहाँ कर्ता अनुक्त माना गया है ) ॥५॥
डेभ्याम्भ्यसश्चतुर्थी स्यात्सम्प्रदाने च कारके ।
यस्मै दित्सां धारयेद्वै रोचते सम्प्रदानकम् ॥६॥
‘ डे ’,‘ भ्याम् ’ ‘ भ्यस् ’- यह चतुर्थी विभक्ति है । इसका प्रयोग सम्प्रदान कारकमें होता है । जिस व्यक्तिको कोई वस्तु देनेकी इच्छा मनमें धारण की जाय , उसकी ‘ सम्प्रदान ’ संज्ञा होती है तथा जिसको कोई वस्तु रुचिकर प्रतीत होती है , वह भी सम्प्रदान है ( सम्प्रदानमें चतुर्थी विभक्ति होती है ) ॥६॥
पञ्चमी स्यान्डसिभ्याम्भ्यो ह्यपादाने च कारके ।
यतोऽपैति समादत्ते अपादाने च यं यत : ॥७॥
‘ डसि ’, ‘ भ्याम् ’,‘ भ्यम् ’ यह पञ्चमी विभक्ति है । इसका प्रयोग अपादान कारकमें होता है । जहाँसे कोई जाता है . जिससे कोई किसी वस्तुको लेता है तथा जिस स्थानसे कोई वस्तु अलग की जाती या स्वत : अलग होती है , विभाग या अलगावकी उस सीमाको अपादान कारक कहते हैं ॥७॥
डसोसामश्च षष्ठी स्यात्स्वामिसम्बन्धमुख्यके।
डयोस्सुप : सप्तमी तु स्यात्सा चाधिकरणे भवेत्॥८॥
‘ डस ’,‘ ओस् ’, ‘ आम ’- यह षष्ठी विभक्ति है । जहाँ स्वामी - सेवक आदि सम्बन्धकी प्रधानता हो , वहाँ ( भेदकमें ) षष्ठी विभक्तिका प्रयोग होता है । ‘ डि ’,‘ ओस ’ ‘ सुप् ’- यह सप्तमी विभक्ति है । इसका प्रयोग अधिकरण कारकमें होता है ॥८॥
आधारे चापि विप्रेन्द्र रक्षार्थानां प्रयोगत : ।
ईप्सितं चानीप्सिताद् यत्तदपादानकं स्मृतम् ॥९॥
विप्रवर ! आधारमें भी सप्तमी होती है। भयार्थक तथा रक्षार्थक धातुओंका प्रयोग होनेपर भयके कारणकी अपादान संज्ञा होती है । इसी प्रकार वारणार्थक धातुओंका प्रयोग होनेपर अनीप्सितसे ( जो अभीष्ट नहीं है , उससे० रक्षणीय जो अभीष्ट वस्तु है , उसकी अपादान संज्ञा होती है ॥९॥
पञ्चमी पर्यपाङयोगे इतरर्तेऽन्यदिङमुखे ।
एतैर्योगे द्वितीया स्यात्कर्मप्रवचनीयकै : ॥१०॥
परि , अप . आङ , इतर , ऋते , अन्य ( आरात् ) तथा दिग्वाचक शब्द - इन सबके योगमें भी पञ्चमी विभक्ति होती है । ‘ कर्मप्रवचनीय ’ संज्ञावाले शब्दोंके साथ योग होनेपर द्वितीया विभक्ति होती है ॥१०॥
लक्षणेत्थंभूतेऽभिरभागे चानुपरिप्रति ।
अन्तरेषु सहार्थे च हीए ह्युपश्च कथ्यते ॥११॥
लक्षण . इत्थम्भूताख्यान . भाग तथा वीप्सा - इन सबकी अभिव्यक्तिके लिये प्रयुक्त हुए प्रति , परि , अनु - इन अव्ययोंकी ‘ कर्मप्रवचनीय ’ संज्ञा होती है। ‘ भाग ’ अर्थको छोडकर शेष जो लक्षण आदि अर्थ हैं , उनकी अभिव्यक्तिके लिये प्रयुक्त होनेवाला ‘ अभि ’ अव्यय भी ‘ कर्मप्रवचनीया ’ होता है । हीन अर्थको प्रकाशित करनेवाला ‘ अनु ’ तथा ‘ हीन ’ और ‘ अधिक ; अर्थोंको प्रकट करनेके लिये प्रयुक्त ‘ उप ’ अव्यय भी ‘ कर्मप्रवचनीय ’ होते हैं । अन्तर अर्थात् मध्य अर्थ तथा सहार्थ यानी तृतीया विभक्तिका अर्थ व्यक्त करनेके लिये प्रयुक्त हुआ ‘ अनु ’ शब्द भी ‘ कर्मप्रवचनीय ’ है । ( इन सबके योगमें द्वितीया विभक्ति होती है ) ॥११॥
द्वितीया च चतुर्थी स्याच्चेष्टायां गतिकर्मणि ।
अप्रणिषु विभक्ती द्वे मन्यकर्मण्यनादरे ॥१२॥
गत्यर्थक धातुओंके कर्ममें द्वितीया और चतुर्थी दोनों विभक्तियाँ प्रयुक्त होती हैं , यदि गमनकी चेष्टा प्रकट होती हो । ( परंतु मार्ग या उसका वाचक शब्द यदि गत्यर्थक धातुका कर्म हो तो उसमें चतुर्थी नही होती , केवल द्वितीया होती है । यह चतुर्थीका निषेध तभी लागू होता है , जब पथिक मार्गपर चल रहा हो । यदि वह गलत रास्तेसे जाकर अच्छा रास्ता पकडना चाहता हो तब चतुर्थीका प्रयोग भी हो ही सकता है ) ज्ञानार्थक ‘ मन् ’ धातुका कर्म यदि कोई प्राणिभिन्न वस्तु हो और अनादर अर्थ प्रकट करना हो तो उसमें भी द्वितीया और चतुर्थी दोनों विभक्तियाँ होती हैं ॥१२॥
नम : स्वस्तिस्वधास्वाहालंवषडयोग ईरिता ।
चतुर्थी चैता तादर्थ्ये तुमर्थाद्भाववाचिन : ॥१३॥
नम :, स्वस्ति , स्वधा , स्वाहा , अलम् , वषट् - इन सब अव्यय शब्दोंके योगमें चतुर्थी विभक्तिके प्रयोगका विधान है । तादर्थ्यमें अर्थात् जिस वस्तुके लिये कोई कार्य किया जाता है . उस ‘ वस्तु ’ के बोधक शब्दमें चतुर्थी विभक्ति होती है । ‘ तुमुन् ’ के अर्थमें प्रयुक्त अव्ययभिन्न भावार्थक प्रत्ययान्त शब्दमें भी चतुर्थी विभक्तिका ही प्रयोग होना चाहिये ॥१३॥
तृतीया सहयोगे स्यात्कुत्सितेऽङ्गे विशेषणे ।
काले भावे सप्तमी स्यादेतैर्योगे च षष्ठयपि ॥१४॥
स्वामीश्वराधिपतिभि : साक्षिदायादसूतकै : ।
निर्धारणे द्वे विभक्ती षष्ठी हेतुप्रयोगके ॥१५॥
‘ सह ’ तथा उसके पर्यायवाची शब्दोंसे योग होनेपर तृतीया विभक्ति होती है ( इसी प्रकार सट्टशार्थक शब्दोंके योगमें भी तृतीया होती है ) । यदि कोई विकृत अङ्ग विशेषणरूपसे प्रयुक्त हुआ हो तो उसमें भी तृतीया विभक्ति होती है । जहाँ एक क्रियाके होते समय दूसरी क्रिया लक्षित होती हो . वहाँ सप्तमी विभक्ति होती है । ‘ स्वामी ’, ‘ ईश्वर ’,‘ अधिपति ’.‘ साक्षी ’,‘ दायाद ’,‘ प्रसूत ’ ( तथा ‘ प्रतिभू ’ ) - इन शब्दोंके योगमें सप्तमी और षष्ठी दोनों विभक्तियाँ होती हैं । जिस समुदायमेंसे किसी एककी जाति - सम्बन्धी , गुण - सम्बन्धी , क्रिया - सम्बन्धी अथवा किसी विशेष नामवाले व्यक्तिसम्बन्धी विशेषताका निश्चय करना हो , उस समुदायबोधक शब्दमें सप्तमी और षष्ठी दोनों विभक्तियाँ होती हैं । ‘ हेतु ’ शब्दका प्रयोग करके यदि हेत्वर्थका प्रकाशन किया जाय तो षष्ठी विभक्ति होती है ॥१४ - १५॥
स्मृत्यर्थकर्मणि तथा करोते : प्रतियत्नके ।
हिंसार्थानां प्रयोगे च कृति कर्मणि कर्तरि ॥१६॥
स्मरणार्थक क्रियाओंके कर्ममें शेषषष्ठी होती है । ‘ कृ ’ धातुके कर्ममें भी शेषषष्ठीका विधान है । यदि प्रतियत्न ( गुणाधान या संस्कार ) सूचित होता हो । हिंसा अर्थवाले धातुओंका प्रयोग होनेपर उनके कर्ममें शेषषष्ठी होती है । कृदन्त शब्दका योग होनेपर कर्ता और अर्ममें षष्ठी होती है ॥१६॥
न कर्तृकर्मणो : षष्ठी निष्ठादिप्रतिपादने ।
एता वै द्विविधा ज्ञेया : सुबादिषु विभक्तिषु ।
भूवादिषु तिडन्तेषु लकारा दश वै स्मृता : ॥१७॥
यदि निष्ठा आदिका प्रतिपादन करनेवाले प्रत्ययोंसे युक्त शब्दका प्रयोग हो तो कर्ता और कर्ममें षष्ठी नहीं होती । ये विभक्तियाँ दो प्रकारकी जाननी चाहिये - सुप और तिङ । ऊपर सुबादि विभक्तियोंके विषयमें वर्णन किया गया है । क्रियावाचक ‘ भू ’ ‘ वा ’ आदि शब्द ही तिङ विभक्तियोंके साथ संयुक्त होनेपर तिडन्त कहे गये हैं । इनमें दस लकार बताये गये हैं ॥१७॥
तिप्तसन्तीति प्रथमो मध्य : सिपथस्थ उत्तम : ।
मिब्वस्मस : परस्मै तु पदानां चात्मनेपदम् ॥१८॥
( प्रत्येक लकारमें परस्मैपद और आत्मनेपद - ये दो पद होते हैं । प्रत्येक पदमें प्रथम . मध्यम और उत्तम - ये तीन पुरुष होते हैं ) । ‘ तिप ’ ‘ तस् ’ ‘ अन्ति ’ यह प्रथम पुरुष है । ‘ सिप् ’ ‘ थस् ’ ‘ थ ’- यह मध्यम पुरुष है तथा ‘ मिप् ’ ‘ वस् ’ ‘ मस् ’ यह उत्तम पुरुष है ( प्रत्येक पुरुषमें जो तीन - तीन प्रत्यय हैं , वे क्रमश : एकवचन , द्विवचन और बहुवचन हैं ) । ये सब परस्मैपदके प्रत्यय हैं । अब आत्मनेपद बताया जाता है ॥१८॥
ते आतेऽन्ते प्रथमो मध्य : से आथे ध्वे तथोत्तम : ।
ए वहे मह आदेशा ज्ञेया ह्मन्ये लिडादिषु ॥१९॥
‘ ते ’ ‘ आते ’ ‘ अन्ते ’ यह प्रथम पुरुष है । ‘ से ’ ‘ आथे ’ ‘ ध्वे ’ यह मध्यम पुरुष है । ‘ ए ’ ‘ वहे ’ ‘ महे ’ यह उत्तम पुरुष है । ये ‘ लट ’ लकारके स्थानमें होनेवाले आदेश हैश । ‘ लिट ’ आदि लकारोंके स्थानमें होनेवाले प्रत्ययरूप आदेश दूसरे हैं , उन्हें ( अन्य व्याकरणसम्बन्धी ग्रन्थोंसे ) जानना चाहिये ॥१९॥
नाम्रि प्रयुज्यमाने तु प्रथम : पुरुषो भवेत् ।
मध्यमो युष्मदि प्रोक्त उत्तम : पुरुषोऽस्मदि ॥२०॥
जहाँ ‘ युष्मद ’,‘ अस्मद ’ शब्दोंके अतिरिक्त अन्य कोई भी नाम ( संज्ञा - शब्द ) उक्त कर्ता या उक्त कर्मके रूपमें प्रयुक्त होता हो , वहाँ प्रथम पुरुष होता है । ‘ युष्मद ’ शब्द उक्त कर्ता या उक्त कर्मके रुपमें प्रयुक्त हो तो मध्यम पुरुष होता है और ‘ अस्मद् ’ शब्दका उक्त कर्ता या उक्त कर्मके रूपमें प्रयोग हो तो उत्तम पुरुष कहा गया है ॥२०॥
भूवाद्या धातव : प्रोक्ता : सनाद्यन्तास्तथा तत : ।
लडीरितो वर्तमाने भूतेऽनद्यतने तथा ॥२१॥
मास्मयोगे च लङ्वाच्यो लोडाशिषि च धातुत : ।
विध्यादौ स्यादाशिषि च लिडितो द्विविधो मुने ॥२२॥
क्रिया - बोधक ‘ भू ’ ‘ वा ’ आदि शब्दोंको ‘ धातु ’ कहा गया है । ‘ सन् ’ आदि प्रत्यय जिनके अन्तमें हों , उनकी भी धातु संज्ञा है । धातुओंसे वर्तमानकालमें लटलकारका विधान है । अनद्यतन ( आजसे पहलेके ) भूतकालमें लङ लकार होता है तथा ‘ म ’ और ‘ स्म ’ इन दोनोंके योगमें लङ् ( और लुङ् ) लकार होता है , यह बताना चाहिये । आशीर्वाद और विधि आदि अर्थमें धातुसे लोट् लकारका विधान है । विधि आदि अर्थमें तथा आशीर्वादमें लिड लकारका भी प्रयोग होता है , किंतु विधिलिङ् और आशिष् - लिङ्के धातु - रूपोंमें अन्तर होता है । मुने ! इसीलिये वह दो प्रकारका माना गया है ॥२१ - २२॥
लिडतीते परोक्षे स्याच्छ्वस्तने लुङ भविष्यति ।
स्यादेवाद्यतने लृट च भविष्यति तु धातुत : ॥२३॥
परोक्ष भूतकालमें लिट् लकारका प्रयोग होता है । आजके बाद होनेवाले भविष्यामें ‘ लुट् ’ का प्रयोग किया जाता है । आज होनेवाले भविष्यमें ( तथा सामान्य भविष्यकालमें भी ) धातुसे लृट् लकार होता है ॥२३॥
भूते लुङतिपत्तौ च क्रियाया लृङ प्रकीर्तित : ।
सिद्धोदाहरणं विद्धि संहितादिपुर : सरम् ॥२४॥
सामान्य भूतकालमें लुङ लकारका प्रयोग करना चाहिये । हेतुहेतुमद्भाव आदि जो लिडके निमित्त हैं , उन्हींके होनेपर भविष्य - अर्थमें लृङ लकारका प्रयोग होता है ; किंतु यदि क्रियाकी असिद्धि सूचित होती हो तभी ऐसा होना उचित है । मुने ! [ अब संधिका प्रकरण आरम्भ करते हैं - ] संधिके सिद्ध उदाहरण संहिता आदि ग्रन्थोंके अनुसार समझो ॥२४॥
दण्डाग्रं च दधीदं च मधूदकं पितृषभ : ।
होतृकारस्तथा सेयं लाङ्गलीषा मनीषया ॥२५॥
गङ्गोदकं तवल्कार ऋणार्णं च मुणीश्वर ।
शीतार्तश्च मुनिश्रेष्ठ सैन्द्र : सौकार इत्यपि ॥२६॥
पहले स्वर - संधिके उदाहरण दिये जाते हैं - दण्ड + अग्रम् = दण्डाग्रम् ( डंडेका सिरा ) । दधि + इदम् = दधीदम् ( यह दही ) । मधु + उदकम् = मधूदकम् ( मधु और जल ) । पितृ + ऋषभ := पितृषभ : ( पितृवर्गमें श्रेष्ठ ) । होतृ + लृकार = होतृकार : ( होताका लृकार ) । इसी प्रकार ‘ मनीषा ’ के साथ ‘ लाङ्गलीषा ’ भी सिद्धसंधि है । मुनीश्व ! गङ्गा + उदकम् = गङ्गोदकम् ( गङगाजल ), तव + लृकार := तवल्कार : ( तुम्हारा लृकार ), सा + इयम् = सेयम् ( वह यह = स्त्री ) । स + ऐन्द्र := सैन्द्र : ( वह इन्द्रका भाग ) । स + औकार := सौकार : ( वय औकार ) । ऋण + ऋणम् = ऋणार्णम् ( ऋणके लिये ऋण ) शीत + ऋत := शीतार्त : ( शीतसे युक्त ) । कृष्ण + एकत्वम् = कृष्णैकत्वम् ( कृष्णकी एकता ) । गङ्ग + ओघ := गङ्गौघ : ( गङ्गाकी जलराशिका प्रवाह )- ये वृद्धि संधिके उदाहरण हैं ॥२५ - २६॥
वध्वासनं पित्रर्थो नायको लवणस्तथा ।
त आद्या विष्णवे ह्यत्र तस्मा अर्घो गुरा अध : ॥२७॥
दधि + अत्र = दध्यत्र ( यहाँ दही है , ) वधू + आसनम् = वध्वासनम ( बहूका आसन ), पितृ + अर्थ := पित्रर्थ : ( पिताका धन ), लृ + आकृति := लाकृति : ( देवजातिकी माताका स्वरूप )- ये यणसंधिके उदाहरण हैं । ( हरे + ए = हरये - भगवान्के लिये ) । नै + अक := नायक : ( स्वामी ) । लो + अण := लवण : ( नमक ) । ( पौ + अक := पावक :- अग्नि )- ये अयादि संधि कहलाते हैं। ते + आद्या := त आद्या : ( वे प्रथम हैं ) । विष्णो + एह्यत्र = विष्ण एह्यत्र ( भगवन् विष्णो ! तहाँ पधारिये ) । तस्मै + अर्घ := तस्मा अर्घ : ( उनके लिये अर्घ्य ) । गुरौ + अध := गुरा अध : ( गुरुके समीप नीचे ) । इन उदाहरणोंमें यलोप और वलोप हुए हैं ॥२७॥
हरेऽव विष्णोऽवेत्येषादसो मादप्यमी अघा : ।
शौरी एतौ विष्णू इमौ दुर्गे अमू नो अर्जुन : ॥२८॥
आ एवं च प्रकृत्यैते तिष्ठन्ति मुनिसत्तम ।
हरे + अव = हरेऽव ( भगवन ! रक्षा कीजिये ) । विष्णो + अव = विष्णोऽव ( विष्णो ! रक्षा कीजिये ) । यह पूर्वरूप संधि है । अदस् शब्दसम्बन्धी मकारसे परे यदि दीर्घ ‘ ई ’ और ‘ ऊ ’ हों तो वे ज्यों - के - त्यों रह जाते हैं । इस अवस्थाको प्रकृतिभाव कहते हैं । जैसे अमी + अघा : ( ये पाणी हैं ). शौरी + एतौ = ( ये दोनों श्रीकृष्ण - बलराम हैं ), विष्णु + इमौ = ( ये दोनों विष्णुरूप हैं ), दुर्गे + अमू = ( ये दोनों दूर्गारूप हैं ) । ये भी प्रकृतिभावके ही उदाहरण हैं । नो + अर्जुन : ( अर्जुन नहीं है ), आ + एवम् ( ऐसा ही है )- इनमें भी सन्धि नहीं होती । मुनिश्रेष्ठ नारद ! ‘ अमी + अघा :’ से लेकर यहाँतकके सभी उदाहरण ऐसे हैं , जो अपनी प्रकृतावस्थामें ही रह्ते हैं ॥२८ १ / २॥
षडत्र षण्मातरश्च वाक्छूरो वाग्घरिस्तथा ॥२९॥
अब व्यञ्जन सन्धिके उदाहरण दिये जाते हैं । षट + अत्र = षडत्र ( यहाँ छ : हैं ) । षट + मातर := षण्मातर : ( छ : माताएँ ) । वाक + शूर := वाक्छूर : ( बोलनेमें बहादुर ) । वाक + हरि := वागघरि : ( वाणीरूप भगवान् ) ॥२९॥
हरिश्शेते विभुश्चिन्त्यस्तच्छेषो यच्चरस्तथा ।
प्रश्रस्त्वथ हरिष्षष्ठ : कृष्णष्टीकत इत्यपि ॥३०॥
हरिस् + शेते = हरिश्शेते ) श्रीहरि शयन करते हैं ) । विभुस् + चिन्त्य := विभुश्चिन्त्य : ( सर्वव्यापी परमेश्वर चिन्तन करने योग्य हैं ) । तत् + शेष := तच्छेष : ( उसका शेष ) । यत् + चर := यच्चर : ( जिसमें चलनेवाला ) । प्रश् + न := प्रश्न : ( सवाल ) । हरिस् + षष्ठ := कृषष्णाष्टीकते ( श्रीकृष्ण जाते हैं ) इत्यादि ॥३०॥
भवान्षष्ठश्च षट् सन्त : षट् ते तल्लेप एव च ।
चक्रिंश्छिन्धि भवाञ्छौरिर्भवाञ्शीरिरिहेत्यपि ॥३१॥
भवान् + षष्ठ : ( आप छठे हैं ) । इसमें पूर्व नियमके अनुसार प्राप्त होनेपर तवर्गका टवर्ग नहीं होता । इसी तरह षट सन्त : ( छ : सत्पुरुष ) और षट ते ( वे छ : हैं ) इत्यादिमें भी ष्टुत्व नहीं हुआ है । तत् + लेप := तल्लेप : ( उपका लेप ) । चक्रिन् + छिन्धि = चक्रिंश्छिन्धि ( चक्रधारी प्रभो ! मेरा बन्धन काटिये ) । भवान् + शौरि := भवाञ्छौरि :, भवाञ्शौरि : इह ( आप श्रीकृष्ण यहाँ हैं ). ( भवाञ्च्छौरि : भवाञ्च्शौरि : ) इस पदच्छेदमें ये चार रूप बनते हैं ॥३१॥
सम्यडडनन्तोऽङ्गच्छाया कृष्णं वन्दे मुनीश्वर ।
तेजांसि मंस्यते गङ्गा हरिश्छेत्तामरश्शिव : ॥३२॥
सम्यड + अनन्त := सम्यडडनन्त : ( अच्छे शेषनाग ). सुगण् + ईश := सुगण्णीश : ( अच्छे गणकोंके स्वामी ) । सन + अच्युत := सन्नच्युत : ( नित्य सत्स्वरूप श्रीहरि ) । अङ्ग + छाया + अङ्गच्छाया ( शरीरकी परछाई ) कृष्णम + वन्दे = कृष्णं वन्दे ( श्रीकृष्णको प्रणाम करता हूँ ) । तेजान् + सि = तेजांसि ( तेज ), मन् + स्यते = मंस्यते ( मानेंगे ) । गं + गा = गङ्गा ( देव - नदी गङ्गा ) ।
मुनीश्वर नारद ! यहाँतक व्यञ्जन - सन्धिका वर्णन हुआ । अब विसर्ग - सन्धि प्रारम्भ करते हैं। हरि : छेत्ता = हरिश्छेत्ता ( श्रीहरि बन्धन काटनेवाले हैं ) । अमर :+ शिव := अमरश्शिव : ( भगवान् शिव अमर हैं ) ॥३२॥
राम काम्य : कृप पूज्यो हरि : पूज्योऽर्च्य एव हि ।
रामो दृष्टोऽबला अन्न सुप्ता दृष्टा इमा यत : ॥३३॥
राम :+ काम्य := राम काम्य : ( श्रीराम कमनीय हैं ) । कृप :+ पूज्य := कृप पूज्य : ( कृपाचार्य पूज्य हैं ) । पूज्यस् + अर्च्य := पूज्योऽर्च्य : ( पूजनीय और अर्चनीय ) । रामस् + दृष्ट := रामो दृष्ट : ( राम देखे गये हैं ) । अबलास् + अत्र = अबला अत्र ( यहाँ अबलाएँ हैं ) । सुप्तास् + दृष्टा := सुप्ता दृष्टा : ( सोयी देखी गयीं ) । इमास् + अत := इमायत : ( ये स्त्रियाँ हैं , अत : ) ॥३३॥
विष्णुर्नम्यो रविरयं गी फलं प्रातरच्युत : ।
भक्तैर्वन्द्योऽप्यन्तरात्मा भो भो एष हरिस्तथा ।
एष शार्ङ्गी सैष राम : संहितैवं प्रकीर्तिता ॥३४॥
विष्णु :+ नम्य := विष्णुर्नम्य : ( श्रीविष्णु प्रणामके योग्य हैं ) । रवि :+ अयम् = रविरयम् ( ये सूर्य हैं ) । गी :+ फलम् = गी फलम् ( वाणीका फल ) । प्रातर + अच्युत := प्रातरच्युत : ( प्रात : का श्रीहरि ) । भक्तैस् + वन्द्य := भक्तैर्वन्द्य : ( भक्तजनोंके द्वारा वन्दनीय हैं ) । अन्तर + आत्मा = अन्तरात्मा ( जीवात्मा या अन्तर्यामी परमात्मा ) । भोस् + भो := भो भो ; ( हे हे )- ये सब उदाहरण पूर्वोक्त नियमोंसे ही बन जाते हैं । एषस् + हरि := एष हरि : ( ये श्रीहरि हैं ) । एषस् + शार्ङ्गी = एष गार्ङ्गी ( ये शार्ङ्गधारी हरि हैं ) सस् + एषस् + राम := सैष राम : ( वही ये श्रीराम हैं ) । इस प्रकार संहिता ( सन्धि )- का प्रकरण बताया गया है ॥३४॥
( अब सुबन्तका प्रकरण आरम्भ करते हुए पहले स्वरान्त शब्दोंका शुद्ध रूप देते हैं। उसमें भी एक श्लोकद्वारा मङ्गलाचरणके लिये श्रीरामका स्मरण करते हुए ‘ राम ’ शब्दके प्राय : सभी विभक्तियोंके एक - एक रूपका उल्लेख करते हैं - )
रामेणाभिहितं करोमि सततं रामं भजे सादरं
रामेणापह्रतं समस्तदुरितं रामाय तुभ्यं नम : ।
रामान्मुक्तिभीप्सिता मम सदा रामस्य दासोऽस्म्यहं
रामे रज्यतु मे मन : सुविशदं हे राम तुभ्यं नम : ॥३५॥
‘ मैं श्रीरामके द्वारा दिये हुए आदेशका सदा पालन करता हूँ । श्रीरामका आदरपूर्वक भजन करता हूँ। रामने ( मेरा ) सारा पाप हर लिया । भगवान् श्रीराम ! तुम्हें नमस्कार है। मुझे श्रीरामसे मोक्षकी प्राप्ति अभीष्ट है । मैं सदाके लिये श्रीरामका दास हूँ । मेरा निर्मल मन श्रीराममें अनुरक्त हो । हे श्रीराम ! तुम्हें नमस्कार है ॥३५॥
सर्व इत्यादिका गोपा : सखा चैव पतिर्हरि : ॥३६॥
सर्व आदि शब्द सर्वनाम माने जाते हैं । ‘ गोपा : ‘ का अर्थ है गौओंका पालन करनेवाला । सखाका अर्थ है मित्र । यह ‘ सखि ’ शब्दका रूप है । पतिका अर्थ है स्वामी । हरि शब्दका अर्थ है भगवान् विष्णु ॥३६॥
सूश्रीर्भानु : स्वयम्भूश्च कर्ता रा गौस्तु नौरिति ।
अनडवान्गोधुग्लिट च द्वौ त्रयश्चत्वार एव च ॥३७॥
जो उत्तम श्रीसे सम्पन्न हो , उसे सुश्री कहते हैं । भानुका अर्थ है सूर्य और किरण । स्वयम्भूका अर्थ है स्वयं प्रकट होनेवाला । इसका प्रयोग प्राय : ब्रह्माजीके लिये होता है । काम करनेवालेको कर्ता कहते हैं । यह ‘ कर्तृ ’ शब्दका रूप है । ‘ रै ’ शब्द धनका वाचक है । पुँल्लिङ्गमें ‘ गो ’ शब्दका अर्थ बैल होता है और स्त्रीलिङ्गमें गाय । ‘ नौ ’ शब्द नौकाका वाचक है । यहाँतक स्वरान्त पुँल्लिङ्ग शब्दोंके रूप दिये गये हैं ।
अब हलन्त पुँल्लिङ्ग शब्दोंके रूप दिये जा रहे हैं । गाडी खींचनेवाले बैलको अनडवान कहते हैं । यह अनडुहशब्दका रूप है । गाय दुहनेवालेको गोधुक कहते हैं । मूल शब्द गोदुह है । लिह शब्दका अर्थ है चाटनेवाला । ‘ द्वि ’ शब्द संख्या दोका , ‘ त्रि ’ शब्द तीनका और ‘ चतुर ’ शब्द चारका वाचक है । इनमेंसे पहला केवला द्विवचनमें और शेष दोनों केवल बहुवचनमें प्रयुक्त होते हैं ॥३७॥
राजा पन्थास्तथा दण्डी ब्रह्महा पञ्च चाष्ट च ।
अष्टौ अयं मुने सम्राट सुराडबिभ्रदवपुष्मत : ॥३८॥
राजा राजन् - शब्दका रूप है । पन्था : कहते हैं मार्गको । यह पथिन् शब्दका रूप है । जो दण्ड धारण करे , उसे दण्डी कहते हैं । ब्रह्महन् शब्द ब्राह्मणघातीके अर्थमें प्रयुक्त होता है । पञ्चन् - शब्द पाँचका और अष्टन् शब्द आठका वाचका है । ये दोनों बहुवचनान्त होते हैं । अयम्का अर्थ है यह : यह ‘ इदम् ’ शब्दका रूप है । ‘ सम्राट् ’ कहते हैं बादशाह या चक्रवर्ती राजाको । सुराज् शब्दके रूप - सुराट सुराजौ सुराज : इत्यादि हैं । शेष रूप सम्राज शब्दकी भाँति जानने चाहिये । इसका अर्थ है - अच्छा राजा । बिभ्रत्का अर्थ है धारण - पोषण करनेवाला । वपुष्मत् ( वपुष्मान् ) का अर्थ है शरीरधारी ॥३८॥
प्रत्यङ पुमान महान् धीमान् विद्वान्षटपिपठीश्च दो : ।
उशनासाविमे प्रोक्ता : पुंस्यज्झल्विरामका : ॥३९॥
प्रत्यञ्च - शब्दका अर्थ है प्रतिकूल या पीछे जानेवाला ‘ भीतरकी और ’ भी अर्थ है । पुमान्का अर्थ है पुरुश , जो पुंस् - शब्दका रूप है । महान् कहते हैं श्रेष्ठको । धीमान्का अर्थ है बुद्धिमान् । ( धीमत् - शब्दके रूप वपुष्मत् शब्दकी भाँति जानने चाहिये ) । विद्वानका अर्थ है पण्डित । षष् शब्द छ : का वाचक और बहुवचनान्त है । ( इसके रूप इस प्रकार हैं - षट् षड् २ । षड्भि : । षड्भ्य : २ । षण्णाम् । षट्सु षट्त्सु । ) जो पढनेकी इच्छा करे , उसे ‘ पिपठी :’ कहते हैं । दो : का अर्थ है भुजा । उशनाका अर्थ है शुक्राचार्य । अदस् शब्दका अर्थ है ‘ य ’ या ‘ वह ’ । ये अजन्त ( स्वरान्त ) और हलन्त पुँल्लिङ्ग शब्द कहे गये ॥३९॥
राधा सर्वा गतिर्गोपी स्त्री श्रीर्धेनुर्वधू : स्वसा।
गौर्नौरुपानदद्यौर्गोवत् ककुप्संवित्तु वा क्वचित् ॥४०॥
अब स्त्रीलिङ्ग शब्दोंका दिग्दर्शन कराते हैं । राधाका अर्थ है भगवान् श्रीकृष्णकी आह्लादिनी शक्ति , जो उनकी भी आराध्या होनेसे ‘ राधा ’ कहलाती हैं । सर्वाका अर्थ है सब ( स्त्री ) । ‘ गति :’ का अर्थ है - गमन , मोक्ष , प्राप्ति या ज्ञान । ‘ गोपी ’ शब्द प्रेम - भक्तिकी आचार्यरूपा गोपियोंका वाचक है । स्त्रीका अर्थ है नारी । ‘ श्री ’ शब्द लक्ष्मीका वाचक है । धेनुका अर्थ दूध देनेवाली गाय है । वधूका अर्थ है जाया अथवा पुत्रवधू । स्वसा कहते हैं बहिनको । गो - शब्दका रूप स्त्रीलिङ्गमें भी पुँल्लिङ्गके समान होता है । नौ - शब्दका रूप पहले दिया जा चुका है । उपाना शब्द जूतेका वाचक है । द्यौ स्वर्गका वाचक है । ककुभ शब्द दिशाका वाचक है । संविद् - शब्द बुद्धि एवं ज्ञानका वाचक है ॥४०॥
रुग्विडुद्भा : स्त्रियां तप : कुलं सोमपमक्षि च ।
ग्रामण्यम्बु खलप्वेवं कर्तृ चातिरि वातिन् ॥४१॥
रुक् नाम है रोगका। विट - शब्द वैश्यका वाचक है । उद्भ : का अर्थ है उत्तम प्रकाश या प्रकाशित होनेवाली । ये शब्द स्त्री - लिड्गमें प्रयुक्त होते हैं ।
अब नपुंसकलिङ्ग शब्दोंका परिचय देते हैं । तपस् - शब्द तपस्याका वाचक है । कुल - शब्द वंश या समुदायका वाचक है । सोमप - शब्दका अर्थ है सोमपान करनेवाला । ’ अक्षिका अर्थ है आँख । गाँवके नेताको ग्रामणी कहते हैं । अम्बु - शब्द जलका वाचक है । खलपू का अर्थ है खलिहान या भूमि साफ करनेवाला । कर्तृ - शब्द कर्ताका वाचक है । जो धनकी सीमाको लाँघ गया हो , उस कुलको अतिरि कहते हैं । जो पानी नावली शक्तिसे बाहर हो , जिसे नावसे भी पार करना असम्भव हो , उसे ‘ अतिनु ’ कहते हैं ॥४१॥
स्वनडुच्च विमलघु वाश्चत्वारीदमेव च ।
एतद्ब्रह्माहश्च दण्डी असृक्किञ्चित्त्यदादि च ॥४२॥
जिस कुल या गृहमें गाडी खींचनेवाले अच्छे बैल हों , उसको ‘ स्वनडुत् ; कहते हैं । जिस दिना आकाश साफ हो , उस दिनको विमलद्यु कहते हैं । वार - शब्द जलका वाचक है । चतुर् शब्दका रुप नपुंसकलिङ्गमें केवल प्रथमा और द्वितीयामें ‘ चत्वारि ’ होता है , शेष पुँल्लिङ्गवत् । इदम् - शब्दके रूप नपुंसकमें इस प्रकार हैं - इदम् इमे इमानि , शेष पुँल्लिङ्गवत् । एतत् - शब्दके रूप पुँल्लिगमें - एष : एतौ एते इत्यादि सर्वशब्दके समान होते हैं । नपुंसकमें केवल प्रथम दो विभक्तियोंमें ये रूप हैं - एतत एते एतानि । ब्रह्मन् - शब्दके रूप नपुंसकमें ‘ ब्रह्म ब्रह्मणी ब्रह्माणि ’ हैं । शेष पुँल्लिङ्गुवत् । अहन् - शब्द दिनका वाचक है । दण्डिन् - शब्दके नपुंसकमें ‘ दण्डि दण्डिनी दण्डीनि ’ ये रूप हैं । शेष पुँल्लिङ्गवत् । असृक - शब्द रक्तका वाचक है । किम् - शब्दके रूप पुँल्लिङ्गमें ‘ क : कौ के ’ इत्यादि सर्ववत् होते हैं । नपुंसकमें केवल प्रथम दो विभक्तिमें ‘ किम् के कानि ’- ये रूप होते हैं । चित् - शब्दके रूप ‘ चित्त् चिती चिन्ति , चिता चिद्भ्याम् चिद्भि :’ इत्यादिह होते हैं । त्यद आदि शब्दोंके रूप पुँल्लिङ्गमें ‘ स्य : त्यौ ते ’ इत्यादि सर्ववत् होते हैं। नपुंसकमें ‘ त्यत् त्ये त्यानि ’- ये रूप होते हैं ॥४२॥
एतद्बेभिद्नवाग् गवाङ्गोअग् गोडगोग् गोङ ।
तिर्यग्यकृच्छकृच्चैव ददद्भवत्पचत्तुदत् ॥४३॥
( इदम् और ) एतत् - शब्दके रूप अन्वादेशमें द्वितीया , टा और ओस् विभक्तियोंमें कुछ भिन्न होते हैं । पुँल्लिङ्गमें ‘ एनम् एनौ एनान् , एनेन एनयो : । ’ नपुंसक्में ‘ एनत् एने एनानि ’ ये रूप हैं । अन्वादेश न होनेपर पूर्वोक्त रूप होते हैं । बेभित् - शब्दके रूप इस प्रकार हैं -‘ बेभित् बेभिद् बेभिदी बेभिदि ( यहाँ नुम् नहीं होता ) । बेभिदा बेभिद्भयाम् बेभिद्भि :’ इत्यादि । गवाक् - शब्दके रूप गति और पूजा - अर्थके भेदसे अनेक होते हैं । गति - पक्षमें गवाक्का अर्थ है गायके पास जानेवाला और पूजा - पक्षमें उसका अर्थ है गो - पूजक । प्रथमा और द्वितीया विभक्तियोंमें उसके उभयपक्षीय रूप इस प्रकार हैं - एकवचनमें ये नौ रूप होते हैं - गवाक् गवाग् गोअक् गोअग् गोक् गवाङ् गोअङ् गोङ द्विवचनमें चार रूप होते हैं - गोची गवाञ्ची गोअञ्ची गोञ्ची । बहुवचनमें तीन रूप हैं - गवाञ्चि गोअञ्चि और गोञ्चि । प्रथमा और द्वितीया विभक्तियोंमें ये ही रूप होते हैं ‘ । ततीयासे लेकर सप्तमीके एकवचनमें सर्वत्र चार - चार रूप होते हैं -‘ गोचा गवाञ्चा गोअञ्चा गोञ्चा ’ इत्यादि । भ्याम् , भिस् और भ्यस्में छ :- छ ; रूप होते हैं - गवाग्भ्याम् गोअग्भ्याम् गोग्भ्याम् गवाङभ्याम् गोअङ्भ्याम् गोङ्भ्याम् इत्यादि । सप्तपीके बहुवचनमें भी नौ रूप होते हैं - गवाङ्क्षु गोअडक्षु गोडक्षु गवाडक्षु गोअडषु गोडषु गवाक्षु गोअक्षु गोक्षु । इस प्रकार कुल एक सौ नौ रूप होते हैं । तिर्यक - शब्द पशु - पक्षियोंका वाचक है । यकृत - शब्द कलेजा तथा उससे सम्बन्ध रखनेवाली बीमारीका बोधक है । शकृत - शब्द विष्ठाका वाचक है । ददत् - शब्दका रूप पुँल्लिङ्गमें बिभ्रत शब्दकी तरह होता है । नपुंसकमें ‘ ददत , ददती , ददन्ति ददति ’ ये रूप होत हैं । शेष पुँल्लिङ्गवत् । भवत् शब्दका अर्थ है , पूज्य । शतृ प्रत्ययान्त ‘ भवत् ’ शब्द्के रूप पुँल्लिङ्गमें ‘ भवन् भवन्तौ भवन्त :’ इत्यादि होते हैं । शेष पूर्ववत् । स्त्रीलिङ्गमें ’ भवन्ती भवन्त्यौ भवन्त्य :’ इत्यादि गोपीके समान रूप हैं । नपुंसकमें पूर्ववत् हैं । पचत् - शब्दका रूप सभी लिङ्गोंमें शतृ - प्रत्ययान्त ‘ भवत् ’ शब्दके समान होता है । तुदत् - शब्द पुँल्लिङ्गमें पचत्शब्दके ही समान है । स्त्रीलिङ्गमें डीप प्रत्यय होनेपर उसके दो रूप होते हैं - तुदती और तुदन्ती , फिर इन दोनोंके रूप गोपी - शब्दकी भाँति चलते हैं । नपुंसकमें प्रथम दो विभक्तियोंके रूप इस प्रकार हैं - तुदत् तुदती तुदन्ती तुदन्ति । शेष पुँल्लिङ्गवत ॥४३॥
दीव्यद्धनुश्च पिपठी ; पयोऽद : सुपुमांसि च ।
गुणद्रव्यक्रियायोगांस्त्रिलिङ्गांश्च कति ब्रुवे ॥४४॥
दीव्यत् - शब्दके रूप सभी लिङ्गोंमें पचत्के समान हैं । धनुष् - शब्दके रूप इस प्रकार हैं - धनु : धनुषी धनूंषि । धनुषा धनुर्भ्याम् इत्यादि । पिपठिष - शब्दके रूप नपुंसकमें इस प्रकार हैं -‘ पिपठी : पिपठिषी पिपठींषि ’ शेष पुँल्लिङ्गवत् । पयस् - शब्दके रूप तपस् - शब्दके समान होते हैं । यह दूध और जलका वाचक है । ’ अदस् - शब्दके पुँल्लिङ्ग रूप बताये जा चुके हैं । जिस कुलमें अच्छे पुरुष होते हैं , उसे सुपुम् कहते हैं । अब हम कुछ ऐसे शब्दोंका वर्णन करते हैं , जो गुण , द्रव्य और क्रियाके सम्बन्धसे तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं ॥४४॥
शुक्त : कीलालपाश्चैव शुचिश्च गामणी : सुधी ।
पटु : स्वयम्भू : कर्ता च माता चैव पिता च ना ॥४५॥
सत्यानायुरपुंसश्च मतभ्रमरदीर्घपात् ।
धनाढयसोम्यौ चागर्हस्तादृक् स्वर्णमथो बहु ॥४६॥
शुक्त , कीलालपा , शुचि , ग्रामणी , सुधी , पटु , स्वयम्भू तथा कर्ता । मातृ - शब्द यदि परिच्छेतृवाचक हो तो तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त होता है । इसके पुँल्लिङ्गरूप - माता , मातारौ , मातार :’ इत्यादि ; नपुंसकरूप - मातृ , मातृणी , मातृणि ’ इत्यादि और स्त्रीलिङ्गरूप -‘ मात्री , मात्र्यौ मात्र्य :’ हैं । जननीवाची मातृ - शब्द नित्य - स्त्रीलिङ्ग है । इसके रूप इस प्रकार हैं -‘ माता मातरौ मातर : । मातरम् मातरौ मातृ :’ इत्यादि । इसके शेष रूप स्वसृ - शब्दके समान हैं । पितृ - शब्द यदि कुलका विशेषण हो तो नपुंसकमें प्रयुक्त हो सकता है । अन्यथा वहनित्य पुँल्लिङ्ग है । इसके रूप ‘ पिता पितरौ पितर : । पितरम् पितरौ पितृन ’ इत्यादि हैं । शेष कर्तृशब्दके समान समझने चाहिये । नृ - शब्द नित्य पुँल्लिङ्ग है और उसके सभी रूप पितृ - शब्दके समान हैं । केवल षष्ठीके बहुवचनमें इसके दो रूप होते हैं ‘ नृणाम् नृणाम ’ ।
सत्य , अनायुष , अपुंस , मत , भमर , दीर्घपात , धनाढय , सोम्य , अगर्ह , तादृक , स्वर्ण , बहु - ये शब्द भी तीनों लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं ॥४६॥
सर्वं विश्वोभये चोभौ अन्यान्यतरेतराणि च ॥४७॥
डतरो डतमो नेमस्त्वत्समौ त्वसिमावपि ।
पूर्व : परावरौ चैव दक्षिणश्चोत्तराधरौ ॥४८॥
अपर : स्वोऽन्तरस्त्यत्तद्यदेवेतत्किमसावयम् ।
युष्मदस्मच्च प्रथमश्चरमोऽल्पस्तयार्धक : ॥४९॥
नेम : कतिपयो द्वे निपाता : स्वरादयस्तथा ।
उपसर्गविभक्तिस्वरप्रतिरूपाश्चाव्यया : ॥५०॥
अब सर्वनामशब्दोंको सूचित करते हैं - सर्व , विश्व , उभय , उभ , अन्य , अन्यतर , इतर , डतर , डतम , नेम , त्व , त्वत् , सम , सिम , पूर्व , पर , अवर , दक्षिण , उत्तर , अधर , अपर , स्व , अन्तर , त्यत् , तद , यद , एतद , इदम् , अदस , किम् , एक , द्वि , युष्मद , अस्मद , भवत् । ये सर्वनाम हैं और इनके रूप प्राय : सर्व - शब्दके समान ही हैं । प्रथम , चरम , तय , अल्प , अर्ध , कतिपय और नेम - इन शब्दोंके प्रथमाके बहुवचनमें दो रूप होते हैं यथा - प्रथमे प्रथमा :, चरमे चरमा : इत्यादि ।
स्वरादि और निपात तथा उपसर्ग , विभक्ति एवं स्वरके प्रतिरूपक शब्द अव्ययसंज्ञक होते हैं ॥४७ - ५०॥
तद्धिताश्चाप्यपत्यार्थे पाण्डवा : श्रैधरस्तथा ।
गार्ग्यो नाडायनात्रेयौ गाङ्गेय : पैतृष्वस्त्रीय : ॥५१॥
अब तद्धित - प्रत्ययान्त शब्दोंका उल्लेख करते हैं । निम्नाङ्कित शब्द अपत्यवाचक संज्ञाके रूपमें प्रयुक्त होते हैं । पाण्डव , श्रेधर , गार्ग्य , नाडायन , आत्रेय , गाङ्गेय , पैतृष्वस्त्रीय ॥५१॥
देवतार्थे चेदमर्थे ह्यैन्द्रं ब्राह्मो हविर्बलि : ।
क्रियायुजो : कर्मकर्त्रोर्धौरेय : कौङ्कुमं तथा ॥५२॥
निम्नाङ्कित शब्द देवतार्थक और इदमर्थक प्रत्ययसे युक्त हैं । यथा - ऐन्द्रं हवि :, ब्राह्मो बलि : । क्रियामें संयुक्त कर्म और कर्तासे ततद्धित प्रत्यय होते हैं - धुरें वहति इति धौरेय : । जो धुर अर्थात् भारको वहन करे , वह धौरेय है । यहाँ धुर शब्द कर्म है और वहन - क्रियामें संयुक्त भी है , अत : उससे ‘ एय ’ यह तद्धित प्रत्यय हुआ । आदि स्वरकी वृद्धि हुई और ‘ धौरेय ’ शब्द सिद्ध हुआ । इसी प्रकार कुङ्कुमेन रक्तं वस्त्रम् - इसमें कुङ्कुम शब्द ‘ रँगना ’ क्रियाका कर्ता है और वह उसमें संयुक्त भी है । अत : उससे तद्धित अण प्रत्यय होकर आदिपदकी वृद्धि हुई और ‘ कौङ्कुम ’ शब्द सिद्ध हुआ ॥५२॥
भवाद्यर्थे तु कानीन : क्षत्रियो वैदिक : स्वक : ।
स्वार्थे चौरस्तु तुल्यार्थे चन्द्रवन्मुखमीक्षते ॥५३॥
अब ‘ भव ’ आदि अर्थोंमें होनेवाले तद्धित प्रत्ययोंका उदाहरण देते हैं - कन्यायां भव : कानीन : । जो अविवाहिता कन्यासे उत्पन्न हुआ हो , उसे ‘ कानीन कहते हैं । क्षत्रस्यापत्यं जाति : क्षत्रिय : । क्षत्रकुलसे उत्पन्न उसी जातिका बालक ‘ क्षत्रिय ’ कहलाता है । वेदे भव : वैदिक : । इक - प्रत्यय और आदि स्वरकी वृद्धि हुई है। स्व एव स्वक : । यहाँ स्वार्थमें ‘ क ’ प्रत्यय है । चोर एव चौर :, स्वार्थमें अण् प्रत्यय हुआ है । तुल्य - अर्थमें वत् प्रत्यय होता है । यथा - चन्द्रवन्मखमीक्षते - चन्द्रमाके समान मुख देखाता है । चन्द्र + वत् = चन्द्रवत् ॥५३॥
ब्राह्मणत्वं ब्राह्मणता भावे ब्राह्मण्यमेव च ।
गोमानधनी च धनवानस्त्यर्थे प्रमितौ कियान् ॥५४॥
भाव - अर्थमें त्व , ता और य प्रत्यय होते हैं यथा - ब्राह्मणस्य भाव : ब्राह्मणत्वम् , ब्राह्मणता , ब्राह्मण्यम् । अस्त्यर्थमें मतुप् और इन प्रत्यय होते हैं - गौ : अस्यास्ति इति गोमान् । धनमस्यास्ति इति धनी ( जिसके पास गौ हौ , वह ‘ गोमान् ’ जि्सके पास धन हो , वह ‘ धनी ’ है ) । अकारान्त , मकारान्त तथा मकारोपध शब्दसे एवं झयन्त शब्दसे परे मत्के ‘ म ’ का ’ ‘ व ’ हो जाता है - यथा धनमस्यास्ति इति धनवान् । परिमाण - अर्थमें ‘ इदम् ’, ‘ किम् ’, ‘ यत् ’, ‘ तत् ’, ‘ एतत् ’- इन शब्दोंसे वतुप् प्रत्यय होता है , किंतु ‘ इदम् ’ और ‘ किम् ’ शब्दोंसे परे वतुपके वकारका ‘ इय ’ आदेश हो जाता है । दृक , दृश , वतु - ये परे हों तो इदम्के स्थानमें ‘ ई ’ तथा ‘ किम् ’ के स्थानमें ‘ कि ’ हो जाते हैं । किं परिमाणं यस्य स कियान् - यहाँ परिमाण - अर्थमें वतुप् - प्रत्यय , इयादेश तथा ‘ कि ’- भाव करनेसे कियान् बनता है । इसका अर्थ है -’ कितना ’ ॥५४॥
जातार्थे तुंदिल : श्रद्धालुरौन्नत्ये तु दन्तुर : ।
स्त्रग्वी तपस्वी मेधावी मायाव्यस्त्यर्थ एव च ॥५५॥
अब जातार्थमें होनेवाले प्रत्ययोंका उदाहरण देते हैं । तुन्द : संजात : अस्य तुन्दिल ; । जिसको तोंद हो जाय , उसे ‘ तुन्दिल ’ कहते हैं । तुन्द + इल = तुन्दिल । श्रद्धा संजाता अस्य इति श्रद्धालु : । श्रद्धा + आलु । इसी प्रकार दयालु कृपालु आदि बनते हैं । ) दाँतोंकी ऊँचाई व्यक्त करनेके लिये दन्त शब्दसे उर - प्रत्यय होता है । उन्नता : दन्ता अस्य इति दन्तुर : ( ऊँचे दाँतवाला ) । अस . माया , मेधा तथा स्त्रज् - इन शब्दोंसे अस्यर्थमें विन् प्रत्यय होता है । इनके उदाहरण क्रमसे तपस्वी , मायावी , मेधावी ( बुद्धिमान् ) और स्त्रग्वी हैं । स्रग्वीका अर्थ माला धारण करनेवाला है ॥५५॥
वाचालश्वैव वाचाटो बहुकुत्सितभाषिणि ।
ईषदपरिसमाप्तौ कल्पब्देशीय एव च ॥५६॥
खराब बातें अधिक बोलनेवालेके अर्थमें वाच् शब्दसे ‘ आल ’ और ‘ आट ’ प्रत्यय होते हैं । कुत्सितं बहु भाषते इति वाचाल :, वाचाट : । ईषत् ( अल्प ) और असमाप्तिके अर्थमें कल्पप , देश्य और देशीय प्रत्यय होते हैं ॥५६॥
कविकल्प : कविदेश्य : प्रकारवचने तथा ।
पटुजातीय : कुत्सायां वैद्यपाश : प्रशंसने ॥५७॥
वैद्यरूपो भूतपूर्वे मतो दृष्टचरो मुने ।
प्राचुर्यादिष्वन्नमयो मृन्मय : स्त्रीमयस्तथा ॥५८॥
जैसे - ईषत् , ऊन : कवि : कविकल्प :, कविदेश्य :, कविदेशीय : । जहाँ प्रकार बतलाना हो , वहाँ किम् और सर्वनाम आदि शब्दोंसे ‘ था ’ प्रत्यय होता है । तेन प्रकारेण तथा । तत् + था = तथा । त्यदादि शब्दोंका अन्तिम हल् . निवृत्त होकर वे अकारान्त हो जाते हैं , विभक्ति परे रहनेपर । ( था , दा , त्र , तस् आदि प्रत्यय विभक्तिरूप माने गये हैं ) । इस नियमके अनुसार ततके स्थानमें त हो जानेसे ‘ तथा ’ बना । जहाँ किसी विशेष प्रकारके व्यक्तिका प्रतिपादन हो , वहाँ जातीय प्रत्यय होता है । यथा - पटुप्रकार :- पटुजातीय : । पटु - शब्दसे जातीय प्रत्यय हुआ । किसीकी हीनता प्रकाशित करनेके लिये संज्ञाशब्दसे पाश प्रत्यय होता है । जैसे - कुत्सितो वैद्य : वैद्यपाश : ( खराब वैद्या ) । प्रशंसा - अर्थमें रूप प्रत्यय होता है । यथा - प्रशस्तो वैद्य : वैद्यरूप : ( उत्तम वैद्य ) । मुनिवर नारदजी ! भूतपूर्व अर्थको व्यक्त करनेके लिये चर प्रत्यय होता है । यथा - पूर्वं दृष्टो दृष्टचर : ( पहलेका देखा हुआ ) ।
प्राचुर्य ( अधिकता ) और विकारार्थ आदि व्यक्त करनेके लिये मय प्रत्यय होता है । जैसे - सन्नमयो यज्ञ : । जिसमें अधिक अन्न व्यय किया जाय , वह अन्नमय यज्ञ है । यहाँ अन्न - शब्दसे मयट प्रत्यय हुआ । इसी प्रकार मृन्मय : अश्व : ( मिट्टीका घोडा ) तथा स्त्रीमय : पुरुष : इत्यादि उदाहरण समझने चाहिये ॥५७ - ५८॥
जातार्थे लज्जितोऽत्यर्थे श्रेयाञ्छेष्ठश्च नारद ।
कृष्णतर : शुक्लतम : किम् आख्यानतोऽव्ययात् ॥५९॥
किन्तरां चैवातितरामपि ह्युच्चैस्तरामपि ।
परिमाणे जानुदघ्नं जानुद्वयसमित्यपि ॥६०॥
जात - अर्थमें तारकादि शब्दोंसे इत प्रत्यय होता है। यथा - लज्जा संजाता अस्य इति लज्जित : ( जिसके मनमें लज्जा पैदा हो , गयी हो , उसे लज्जित कहते हैं ) । नारदजी ! यदि बहुतोंमेंसे किसी एककी अधिक विशेषता बतानी हो तो तम और इष्ठ प्रत्यय होते हैं और दोमेंसे एककी विशेषता बतलानी हो तो तर और ईयसु प्रत्यय होते हैं । ईयसुमें उकार इत्संज्ञक है । अयम् एषां अतिशयेन प्रशस्य : श्रेष्ठ : ( यह इन सबमें अधिक प्रशंसनीय है , अत : श्रेष्ठ है ) । द्वयो : प्रशस्य श्रेयान् ( दोमेंसे जो एक अधिक प्रशंसनीय है , वह श्रेयान् कहलाता है । यहाँ भी प्रशस्य + ईयस = श्रेयस् ( पूर्ववत् श्र आदेश हुआ ) । इसके रूप इस प्रकार हैं - श्रेयसा श्रेयांसौ श्रेयांस : । श्रेयांसम् श्रेयांसौ श्रेयस : । श्रेयसा श्रेयोभ्याम् श्रेयोभि : इत्यादि । इसी प्रकार जो दोमेंसे एक अधिक कृष्ण है , उसे कृष्णतर और जो बहुतोंमेंसे एक अधिक शुक्ल है , उसे शुक्लतम कहते हैं। कृष्ण + तर = कृष्णतर । शुक्ल + तम = शुक्लतम । किम् , क्रियावाचक शब्द ( तिडन्त ) और अव्ययसे परे जो तम और तर प्रत्यय हैं , उनके अन्तमें आम् लग जाता है। उदाहरणके लिये किंतराम् , अतितराम् तथा उच्चैस्तराम् इत्यादि प्रयोग हैं । प्रमाण ( जल आदिके माप ) व्यक्त करनेके लिये द्वयस , दघ्र और मात्र प्रत्यय होते हैं । जानु प्रमाणम् अस्य इति जानुदघ्नं जलम् ( जो घुटनेतक आता हो , उस जलको जानुदघ्न कहते हैं ) जानु + दघ्न = जानुदघ्न । इसी प्रकार जानुद्वयसम् और जानुमात्रम् - ये प्रयोग भी होते है ॥ ५९ - ६०॥
जानुमात्रं च निद्धरि बहूनां च द्वयो : क्रमात् ।
कतम : कतर : संख्येयविशेषावधारणे ॥६१॥
द्वितीयश्च तृतीयश्च चतुर्थ : षष्ठपञ्चमौ ।
एकादश : कतिपयथ : कतिथ : कति नारद ॥६२॥
दोमेंसे एकका और बहुतोंमेंसे एकका निश्चय करनेके लिये ‘ किम् ’ ‘ यत् ’ और ‘ तत् ’ शब्दोंसे क्रमश : डतर और डतम प्रत्यय होते हैं। यथा - भवतो : करत : श्याम : ( आप दोनोंमें कौन श्याम है ? ) भवतां कतम : श्रीराम : ? ( आपलोगोंमें कौन श्रीराम हैं ? ) संख्या ( गणना ) करनेयोग्य वस्तुविशेषका निश्चय करनेके लिये द्वि - शब्दसे द्वितीय , त्रि - शब्दसे तृतीय , चतुर - शब्दसे चतुर्थ और षष - शब्दसे षष्ठ रूप बनते हैं । इनका अर्थ क्रमश : इस प्रकार है - दूसरा , तीसरा , चौथा और छठा । पञ्चन , सप्तन , अष्टन , नवन् और दशन् - इन शब्दोंके ‘ न ’ कारको मिटाकर ‘ म ’ कार बढ जाता है , जिससे पञ्चम , सप्तम , अष्टम , नवम , दशम रूप बनते हैं । एकादशन्से अष्टादशन्तक उत अर्थमें ‘ न ’ कारका लोप होकर सभी शब्द अकारान्त हो जाते है , जिनके ‘ राम ’ शब्दके समान रूप होते हैं । यथा एकादश : द्वादश : इत्यादि । नारदजी ! कति और कतिपय शब्दोंसे थ - प्रत्यय होता है , जिससे कतिथ : और कतिपयथ : पद बनते हैं ॥६१ - ६२॥
विंशश्च विंशतितमस्तथा शततमादय : ।
द्वेधा द्वैधा द्विधा संख्या प्रकारेऽथ मुनीश्वर ॥६३॥
बीसवेंके अर्थमें विंश : और विंशतितम :- ये दो रूप होते हैं । शत आदि संख्यावाचक शब्दोंसे ( तथा मास , अर्धमास एवं संवत्सर शब्दोंसे ) नित्य ‘ तम ’ प्रत्यय होता है । यथा - शततम : ( एकशततम :, मासतम :, अर्धमासतम : संवत्सरतम : ) । मुनीश्वर ! क्रियाके प्रकारका बोध करानेके लिये संख्यावाचक शब्दसे स्वार्थमें ‘ धा ’ प्रत्यय होता है - जैसे ( एकधा ) द्विधा , त्रिधा इत्यादि ॥६३॥
क्रियावृत्तौ पञ्चकृत्वो द्विस्त्रिर्बहुश इत्यपि ।
द्वितयं त्रितयं चापि संख्यायां हि द्वयं त्रयम् ॥६४॥
क्रियाकी आवृत्तिका बोध करानेके लिये कृत्वस् प्रत्यय होता है और ‘ स् ’ कारका विसर्ग हो जाता है । यथा - पञ्चकृत्व ; ( पाँच बार ), द्वि :, त्रि : ( दो बार , तीन बार ) । बहु - शब्दसे ‘ धा , शस् एवं कृत्वस् ’ तीनों ही प्रत्यय होते हैं - यथा बहुधा , बहुश ;, बहुकृत्व : । संख्याके अवयवका बोध करानेके लिये ‘ तय ’ प्रत्यय होता है । उददाहरणके लिये द्वितय , त्रितय , चतुष्टय और पञ्चतय आदि शब्द हैं । द्वि और त्रि शब्दोंसे आगे जो ‘ तय ’ प्रत्यय है , उसके स्थानमें विकल्पसे अय हो जाता है ; फिर द्वि और त्रि शब्दके इकारका लोप होनेसे द्वय , त्रय शब्द बनते हैं ॥६४॥
कुटीरश्च शमीरश्च शुण्डारोऽल्पार्थके मत : ।
स्त्रैण : पौंस्नस्तुण्डिभश्च वृन्दारककृषीवलौ ॥६५॥
कुटी , शमी और शुण्डा शब्दसे छोटेपनका बोध करानेके लिये ‘ र ’ प्रत्यय होता है। छोटी कुटीको कुटीर हैं। कुटी + र = कुटीर : । इसी प्रकार छोटी शमीको शमीर और छोटी शुण्डाको शुण्डार कहते हैं । शुण्डा - शब्द हाथीकी सूँ ड और मद्यशाला ( शराबखाने )- का बोधक है । स्त्री और पुंस शब्दोंसे नञ् प्रत्यय होता है। आदि स्वरकी वृद्धि होती है । ञकर इत्संज्ञक है। नके स्थानमें ण होता है । इस प्रकार स्त्रैण शब्द बनता है । जिस पुरुषमें स्त्रीका स्वभाव हो तथा जो स्त्रीमें अधिक आसक्त हो , उसे स्त्रैण कहते हैं । पुंस + न , आदिवृद्धि = पौंस्न ( पुरुषसम्बन्धी ) । तुण्डि आदि शब्दोंसे अस्त्यर्थमें ‘ भ ’ प्रत्यय होता है । तुण्डि + भ = तुण्डिभ : ( बढी हुई नाभिवाला ) । श्रृङ्ग और वृन्द शब्दोंसे अस्त्यर्थमें ‘ आरक ’ प्रत्यय होता है। श्रृङ्ग + आरक = श्रृङ्गरक : ( पर्वत ) । वृन्द आरक = वृन्दारक : ( देवता ) । रजस् और कृषि आदि शब्दोंसे ‘ बल ’ प्रत्यय होता है , रजस्वला स्त्री , कृषीवल : ( किसान ) ॥६५॥
मलिनो विकटो गोमी भौरिकिबिधमुत्कटम् ।
अवटीटोऽवनाटश्च निविडं चेक्षुशाकिनम् ॥६६॥
निविरीसमैषुकारिभक्तं विद्याचणस्तथा ।
विद्याचञ्चुर्बहुतिथं पर्वत : श्रृङ्गिणस्तथा ॥६७॥
स्वामी विषमं रूप्यं चोपत्यकाधित्यका तथा ।
चिल्लश्च चिपिटं चिक्कं वातूलं कुतुपस्तथा ॥६८॥
बलूलश्च हिमेलुश्च कहिकश्चोपडस्तत : ।
ऊर्णायुश्च मरुत्तश्चैकाकी चर्मण्वती तथा ॥६९॥
ज्योत्स्त्रा तमिस्त्राऽष्टीवच्च कक्षीवद्रुमण्वती ।
आसन्दीवच्च चक्रीवत्तूष्णीकां जल्पतक्यपि ॥७०॥
मल - शब्दसे अस्त्यर्थमें इन प्रत्यय होता है । मलम् अस्यास्ति इति मलिन : ( मलयुक्त ) । मल + इन अकार - लोप = मलिन । सम् , प्र , उद् और वि - इनसे कट प्रत्यय होता है , - यथा संकट :, प्रकट : , उत्कट :, विकट : । गो - शब्दसे मिन् - प्रत्यय होता है । अस्त्यर्थमें - गो + मिन् = गोमी ( जिसके पास गौएँ हों , वह पुरुष ) ज्योत्स्त्रा ( चाँदनी ), तमिस्त्रा ( अँधेरी रात ), श्रृङ्गिण , ( श्रृङ्गवाला ), ऊर्जस्विन ( ओजस्वी ), ऊर्जस्वल , गोमिन , मलिन और मलीमस ( मलिन )- ये शब्द मत्वर्थमें निपातन - सिद्ध हैं । ‘ भारिकिविधम् ’ इसकी व्युत्पत्ति यों है - भौरिकीणां विषयो देश :- भौरिकिविधम् ( भौरिकि नामवाले वर्ग - विशेषके लोगोंका देश ) । ऐषुकारीणाम् विषयो देश :- ऐषुकारिभक्तम् ( ऐषुकारि - बाण ननानेवाले लोगोंका देश ) । इन दोनों उदाहरणोंमें क्रमश : ‘ विध ’ एवं ‘ भक्त ’ प्रत्यय हुए हैं । भौरिक्यादि तथा ऐषुकार्यादि शब्दोंसे ‘ विध ’ एवं ‘ भक्त ’ प्रत्यय होनेका नियम है । उत्कटम् - इसकी सिद्धिका नियम पहले बताया गया है , नासिकाकी निचाई व्यक्त करनेके लिये ‘ अव ’ उपसर्गसे ’ ‘ टीट ’, ‘ नाट ’ और ‘ भ्रट ’ प्रत्यय होते हैं । तथा नि उपसर्गसे ‘ विड ’ और ‘ विरीस ’ प्रत्यय होते हैं । इसके सिवा ‘ नि ’ से ‘ इन ’ और ‘ पिट ’ प्रत्यय भी होते हैं । ‘ इन ’- प्रत्यय परे होनेपर ‘ नि ’ के स्थानमें चिक् आदेश हो जाता है और ‘ पिट ’ प्रत्यय परे होनेपर ‘ नि ’ के स्थानमें ‘ चि ’ आदेश होता है । मूलोक्त उदाहरण इस प्रकार हैं - अवटीट :, अवनाट : ( अवभअत : ) = नीची नाकवाला पुरुष । निविडम् ( नीची नाक ), निविरीसम् , चिकिनम् , चिपिटम् , चिक्कम् - इन सबका अर्थ नीची नाक है । जिसके आँखसे पानी आता हो उसको ‘ चिल्ल : और ‘ पिल्ल ’ कहते हैं । ल प्रत्यय है और क्लिन्न - शब्द प्रकृति है - जिसके स्थानमें चिल्ल और पिल्ल आदेश हुए हैं । पैदा करनेवाले खेतके अर्थमें पैदावार - वाचक शब्दसे शाकट और शाकिन प्रत्यय होते हैं । जैसे ‘ इक्षुशाकटम् ’ ‘ इक्षुशाकिनम् ’ । उसके द्वारा विख्यात है , इस अर्थमें चञ्चु और चण प्रत्यय होते हैं । जो विद्यासे विख्यात है , उसे ‘ विद्याचण ’ और ‘ विद्याचञ्चु ’ कहते हैं । बहु आदि शब्दोंसे ‘ तिथ ’ प्रत्यय होता है , पूरण अर्थमें । बहूनां पूरणम् इति = बहुतिथम् । श्रृङ्गिण शब्द पर्वतका वाचक है , इसे निपात - सिद्ध बताया जा चुका है । ऐश्वर्यवाचक स्व - शब्दसे आमिन् प्रत्यय होता है - स्व आमिन् = स्वामी ( अधीश्वर या मालिक ) । ‘ रूप ’ शब्दसे आहत और प्रशंसा अर्थमें ‘ य ’ प्रत्यय होता है । यथा विषमम् , आहतं वा रूपमस्यास्तीति - रूप्य : कार्षापण : ( खराब पैसा ), रूप्यम् आभूषणम् ( खराब आभूषण ) इत्यादि । ‘ उप ’ और ‘ अधि ’ से त्यक प्रत्यय होता है , क्रमश : समीप एवं ऊँचाईकी भूमिका बोधक होनेपर । पर्वतके पासकी भूमिको ‘ उपत्यका ’ ( तराई ) कहते हैं और पर्वतके ऊपरकी ( ऊँची ) भूमिको ‘ अधित्यका ’ कहते हैं । ‘ वात ’ शब्दसे ‘ ऊल ’ प्रत्यय होता है , असहन एवं समूहके अर्थमें । वातं न सहते वातूल : । जो हवा न सह सके , वह ‘ वातूल ’ है । वात + ऊल , अलोप = वातूल : । वातके समूह ( आँधी )- को भी ‘ वातूल ’ कहते हैं । ‘ कुतू ’ शब्दसे ‘ डुप ’ प्रत्यय होता है , डकार इत्संज्ञक , टिलोप । ह्नस्वा कुतू : कुतुप : ( चमडेका तैलपात्र - कुप्पी ) । बलं न सहते ( बल नहीं सहता )- इस अर्थमें बल - शब्दसे ‘ ऊल ’- प्रत्यय होता है । बल + ऊल = बलूल : । हिमं न सहते ( हिमकी नहीं सहता ) इस अर्थमें हिमसे एलु प्रत्यय होता है । हिम + एलु = हिमेलु : । अनुकम्पा - अर्थमें मनुष्यके नामवाचक शब्दसे ‘ इक ’ एवं ‘ अड ’ आदि प्रत्यय होते हैं तथा स्वरादि प्रत्यय परे रहनेपर पूर्ववर्ती शब्दके द्वितीय स्वरसे आगेके सभी अक्षर लुप्त हो जाते हैं । यदि द्वितीय स्वर सन्धि - अक्षर लुप्त हो जाते हैं । यदि द्वितीय स्वर सन्धि - अक्षर हो तो उसका भी लोप हो जाता है । इन सब नियमोंके अनुसार ये दो उदहारण हैं - अनुकम्पित : कहोड : = कहिक : । अनुकम्पित : उपेन्द्रदत्त : = उपड : । ‘ ऊर्णायु :’ का अर्थ है उनवाला जीव ( भेड आदि ) अथवा ऊनी कम्बल आदि । ‘ ऊर्णा ’ से युस् प्रत्यय होकर ‘ ऊर्णायु :’ बना है । पर्व और मरुत् शब्दोंसे त प्रत्यय होता है । पर्व + त + पर्वत : ( पहाड ) । मरुत् + त = मरुत्त : ( मरुआ नामक पौधा अथवा महाराज मरुत्त ) । एक शब्दसे असहाय - अर्थमें आकिन् , कन् और उसका लुक् , ये तीनों कार्य बारी - बारीसे होते हैं । एक + आकिन् = एकाकी । एक + क = एकक : । कन्का लोप होनेपर एक : । इन सबका अर्थ - अकेला , असहाय है । चर्मण्वती एक नदीका नाम है । ( इसमें चर्मन् शब्दसे मतुप् , मकारका वकारादेश , नलोपका अभाव और णत्व आदि कार्य निपातसिद्ध हैं । स्त्रीलिङ्गबोधक डीप् प्रत्यय हुआ है ) । ‘ ज्योत्स्नां और ‘ तमिस्त्रा ’ निपात - सिद्ध हैं , यह बात गोमीके प्रसङ्गमें कही गयी है । इसी प्रकार अष्ठीवत् , कक्षीवत् , रुमण्वत , आसन्दीवत तथा चक्रीवत् - ये शब्द भी निपात - सिद्ध हैं । यथा - आसन्दीवान् ग्राम :, अष्ठीवान् नाम ऋषि : चक्रीवान् नाम राजा , कक्षीवान् नाम ऋषि : रुमण्वान् नाम पर्वत : । तूष्णीं शब्दसे काम् प्रत्यय होता है , अकच्के प्रकरणमें । तूष्णीकाम् आस्ते ( चुप बैठता है ) । मित् कार्य अन्तिम स्वरके बाद होता है । तिङ्न्त , अव्यय और सर्वनामसे ‘ टि ’ के पहले अकच् होता है , चकार इत्संज्ञक है । इस नियमके अनुसार ‘ जल्पति ’ इस तिडन्त पदके इकारसे पहले अकच् होनेसे ‘ जल्पतकि ’ ( बोलता है ) रूप बनता है ॥६६ - ७०॥
कंव : कम्भश्च कंयुश्च कन्ति : कन्तुस्तथैव च।
कन्त : कंयश्च शंवश्च शम्भ : शंयुस्तथा पुन : ॥७१॥
शन्ति : शन्तु : शन्तशंयौ तथाहंयु : शुभंयुवत्।
कम् और शम् - ये मकारान्त अव्यय हैं । कम्का अर्थ जल और सुख है , शम्का अर्थ सुख है । इन दोनोंसे सात प्रत्यय होते हैं - व , भ , युस् , ति , तु , त और यस् । युस् और यस्का सकार इत्संज्ञक है । इन सबके उदाहरण क्रमश : इस प्रकार हैं - कंव :, कम्भ :, कंयु :, कन्ति :, कन्तु :, कन्त :, कंय : । शंव :, शंभ :, शंयु :, शन्ति :, शन्तु :, शान्त :, शंय : । अहम् - यह मकारान्त अव्यय अहंकारके अर्थमें प्रयुक्त होता है और शुभम् - यह मकारान्त अव्यय शुभ - अर्थमें है । इनसे ‘ युस् ’- प्रत्यय होता है , सकार इत्संज्ञक है। अहम् + यु = अहंयु : ( अहंकारवान् ), शुभम् + यु = शुभंयु : ( शुभयुक्त पुरुष ) ॥७१॥
भवति बभूवभविताभविष्यतिभवत्वभवद्भवेच्चापि ॥७२॥
भूयादभूदभविष्यल्लादावेतानि रूपाणि ।
अत्ति जघासात्तात्स्यत्यत्त्वाददद्याद्द्विरघसदात्स्यत् ॥७३॥
( अब तिडन्तप्रकरण प्रारम्भ करके कुछ धातुओंके रूपोंका दिग्दर्शन कराते हैं । वैयाकरणोंने दस प्रकारके धातु - समुदाय माने हैं , उन्हें ‘ नवगणी या दसगणी ’ के नामसे जाना जाता जाता है । उनके नाम हैं - भ्वादि , अदादि , जुहोत्यादि , दिवादि , स्वादि , तुदादि , रुधादि , तनादि , क्र्यादि तथा चुरादि । भ्वादिगणके सभी धातुओंके रूप प्राय : एक प्रकार एवं एक शैलीके होते हैं . दूसरे - दूसरे गणोंके धातु भी अपने - अपने ढंगमें एक ही तरहके होते हैं । यहाँ सभी गणोंके एक - एक धातुके नौ लकारोंमें एक - एक रूप दिया जाता है । शेष धातु और उनके रूपोंका ज्ञान विद्वान् गुरुसे प्राप्त करना चाहिये ) । ‘ भू ’ धातुके लट लकारमें ‘ भवति भवत : भवन्ति " इत्यादि रूप बनते हैं । लिट लकारमें ‘ बभूव बभूवतु : बभूवु :’ इत्यादि , लुटमें ‘ भविता भवितारौ भवितार :’ इत्यादि , लृटमें ‘ भविष्यति भविष्यत : भविष्यन्ति ’ इत्यादि , लोटमें ‘ भवतु भवतात् भवताद भवताम भवन्तु इत्यादि , लडलकारमें ‘ अभवत् भवेताम् भवेयु :’ इत्यादि , आशिष , लिडमें भॄयात् ‘ भूयास्ताम् भूयासु :’ इत्यादि लुङमें ‘ अभूत अभूताम् अभूवन् ’ इत्यादि तथा लृङ लकारमें ‘ अभविष्यत् अभविष्यताम् अभविष्यन् ’ इत्यादि - ये सब रूप होते हैं । ‘ भू ’ धातुका अर्थ सत्ता है , ‘ भवति ’ का अर्थ ‘ होता है ’- ऐसा किया जाता है । अब अदादि गणके ‘ अद ’ धातुका पूर्ववत् प्रत्येक लकारमें एक - एक रूप दिया जाता है , ‘ अद् ’ धातु भक्षण अर्थमें प्रयुक्त होता है । अत्ति । जघास । अत्ता । अत्स्यति। अत्तु । आदत् । अद्यात् । अघसत् । आत्स्यत् ॥७२ - ७३॥
जुहोति जुहाव जुहवाञ्चकार होता होष्यति जुहोतु ।
अजुहोज्जुहुयाद्धूयादहौषीदहोष्यद्दीव्यति ।
दिदेवदेवितादेविष्यतिदीव्यतुचादीव्यद्दीव्येद्दीव्याद्वै ॥७४॥
अदेवीददेविष्यत्सुनोति सुषाव सोता सोष्यति वै ।
सुनोत्वसुनोत्सुनुयात्सूयादसावीदसोष्यत्तुदतिच ॥७५॥
तुतोद तोत्ता तोत्स्यति तुदत्वतुदतुदेत्तुद्याद्धि ।
अतौत्सीदतोत्स्यदिति च रुणद्धि रुरोध रोद्धा रोत्स्यतिवै ॥७६॥
रुणद्ध्वरुणद्रुन्ध्याद्रुध्यादरौत्सीदरोत्स्यच्च ।
तनोति ततान तनिता तनिष्यति तनोत्वतनोत्तनुयाद्धि ॥७७॥
तन्यादतनीच्चातानीदतनिष्यत् क्रीणाति चिक्राय क्रेता क्रेष्यति क्रीणात्त्विति च । अक्रीणात् क्रीणीयात् । क्रीयादक्रैषीदक्रेष्यच्चोरयति चोरयामास चोरयिता चोरयिष्यति चोरयत्वचोरयच्चोरयेच्चोर्यादचूचुरदचोरयिष्यदित्येवं दश वै गणा : ॥७८॥
जुहोत्यादि गणमें ‘ हु ’ धातु धातु प्रधान है । इसका प्रयोग अग्निमें आहुति डालनेके अर्थमें या देवताको तृप्त करनेके अर्थमें होता है । इसका प्रत्येक लकारमें रूप इस प्रकार है - जुहोति । जुहाव , जुहवाञ्चकार , जुहवम्नभूव , जुहवामास । होता । होष्यति । जुहोतु । अजुहोत् । जुहुयात् । हूयात् । अहौषीत् । अहोष्यत । दिवादि गणमें ‘ दिव ’ धातु प्रधान है । इसके अनेक अर्थ हैं - क्रीडा , विजयकी इच्छा , व्यवहारा , द्युति , स्तुति , मोद , मद , स्वप्न , कान्ति और गति । इसके रूप पूर्ववत् विभिन्न लकारोंमें इस प्रकार हैं - दीव्यति । दिदेव । देविता । देविष्यति । दीव्यतु । अदीव्यत् । दीव्येत् । दीव्यात् । अदेवीत् । अदेविष्यत् । स्वादिगणमें ‘ सु ’ धातु प्रधान है । यह मूलत : ‘ षुञ ’ धातुके नामसे प्रसिद्ध है । इसका अर्थ है अभिषव अर्थात् नहलाना , रस निचोडना , नहाना एवं सोमरस निकालना । रूप इस प्रकार हैं - सुनोति । सुषाव । सोता । सोष्यति । सुनोतु । असुनोत् । सुनुयात् । सूयात् । असावीत । असोष्यत् । ये परस्मैपदके रूप हैं ; आत्मनेपदमें सुनुते , ‘ सुषुवे ’ इत्यादि रूप होते हैं । तुदादिगणमें ‘ तुद् ’ धातु प्रधान है , जिसका अर्थ है पीडा देना । रूप इस प्रकार हैं - तुदति । तुतोद । तोत्ता । तोत्स्यति । तुदतु । अतुदत् । तुदेत । तुद्यात् । अतौत्सीत् । अतोत्स्यत् । रुधादिगणमें ‘ रुध् ’ धातु प्रधान है , जिसका अर्थ है - रूँधना , बाड लगाना , घेरा डालना या रोकना । रूप इस प्रकार हैं - रुणद्धि।रुरोध : रोद्धा । रोत्स्यति। रुणद्ध । अरुणत् । रुन्ध्यात् । रुद्धयात् । अरौत्सीत् । अरोत्स्यत । तनादिगणमें ‘ तन् ’ धातु प्रधान है । इसका अर्थ है विस्तार करना , फैलाना : रूप इस प्रकार हैं - तनोति । ततान । तनिता । तनिष्यति । तनोतु । अतनोत् । तनुयात् । तन्यात् । अतनीत् , अतानीत । अतनिष्यत् । क्र्यादिमें क्री - धातु प्रधान है - जिसका अर्थ है खरीदना , एक द्रव्य देकर दूसरा द्रव्य लेना । रूप इस प्रकार हैं - क्रीणाति । चिक्राय । क्रेता । क्रेष्यति । क्रीणातु । अक्रीणात् । क्रीणीयात् । क्रीयात् । अक्रैषीत् । अक्रेष्यत् । चुरादिगणमें ‘ चुर् ’ धातु प्रधान है . जिसका अर्थ है चुराना : रूप इस प्रकार है - चोरयति । चोरयामास , चोरयाञ्चकार , चोरयाम्बभूव । चोरयिता । चोरयिष्यति । चोरयत् । अचोरयत् । चोरयेत् । चोर्यात् । अचूचुरत् । अचोरयिष्यत् । इस प्रकार ये धातुओंके दस गुण माने गये हैं ॥७४ - ७८॥
प्रयोजके भावयति सनीच्छायां बुभूषति ।
क्रियासमभिहारे तु पण्डितो बोभूयते मुने ॥७९॥
प्रयोजकके व्यापारमें प्रत्येक धातुसे णिच् प्रत्यय होता है । ‘ च ’ कार और ‘ ण ’ कार इत्संज्ञक हैं । णिच् प्रत्यय परे रहनेपर स्वरान्त अङ्गकी वृद्धि होती है । भू से णिच् करनेपर भू + इ बना ; फिर वृद्धि और आव् आदेश करनेपर भावि बना , उससे धातुसम्बन्धी अन्य कार्य करनेपर भावयति रूप बनता है । जो कर्ताको प्रेरणा दे , उसे प्रयोजक कहते हैं । जैसे - ‘ चैत्र : पण्डितो भवति ’ ( चैत्र पण्डित होता है ), ‘ त मैत्र : अध्यापनादिना प्रेरयति ’ ( उसे मैत्र पढाने आदिके द्वारा पण्डित होनेमें प्रेरणा देता है ) । इस वाक्यमें चैत्र प्रयोज्य कर्ता है और मैत्र प्रयोजक कर्ता है । इस प्रयोजकके व्यापारमें ही णिच् प्रत्यय होता है ; इसलिये उसीके अनुसार प्रथम , मध्यम आदि पुरुषकी व्यवस्था एवं क्रिया होती है । प्रयोज्य कर्ता प्रयोजकके व्यापारमें कर्म बन जाता है , इसलिये उसमें द्वितीया विभक्ति होती है और प्रयोजक कर्तामें प्रथमा विभक्ति । यथा - ‘ मत्र : चैत्रं पण्डितं भावयति ’ ( मैत्र चैत्रको पण्डित बनानेमें योग देता है ) । इसी प्रकार अन्य धातुओंसे भी प्रेरणार्थक प्रत्यय होता है । यथा - ‘ छात्र : पठति , गुरु : प्रेरयति इति गुरु : छात्रं पाठयति ’ ( छात्र पढता है , गुरु उसे प्रेरित करता है ; इसलिये गुरु छात्रको पढाता है ) ।
इच्छा - अर्थमें ‘ सन् ’ प्रत्यय होता है ‘ भवितुम् इच्छति बुभूषति : ( होनेकी इच्छा करता है ) । इसी प्रकार पठ , गम् , आदि धातुओंसे भी इच्छा - अर्थमें पिपठिषति ( पढनेकी इच्छा करता है ), जिगमिषति ( जाना चाहता है )- इत्यादि सन्नन्त रूप होते हैं । मुने ! क्रिया - समभिहारमें एक स्वरवाले हलादि धातुसे ‘ यङ ’ प्रत्यय होता है , इस नियमके अनुसार भू - धातुसे यङ्प्रत्यय होनेपर धातुका द्वित्व होता है ; क्योंकि सन् और यङ परे रहनेपर धातुके द्वित्व होने ( एकसे दो हो जाने )- का नियम है । फिर धातु - प्रत्ययसम्बन्धी अन्य कार्य करनेपर बोभूयते रूप बनता है। यथा -‘ देवदत्त " पण्डितो बोभूयते ’ ( देवदत्त बडा भारी पण्डित हो रहा है ) । ‘ बार - बार ’ या ‘ अधिक ’ अर्थका बोध कराना ही क्रियासमभिहार कहलाता है । इस तरहके प्रयोग्को यङन्त कहते हैं । पठ और गम् आदि धातुओंसे यङ - प्रत्यय करनेपर पापठयते , ( बार - बार या बहुत पढता है ) । जङ्गम्यते ( बार - बार या बहुत जाता है ) इत्यादि रूप होते हैं ॥७९॥
तथा यङ्लुकि विप्रेन्द्र बोभवीति च पठयेत ।
पुत्रीयतीत्यात्मनीच्छायां तथाचारेऽपि नारद ।
अनुदात्तङितो धातो : क्रियाविनिमये तथा ॥८०॥
यङ - प्रत्ययक लुक् ( लोप होना ) भी देखा जाता है । उस दशामें बोभवीति , बोभोति , पापठीति और जङ्गमीति इत्यादि रूप होते हैं । इन रूपोंको यङ्लुगन्त रूप कहते हैं । अर्थ यङन्तके ही समान होते हैं । ‘ आत्मन : पुत्रम् इच्छति " ( अपने लिये पुत्र चाहता है ) । इस वाक्यसे पुत्रकी इच्छा व्यक्त होती है । ऐसे स्थलोंमें इच्छा - क्रियाके कर्मभूत शाब्दसे क्यच् - प्रत्यय होता है । ककार और चकारकी इत्संज्ञा होती है । उपर्युक्त उदाहरणमें पुत्र - शब्दसे क्यच् - प्रत्यय करनेपर पु + य इस अवस्थामे पुत्रमें ‘ त्र ’ के अकारका इ हो जाता है , फिर ‘ पुत्रीय ’ की धातुसंज्ञा करके तिडन्तके समान रूप चलते हैं । इस प्रकार ‘ पुत्रीयति ’ इत्यादि रूप होते हैं । ‘ पुत्रीयति ‘ का अर्थ है - अपने लिये पुत्र चाहता है । ऐसे प्रयोगको नामधातु कहते हैं । नारदजी ! कर्मभूत उपमानवाचक शब्दसे आचार - अर्थमें भी क्यच् होता है । यथा -‘ पुत्रमिवाचरति पुत्रीयति छात्रम् ’ ( गुरुजी छात्रके साथ पुत्रका - सा बर्ताव करते हैं ) ।
अब आत्मनेपदका प्रकारण आरम्भ करते हैं । जिस धातुमें अनुदात्त स्वर और डकारकी इत्संज्ञा होती है . उससे आत्मनेपदके प्रत्यय होते हैं । यथा - एधते , वर्धते इत्यादि । ये अनुदात्तेत हैं। त्रैड पालने - यह डित धातुहै , इसके केवल आत्मनेपदमें ‘ त्रायते ’ इत्यादि रूप होते हैं । जहाँ क्रियाका विनिमय व्यक्त होता हो , वहाँ भी आत्मनेपद होता है । यथा - व्यतिलुनीते ( दूसरेके योग्य लवनरूप कार्य दूसरा करता है ) ॥८०॥
निविशादेस्तथा विप्र विजानीह्यात्मनेपदम्।
परस्मैपदमाख्यातं शेषात् कर्तरि शाब्दिकै : ॥८१॥
विप्रव ! निपूर्वक ‘ विश् ’ एवं वि और परापूर्वक ‘ ज ’ इत्यादि धातुओंसे भी आत्मनेपद ही जानो । यथा - निविशते , विजयते , पराजयते इत्यादि । भाव और कर्ममें प्रत्यय होनेपर भी आत्मनेपर ही होता है । आत्मनेपदके जितने निमित्त हैं , उन्हें छोडकर शेष धातुओंसे कर्तामें परस्मैपद होता है - ऐसा वैयाकरणोंका कथन है ॥८१॥
ञित्स्वरितेतश्च उभे यक्च स्याद्भावकर्मणो : ।
जिन धातुओंमें ‘ स्वरित ’ और ‘ ञ ’ की इत्संज्ञा हुई हो , उनसे परस्मैपद और अत्मनेपद दोनों होते हैं । यथा -‘ खनति , खनते । श्रयति , श्रयते ’ इत्यादि ।
( अब भाव - कर्म - प्रकरण आरम्भ करते हैं - ) भाव और कर्ममें धातुसे यक प्रत्यय होता है । भावमें प्रत्यय होनेपर क्रियामें केवल औत्सर्गिक एकवचन होता है और सदा प्रथम पुरुषके ही एकवचनका रूप लिया जाता है । उस दशामें कर्ता तृतीयान्त होता है। भू धातुसे भावमें प्रत्यय करनेपर ‘ भूयते ’ रूप होता है । वाक्यमें उसका प्रयोग इस प्रकार है -‘ त्वया मया अन्यैश्च भूयते । ’ सकर्मक धातुसे कर्ममें प्रत्यय होनेपर कर्म उक्त हो जाता है . अत : उसमें प्रथमा विभक्ति होती है और अनुक्त कर्तामें तृतीया विभक्तिका प्रयोग होता है । कर्ताके अनुसार ही क्रियामें पुरुष और वचनकी व्यवस्था होती है । यथा -‘ चैत्र : आनन्दमनुभवति इति कर्मणि प्रत्यये चैत्रेणानन्दोऽनुभूयते ’, ( चैत्रसे आनन्दका अनुभव किया जाता या आनन्द भोगा जाता है ) चैत्रस्त्वामनुभवति , ( चैत्रेण त्वमनुभूयसे , चैत्रसे तुम अनुभव किये जाते हो ) चैत्रो मामनुभवति , चैत्रेणाहमनुभूये ’ ( चैत्रसे मैं अनुभव किया जाता हूँ ) इत्यादि उदाहरण भाव - कर्मके हैं ।
सौकर्यातिशयं चैव यदा द्योतयितुं मुने ॥८२॥
विबक्ष्यते न व्यापारो लक्ष्ये कर्तुस्तदापरे ।
लभन्ते कर्तृतां पश्य पच्यते ह्योदन : स्वयम् ॥८३॥
साध्वसिश्छिनत्त्येवं स्थाली पचति वै मुने ।
धातो : सकर्मकात् कर्तृकर्मणोरपि प्रत्यया : ॥८४॥
मुने ! जब अतिशय सौकर्य प्रकाशित करनेके लिये लक्ष्यमें कर्ताके व्यापारकी विवक्षा नहीं रह जाती , तब कर्म और करण आदि दूसरे कारक ही कर्तृभावको प्राप्त होते हैं। यथा -‘ चैत्रौ वह्निना स्थाल्यामोदनं पचति ’ ( चैत्र आगसे बटलोईमें भात पकाता है )- इस वाक्यमें जब चैत्रके कर्तृत्वकी विवक्षा न रहे और करण आदिके कर्तृत्वकी विवक्षा हो जाय तो वे ही कर्ता हो जाते हैं और तदनुकूल क्रिया होती है । यथा -‘ वह्नि : पचति ’ ( आग पकाती है ) । यहाँ करण ही कर्तारूपमें प्रयुक्त हुआ है । ‘ स्थाली पचति ’ ( बटलोई पकाती है )- यहाँ अधिकरण ही कर्ताके रूपमें प्रयुक्त हुआ है । ‘ ओदन : स्वयं पच्यते ’ ( भात स्वयं पकता है )- यहाँ कर्म ही कर्तारूपमें प्रयुक्त हुआ है । जब कर्म ही कर्तारूपमें प्रयुक्त हो तो कर्तामें लकार होता है ; परंतु कर्मवद्भाव होनेसे यक् और आत्मनेपद आदि ही होते हैं । अत : ‘ पचति ’ न होकर ‘ पच्यते ’ रूप होता है। ऐसे प्रयोगको कर्म - कर्तृप्रकरणके अन्तर्गत मानते हैं । दूसरा उदाहरण इस प्रकार है - ‘ असिना साधु छिनत्ति ’ ( तलवारसे अच्छी तरह काटता है )- इस वाक्यमें उपर्युक्त नियमानुसार करणमें कर्तृत्वकी विवक्षा होनेपर ऐसा वाक्य बनेगा - ‘ साधु असिश्छिनत्ति ’ ( तलवार अच्छा काटती है ) । मुने ! सकर्मक धातु भी कर्मकर्तृमें अकर्मक हो जाता है , अत : उससे भाव तथा कर्तामें भी लकार होता है । यथा भावे - पच्यते ओदनेन । कर्तरि - पच्यते ओदन : । सम्प्रदान और सपादान करकोंमें कर्तृत्वकी विवक्षा कभी नहीं की जाती , क्योंकि यह अनुभवके विरुद्ध है । सामान्य स्थितिमें सकर्मक धातुसे ‘ कर्ता ’ और ‘ कर्म ’ में प्रत्यय होते हैं ॥८२ - ८४॥
तस्माद् वाकर्मकाद्विप्र भावे कर्तरि कीर्तिता : ।
फलव्यापारयोरेकनिष्ठतायामकर्मक : ॥८५॥
धतुस्तयोर्धर्मिभेदे सकर्मक उदाह्रत : ।
गौणे कर्मणि दुह्यादे : प्रधाने नीह्रकृष्वहाम् ॥८६॥
बृद्धिभक्षार्थयो : शब्दकर्मकाणां निजेच्छया ।
प्रयोज्यकर्मण्यन्येषां ण्यन्तानां लादयो मता : ॥८७॥
विप्रवर ! वही धातु यदि अकर्मक हो तो उससे ‘ भाव ’ और ‘ कर्ता ’ में प्रत्यय कहे गये हैं ।
सभी धातुओंके फल और व्यापार - ये दो अर्थ हैं । ये दोनों जहाँ एकमात्र कर्तामें ही मौजूद हों , उन धातुओंको अकर्मक कहते हैं । जैसे - भू - धातुका अर्थ सत्ता है । सत्ताका तात्पर्य है - आत्मधारणानुकूल व्यापार । इसमें आत्मधारणरूप फल और तदनुकूल व्यापार दोनों केवल कर्तामें ही स्थित हैं : अत : भू - धातु अकर्मक है ।
जहाँ फल और व्यापार दोनों भिन्न - भिन्न धर्मोंमें स्थित हों , वहाँ धातुको सकर्मक माना गया है । जैसे -‘ पच् ’ धातुका अर्थ हैं - विक्लित्त्यनुकूल व्यापार ( चावल आदिको गलानेके अनुरूप प्रयत्न ) । इसमें विक्लित्ति ( गलना ) यह फल है , जो चावलमें होता है और इसके अनुकूल जो चूल्हेंमें आग जलाने आदिका व्यापार है , वह कर्तामें है ; अत : ‘ पच् ’ धातु सकर्मक हुआ है । ‘ दुह ’ आदि धातुओंके दो कर्म होते हैं । यथा -‘ गां दोग्धि पय :’ ( गायसे दूध दुहता है ) - इसमें गाय गौण कर्म है और दूध प्रधान कर्म । दुह आदि धातुओंके गौण कर्ममें ही प्रत्यय होता है । यथा - ‘ गौर्दुह्यते पय :, बलिर्याच्यते वसुधाम् ’ इत्यादि । नी , ह , कृष् और वह - इन चार धातुओंके प्रधान कर्ममें प्रत्यय होता है । यथा - ‘ अजां ग्रामं नयति ’- इस वाक्यमें अजा प्रधान कर्म और ग्राम गौण कर्म है । प्रधान कर्ममें प्रत्यय होनेपर वाक्यका स्वरूप इस प्रकार होगा - ‘ अजा ग्रामं नीयते । ’ ज्ञानार्थक और भक्षणार्थक धातुओंके एवं शब्दकर्मक धातुओंके ण्यन्त होनेपर उनसे प्रधान या अप्रधान किसी भी कर्ममें अपनी इच्छाके अनुसार प्रत्यय कर सकते हैं । यथा - ‘ बोध्यए माणवकं धर्म :, माणवको धर्मम् इति वा । ’ अन्य गत्यर्थक एवं अकर्मक धातुओंके ण्यन्त होनेपर उनके प्रयोज्य कर्ममें लकार आदि प्रत्यय माने गये हैं। यथा - ‘ मासमास्यते माणवक :’ ॥८५ - ८७॥
फलव्यापारयोर्धातुराश्रये तु तिड : स्मृता : ।
फले प्रधानं व्यापारस्तिङर्थस्तु विशेषणम् ॥८८॥
धातु फल और व्यापाररूप अर्थोंका बोधक होता है । जैसे - भू - धातु आत्मधारणरूप फल और तदनुकूल व्यापारका बोधक है । फल और व्यापार दोनोंका जो आश्रय है , उसमें अर्थात् कर्ता एवं कर्ममें ( तथा भावमें भी ) तिङ - प्रत्यय होते हैं , फलमें व्यापारकी ही प्रधानता है , तिडर्थरूप जो फल है वह उस व्यापारका विशेषण होता है । जैसे -‘ पचति ’- इस क्रियाद्वारा चावल आदिके गलनेका प्रतिपादन होता है । यहाँ विक्लित्तिरूप फलके अनुकूल जो अग्निप्रज्वालन और फूत्कारादि व्यापार हैं , उनके आश्रयभूत कर्तामें प्रत्यय हुआ है । ‘ ओदन : पच्यते ’ इत्यादिमें फलाश्रयभूत कर्ममें तिङ प्रात्यय होनेके कारण ओदनमें प्रथमा विभक्ति है ॥८८॥
एधितव्यमेधनीयमिति कृत्ये निदर्शनम् ।
भावे कर्मणि कृत्या : स्यु : कृत : कर्तरिकीर्तिता : ॥८९॥
कर्ता कारक इत्याद्या भूते भूतादि कीर्तितम् ।
गम्यादि गम्ये निर्दिष्टं शेषमद्यतने मतम् ॥९०॥
( अब कृदन्त - प्रकरण प्रारम्भ करते हैं - कृत् - प्रत्यय जिसके अन्तमें हो , वह कृदन्त है। ण्वुल तृच् , अच् आदि प्रत्यय ‘ कृत् ’ कहलाते हैं। कृत् - प्रत्ययोंमेंसे जो कृत्य , क्त और खलर्थ प्रत्यय हैं , व केवल भाव और कर्ममें ही होते हैं । तव्यत् , तव्य , अनीयर , केलिमर आदि प्रत्यय कृत्य कहलाते हैं । घञ् आदि प्रत्यय भाव , करण और अधिकरणमें होते हैं । सामान्या : कृत् - प्रत्यय ‘ कर्ता ’ मेम प्रयुक्त होते हैं । यहाँ पहले कृत्य प्रत्ययोंके उदाहरण देते हैं - ) एधितव्यम् और एधनीयम - ये कृत्य प्रत्ययके उदाहरण हैं । ‘ कृत्य ’ भाव और कर्ममें तथा ‘ कृत ’ कर्तामें बताये गये हैं । ‘ त्वया मया अन्यैश्च एधितव्यम् ’ यहाँ भावमें तव्य और अनीयर प्रत्यय हुए हैं । कर्ममें प्रत्ययका उदाहरण इस प्रकार समझना चाहिये । ‘ छात्रेण पुस्तकं पठनीयम् ’ ‘ ग्रन्थ : पठितव्य :’ इत्यादि कर्ममें प्रत्यय होनेसे कर्तामें तृतीया विभक्ति और कर्ममें प्रथमा विभक्ति हुई है। कर्ता , कारक : इत्यादि ‘ कृत् ’ प्रत्ययके उदाहरण हैं। यथा - ‘ राम : कर्ता ’ ‘ ब्रह्मा कारक :’ यहाँ कर्तामें ‘ तृच ’ और ‘ ण्वुल ’ प्रत्यय हुए हैं । ‘ वु ’ के स्थानमें अक् आदेश होता है । णू ल् च आदिकी इत्संज्ञा होती है । ‘ क ’ और ‘ क्तवतु ’ ये प्रत्यय भूतकालमें होते हैं । यथा - ‘ भूत : भूतवान् ’ इत्यादि ; और ‘ गम्य ’ आदि शब्द भविष्यत् अर्थमें निर्दिष्ट हुए हैं । शेष शब्द वर्ममान कालमें प्रयुक्त होने योग्य माने गये हैं ॥८९ - ९०॥
अधिस्त्रीत्यव्ययीभावे यथाशक्तिच कीर्तितम् ।
रामाश्रितस्तत्पुरुषे धान्यार्थो यूपदारु च ॥९१॥
व्याघ्रभी राजपुरुषोऽक्षशौण्डो द्वुगुरुच्यते ।
पञ्चगवं दशग्रामी त्रिफलेति तु रूढित : ॥९२॥
( अब समासका प्रकरण आरम्भ करते हैं )- समास चार प्रकारके माने गये हैं - अव्ययीभाव , तत्पुरुष , बहुव्रीहि और द्वन्द्व । ‘ तत्पुरुष ’ का एक विशष्ट भेद ‘ कर्मधारय ’ और कर्मधारयका एक विशिष्ट भेद ‘ द्विगु ’ है । भूतपूर्व : इत्यादि स्थलोंमें ओ समास है , उसका कोई नाम नहीं निर्देश किया जा सकता । अत : उसे केवल समासमात्र जानना चाहिये जिसमें प्रथम पद अव्यय हो वहस समास अव्ययीभाव होता है । अथवा अव्ययीभावके अधिकारमें जो समासविधायक वचन हैं , उनके अनुसार जहाँ समास हुआ है , वह अव्ययीभाव समास है । अव्ययीभाव अव्ययसंज्ञक होता है । अत : सभी विभक्तियोंमें उसका समान रूप है । अकारान्त अव्यय़ीभावमें विभक्तियोंका ‘ अम् ’ आदेश हो जाता हैं , परंतु पञ्चमी विभक्तिको छोडकर ऐसा होता है । तृतीया और सप्तमीमें भी अम्भाव वैकल्पि्क है । यथा अपदिशम् अपदिशे इत्यादि । अधिस्त्रि और यथाशक्ति आदि पद अव्यय़ीभाव समासके अन्तर्गत बताये गये हैं । द्वितीयान्तसे लेकर सप्तम्यन्त तकके पद सुबन्तके साथ समस्त होते हैं और वह समास तत्पुरुष होता है । तत्पुरुषके उदाहण इस प्रकार हैं - रामम् + आश्रित : = रामाश्रित : । धान्येन अर्थ : = धान्यार्थ : यूपाय + दारु = युपदारु । व्याघ्रात भी : = व्याघ्रभी : राज्ञ : + पुरुष : = राजपुरुष : । अक्षेषु शौण्ड : = अक्षशौण्ड : इत्यादि । जिसमें संख्यावाचक शब्द पूर्वमें हो , वह ‘ द्विगु ’ कहा गया है । ‘ पञ्चानां गवां समाहार : पञ्चगवम् । ’ दशानां ग्रामाणां समाहार : दशग्रामी ( यहाँ स्त्रीलिङ्गसूचक ‘ डिप् ’ प्रत्यय हुआ है ) । ‘ त्रयाणां फलानां समाहार : त्रिफलां ( इसमें स्त्रीत्वसूचक ‘ टाप् ’ प्रत्यय हुआ है ) । त्रिफला - शब्द आँवले , हर्रे और बहेडेके लिये रूढ ( प्रसिद्ध ) है ॥९१ - ९२॥
नीलोत्पलं महाषष्ठी तुल्यार्थे कर्मधारय़ : ।
अब्राह्मणो नञि प्रोक्त : कुम्भकारादिक : कृत : ॥९३॥
समानाधिकरण तत्पुरुषकी ‘ कर्मधारय ’ संज्ञा होती है । उसके दोनों पर प्राय : विशेष्य - विशेषण होते हैं । विशेषणवाचक शब्दका प्रयोग प्राय : पहले होता है । ‘ नीलं च तत् उत्पलं च नीलोत्पलम् , महती चासौ षष्ठी च महाषष्ठी । ’ जहाँ ‘ न ’ शब्द किसी सुबन्तके साथ समस्त होता है , वह ‘ नञ तत्पुरुष ’ कहलाता है । ‘ न ब्राह्मण : अब्राह्मण : ` इत्यादि । कुम्भकार आदि पदोंनें ‘ उपपद तत्पुरुषं समास है ॥९३॥
अन्यार्थे तु बहुव्रीहौ ग्राम : प्राप्तोदको द्विज ।
पञ्चगू रूपवद्भार्यो मध्याह्न : ससुतादिक : ॥९४॥
विप्रवर ! जहाँ अन्य अर्थकी प्रधानता हो , उस समासकी बहुव्रीहिमें गणना होती है । ‘ प्राप्तम् उदकं यं स प्राप्तोदको ग्राम :’ ( जहाँ जल पहुँचा हो , वह ग्राम ‘ प्राप्तोदक ’ है ) । इसी तरह - ` पञ्च गावो यस्य स पञ्चगु : । रूपवती भार्या यस्य स रूपवदभार्य : । ’ मध्याह्न :- पद तत्पुरुष समास है । ‘ सुतेन सह आगत : ससुत :’ आदि पद बहुव्रीहि समासके अन्तर्गत हैं ॥९४॥
समुच्चये गुरुं चेशं भजस्वान्वाचये त्वट।
भिक्षामानय गां चापि वाक्यमेवानयोर्भवेत् ॥९५॥
चार्थमें द्वन्द्व समास होता है । ‘ च ’ के चार अर्थ हैं - समुच्चय , अन्वाचय , इतरेतरयोग और समाहार । परस्पर निरपेक्ष अनेक पदोंका एकमें अन्वय होना ‘ समुच्चय ’ कहलाता है । समुच्चयमें ‘ ईशं गुरुं च भजस्व ’ यह वाक्य है । इसमें ईश और गुरु दोनों स्वतन्त्ररूपसे ‘ भज ’ इस क्रियापदसे अन्वित होते हैं । ईश - पदाका क्रियाके साथ अन्वय हो जानेपर पुन : क्रियापदकी आवृत्ति करके गुरुपदका भी उसमें अन्वय होता है । यही उन दोनोंकी निरपेक्षता है । समास साकाडक्ष पदोंमें होता है । अत : समुच्चय - वाक्यमें द्वन्द्व समास नहीं होता है । जहाँ एक प्रधान और दूसरा अप्रधानरूपसे अन्वित हो , वहाँ अन्वाचय होता है - जैसे भिक्षामट गाञ्चानय ’ इस वाक्यमें भिक्षाके लिये गमन प्रधान है और गौका लाना अप्रधान या आनुषङ्गिक कार्य है । अत : एकार्थीभावरूप सामर्थ्य न होनेसे अन्वाचयमें भी द्वन्द्व समास नहीं होता । समुच्चय और अन्वाचयमें वाक्यमात्रका ही प्रयोग होता है ॥९५॥
इतरेतरयोगे तु रामकृष्णौ समाहृतौ ।
रामकृष्णं द्विज द्वौ द्वौ ब्रह्म चैकमुपास्यते ॥९६॥
उद्भूत अवयव - भेद - समूहरूप परस्पर अपेक्षा रखनेवाले सम्मिलित पदोंका एकधर्मावच्छिन्नमें अन्वय होना इतरेतरयोग कहलाता है । अत : इसमें सामर्थ्य होनेके कारण समास होता है , यथा - ‘ रामकृष्णौ भज ’ इस वाक्यमें ‘ रामश्च - कृष्णश्च रामकृष्णौ ’ इस प्रकार समास है । इतरेतरयोग द्वन्द्वमें समस्यमान पदार्थगत संख्याका समुदायमें आरोप होता है । इसलिये वहाँ द्विवचनान्त या बहुवचनान्तका प्रयोग देखा जाता है । समूहको समाहार कहते हैं । वहाँ अवयवगत भेद तिरोहित होता है । यथा -‘ रामश्च कृष्णश्चेत्यनयो : समाहार : रामकृष्णम्। ’ समाहार द्वन्द्वमें अवयवगत संख्या समुदायमें आरोपित नहीं होती । इसलिये एकत्व - बुद्धिसे एकवचनान्तका प्रयोग किया जाता है । समाहारमें नपुंसकलिङ्ग होता है । विप्रवर ! इतरेतरयोगमें राम और कृष्ण दोनों दो हैं और समाहारमें उनकी एकता है , इसलिये कि ब्रह्मरूपसे उन्हें एक मानकर उनकी उपासना की जाती है ॥९६॥