गोचरप्रकरणम्‌ - श्लोक ५५ ते ७७

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ दुष्टग्रहेषु यात्रादि वर्ज्यम्‌ । अकालचर्यों मृगया च साहसं सुदूरयांनजवाजिवाहनम्‌ । गृहे परेषां गमनं विवर्जयेह ग्रहेषु राजा विष . मस्थितेषु ॥५५॥

अथ विषमग्रहे शांतिप्रकार : । ग्रहेषु विषमस्थेषु शांतिं यत्नात्समाचरेत्‌ । हानिवृद्धि ग्रहाधीने तस्मात्पूज्यतमा ग्रहा : ॥५६॥

ये खेचरा गोचरतोऽष्टवर्गाद्दशाक्रमाद्वाऽप्यशुभा भवंति । दानादिना ते सुतरां प्रसन्नास्तेनाधुना दानविधिं प्रवक्ष्ये ॥५७॥

तत्रादौ दानकाल : । बुधस्य घटिका : पंच सौरेर्मध्याह्नमेव च । राहुकेत्वोश्व रात्रौ च जीवे चन्द्रे च संध्ययो : ॥५८॥

उदये सूर्यशुक्रौ च भौमे च घटिकाद्वये । समे काले न कर्तव्यं दातृणां प्राणघातका : ॥५९॥

अथ सूर्यादिग्रहाणां दानानि । तत्रादौ सूर्यस्य । माणिक्यगोधूमसवत्सधेनु : कौसुंभवासोगुडहेमताम्रम्‌ । आरक्तकं चन्दनमंबुंज च वंदति दानं हि विरोचनाय ॥६९॥

( अशुम ग्रहोंमें यात्रा आदि करना निषेध ) यदि जन्मराशिसे ग्रह दुष्टस्थानमें हो तो रात्रि आदिमें फिरना तथा शिकार खेलना , हठ करना , दूरदेशमें जाना , हाथी घोडे आदिपर चढना , दूसरेके घरमें जाना इत्यादि काम कादापि नहीं करना चाहिये ॥५५॥

( दुष्टग्रहोंकी शांतिका प्रकार ) यदि अशुभ ग्रह हो तो शांति जरूर करना योग्य है , कारण , हानि और वृद्धि ग्रहोंके ही अधीन हैं , इस वास्ते अवश्य ग्रहोंका पूजनादि करे ॥५६॥

जो ग्रह गोचरसे , या अष्टवर्गसे . या दशासे अशुभ हैं वे दानोंके देनेसे शुभ होते हैं इस वास्ते दान लिखते हैं ॥५७॥

( दानका काल ) बुधका दान पांच ५ घडी दिन चढे देना और शनैश्वरका मध्याहमें , राहु , केतुका रात्रिमें , और बृहस्पति , चंद्रमाका संध्याकालमें देना चाहिये ॥५८॥

सूर्य , शुक्रका सूयोंदयमें , मंगलका दो घडी दिन चडे दान करे परन्नु विषम कालमें नहीं करे क्योंकि देनेवालेका प्राण हरते हैं ॥५९॥

( सूर्यादि ग्रहोंका दान ) माणिक्य , गोधूम . वछडेसहित धेनु कौसुंभ ( रक्त ) वस्त्र , गुड , सुवर्ण , ताम्र , रक्तचन्दन , कमल . यह सूयका दान है ॥६०॥

चंद्रस्य । सद्वंशपात्रस्थिततण्डुलांश्व कर्पूरमुक्ताफलशुभ्रवस्रम्‌ युगोपयुक्तं वृषभं च रौप्यं चन्द्राय दद्याड्‌ घृतपूर्णकुम्भम्‌ ॥६१॥

भौमस्य । प्रवालगोधूममसूरिकाश्व वृषो‍ऽरुणश्वापि गुड ; सुवर्णम्‌ । आरक्तवस्त्रं करवीरपुष्पं ताभ्रं च भौमाय वंदति दानम्‌ ॥६२॥

वुधस्य । चैलं च नीलं कलधौतकांस्यं मुद्राज्यगारुत्मतसर्वपुष्पम्‌ । दासी च दंतो द्विरदस्य नूनं वदंति दानं विधुनन्दनाय ॥६३॥

बृहस्पते : । शर्करा च रजनी तुरंगम : पीतधान्यमपि पीतमंबरम्‌ । पुष्परागलवणं सकांचनं प्रीयते सुरगुरो : प्रदीयते ॥६४॥

शुक्रस्य । चित्रांबरं शुभ्रतुरंगमं च धेनुश्च वज्रं रजतं सुवर्णम्‌ । सत्तंडुलानुत्तमगंधयुक्तं वदंति दानं भुगुनंदनाय ॥६५॥

शनैश्चरस्य । माषाश्व तलैं विमलेंद्रनीलं तिला : कुलित्था महिषी च लपेहम्‌ । कृष्णा च धेनु : प्रवदन्ति नूनं दुष्टाय दानं रविनंदनाय ॥६६॥

राहो : । गोमेदरत्नं च तुरंगमश्व सुनीलचैलामलकंबलं च । तिलाश्व तैलं खलु लोहमिश्रं स्वर्भानवे दानमिदं वदंति ॥६७॥

केतो : । वैदूर्यरत्नं सतिलं च तैलं सुकंबलाश्वापि मदो मृगस्य । शस्त्रं च केतो : परितोषहेतोश्छांगस्य दानंकथितं मुनींद्रै : ॥६८॥

उत्तम वंशके पात्रमें रखा हुआ चावल , कपूर , मोती , श्वेतवस्त्र , वृषभ , चांदी , घृतसे भरा हुआ कुम्म यह चंद्रमाके दान हैं ॥६१॥

मूँगा , गोधूम , मसूर , लाल वृषभ , मुड , सुवर्ण , रक्तवस्त्र , कनेरके रक्त पुष्प , ताम्र यह मंगलका दान जानना ॥६२॥

नीलवस्त्र , सुवर्ण , कांसी , मूँग , घृत , गेरू , पुष्प , दासो , हाथीदांत यह बुधके दान हैं ॥६३॥

शर्करा , हरिद्रा , घोडा , पीत धान्य , पीत वस्र , पुष्पराग , नोन , सुवर्ण , यह बृहस्पतिके दान हैं ॥६४॥

चित्रबिचित्र वस्त्र , श्वेत घोडा . धेनु , हीरा , चांदी , सुवर्ण , चावल , चन्दन यह शुक्रके दान कहते हैं ॥६५॥

माष , तिलोंका तेल , नीलमणि , तिल , कुलथी , महिषी . लोह , कृष्णा धेनु , यह शनिके दान हैं ॥६६॥

लहशनियाँ रत्न , घोडा , नीलवस्त्र , आंबला , कंबल , तिल , तेल लोह यह राहुके दान हैं ॥६७॥

वैदूर्यमाणि , तिल , तेल कंबल , कस्तूरी , शस्त्र , छाग ( बकरा ) यह केतुके प्रसन्नता करनेवाले दान हैं ॥६८॥

अथ साधारणदानानि ॥ भानुस्तांबुलदानादपहरति नृणां वैकृतं बासरोत्थं सोम : श्रीखण्डदानादवनिवरसुतो भोजनात्पुण्यदानात्‌ । सौम्य : शास्त्रस्य मन्त्राद्‌ गुरुहरभजनाद्भार्गव : शुश्ववस्त्रात्तैलस्नानात्प्रभाते दिनकरतनयो ब्रह्मनत्या पर च ॥६९॥

अथ ग्रहशांत्यर्थं रत्नादिधारणम्‌ ॥ धार्यं तुष्टयै विद्रुमं भौमभान्वो रूप्यं शुक्रेंद्वोश्व हेमेंदुजस्य । मुक्त सूरेर्लोहमर्कात्मजस्य लाजावर्त : कीर्त्तित : शेषयोश्व ॥७०॥

अथ ग्रहाणां जपसंख्या । रवे : सप्त सूहस्त्राणि चन्द्रस्यैकादशैव तु । भौमे दश सहस्त्राणि बुधे चाष्टसहस्त्रकम्‌ ॥७१॥

एकोनविंशतिजींवे शुक्र एकादशैव तु । त्रयोविंशति मन्दे च राहोरष्टादशैव तु । केतो : सप्त सहस्राणि जपसंख्या प्रकीर्त्तिता ॥७२॥

( साधारण दान ) सूर्य तांबूलके दानसे दिनभरकी पीडा दूर करता है , चंद्रमा चन्दनके दानसे और मंगल ब्राह्मण भोजनसे , बुध शास्त्र और मन्त्रोंसे , गुरु शिवपूजनसे , शुक्र श्वेतवस्त्रके दानते और शनैश्वर तेलके मालिशसे तथा राहु , केतु ब्राह्मण को नमस्कार करनेसे शांत होते हैं ॥६९॥

( ग्रह शांतिकारक रत्न ) मंगल सूर्यकी प्रीतिके अर्थ मूँगा धारण करना चाहिये और शुक्र चन्द्रमाके अर्थ चांदी और बुधके अर्थ सुवर्ण तथा गुरुके अर्थ मोती और शनिकी प्रीतिके अर्थ लोह तथा राहु , केतुके अर्थ लाजावर्त धारण करे ॥७०॥

( ग्रहजपसंख्या ) सूर्यके ७००० चन्द्रमाका ११००० . मंगलका १०००० . बुधका ८००० . गुरुका १९००० . शुक्रका ११००० . शनैश्वरका २३००० . राहुका १८००० . और केतुका ७००० जप करना चाहिये , परन्तु कलियुरामें चौगुणा जय करनेसे शांति होती है ( कलौ संख्या चतुर्गुणा ) इस वाक्यसे ॥७०॥७१॥

अथ ग्रहपीडोपशमनोपाया : । देवब्राह्मणबंदनादू गुरुवच : संपादनात्प्रत्यहं साधूनामपि भाषणाच्छुतिर वश्रेय : कथाकारणात्‌ । होमादध्वरदर्शनाच्छुचिमनोभावाज्जपाद्दानतो नो कुर्वंति कदाचिदेव पुरुषस्यैवं ग्रह : पीडनम्‌ ॥७३॥

अथ ग्रहणनक्षत्रफलम्‌ । यस्यैवं जन्मनक्षत्रे ग्रस्येते शशिभास्करौ । तज्जातानां भवेत्पीडा ये नरा : शांतिवर्जिता : ॥७४॥

जन्मसप्ताष्टरि : फांकदशमस्थे निशाकरे । द्दष्टोऽरिष्टप्रदो राहुर्जन्मर्क्षे निधनेऽपिच ॥७५॥

अथ जन्मराश्यादो ग्रहणशांति : । सुवर्णनिर्मितं नागं सतिलं कांस्यभाजनम्‌ । सदक्षिण सवस्त्रं च ब्राह्मणाय निबेदयेत्‌ ॥७६॥

सौवर्णं राजतं वाऽपि बिंबं कृस्वा स्वशक्तित : । उपरागभवक्लेशच्छिदे विप्राय कल्पयेत्‌ ॥७७॥

इति श्रीरत्नगढनगरनिवासिना पंडितगौडश्रीचतुर्थीलालशर्मणा विरचिते

मुहूर्त्तप्रकाशेऽदभुतनिबन्धे तृतीयं गोचरप्रकरणम्‌ ॥३॥

( ग्रहोंके शांतिका उपाय ) देव और ब्राह्मणोंके वंदनासे तथा गुरुके बाक्य श्रवण करनेसे , नित्यप्रति साधुओंके संभाषणसे और वेदध्यनि सुननेसे , उत्तम कथा करनेसे होम यज्ञोंके दर्शनसे , शुद्ध मनसे तथा भावना जप दानोंसे ग्रहोंकी शांति होती है और ग्रह पीडा नहीं करते हैं ॥७३॥

( ग्रहणफल ) जिनके जन्मनक्षत्रपर चन्द्रमा सूर्यका ग्रहण होता है उस नक्षत्रवालोंको पीडा होती है ॥७॥

और जन्मराशिको तथा सातवीं ७ , आठवीं ८ , बारहवीं १२ , नौवीं ९ , दशवीं १० , राशिको ग्रहण हो तो ग्रहण देखना नहीं चाहिसे यदि देखे तो अरिष्ट होता है ॥७५॥

( ग्रहणशांति ) सुवर्णका नाग ( सर्प ) वनाके तिलपूरित कांसीके पात्रमें स्थापन करे फिर दक्षिणा और वस्त्रसहित ब्राह्मणको दे देवे ॥७६॥

अथवा सूर्यग्रहणमें सुवर्णका सूर्य और चन्द्रग्रहणमें चान्दीका चन्द्रमा बनाके भक्तियुक्त शक्तिके अनुसार ब्राह्मणको देवे तो ग्रहणकी पीडा नहीं होवे ॥७७॥

इति श्रीमुहूर्त्तप्रकाशे तृतीयं गोचरप्रकरणम्‌ ॥३॥

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Last Updated : November 11, 2016

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